तुलसीदास जी के सपनों का समाज

डॉ. ओंकारनाथ त्रिपाठी वर्तमान परिवेश में तुलसीदास जी की समाज विषयक अवधारणा को केंद्र में रखकर सार्वजनिक रूप से कोई वक्तव्य देना अथवा कुछ लिखकर उसे प्रसारित करना खतरों से खेलने के समान है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुलसीदास जी की स्वीकार्यता किसी बड़े से बड़े कवि, समाज सुधारक अथवा राजनेता से कहीं ज्यादा […] The post तुलसीदास जी के सपनों का समाज appeared first on VSK Bharat.

Jul 30, 2025 - 14:53
 0

डॉ. ओंकारनाथ त्रिपाठी

वर्तमान परिवेश में तुलसीदास जी की समाज विषयक अवधारणा को केंद्र में रखकर सार्वजनिक रूप से कोई वक्तव्य देना अथवा कुछ लिखकर उसे प्रसारित करना खतरों से खेलने के समान है। इसमें कोई संदेह नहीं कि तुलसीदास जी की स्वीकार्यता किसी बड़े से बड़े कवि, समाज सुधारक अथवा राजनेता से कहीं ज्यादा है। हमारी जानकारी में उत्तर भारत में तुलसीकृत रामायण से ज्यादा पढ़ा और सुना जाने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ दुर्लभ है। इसके बावजूद तुलसीदास प्रायः विवादों के केंद्र में बने रहते हैं। रामचरितमानस के किसी न किसी अंश को लेकर आए दिन विवाद खड़ा किया जाता है। पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ के लोग अपने राजनीतिक लाभ-हानि के मद्देनजर कुछ न कुछ बोलते रहते हैं। इसलिए तुलसीदास के सामाजिक विचारों को सही परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी हो गया है।

तुलसीदास के साहित्य में, विशेषकर उनके कालजयी ग्रन्थ रामचरितमानस में आदर्श समाज का जो खाका खींचा गया है, उसे बहुत सावधान होकर समझने की जरूरत है। मानस की रचना, नि:संदेह, उस समय की प्रचलित बोलचाल की भाषा में हुई है, परन्तु उस पर संस्कृत का बहुत गाढ़ा रंग चढ़ा हुआ है। ग्रन्थ की विषय वस्तु का संग्रह जहाँ से किया गया है, अर्थात् उसकी जो आधारभूत सामग्री है, वह सब संस्कृत में है। इसलिए मानस की भाषा अवधी होते हुए उसमें संस्कृत के परंपरागत पारिभाषिक शब्दों की भरमार है। उन शब्दों को आजकल की प्रचलित भाषा में रूपांतरित करके समझना पड़ेगा। इसके लिए पर्याप्त धैर्य और सहनशीलता की जरूरत है। वेद, पुराण, रामायण में जिनकी रुचि नहीं है, अथवा जो उनमें आए शब्दों को सुनने भर से बिदक उठते हैं, तुलसीदास की कल्पना का आदर्श समाज उनके गले से नीचे नहीं उतर सकता।

जिस कालखंड में गोस्वामी जी का आविर्भाव हुआ, वह आर्यावर्त के हजारों साल पुराने इतिहास का असाधारण एवं अभूतपूर्व कालखंड था। उत्तर भारत में मुगल शासन पूरी तरह से स्थापित हो चुका था, समाज के प्रबुद्ध वर्ग के मन पर अपनी परम्परागत सभ्यता-संस्कृति की संरक्षा और सुरक्षा को लेकर भय तथा आशंका के बादल घने होते जा रहे थे। भारत में विदेशियों का आना और यहाँ स्थायी रूप से बस जाना कोई नई तथा चौंकाने वाली घटना नहीं थी। मुसलमानों से पहले भी भारत में समय-समय पर विदेशियों का आना हुआ, परन्तु कुछ समय बाद उन्होंने यहां के स्थानीय समाज में अपना विलय कर दिया। बाहर से आए लोग यहाँ इस तरह समरस हो गए जैसे चीनी पानी में घुल जाती है। मुसलमानों के रूप में पहली बार भारतीयों का सामना एक ऐसे समुदाय से हुआ जो यहाँ की स्थापित संस्कृति में घुलने-मिलने को तैयार न था। इसके विपरीत उसकी रुचि इस बात में ज्यादा थी कि जैसे भी हो, यहां के स्थानीय लोगों को इस्लाम कबूल करने के लिए राजी किया जाए। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहें तो हिन्दुओं को सामूहिक रूप से मुसलमान बनाने में उनकी रुचि ज्यादा थी। यह समस्या इतने गम्भीर रूप में इससे पहले कभी न आई थी।

