गाँधी की रामधुन एवं राष्सिवा, श्री गांधी जी का कुदरती इलाज़ राम धुन एवं राम नाम मे छुपा
कुदरती इलाज़ की प्रक्रिया मे रामनाम को गांधी जी रोग मिटाने वाला मानते हैं। इस बारें मे वह लिखते हैं कि वैद्यराज़ श्री गणेश प्राकृतिक उपचार के इलाज़ मे सबसे समर्थ इलाज़ राम नाम है। इसमे अचंभे की कोई बात ही नहीं है। एक प्रकरण का ज़िक्र करते हुये गांधी जी कहते हैं कि एक मशहूर वैद्य ने अभी मुझसे कहा कि मैंने अपनी सारी ज़िंदगी मेरे पास आने वाले बीमारों को तरह तरह की दवा की पुड़िया देने मे बितायी हैं। लेकिन जब आपने शरीर के रोगों को मिटाने के लिये राम नाम की दवा बतायी हे, तब मुझे याद पड़ा कि चरक और वाग्भट्ट जेसे शास्त्री मुझसे कहते हें कि इसके _छ अमित त्यागी हमारे पुराने धन्व॑तरियों के वचनो से भी आपकी बात की पुष्टि मिलती हे।
संबंध का और इससे मिलता जुलता साहित्य आध्यात्मिक रोगों(आधियों) को मिटाने के लिये राम नाम के जप का इलाज़ बहुत आयुर्वेद मे काफी पाया जाता हे। रोग को मिटाने पुराने जमाने से यहाँ होता आया हे लेकिन चूंकि, बड़ी चीज़ मे छोटी चीज़ भी समा मे कुदरती इलाज़ का अपना बड़ा स्थान है और उसमे भी राम नाम विशेष हे। हमे यह मानना चाहिए कि जिन दिनो चरक, वाग्भट्ट वगेरह ने लिखा है उन दिनो ईश्वर को राम नाम को पहचानने की रूढ़ि नहीं पड़ी थी। उस समय विष्णु के नाम की महिमा थी। आगे गांधीजी बताते हैं कि मैंने तो बचपन से ही रामनाम के जरिये ईश्वर को भजा है। राम धुन को माध्यम बनाया हे। लेकिन में ये भी जानता हूँ कि ईश्वर को 3 नाम से भजो या संस्कृत से या देश मे उपलब्ध किसी भी अन्य भाषा से परिणाम एक ही होता हे। ईश्वर को नाम की जरूरत नहीं है। वह और उसका कायदा एक ही है।
ईश्वर को नाम की जरूरत नहीं है। ईश्वर नाम दवाओं की एक दवा है। हम न ईश्वर को पहचानते हैं और न ही निरंतरता के साथ राम नाम जपते हैं। यदि जपते हैं तो जबान सेजपते हैं दिल से नहीं। ऐसा करने मे हम तोते की ज़बान की नक़ल तो करते हैं उसके स्वभाव का अनुसरण नहीं। शायद यही कारण हे कि हम राम धुन के माध्यम से निरोगी होने का मंत्र नहीं जान पाते। ऐसे लोग ईश्वर को सर्वरोगहारी के रूप मे नहीं 'पहचानते ? और पहचाने भी तो कैसे ? यह दवा न तो वैद्य देते हैं न ही हकीम और न डॉक्टर। खुद वेद्यो, हकीमो, और डॉक्टरों को भी इस पर आस्था नहीं।
