भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन के स्वरूप की तुलनात्मक व्याख्या

भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन के स्वरूप की तुलनात्मक व्याख्या प्रवेश करता है। ॥ मीमांसा ओर वेदान्त दशेन मारतीय विचार-घारा.में निहित सामान्य Comparative explanation of the nature of Indian South and Western philosophy

Nov 29, 2024 - 21:26
Nov 29, 2024 - 21:29
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भारतीय दर्शन और पश्चिमी दर्शन के स्वरूप की तुलनात्मक व्याख्या

भारतीय दर्ञंन ओर परिचमी दशशंनके स्वरू्पको तुलनात्मक व्याख्या

प्रत्येक देश का अपना विशिष्ट दशंन होता है । “भारतीय दन" ओर परिचमी दर्खन' का नामकरण ही यह प्रमाणित करता है कि दोनों दशन एक दूसरे सेमिन्न हैं] जब हम विज्ञानकेक्षेत्र मे आति हैँ तब वहां 'मारतीय विज्ञान" ओर परिचमी विज्ञान" का नामकरण नहीं पात्ते। इसका कारण है कि विज्ञान सावेमौम तथा वस्तुनिष्ठ है । परन्तु दशंन का विषय ही कू एसा टै कि वहाँ विज्ञान को वस्तुनिष्ठता नहीं दीख पडती । यही कारण दै कि मारतीय दरंन ओर परिचमी दन एक दूसरे के विरोधी प्रतीत होते हं । अव हम भारतीय दशंन ओर परिचमी दशेन के बीच निहित भिन्नता की व्याख्या करेगे ।

भारतोय दशन कौ सामास्य विश्लेषतायें ˆ २५

साख्य-योग के दर्शन के अन्‌सार आत्मा एक शरीर से दूसरे शरीर मेँ तरीं -प्रवेश करती है । पुनजेन्म कौ व्याख्या वे सूक्ष्म शरीर( आ7४० 00 ) के दाराकरते हं । सृक्ष्मशरीरदही स्थूल शरीर के नाश के पञ्चात्‌ दूसरे शरीर में

प्रवेश करता है। ॥ मीमांसा ओर वेदान्त दशेन मारतीय विचार-घारा.में निहित सामान्य

'युनज॑न्म के सिद्धान्त को ही अंगीकार करते हँ | अतः उनके विचारों की अलग -व्याख्या करना अनावश्यक ही कहा जायगा । पुनर्जन्म-विचार के विरुद्ध आलोचकों ने अनेक आरोचनाए पेश की हैँ । ` आलोचकों ने पुनर्जन्म के विचार को भ्रांतिमूक कहा है, क्योकि मानव अपने पूवं जन्म की अन्‌ मृतियों को नहीं स्मरण करता है 1 यह आलोचना निराघारं कटी जा सकती हे । हम वत्तंमान जीवन में बहुत-सी घटनाओं का स्मरण नहीं कर पात्ते । परन्तु उससे यह निष्कषे निकाल्ना कि उन घटनाओं का अस्तित्वं नहीं है, सवथा गर्त होगा । पुनजंनम के सिद्धान्त के विरुद्ध दूसरी आलोचना यह की जाती है कि यह्‌ सिद्धान्त वंश-परम्परा का विरोध. करता है। कड-परंपरा-सिद्धान्त ( धृष्ण -07 1०6ता फ़ ) के अनूसार मानव का मन ओर शरीर अपने माता-पिता के अनूरूप ही निमित होता है। इस प्रकार यह्‌ सिद्धान्त मन्‌ष्य को पूर्व -जन्म के 'कर्याका फल न मानकर अपनी परम्परा द्वारा प्राप्त मानता है । यदि वंश-परम्पराके द्वारा मानव के निर्माण की व्याख्या की जाय, तो फिर -सानव के बहुत से उन गृणों की, जो उसके पूवेजों में नहीं पाये गये ये, व्याख्या करना किन हो जायगा। पुनजेन्म-सिद्धान्त के विरुद तीसरी आलोचना यह की जाती है कि यह्‌ मानव क पारलौकिक जगत्‌ के प्रति पिन्तनरील वन। देता है । यह्‌ आलोचना निराधार प्रतीत होती है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त मनृष्य को दूसरे जन्म के प्रति अनराग रखना नहीं सिखाता । इसके विपरीत मन्‌ष्य यह जानकर किं हमारा म विष्यत्‌ जीवन वत्त॑मान जीवन के कर्मो का फल होगा, इसी जगत्‌ के कर्मो के प्रति आसक्त हो जाता है। पनजनम-सिद्धान्त कौ आलोचना यह्‌ कहकर भी की जात है कि यह्‌ सिद्धान्त अवज्ञानिक है । इस सिद्धान्त के मन्‌ सार व्यविति अपने वर्तमान जीवन के करमो के अनुरूप म विष्यत्‌ जीवन मे जनम ग्रहण करता है। व्यक्ति की मत्य्‌ हो जाती है अतः यह्‌ सोचना कि मृत्यू के उपरान्त वह इस जीवन के कर्मो का फल दूसरे

