‘समाज से गोधरा का सच छुपाया गया’ – विक्रांत मैसी

फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ आजकल चर्चा में है। इस फिल्म को 2002 के गोधरा नरसंहार के सच को सामने लाने का एक बेबाक प्रयास कहा जा रहा है। इसके मुख्य अभिनेता विक्रांत मैसी ने कहा भी कि इस फिल्म में सबसे बड़ी चुनौती रही सच को समाज के सामने लाना। प्रस्तुत हैं अभिनेता विक्रांत मैसी […]

Nov 25, 2024 - 06:14
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‘समाज से गोधरा का सच छुपाया गया’ – विक्रांत मैसी

फिल्म ‘द साबरमती रिपोर्ट’ आजकल चर्चा में है। इस फिल्म को 2002 के गोधरा नरसंहार के सच को सामने लाने का एक बेबाक प्रयास कहा जा रहा है। इसके मुख्य अभिनेता विक्रांत मैसी ने कहा भी कि इस फिल्म में सबसे बड़ी चुनौती रही सच को समाज के सामने लाना। प्रस्तुत हैं अभिनेता विक्रांत मैसी से पाञ्चजन्य की सलाहकार संपादक तृप्ति श्रीवास्तव की बातचीत के प्रमुख अंश :

फिल्म ‘साबरमती रिपोर्ट’ के केंद्रीय विषय को लेकर आपका क्या मत है?
यह फिल्म न्याय, नैतिकता और हमारे समाज में सच की खोज के इर्द-गिर्द घूमती है। इसमें मेरी भूमिका एक पत्रकार की है, जो एक संवेदनशील मामले की तह तक जाने की कोशिश करता है। यह किरदार न केवल पेशेवर रूप से चुनौतीपूर्ण था, बल्कि निजी रूप से भी महत्वपूर्ण था। इस किरदार को निभाने के दौरान मुझे कई चीजें सीखने का मौका मिला। पता चला कि एक पत्रकार की समाज में क्या भूमिका होती है और अगर पत्रकार नैतिकता से किनारा करता है तो उसका समाज पर कितना गहरा असर पड़ सकता है।

इस किरदार को निभाने में सबसे बड़ी चुनौती क्या थी?
मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी एक पत्रकार की भावनाओं को सटीकता से पेश करना। मुझे किरदार के अंदर झांकने और उसके संघर्षों को समझने के लिए गहन शोध करना पड़ा। मैंने लगभग 500 पन्नों का एक शोध पत्र पढ़ा, जिसमें गोधरा कांड का सच दर्ज था। मैंने पाया कि पत्रकार किसी तथ्य को बाहर लाने और दबाने में सक्षम होता है। इस प्रक्रिया में मेरे आंखों पर जो पर्दा डला था, वह भी उतर गया। मैं पहले गोधरा कांड को किसी और दृष्टि से देखता था।

क्या यह फिल्म किसी विशेष संदेश को समाज के सामने लाने का प्रयास करती है?
बिल्कुल, यह फिल्म न्याय व्यवस्था, पत्रकारिता की स्वतंत्रता और समाज में सच के महत्व को उजागर करती है। यह दर्शकों को यह सोचने पर मजबूर करती है कि वे किस तरह सच्चाई को देखते और परखते हैं।

आपके लिए फिल्म की पटकथा कितनी खास है?
पटकथा गंभीर और दिलचस्प है। यह न केवल मनोरंजक है, बल्कि आपको सवाल उठाने और सोचने पर मजबूर करती है। इसे पढ़ने के बाद, मेरा तुरंत इस प्रोजेक्ट का हिस्सा बनने का मन किया।

फिल्म में आपके किरदार और असल जीवन में पत्रकारिता के बारे में आपकी सोच में क्या कोई बदलाव आया?
हां, मैंने फिल्म करने के दौरान यह पाया कि पत्रकारिता कितनी मुश्किल और महत्वपूर्ण है। सच्चाई के लिए लड़ना और जोखिम उठाना आसान नहीं होता। यह हर किसी के बस की बात नहीं कि वह अपने करियर, परिवार को दांव पर लगाकर सच्चाई को सामने लाने के लिए लड़े।