दो भिन्न संस्कृतियों को मानने वाले समुदाय जब एक दूसरे के निकट सम्पर्क में आते हैं, तब उनमें सांस्कृतिक आदान-प्रदान की प्रक्रिया चलती है। दोनों एक दूसरे पर अपना प्रभाव डालते हैं। यह प्रक्रिया नैसर्गिक रूप से और धीमी गति से आगे बढ़ती है। हिन्दुओं को भय अथवा लोभ के द्वारा मुसलमान बनाने का प्रयास इससे बिल्कुल भिन्न था। भारत के प्रबुद्ध वर्ग का इससे चिंतित होना और इससे निपटने के लिए प्रयत्न करना नितांत स्वाभाविक था। तुलसीदास जी उन लोगों में प्रमुख थे जो इसके लिए आगे आए। वे इस्लाम की आँधी के सामने चट्टान बनकर खड़े हो गए और उसके झोंकों से हिन्दू समाज को अपने स्थान से हिलने नहीं दिया।

तुलसीदास जी ने अपनी तीव्र मेधा से इस सत्य को ताड़ लिया कि हिन्दू समाज को एकजुट रखकर इस्लाम के आक्रमण से बचाने के लिए उन्होंने परिश्रम से रामचरितमानस के रूप में एक ऐसा ग्रन्थ रचा, जिसमें वेद, पुराण, शास्त्र सबका सार समाहित है। पिछले साढ़े चार सौ वर्षों से यह पुस्तक अपनी इस विशेषता के चलते राजा-रंक, धनी-दरिद्र, मूर्ख-पंडित सबके गले का हार बनी हुई है।

नाना पुराण, निगमागम सम्मत रामचरितमानस के माध्यम से गोस्वामी जी ने मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम के लोकमंगलकारी चरित्र को उत्तर भारत की हिन्दू जनता के अंत:करण में स्थापित कर दिया।

रामायण में राम के दो रूप देखने को मिलते हैं — (१). वनवासी राम और (२). राजा राम। चौदह वर्ष वन में रहकर तपस्वी का जीवन बिताने के बाद राम पुनः सिंहासनासीन होते हैं। इसी के साथ रामायण की कथा सम्पूर्ण होती है। तुलसीदास ने रामायण के अंत में रामराज्य की विशेषताओं का किंचित विस्तार से वर्णन किया है। उसी में उनकी कल्पना के आदर्श समाज का खाका देखने को मिलता है।

जिस समय सम्पूर्ण उत्तर भारत में मुगल सल्तनत अपनी जड़ें जमा चुकी थी, उसी समय तुलसीदास जी ने भारतीय जनमन के सम्मुख रामराज्य का मनभावन मानचित्र प्रस्तुत करके शक्तिशाली मुगल साम्राज्य के खिलाफ नि:शस्त्र विद्रोह का बिगुल फूँका। मेवाड़ केसरी महाराणा प्रताप और मराठा सरदार छत्रपति शिवाजी महाराज की तलवारें जो न कर सकीं, महाकवि की कलम ने वह कर दिखाया। इस ऐतिहासिक सन्दर्भ को आंखों ओझल करके तुलसीदास की कल्पना के आदर्श समाज को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझा जा सकता।

तुलसीदास जी ने मुगल साम्राज्य के खिलाफ लड़ने के लिए जो हथियार इस्तेमाल किया और जो युद्ध शैली अपनाई, गाँधी जी ने अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में वही हथियार इस्तेमाल किया और वही युद्ध शैली अपनाई। गाँधी जी की नजरों में राम एक आदर्श राजा थे। उन्होंने अपने राज में जैसी व्यवस्था स्थापित की और जैसा समाज खड़ा किया, गाँधी जी आजाद हिंदुस्तान में वैसा ही राज और वही समाज पुनः स्थापित करने के पक्ष में थे। तुलसी के सपनों का समाज गाँधी के सपनों के समाज से बहुत भिन्न नहीं था। इसी प्रकार गाँधी के सपनों का समाज बहुत हद तक तुलसी की कल्पना के समाज से मेल खाता है।