जीवन में पायेगा, अमान्य प्रतीत होता है। इसे मानने का अर्थं यह्‌ मानना है कि देवदत्त के कर्मो का फल योगदत्त को मोगना होगा ।

ग्रह॒ आलोचना मी अन्य आलोचनाओं की तरह्‌ श्रान्तिमूलक है । देवदत्त के कर्मो का फल योगदत्त को मोगना सवथा संगत है, क्योकि देवदत्त ओर योगदत्त दोन कौ आत्मा एक है । पुनर्जन्म जात्मा को ग्रहृण करना पड़ता हं जो शारवतः हे । अतःए के जीवन के कर्मो का फल दूसरे जीवन में उसी आत्मा को प्राप्त करना पड़ता है, ग्रह्‌ त्चिार वेधा न्याय-संगत है ।

पुनजेन्म के सिद्धान्त की व्यावहारिक महत्ता है। इस विश्व मे समान परिस्थिति में जन्म ठेने के वावज्‌द व्यक्ति की स्थिति में अन्तर है। इस अन्तर ओर विरोघे का कारण पुनजेन्म-सिद्धान्त बतशखाता दै । जो व्यक्ति इस संसार में सुखी है वह अतीत जीवन के श्‌म कर्मोँकाफठ्पा रहादहैगौरजो व्यक्तिदृःखीहै वट्‌ अतीत जीवन के अशम कर्मोकाफल मोग रहा है। इ प्रकार पुनजेन्म के दारा मानव की रिथति में जो विषमता है, उसकी व्याख्या हो जातीः है ।

पुनजेन्म-सिद्धान्त मारतीय विचारधारा के अध्यात्मवाद का प्रमाण कहा जा सकता है । जब तक्र आत्मा को अमरता में विदवास किया जायगा, यह्‌ सिद्धान्त अवश्य जीवित होगा । इम प्रकार अध्यात्मवाद के माथ ही साथ पुनज॑न्म-सिद्धानत अविच्छिन्न खूप से प्रवाहित होता रहेगा ।

(५) मारतीय दशेत का प्रध।न सान्य यह्‌ है कि यहाँ दशन के व्यावहारिक पश्च पर बरु दिय। गया है । मारते में दशन जीवन से गहरा सम्बन्ध रखता है । ददन का उहेदय सिफं मानसिक कौतूहरं की निवृत्ति नहीं दै, बल्कि जीवन की समस्याओं कोसृल्ज्लानादै। इस प्रकार ग।रतमें ददन को जीवन के; अभिन्न अंग कहा गया है । जीवन मे अग ददन की कल्पना भी सम्मव नहीं है। प्रो° हरियाना ने ठीक ही कटा दै कि “दर्शन सिफं मोचने की पद्धति न होकर जीवनवद्धति है ।'--चात्सं मूर अर डा० राधाकृष्ण ने मी प्रौ° हरियाना के विचारों

दरंन को जीवन का अंग कह्ने का कारण यह्‌ है कि यहाँ दोन का विकास विरवके दुःखोको दूरकरणे के उदेश्य से हु है । जीवनके दुःखों सेक्ष्‌न्घ होकर यहाँ के दारोनिकों ने दुःखों के समाधान के लिए दशनं को अपनाया है । अतः दशन साधन' है जवकि साध्यहै दुःखों से निवृत्ति।

यद्यमि मा रतीय-दशेन व्यावहारिकं है, फिर मी वह्‌ विल्यम जेम्स के व्यवहारवाद (27402187) से कोसो द्र है।

हा, तो व्यावहा रिक-पक्ष की प्रघ।नता के कारण प्रत्येक दाडंनिक अपने दशन

के आरम्म मे यह्‌ बतला देता है कि उसके दरेन से पुरुषां (17५९ ९71} मे क्या सहायता मिलती है । मारत के दारंनिकों ने चार पुरुषाथं मानारहै। वेदै धमे, अथं, काम ओौर मोक्ष । यद्यपि हाँ पुरुषां चार माने गये है, फिर भी चरम पुरुषाथं मोक्ष को माना णया है।