यदि वे बीमारी कोघरबेैठे गंगा सी यह दवा दे दें तो उनका धंधा कैसे चले। शायद इसलिए लोगों की जाती है, इसलिए मेरा ये दावा हे कि हमारे शरीर की बीमारियों को दूर करने के लिये भीरामनामका जप सब इलाज़ो का इलाज़ हे। कोई भी प्राकृतिक उपचार अपने बीमार को यह नहीं कहेगा कि तुम मुझे बुलाओ तो मैं तुम्हारी सारी बीमारी दूर कर दूंगा। उपचार बीमार को सिर्फ ये बता सकता है कि प्राणी मात्र मे रहने वाला और सब बीमारियों को मिटाने वाला तत्व कौन सा है ? और किस तरह उस तत्व को जागृत किया जा सकता है। अगर आज हिंदुस्तान इस तत्व की ताक़त को समझ जाये तो हम आज़ाद तो हो ही जाये लेकिन उसके अतिरिक्त आज हमारा जो देश बीमारियों और कमजोर तबीयतवालों का घर बन बैठा हे वह तंदुरुस्त और ताकतवर शरीरवाले लोगों का देश बन जाये। राम नाम की शक्ति की अपनी कुछ मर्यादा हे और उसके कारगर होने के लिये कुछ शर्तों का पूरा होना जरूरी है।
रामनाम कोई जंतर मंत्र या जादू टोना नहीं है। जो लोग खा खा कर खूब मोटे हो गए हैं और जो अपने मुटापे की और उसके साथ बढ़ने वाली बादी की आफत से बच जाने के बाद फिर तरह तरह के पकवानो का मज़ा चखने के लिये इलाज़ की तलाश मे रहते हैं, उनके लिये राम नाम किसी काम का नहीं है। रामनाम का उपयोग अच्छे काम के लिये होता है। बुरे कामों के लिये होता तो चोर और डाकू सबसे बड़े राम भक्त बन जाते और हर समय राम धुन गाते रहते। राम नाम उनके लिये हे जो दिल से साफ हैं और दिल की सफाई करके हमेशा पाक साफ रहना चाहते हैं। भोग विलास नज़र मे पुड़िया और शीशी ही राम बाण दवा है। जबकि वास्तविकता यह है कि सच्चे मनसे राम धुन के माध्यम से राम का नाम जपा जाये तो ये ज़्यादा कारगर है। पर दवा देने से रोगी को मानसिक संतुष्टि मिलती है और हाथों हाथ फल भी देखने को मिलता है। जैसे फलां फलां ने मुझे चूरन दिया और में अच्छा हो गया। इस तरह से व्यापार चल निकलता है। हरिजन सेवक के २४ मार्च १९४६ के अंक मे गांधी जी लिखते हैं।
वैद्यो और डॉक्टरों के राम नाम रटने की सलाह देने से रोगी का दुख दूर नहीं होता। जब वैद्य स्वयं उसके चमत्कार को जानता हो, तभी रोगी को भी उसके चमत्कार कापता चलता है। राम नाम पोथी का बैंगन नहीं, वह तो अनुभव की प्रसादी है। जिसने उसका अनुभव प्राप्त किया है, वही वह दवा दे सकते है, अन्य नहीं। वैद्यराज़ ने मुझे चार मंत्र लिखकर दिये हैं। उनमे चरक ऋषि का मंत्र सीधा और सरल है। उसका अर्थ यूं है : चराचर के स्वामी विष्णु के हज़ार नामों से एक का भी जप करने से सबरोगशांत होते हैं।
विष्णुम सहस्त्रमूर्धानाम चराचरपतिविभूम।
स्तुवन्नामसहस्त्रेन ज्वरान सर्वान व्यपोहति ॥
शक्ति या सुविधा पाने के लिये राम नाम कभी साधन नहीं बन सकता है।
