सामाजिक समरसता – वनवासी बांधवों के प्रति अपनत्व का दृष्टिकोण

सामाजिक समरसता का विचार करते समय वनवासी बांधवों का भी विचार करना पड़ता है। अंग्रेजों ने उन्हें आदिवासी की संज्ञा दी। वे आदिवासी और बाकी सब बाहर के, ऐसा इसका अर्थ होता है। अंग्रेजों के प्रोत्साहन से विदेशी मिशनरियों ने काफी भ्रम सारे देश में फैलाए हैं। आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं। आर्यों ने […] The post सामाजिक समरसता – वनवासी बांधवों के प्रति अपनत्व का दृष्टिकोण appeared first on VSK Bharat.

सामाजिक समरसता – वनवासी बांधवों के प्रति अपनत्व का दृष्टिकोण

सामाजिक समरसता का विचार करते समय वनवासी बांधवों का भी विचार करना पड़ता है। अंग्रेजों ने उन्हें आदिवासी की संज्ञा दी। वे आदिवासी और बाकी सब बाहर के, ऐसा इसका अर्थ होता है। अंग्रेजों के प्रोत्साहन से विदेशी मिशनरियों ने काफी भ्रम सारे देश में फैलाए हैं। आदिवासी भारत के मूल निवासी हैं। आर्यों ने उन पर आक्रमण कर उन्हें जंगलों में भेज दिया। आदिवासी का अपना धर्म नहीं। वे निसर्गपूजक, प्राणिपूजक हैं। हिन्दू धर्म से उनका कोई रिश्ता नहीं। हिन्दू समाज व्यवस्था में उनका कोई स्थान नहीं। वर्णव्यवस्था में उनकी गिनती नहीं होती…. इत्यादि-इत्यादि।

आदिवासी शब्द प्रयोग और उसके कारण निर्माण किए गए अनेक भ्रमों के खतरे श्री गुरुजी जानते थे। गिरि-कंदरों में निवास करने वाले अपने बंधुओं को वे पराया नहीं मानते थे। उन्होंने उनके लिए ‘वनवासी’ शब्द का प्रयोग किया। शहर में रहने वाला नगरवासी, ग्रामों में रहने वाला ग्रामवासी और वनों में रहने वाला वनवासी, ऐसी शब्द रचना की। नगरवासी, ग्रामवासी, वनवासी हम सब भारतवासी हैं। भारत माँ के सपूत हैं। एक ही विराट समाज के अंग हैं। एक ही राष्ट्र के घटक हैं, ऐसी श्रीगुरुजी की अवधारणा थी।

वनों में रहने वाले अपने बंधुजनों के साथ हमको समरस होना चाहिए, इसलिए क्या करना चाहिए, यह बताते हुए श्रीगुरुजी कहते हैं, ‘‘अब यह हमारा परम कर्तव्य है कि हम इन उपेक्षित बंधुओं के बीच जाएँ और उनके जीवनस्तर में सुधार लाने हेतु पूरी शक्ति से जुट जाएँ। हमें ऐसी योजनाएँ बनानी होंगी, जिनसे उनकी मूलभूत भौतिक आवश्यकताओं एवं सुख-साधनों की पूर्ति हो सके। उन्हें इन योजनाओं से लाभान्वित कराने हेतु हमें विद्यालय, छात्रावास व प्रशिक्षण केंद्र खोलने होंगे।’’ शेष हिन्दू समाज के साथ उनको समरस करने हेतु ‘हमें ऊँच-नीच की मिथ्या धारणाओं का परित्याग कर समता की भावना के साथ उनमें घुलना-मिलना चाहिए’’। (श्रीगुरुजी समग्रः खंड 11, पृष्ठ 345)

वनवासी बांधवों की जीवनशैली का अच्छा ज्ञान श्रीगुरुजी को था। उनका घुमंतू स्वभाव किसी एक जगह टिके न रहने की प्रवृत्ति वे जानते थे। एक जगह स्थिर होने से ही शिक्षा, संस्कार संभव है। ‘‘केवल मानवीय सहृदयता ही जनजाति को स्थिर जीवन अपनाने हेतु प्रेरित कर सकती है’’, ऐसा श्रीगुरुजी का दृष्टिकोण था। श्रीगुरुजी इन बांधवों के बारे में आगे बताते हैं – ‘‘वन्य प्रांतों में निवास करने वाले इन बंधुओं से मिलने पर अनुभव होता है कि वे लोग अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं। साहस, बुद्धिमत्ता, परिश्रम-शीलता, सत्यनिष्ठा, निश्छल आत्मीयता तथा सांस्कृतिक एवं आध्यात्मिक योग्यता। हमें कुछ श्रेष्ठ सैनिक इसी समाज ने दिए हैं।’’ वनवासी क्षेत्र में विदेशी धर्म-प्रचारक अनेकों वर्षों से कार्यरत हैं। उनके कार्य से राष्ट्रीय एकात्मता को गहरा संकट पैदा हुआ है, यह वे जानते थे। लेकिन उन पर केवल टीका-टिप्पणी करना उन्हें पसंद नहीं था। वे कहते हैं – ‘‘विदेशी धर्म प्रचारकों की कार्यशैली का भी अध्ययन आवश्यक है। उनके व्यवहार में कितना प्रबल समर्पण एवं प्रयास दिखाई देता है। वे प्रसन्नतापूर्वक कितने भारी कष्ट सहन करते हैं। सुदूर देशों से आकर जंगलों के बीच स्थानीय लोगों के मध्य झोपड़ियों में बसना, निःसंदेह प्रशंसनीय व अनुकरणीय है। वे उन लोगों में घुलमिल कर उनकी भाषा सीखकर उनके रीति-रिवाजों के साथ एकरूप हो जाते हैं। उनका व्यवहार अत्यंत मृदुल एवं स्नेहपूर्ण होता है। क्या हम भी इन मिशनरियों के अनुभव से कुछ लाभ नहीं उठा सकते?’’ (श्रीगुरुजी समग्रः खंड 11, पृष्ठ 346)

वनवासी बंधु शेष हिन्दू समाज से इसलिए कटे रहे कि सैकड़ों वर्षों तक हिन्दू समाज ने उनकी ओर ध्यान ही नहीं दिया। स्नेह – संपर्क का अभाव रहा। उन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया। उपयुक्त तकनीकी शिक्षा तथा अन्य प्रशिक्षण के अभाव के कारण उनकी उत्पादन क्षमता घटी और वे गरीब बनते गए। इन सारी बातों का स्मरण श्रीगुरुजी कराते हैं। और सभी हिन्दुओं को स्मरण दिलाते हैं कि कितनी भी कठिनाइयों से गुजरना पड़े, कितने भी कष्ट उठाने पड़ें, हमें वनवासी अंचलों में जाकर कार्य करना पड़ेगा। शेष हिन्दू समाज का कार्य है कि वह उनके बीच जाएँ, उन्हें शिक्षित बनाएँ और उनके सांस्कृतिक स्तर तथा जीवनस्थितियों में उत्कर्ष लाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करें।’’  (श्रीगुरुजी समग्रः खंड 11, पृष्ठ 347)

सारांश में अपने वनवासी बंधुओं के बारे में श्रीगुरुजी का दृष्टिकोण अपनत्व का है। श्रीगुरुजी के इसी दृष्टिकोण के कारण वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना हुई और वनवासी बांधवों की सेवा का माध्यम बनकर आज श्रेष्ठतम कार्य इस संस्था के माध्यम से पूरे देश में हो रहा है।

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