यथा राजा तथा प्रजा। जैसा राजा होगा, उसकी प्रजा भी वैसी ही होगी। सदियों से प्रचलित इस कहावत में राजा के असाधारण महत्व को रेखांकित किया गया है। राजा की योग्यता, क्षमता और प्रशासनिक कुशलता के साथ उसका व्यक्तिगत चरित्र और व्यवहार भी प्रजा पर प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव डालता है। राजा बनने से पहले राम ने चौदह वर्षों तक वन में रहकर तपस्वी का जीवन जिया था। वनवासियों, गिरिवासियों को संगठित कर उनके सहयोग से परम प्रतापी किंतु उतने ही कदाचारी रावण को रणभूमि में ललकारा था। इसलिए उनकी योग्यता, क्षमता के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत चरित्र एवं व्यवहार पर संदेह करने के लिए कोई अवकाश न था। फलस्वरूप उनके राजा बनने पर प्रजा में हर्ष की लहर दौड़ गई।

राम राज बैठे त्रैलोका, हरषित भए गए सब सोका।

राम के राज में प्रजा सुखी और सम्पन्न थी। कोई दीन-दुखी तथा दरिद्र न था (नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना)। सब आपस में एक दूसरे के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार करते थे (सब नर करहिं परस्पर प्रीती)। कोई किसी से बैरभाव नहीं रखता था (बयरु न कर काहू सन कोई)। गरीब-अमीर और ऊंच-नीच का भेद मिट गया था (राम प्रताप विषमता खोई)। समाज में यह आदर्श स्थिति राजा के प्रताप (राम प्रताप) और प्रजा के सहयोग से उत्पन्न हुई थी।

राजा का प्रताप किसे कहते हैं और वह कैसे कायम होता है — इसे समझना बहुत जरूरी है। राजा की नीयत में खोट न हो, वह राज-पाट को भोग-विलास का साधन न समझकर उसे प्रजा के प्रति अपने दायित्व के रूप में ग्रहण करे, जनहित उसके लिए सर्वोपरि हो, राज्य के अधीन काम करने वाले अधिकारियों-कर्मचारियों पर उसकी पैनी नजर हो ताकि कोई अपने पद और अधिकार का दुरुपयोग करके प्रजा पर जुल्म-ज्यादती न कर सके। इस तरह के बेदाग चरित्र वाले परिश्रमी, निष्ठावान तथा प्रजावत्सल नरेश को पाकर प्रजा के मन में उसके लिए स्वत:स्फूर्त आदर एवं सम्मान का भाव उत्पन्न हो जाता है। जिससे सभी लोग भय और लोभ के बिना स्वेच्छा से अपने-अपने कर्तव्य एवं दायित्व का पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी के साथ पालन करने लगते हैं। इसी को राजा का प्रताप कहते हैं।

समाज में सुख-शांति तथा अमन-चैन बनाए रखने में राजा के प्रताप से कहीं ज्यादा जनसहयोग आवश्यक होता है। तुलसीदास जी ने इस पर बहुत जोर दिया है और इसे बार-बार रेखांकित किया है। सभी नागरिक अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों का पूर्ण निष्ठा तथा ईमानदारी से पालन करें, तुलसीदास जी के अनुसार, यही जनसहयोग है। राम के राज में सब लोग ऐसा ही करते थे।

चलहिं स्वधरम निरत श्रुति नीती।

यहाँ पुनः स्वधर्म और श्रुति नीति का सही-सही अर्थ समझना जरूरी है। स्वधर्म में धर्म का अर्थ मत-पंथ अथवा मजहब नहीं है। धर्म का अर्थ है – पूर्व निर्धारित कर्तव्य एवं दायित्व। जिसका जो कर्तव्य एवं दायित्व पूर्व से निर्धारित है, उसे उसका पूर्ण निष्ठा एवं ईमानदारी से पालन करना चाहिए। इसमें अपवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही स्वधर्म पर चलना कहलाता है। गीता में इसी को स्वधर्मे निधनं श्रेयो कहा गया है। अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में जान को भी जोखिम में डालने से नहीं डरना चाहिए। जिस देश और समाज के नागरिकों में इस प्रकार की भावना सुदृढ़ हो जाती है, वह देश और समाज तेजी से प्रगति करता है। उसे कोई आँख नहीं दिखा सकता। उसे न कभी नीचा देखना पड़ता है, न लज्जित होना पड़ता है।