चार्वाक को छोडकर समी दशंरों में मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया हे ।

मोतिकवादी ददन होने के कारण चार्वाक आत्मा में अविदवास करता है जव आत्मा का अस्तित्व ही नहींदहैतो फिर मोक्ष की प्राप्ति किसे होगी? अतः आत्मा के खंडन के साथ मोक्ष कामी खंडन हो जाताहै। चा्वाकि र्दन में अथं ओर कामको ही पुरुषाथं मानाज।ताहै।

समी दशनो में मोक्ष की घारणा भिन्न-मिन्च रहने के वावज॒द मोक्ष की सामान्यवारणा मे सभी दशनो कीञआस्थाहै। मारतीय दर्शनमे मोक्ष की अत्यधिक प्र घानता रहने के कारण इसे मोक्ष-दर्शन कहा जाता इड ।

मोक्ष का अथं दुःख-विनाश होता है । सभी दरंनां मे मोक्ष का यह्‌ सामान्य विचार माना गया है । यहाँ के दाशं निक मोक्ष के किएसिफं स्वरूप की ही च्ञ! नहीं करते, बल्कि मोक्ष के किए प्रयत्नशील रहते हैँ । इसका मल कारण यह है कि दशन का उदृर्य मोक्ष है । दगंन का अध्ययन ज्ञान के क्िएन होकर मोक्ष हीके लिये किया जाता है । प्रो° मैक्समृलर ने भारतीय दर्दान के इस स्वरूप की व्याख्या इन दब्दोमेकीदटैः

“मारत में दशेन ज्ञान के लिये नहीं, बल्कि सर्वोच्च लक्ष्य के लिये था जिसके लिये मन्‌ष्यं इस जीवन में प्रयत्वशील रह्‌ सकता है ।

बौद्ध दरंन मे मोक्ष को निर्वाण कदा गया दै । निर्वाण का अधं "वुञ्च जाना है । परन्तु वज्ञ जाना' से यह्‌ समज्लना कि निर्वाण पूणं-विनाड की अवस्था हैः रामक होगा । निर्वाण अस्तित्व का उच्छेद नहीं है ।

निर्वाण को व्यक्ति अपने जोवन-काल मे अपना सकता है । इस अवस्था कौ प्रास्तिके वाद मी मानव का जीवन सक्रिय रह्‌ सकता दै ।. निर्वाण अनिवंचनीय दै । निर्वाण प्राप्त हो जाने के बाद व्यक्ति के समस्त दुःखों का अन्त हो जाताहै। तथा पुनजन्म की श्युखला मी समाप्त हो जाती है1 कछ वौ दढ-दशंन के अन्‌यायियों के अन्‌ सार निर्वाण आनन्द की अवस्था है । निर्वाण-सम्बन्धी इस विचार को अधिकं प्रामाणिकता नहीं मिरी है । निर्वाण को अपनाने के विए वृद्ध ने अष्टांगिक माग की चर्चा अपने चतुथं आयं-सत्य में की दै ।

जेन-दरंन में मी मोक्ष को जीवन का चरम रक्ष्य कटा गया दहै । मोक्ष का अथं आत्मा का अपनी स्वामाविक स्थिति को प्राप्त करना कटा जा सकता है । मोक्षावस्था मे आत्मा पुनः अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति, अनन्त दशन एवं अनन्त जानन्द को प्राप्त कर लेती है । मोक्ष की प्राप्ति सम्यक्‌ ज्ञान, सम्यक्‌ दहन ओर सम्यक चरित्र के सहयोग से सम्मव है ।

न्याय-वंशेषिक ददान में मोक्ष को दुःख के उच्छेद की अवस्था कहा गया है । मोक्ष की अवस्था मे आत्मा का शरीर से वियोग दता है चैतन्य आत्मा का स्वामाविकं गृण न होकर आगन्तुक गुण है जो शरीर से संयुत होने पर उदय हीता दै । मोक्ष मे आत्माका रीर से पृथक्कररण होता है, जिसके फलस्वरूप न्याय-वंशेषिक ददान में मोक्ष को आत्मा की अचेतन अवस्था कहा गया है । इस अवस्था की प्राप्ति तत्व-ज्ञान से ही सम्भव दहै।

साश्य के जनुसार मोक्ष का अथं तीन प्रकारके दुःखोंसे दृटकारा पानाहै।

बन्धन का कारण अविवेकं है । पुरुष प्रकृति ओर उसकी विकृतियों से भिन्न हैः;