“बादी का इलाज़ रामनाम नहीं उपवास है। उपवास का काम पूरा होने पर प्रार्थना का काम शुरू होता है। सच यह हे कि प्रार्थना से उपवास का काम आसान और हल्का हो जाता हे। जो डाक्टर बीमार की बुराइयों को बनाए रखने या उन्हे सहेजने मे अपनी होशियारी का उपयोग करता हे वह खुद गिरता हे और अपने बीमार को भी नीचे गिराता है। अपने शरीर को अपने सृजनहार की पूजा के लिये मिला हुआ एक साधन समझने के बदले उसी की पूजा करने और उसको किसी भी तरह बनाए रखने के लिये पानी की तरह पैसा बहाने से बढ़कर बुरी गत और क्या हो सकती है ? राम नाम रोग को मिटाने के साथ ही साथ आदमी को भी शुद्ध बनाता है। यही राम नाम का उपयोगहे और यही उसकी मर्यादा है घ। (हरिजन सेवक, ७ अप्रैल १९४६) इसी क्रम मे आगे हिन्दी नवजीवन के ६ अक्तूबर १९२७ को प्रकाशित अपने लेख मे महात्मा गांधी कहते हैं कि हमें शरीर के बदले आत्मा के चिकित्सकों की जरूरत हे।
अस्पतालों और डाकटरों की वृद्धि कोई सच्ची सभ्यता की निशानी नहीं है। हम अपने शरीर से जितनी कम मोहब्बत करें, उतना ही हमारे और सारी दुनिया के लिये अच्छाहै। इस विचार के बीस साल बाद १५ जून १९४७ को हरिजन सेवक के अंक मे गांधी जी कहते हैं कि आपको यह जानकार खुशी होगी कि चालीस साल पहले जब मैंने प्राकृतिक उपचार के इलाज़ मे सबसे समर्थ इलाज़ राम नाम है। इसमे अचंभे की कोई बात ही नहीं है। एक प्रकरण का ज़िक्र करते हुये गांधी जी कहते हैं कि एक मशहूर वैद्य ने अभी मुझसे कहा कि मैंने अपनी सारी ज़िंदगी मेरे पास आने वाले बीमारों को तरह तरह की दवा की पुड़िया देने मे बितायी हैं। लेकिन जब आपने शरीर के रोगों को मिटाने के लिये राम नाम की दवा बतायी हे, तब मुझे याद पड़ा कि चरक और वाग्भट्ट जेसे हमारेपुराने धन्वंतरियों के वचनो से भी आपकी बात की पुष्टि मिलती हे। आध्यात्मिक रोगों( आधियों) को मिटाने के लिये राम नाम के जप का इलाज़ बहुत पुराने जमाने से यहाँ होता आया हे लेकिन चूंकि, बड़ी चीज़ मे छोटी चीज़ भी समा जाती है, इसलिए मेरा ये दावा हे कि हमारे शरीर की बीमारियों को दूर करने के लिये भीरामनामका जप सब इलाज़ो का इलाज़ हे। कोई भी प्राकृतिक उपचार अपने बीमार को यह नहीं कहेगा कि तुम मुझे बुलाओ तो मैं तुम्हारी सारी बीमारी दूर कर दूंगा। उपचार बीमार को सिर्फ ये बता सकता हे कि प्राणी मात्र मे रहने वाला और सब बीमारियों को मिटाने वाला तत्व कौन सा है ? और किस तरह उस तत्व को जागृत किया जा सकता है।
आज हिंदुस्तान इस तत्व की ताक़त को समझ जाये तो हम आज़ाद तो हो ही जाये लेकिन उसके अतिरिक्त आज हमारा जो देश बीमारियों और कमजोर तबीयतवालों का घर बन बेठा हे वह तंदुरुस्त और ताकतवर शरीरवाले लोगों का देश बन जाये। राम नाम की शक्ति की अपनी कुछ मर्यादा है और उसके कारगर होने के लिये कुछ शर्तों का पूरा होना जरूरी है। रामनाम कोई जंतर मंत्र या जादू टोना नहीं है। जो लोग खा खा कर खूब मोटे हो गए हैं और जो अपने मुटापे की और उसके साथ बढ़ने वाली बादी की आफत से बच जाने के बाद फिर तरह तरह के पकवानो का मज़ा चखने के लिये इलाज़ की तलाश मे रहते हैं, उनके लिये राम नाम किसी काम का नहीं है। रामनाम का उपयोग अच्छे काम के लिये होता है। बुरे कामों के लिये होता तो चोर और डाकू सबसे बड़े राम भक्त बन जाते और हर समय राम धुन गाते रहते। राम नाम उनके लिये हे जो दिल से साफ हैं और दिल की सफाई करके हमेशा पाक साफ रहना चाहते हैं।