श्रुति नीती में श्रुति और नीति दो शब्द हैं। श्रुति का अर्थ वेद होता है। आचरण एवं व्यवहार के लिए कुछ नियम और पद्धतियाँ हैं, जिन्हें नीति कहते हैं। ज्ञान की जिस शाखा में आचरण के नियम और पद्धतियों का विस्तार से वर्णन है, उसका नाम नीतिशास्त्र है। अनेक प्राच्यविदों का दावा है कि ज्ञान की सभी शाखाओं का बीजरूप वेदों में विद्यमान है। नीतिशास्त्र भी उन्हीं शाखाओं में एक है। वेदों में आचरण एवं व्यवहार के जो नियम तथा पद्धतियाँ सूत्ररूप में बताए गए हैं, कालांतर में नीतिशास्त्र में उन्हीं का विस्तार हुआ है। उनके अनुसार आचरण एवं व्यवहार करना श्रुतिनीति का पालन करना कहा गया है। राम के राज में प्रजा उसी के अनुसार आचरण एवं व्यवहार करती थी।

प्रत्येक युग में नीतिशास्त्र में कुछ न कुछ फेरबदल होता रहता है। आधुनिक युग में हर देश के पास उसका अपना संविधान है, जिसमें सभी नागरिकों के कर्तव्य एवं दायित्व निश्चित किये गए हैं। उनके अनुसार आचरण एवं व्यवहार करने से सभी प्रकार की समस्याओं से निजात मिल कर समाज में आवश्यक सुख-शांति कायम हो सकेगी। वर्तमान सन्दर्भ में इसका यही आशय ग्रहण करना चाहिए।

प्राचीन काल में हमारे देश में समाज को सुव्यवस्थित ढंग से चलाने और व्यक्तिगत जीवन में संयम, संतुलन तथा अनुशासन बनाए रखने के लिए एक व्यवस्था बनाई गई थी, जिसे वर्णाश्रम व्यवस्था के नाम से जाना जाता है। वर्ण व्यवस्था समाज के लिए थी और आश्रम पद्धति का निर्माण व्यक्तिगत जीवन के लिए किया गया था।

आश्रम पद्धति में सम्पूर्ण जीवन को चार सोपानों में बांटा गया था। प्रथम सोपान में व्यक्ति पढ़-लिखकर अथवा कोई हुनर सीखकर इस योग्य बनता था कि भविष्य में सुखमय जीवन बिताने के लिए आवश्यक धन संग्रह कर सके। दूसरे चरण में विवाह करके पारिवारिक जीवन में प्रवेश करना होता था। वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में पहुँचने के बाद परिवार की जिम्मेदारियाँ अपने उत्तराधिकारियों के हवाले करके स्वयं सादगी और मितव्ययिता के साथ एकाकी जीवन व्यतीत करना होता था। अंतिम चौथा चरण सन्यास आश्रम कहलाता था, जिसमें मनुष्य को समाज में भ्रमण करते हुए पूरा समय समाजहित में चिंतन को अर्पित कर दिया जाता था। सन्यासी के लिए एक स्थान पर अधिक समय व्यतीत करना निषेध था। इसलिए उसे परिव्राजक भी कहते थे।

तुलसीदास जी इस प्राचीन व्यवस्था को आदर्श तथा अनुकरणीय मानते थे। उन्होंने लिखा है कि राम राज में सभी नागरिक वर्ण व्यवस्था के अनुकूल आचरण करते थे, जिसकी वजह से समाज में सुख-शांति थी और व्यक्तिगत जीवन में सभी रोग-शोक से मुक्त थे।

बरनाश्रम निज-निज धरम निरत बेद पथ लोग।

चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग।

इस कारण आधुनिक काल में आलोचकों के एक वर्ग ने उनकी अलोचना की है। आलोचकों का तर्क है कि वर्ण व्यवस्था सामाजिक असमानता की जननी होने के कारण समतामूलक समाज की स्थापना में सबसे बड़ी बाधा है। जब तक उसका समूल विनाश नहीं होता, तब तक समता पर आधारित समाज की स्थापना सम्भव नहीं है।

