पाखंड क्या है श्री अरविन्द लिखते हैं कि ‘देयर इज नथिंग पैरलल टू द हिपोक्रेसी आफ दी वेस्ट

श्री अरविन्द लिखते हैं कि ‘देयर इज नथिंग पैरलल टू द हिपोक्रेसी आफ दी वेस्ट’। पाखंड क्या है, यह हमें धीरे-धीरे समझ में आया। भारत में भी यह पाखंड हम धीरे-धीरे सीख रहे हैं। यही पाखंड लेफ्ट-लिबरल का मूल चरित्र है। उनका व्यक्तिगत जीवन व पब्लिक जीवन अलग-अलग है। कहने का सत्य व जीने का

Dec 5, 2024 - 21:03
Dec 6, 2024 - 05:04
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पाखंड क्या है श्री अरविन्द लिखते हैं कि ‘देयर इज नथिंग पैरलल टू द हिपोक्रेसी आफ दी वेस्ट

श्री अरविन्द लिखते हैं कि ‘देयर इज नथिंग पैरलल टू द हिपोक्रेसी आफ दी वेस्ट’। पाखंड क्या है, यह हमें धीरे-धीरे समझ में आया। भारत में भी यह पाखंड हम धीरे-धीरे सीख रहे हैं। यही पाखंड लेफ्ट-लिबरल का मूल चरित्र है। उनका व्यक्तिगत जीवन व पब्लिक जीवन अलग-अलग है। कहने का सत्य व जीने का सत्य अलग-अलग है। 1989 में जब मैं मसूरी रहने के लिए आया तो मन लगाने के लिए स्थानीय बच्चों को पढ़ाने के उद्देश्य से एक विद्यालय खोला, जहां पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों के साथ संवाद से वे समझ पाए कि कैसे आधुनिक पढ़ाई-लिखाई बच्चे के जीवन को बर्बाद करती है, जहां पढ़ने के बाद परिवार, समुदाय व प्रकृति से बच्चा दूर हो जाता है। आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद बच्चे दिन भर घूमते हैं, परिवार व समुदाय का कार्य नहीं करते, बच्चियां नेल पॉलिश लगाती हैं, गोबर में अपना हाथ नहीं डालतीं। यह दु:ख एक सामान्य अभिभावक का विद्यालय के क्रियाकलाप के प्रति था।

भारत की परम्परागत शिक्षा का यह चरित्र कभी नहीं रहा। भारत में प्राचीन समय से ही समाज ज्ञानी रहा है लेकिन भारत का ज्ञान लोक से अलग करने वाला नहीं था। यह सदैव सबको जोड़ने वाला रहा है। परन्तु भारत का ज्ञान लोक से अलग करने वाला नहीं था। यह सदैव सबको जोड़ने वाला रहा है। भारतीय शिक्षा की इसी सुसंगठित व्यवस्था को गांधी जी 20 अक्तूबर, 1931, लंदन स्थित चाथम हाउस में दिये गये अपने प्रवचन में रमणीय वृक्ष की संज्ञा देते हुए अंग्रेजों के इस कृत्य पर कहते हैं- ‘अंग्रेज जब भारत में आए तब उन्होंने यहां की स्थिति को यथावत स्वीकार करने के स्थान पर उसका उन्मूलन करना शुरू किया। उन्होंने मिट्टी कुरेदी, जड़ों को कुरेद कर बाहर निकाला, और फिर उन्हें खुला ही छोड़ दिया। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा का यह रमणीय वृक्ष नष्ट हो गया।’

मद्रास प्रेसिडेंसी में वर्ष 1822 से 1826 के मध्य संचालित सर थॉमस मुनरो के सर्वेक्षण, बंगाल प्रेसिडेंसी में वर्ष 1835 से 1838 के मध्य संचालित विलियम एडम बेंटिक के सर्वेक्षण, बम्बई प्रेसिडेंसी में वर्ष 1823 तथा 1829 में संचालित माउंट स्टुअर्ट एलफिंस्टन तथा जी. एल. प्रेण्डरगास्ट के सर्वेक्षण, तथा पंजाब में वर्ष 1882 में संचालित जी. डब्लू. लेटनर ने सर्वेक्षण रिपोर्ट दी थी कि शिक्षा के इन देशज केंद्रों में पढ़ने व पढ़ाने वाले लोगों में सर्वाधिक संख्या वंचित और पिछड़े समुदायों के लोगों की है। उस समय प्रत्येक गांव में शिक्षा के केंद्र थे। इन केंद्रों को योजनाबद्ध ढंग से नष्ट किया गया।

हमारे यहां आज भी कई जगह पाठ्यपुस्तकों में स्वच्छ वातावरण के उदाहरण के रूप में शहर के चित्र व अस्वच्छता के प्रदर्शन के लिए गांवों का चित्र दिया गया है, यह भारत की संस्कृति के विरुद्ध विषय प्रस्तुति है। इन चित्रों को देखने के बाद एक विद्यार्थी का भाव गांवों के प्रति यही होगा कि गांव गंदगी के भण्डार हैं और शहर का जीवन उत्तम है। यह अत्यंत चिंताजनक है। शिक्षा विषय केन्द्रित नहीं वरन् वस्तु केंद्रित हो। गांव का एक अनपढ़ व्यक्ति भी देशज ज्ञान से युक्त शिक्षित कोटि का हो सकता है। यदि किसी बच्चे को यह समझ में आ जाये कि उसके परिवार व आस-पड़ोस के लोग निरक्षर होते हुए भी प्रकृति के ज्ञान से युक्त शिक्षित हैं तो उसकी शिक्षा उसे समाज से जोड़ने वाली होगी, ना कि दूर करने वाली।

भारत में सबकुछ होता है और पश्चिम में सबकुछ कोई करता है। एक में निमित्त भाव है और दूसरे में कर्ताभाव। हम निमित्त हैं उपादान नहीं। भारत में कहा जाता है कि मेरा हाथ जल गया। यह एक घटना है। जबकि पश्चिम में अंग्रेजी में कहा जाता है कि मैंने अपने हाथ को जला लिया। यहां कर्ताभाव की प्रमुखता है। यही सभी समस्याओं का मूल है। भारत अधिकार प्रधान नहीं वरन् कर्तव्यप्रधान अर्थात धर्मप्रधान संस्कृति है। अपनी संस्कृति के मूल का बोध व तदनुरूप व्यवस्थाओं की निर्मिति ही सर्वकल्याण के लिए अभीष्ट मार्ग है।

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