भोग विलास की शक्ति या सुविधा पाने के लिये राम नाम कभी साधन नहीं बन सकता हे। “बादी का इलाज़ रामनाम नहीं उपवास है। उपवास का काम पूरा होने पर प्रार्थना का काम शुरू होता हे। सच यह हे कि प्रार्थना से उपवास का काम आसान और हल्का हो जाता है। जो डाक्टर बीमार की बुराइयों को बनाए रखने या उन्हे सहेजने मे अपनी होशियारी का उपयोग करता हे वह खुद गिरता हे और अपने बीमार को भी नीचे गिराता हे। अपने शरीर को अपने सृजनहार की पूजा के लिये मिला हुआ एक साधन समझने के बदले उसी की पूजा करने और उसको किसी भी तरह बनाए रखने के लिये पानी की तरह पैसा बहाने से बढ़कर बुरी गत और क्या हो सकती है ? राम नाम रोग को मिटाने के साथ ही साथ आदमी को भी शुद्ध बनाता है। यही राम नाम का उपयोगहे और यही उसकी मर्यादा है घ। (हरिजन सेवक, ७ अप्रैल १९४६) इसी क्रम मे आगे हिन्दी नवजीवन के ६ अक्तूबर १९२७ को प्रकाशित अपने लेख मे महात्मा गांधी कहते हैं कि हमें शरीर के बदले आत्मा के चिकित्सकों की जरूरत हे। अस्पतालों और डाकटरों की वृद्धि कोई सच्ची सभ्यता की निशानी नहीं है। हम अपने शरीर से जितनी कम मोहब्बत करें, उतना ही हमारे और सारी दुनिया के लिये अच्छा है।
विचार के बीस साल बाद १५ जून १९४७ को हरिजन सेवक के अंक मे गांधी जी कहते हैं कि आपको यह जानकार खुशी होगी कि चालीस साल पहले जब मैंने | की “न्यू साइंस ऑफ हीलिंग” और जस्ट की “रिटर्न तो नेचर” नाम की किताबें पढ़ी, तभी से कुदरती इलाज़ का पक्का हिमायती हो गया था लेकिन मुझे यह कबूल करना चाहिए कि तब में “रिटर्न तू नेचर” का पूरा अर्थ नहीं समझ सका हूँ। अब में कुदरती इलाज़ का ऐसा तरीका खोजने की कोशिश कर रहा हूँ जो हिंदुस्तान के करोड़ों गरीबों को फायदा पहुचा सके। इस इलाज़ से मनुष्य मे कुदरतन ये बात समझ आ जाती हे कि दिल से भगवान का नाम लेना ही सारी बीमारियों का सबसे बड़ा इलाज़ है। इस भगवान को हिंदुस्तान मे कुछ करोड़ लोग राम के नाम से जानते हैं और दूसरे कुछ करोड़ अल्लाह के नाम से पहचान ते हैं। “रघुपति राघव राजाराम” राम धुन एक ऐसा माध्यम है जो निरोगी काया का रामबाण अचूक इलाज़ हे।