परन्तु अज्ञान के वशीमूत होकर पुरुष प्रकृति ओर उसकी विकृतियों के साथ अपनापन का सम्बन्ध स्थापित करता है । मोक्ष की अनुमति तमी होती दै जव पुरुष अपने को प्रकृति से भिन्न समङ्लने कुगता है । बन्धन प्रतीतिमात्रं है, क्योकि पुरुष स्वमावतः मुक्त है । मोक्ष की अवस्था मे आत्मा को आनन्द की अन्‌म्‌ति नहीं होती ।

मीमांसा दशन मे मोक्ष को सूख-दुःख से परे की अवस्था कहा गया है । मोक्षावस्था अचेतन अवस्था है; क्योकि, आत्मा मोक्ष में अपनी स्वाभाविकं अवस्था  

को प्राप्त करती दै, जो अचेतन है । इस अवस्था मे आत्मा मे ज्ञान का अमाव रहता है ।

अदं त-वेदान्त दशन मेँ मोक्ष का अर्थं आत्मा का ब्रह्य में विटीन हो जाना है । आत्मा वस्तुतः ब्रह्म है, परन्तु अज्ञान से प्रमावित होकर वह अपने को ब्रह्म ते पृथक्‌ समज्ञने लगता है 1 यही बन्धन है । मोक्षकी प्राप्तिज्ञान सेही सम्मव टै । मोक्ष को शंकर ने आनन्द की अवस्था कटा है । आत्मा वस्तुतः म्‌क्त हे । इसव्यि मोक्ष का अथं प्राप्त हो वस्तुको फिरसे प्राप्त करना कहा गया है--प्राप्तस्य प्राप्ति । मोक्ष आत्मा का स्वामाविक अवस्था को प्राप्तकरना दे । बन्धन को शंकरने प्रतीति मात्र मानाहैं ।

विरिष्टाद्त वेदान्त के अनुसार मुक्तिका अथं ब्रह से मिलकर तदाकार हो जाना नहीं है, बल्कि ज्रह्य से सादृश्य प्राप्त करना है । मोक्ष दुःखामावकी

` अवस्था हे । ईरवर की कृपा के विना मोक्ष असम्भव है मोक्न मक्ति केद्वारा

सम्मवहोताहैजो ज्ञान ओर कमं से उदय होताहै। मारतीय दर्शनमेदो प्रकार की मू्‌क्तिकौ मीमांसा हई है--जीवन-मुक्ति ओर विदेह्‌-मूक्ति। जीवनम्‌क्ति का अथं है जीवन का में मोक्ष को अपनाना। विदेह्‌-मुक्ति का अथं है मृत्य्‌, कं उपरान्त, शरीर के नाश हो जाने पर, मोक्ष को अपनाना । जीवन-मक्ति को सशरीर मू क्ति" भी कहा जा सकता है, क्योकि इस मुक्ति में शरीर से सम्पकं रहता द । भारतीय विचारधारा में बौद्ध, जैन, सास्य, योग ओर वेदान्त (शंकर) न जीवनम्‌ विति ओर विदेह-मुक्ति दोनों को सत्य माना है । यहां पर यहं कट्‌ देना आवश्यक होगा कि जो दाशंनिक जीवन-मुक्ति को मानता है वह्‌ विदेह मुक्ति को अवर्य मानता है, परन्तु इसका विपरीत ठीक नीं है । न्याय, वैरो षिक, मीमांसा ओर विरिष्टाटेत (रमान्‌ज) सि विदेह-म्‌ वित में विद्वास करते है ।

क्‌छ विद्वानों ने भारतीय दशंन में व्यावहारिक पक्ष की प्रधानता को देखकर उसपर आरोप लगाया द । उनका कथन दै कि भारतीय विचार-घारा में सिद्धान्तो (116071९8) की उपेक्षा की गई है, जिसके फलस्वरूप यह नी ति-शास्त्र (7 1105) जर धमं (फएना्०य) का रूप ग्रहण करता है । परन्तु उनका यह आष्षेप निराघार हे ।

समस्त भारतीय दशंन का सिहावलोकन यह्‌ सिद्ध करता है कि यहाँ सिद्धातो, मथति. य्‌ क्ति-विचार, की उपक्षा नहीं की गई है। तत्व-शास्त्र, प्रमाण-विन्ञान मौर तकं-विनज्ञान की यहाँ पूर्णरूपेण चर्चा हुई है । न्याय का प्रमाण-रास्त्र ओर तकंशास््र किसी माति से पाश्चात्य तकं-शास्त्र से हीन नहीं प्रतीत होता है।

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