परिवर्तन अथवा विकास सृष्टि का शाश्वत नियम है। समाज में समय-समय पर परिवर्तन होते रहते हैं। पुरानी परम्पराएँ और मान्यताएँ पीछे छूट जाती हैं, नई परम्पराएँ और मान्यताएँ उनका स्थान ग्रहण कर लेती हैं। तुलसीदास जी ने आज से साढ़े चार सौ साल पहले रामचरितमानस रचा था। तब से अब तक गंगा और गोदावरी में अकूत जल बह गया है। हमने परिवर्तन और विकास की लंबी यात्रा तय की है। इस अवधि में यदि कोई परम्परा और मान्यता कालबाह्य हो गई है तो उसमें परिवर्तन करने अथवा उसे त्याग देने में हमें तनिक भी हिचक नहीं होनी चाहिए, परन्तु किसी व्यक्ति अथवा समुदाय के मन में कोई भ्रांति है तो उसका निराकरण होना जरूरी है।

वर्ण व्यवस्था के बारे में कुछ समुदायों में जो भ्रम पैदा हुआ है, वह उसे जाति प्रथा से अभिन्न मान लेने की वजह से हुआ है। जाति प्रथा नि:संदेह हमारे समाज की एक कुरीति है, जिसका समूल नाश होना ही चाहिए। परन्तु वर्तमान जाति प्रथा को प्राचीन वर्ण व्यवस्था से अभिन्न मान लेना बहुत बड़ी भूल होगी।

एक तो जाति प्रथा जन्माधारित होती है, दूसरा उसमें परिवर्तन की कोई गुंजाइश नहीं रहती, तीसरा उसमें ऊँच-नीच का भेदभाव होता है। प्राचीन वर्ण व्यवस्था में ये तीनों खामियाँ नहीं थीं। वर्ण का निर्धारण मनुष्य के कर्म के आधार पर होता था। कर्म में परिवर्तन होने पर वर्ण में भी परिवर्तन हो जाता था। उसमें ऊँच-नीच के लिए कोई जगह नहीं थी।

वर्ण के लिए दूसरा पर्यायवाची शब्द श्रेणी हो सकता है। आज भी सरकारी, अर्ध सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों तथा विभागों में कार्य कुशलता बढ़ाने और जवाबदेही तय करने के लिए कर्मचारियों में अनिवार्य रूप से श्रेणी विभाजन होता है।

जैसा कि पहले कह आए हैं, आश्रम पद्धति का निर्माण व्यक्तिगत जीवन में संयम, संतुलन और अनुशासन बनाए रखने के लिए किया गया था। यह पद्धति, यद्यपि अपने विशुद्ध रूप में आज विद्यमान नहीं है। परन्तु इसका अवशिष्ट रूप अब भी किसी न किसी रूप में देखने को मिल जाता है। उम्र के पहले पड़ाव में सभी कुछ न कुछ पढ़ लिखकर अथवा कोई हुनर सीखकर भविष्य के लिए अर्थोपार्जन के योग्य बनते हैं। दूसरे चरण में विवाह करके गृहस्थ बनते हैं। जो लोग किसी सरकारी, अर्ध सरकारी अथवा गैर सरकारी नौकरी में रहते हैं, वे एक निश्चित उम्र के बाद सेवानिवृत्त होकर जीवन बिताते हैं। स्वरोजगार से जीविका चलाने वाले भी उम्रदराज होने पर अपने वारिसों को काम धंधा सौंपकर खुद मुक्त हो जाते हैं। शायद ही कोई वरिष्ठ नागरिक हो जो यथा समय अपने बेटे-बेटियों को अपने पावों पर खड़ा करके खुद गृहस्थी के बोझ से अलग न होना चाहे। जो ऐसा कर जाते हैं, वे निश्चय ही स्वस्थ और सुखी रहते हैं। आश्चर्य नहीं कि राम के राज में आश्रम पद्धति से जीवन यापन करने के कारण ही लोग रोग-शोक से मुक्त रहते थे।

The post तुलसीदास जी के सपनों का समाज appeared first on VSK Bharat.

UP HAED सामचार हम भारतीय न्यूज़ के साथ स्टोरी लिखते हैं ताकि हर नई और सटीक जानकारी समय पर लोगों तक पहुँचे। हमारा उद्देश्य है कि पाठकों को सरल भाषा में ताज़ा, विश्वसनीय और महत्वपूर्ण समाचार मिलें, जिससे वे जागरूक रहें और समाज में हो रहे बदलावों को समझ सकें।