गांधी जी कहते हैं कि अगर हम अपने दिल से डर का तत्व दूर कर दें तो हम स्वयं 'की मदद कर सकते हैं। ऐसी कौन सी जादुई वस्तु है जो हमारे अंदर के डर को दूर 'कर सकती है। गांधी जी के प्रयोगों के आधार पर देखा जाये तो वह है रामनाम का अमोघ मंत्र। राम नाम के बगैर इंसान एक सांस नहीं ले सकता हे। गांधी के राम अनादि हें। अनंत हें। निरंजन हैं। निराकार हे। हम चाहें उसे ईश्वर कहें, अल्लाह कहें या गॉड। हमें उस पर विश्वास करना होगा। राम धुन के माध्यम से या अन्य किसी भी पवित्र माध्यम से उसे स्वयं के भीतर आत्मसात करना होगा। एक प्रकरण मे गांधी जी रुँधे गले से बताते हें कि बचपन मे वे बहुत डरपोक थे और उन्हे परछाई से भी डर लगता था। उन दिनो उनकी दाई रंभा ने उन्हे राम नाम का मंत्र सिखाया था। उस दिन से राम नाम उनके लिये एक अचूक मंत्र बन गया हे। आगे गांधी जी कहते हैं कि रामनाम पवित्र लोगों के दिल मे हमेशा रहता है। जिस तरह बंगाल मे श्री चेतन््य और श्री रामकृष्ण का नाम मशहूर हे, उसी तरह काश्मीर से कन्या कुमारी तक हर एक हिन्दू घर जिनके नाम से वाकिफ हे उन भक्त शिरोमणि तुलसीदास ने अपने महाकाव्य मे हमको राम नाम का मंत्र दिया हे।
अगर आप राम नाम से डर कर चले तो तो दुनिया मे आपको कया राजा, क्या रंक, किसी से डरने की जरूरत नहीं हे। “अललाहो अकबर” की पुकारों से आपको क्यों डरना चाहिए ? इस्लाम का अल्लाह तो बेगुनाहों की हिफाज़त करने वाला है। पूर्वी बंगाल मे हुयी वारदातों को पैगंबर साहब का इस्लाम कबूल नहीं करता। “अगर ईश्वर मे आपकी श्रद्धा हे तो किसकी ताकत हे कि आपकी औरतों और लड़कियों की इज्ज़त पर हाथ डाले ? इसलिए मुझे उम्मीद हे कि आप लोग मुसलमानों से डरना छोड़ देंगे। अगर आप रामनाम मे विश्वास करते हैं तो आपको पूर्वी बंगालछोडने की बात नहीं करनी चाहिए। खतरे का सामना करने के बदले उससे दूर भागना, इंकार करना। उस श्रद्धा से इंकार करना है, जो मनुष्य की मनुष्य पर, ईश्वर पर और अपने आप पर रहती है। अपनी श्रद्धा का ऐसा दिवाला निकालने से बेहतर तो यह हे कि इंसान डूब कर मर जाये।” (हरिजन सेवक, २४ नवम्बर १९४६) एक अन्य पत्र मे गांधी जी कहते हैं कि जो कुछ करना हे, उसके लिये पश्चिम की तरफ नज़र दौडाये और वहाँ से हर बात सीखें तो मुझे नहीं लगता कि वह भारत के काम का होगा। वहम से बाहर आते हुये वह रामनाम हम सबके बीच भीतर ही मौजूद है।
राम नाम लेना सीखने के लिये विलायत जाना जरूरी हो तब तो हम कहीं के भी न रहें। एक सहज बात समझ मे आना बेहद आवश्यक हे कि पृथ्वी, पानी, आकाश, तेज़, और वायु के ज्ञान के लिये समुन्द्र पार जाने की जरूरत हो ही नहीं सकती। हमें जो सीखना हे वह यहीं हे, हमारे गाँवों मे है।यदि किसी देश के करोड़ों लोग एक ही ध्वनि के साथ एक ही मंत्र का जाप करेंगे तो उसकी गूंज पूरे विश्व मे सुनी जाएगी। रघुपति राघव राजाराम, पतित पावन सीताराम का जाप अगर नियमित तौर पर निरंतरता के साथ किया जायेगा तो यह संगठित राष्ट्रवाद को मजबूती प्रदान करेगा। इसके साथ ही गांधी जी के राष्ट्रवाद मे कर्म को भी महत्व दिया गया है। इस संबंध मे एक बार उनसे प्रश्न किया गया था कि क्या किसी पुरुष या स्त्री को राष्ट्रिय सेवा मे भाग लिए बिना राम नाम के उच्चारण मात्र से आत्म दर्शन प्राप्त हो सकता है ? प्रश्न पूछने वाले ने आगे फिर प्रश्न किया कि मेरी कुछ बहने कहा करती हैं कि हमको गृहस्थी के काम काज करने तथा यदा-कदा दीन दुखियों के प्रति दयाभाव दिखाने के अतिरिक्त और किसी काम की जरूरत नहीं है ? गांधी जी के द्वारा इस प्रश्न का उत्तर ऐसे दिया गया।“इस प्रश्न ने केवल स्त्रियाँ को ही नहीं बल्कि बहुत से पुरुषों को भी उलझन में डाल रखा हे और मुझे भी इसने धर्म संकट मे डाला है। मुझे यह बात मालूम हे कि कुछ लोग इस सिद्धान्त के मानने वाले हैं कि काम करने की कतई जरूरत नहीं है और परिश्रम मात्र व्यर्थ हे। में इस ख्याल को बहुत अच्छा तो नहीं कह सकता हूँ।
अलबकत्ता, अगर मुझे उसे स्वीकार करना ही हो, तो में उसके अपने ही अर्थ लगाकर उसे स्वीकार कर सकता हूँ। मेरी नम्र सम्मति यह हे कि मनुष्य के विकास के लिए परिश्रम करना अनिवार्य है। फल का विचार किये बिना परिश्रम करना आवश्यक है। रामनाम या ऐसा ही कोई पवित्र नाम जरूरी हे-महज लेने के लिए ही नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि के लिए, प्रयत्नों को सहारा पहुचाने के लिये और ईश्वर से सीधे सीधे रहनुमाई पाने के लिये। इसलिए राम नाम का उच्चारण कभी परिश्रम के बदले काम नहीं दे सकता हे। वह तो परिश्रम को अधिक बलवान बनाने और उसे उचित मार्ग पर ले चलने के लिये है। यदि परिश्रम मात्र व्यर्थ हे तो फिर घर गृहस्थी की चिंता क्यों ? और दीन दुखियों की यदा कदा सहायता किस लिये। इसी प्रयत्न मे राष्ट्रसेवा का अंकुर भी मौजूद हे। मेरे लिये तो राष्ट्रसेवा का अर्थ मानव जाति की सेवा है। यहाँ तक कि कुटुंब की निर्लिप्त भाव से की गयी सेवा भी मानव जाति की सेवा है। इस प्रकार की कौटुंबिक सेवा अवश्य ही राष्ट्रसेवा की और ले जाती हे।
रामनाम से मनुष्य मे अनासक्ति और समता आती हे, रामनाम कभी उसे आपत्तिकाल मे धर्मच्युत नहीं होने देता। गरीब से गरीब लोगों की सेवा किये बिना या उनके हित मे अपना हित माने बिना मोक्ष पाना में असंभवमानता हूँ।” (हिन्दी नवजीवन, २१ अक्तूबर १९२६) इस तरह से रामनाम और रामधुन का सार निकलता हे कि 'गांधी के राम' सिर्फ भगवान की भक्ति की आड़ मे कर्म को पीछे छोड़ने वालों के समर्थक नहीं है। प्राणी मात्र के लिये सेवाकार्य एवं कर्मयोग एक आवश्यक शर्त है। गांधी जी कहते हैं कि कठिन सेवाकार्य हो या उससे भी कठिन अवसर हों, तो भी भगवदभक्ति यानि रामनाम बंद हो ही नहीं सकता हे। हालांकि, उसका वाह्य रूप प्रसंग के मुताबिक बदलता रहेगा। माला छूटने से रामनाम, जो हृदय में अंकित हो चुका हे, थोड़े ही छूट सकता हे।