फिल्म के लिए क्या तैयारी करनी पड़ी?
मैंने कई पत्रकारों से मुलाकात की, उनके अनुभवों को समझा, उनके काम करने के तरीकों का अध्ययन किया। इसके अलावा, मैंने न्याय प्रणाली और मीडिया के बीच संबंधों पर शोध किया। कई मीडिया रिपोर्ट व वीडियो देखे, उस समय के आलेख पढ़े। जब पूरे मुद्दे की जानकारी मिली तो लगा जैसे मैं बहुत भाग्यशाली हूं कि गोधरा कांड की सच्चाई को फिल्म के माध्यम से समाज के सामने लाने का अवसर मिल रहा है।

फिल्म का कौन-सा दृश्य सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण लगा?
फिल्म का वह दृश्य जहां मेरा किरदार नैतिक दुविधा में फंसा होता है। उस भावनात्मक उतार-चढ़ाव को पर्दे पर लाना मेरे लिए सबसे कठिन था। मुझे करियर और सच्चाई में से किसी एक चुनना था। लेकिन जब आप सच का साथ देते हैं तो तय मानिए कि आज नहीं तो कल, आप सही जरूर साबित होंगे।

क्या लगता है, यह फिल्म दर्शकों पर कैसा प्रभाव डालेगी?
मुझे उम्मीद है कि यह फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर करेगी और उन्हें समाज में सच्चाई और न्याय के महत्व का अहसास कराएगी। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि एक विचार है। फिल्म इसलिए नहीं बनाई गई है कि हम करोड़ों रुपये कमाएं, फिल्म इसलिए बनाई गई है ताकि एक छुपे हुए सच को बाहर लाकर समाज को बताया जा सके कि 22 साल से आपको झूठ परोसा गया, गोधरा कांड को लेकर अंधेरे में रखा गया। विचार और सच महत्वपूर्ण है, पैसा नहीं।

मुम्बई फिल्म उद्योग में मुस्लिमों को पीड़ित दिखाने का एक चलन सा दिखता है। जैसे, चक दे इंडिया जिन पर बनी वे खिलाड़ी हिंदू थे, पर फिल्म में उन्हें मुस्लिम दिखाया गया। आपने एक ऐसी फिल्म में काम किया है जिसमें पीड़ित हिन्दू थे। क्या आपको घबराहट नहीं हुई?
बिल्कुल हुई और आज भी हो रही है, क्योंकि यह बहुत संवेदनशील मुद्दा है। यह हमारे देश का 9/11 है। जब भी 2002 की बात होती है तो दंगों की बात होती है, लेकिन उन दंगों की ‘जेनेसिस’ के बारे में बात नहीं होती। खासतौर पर सोशल मीडिया की वजह से आज एक ऐसा माहौल बन गया है कि या तो आप ‘लेफ्ट’ हैं, नहीं तो ‘राइट’ में हैं। इंसानियत के नाते अगर आप कुछ करना भी चाहते हैं तो उस जाल में फंस जाते हैं। कलाकार और फिल्म उद्योग के संदर्भ में आप यह समझ लीजिए कि आज बहुत ही मुश्किल दौर चल रहा है। लोग कभी भी किसी भी बात पर ‘ट्रोलिंग’ शुरू कर देते हैं।

कहानी सुनने के बाद हां बोलने में कितना समय लगा?
मैंने कम से कम दो हफ्ते लिए थे, क्योंकि पटकथा के साथ- साथ हमें शोध सामग्री भी दी गई थी। इसे देते हुए एकता कपूर जी ने हमसे यह भी कहा था कि मैं नहीं चाहती कि तुम सिर्फ कहानी देखकर या कहानी पढ़कर निर्णय लो। मैं तुम्हें इस कहानी को समझने के लिए शोध सामग्री भी दे रही हूं, उसे पढ़ना, इंटरनेट का इस्तेमाल करना और फिर निर्णय लेना। एकता के साथ मेरा पुराना नाता है। मैंने उनके साथ बहुत काम किया है, उन पर बहुत भरोसा करता हूं। लेकिन बहुत सी चीजें मुझे खुद नहीं पता थीं। 2002 में मैं 15-16 साल का था। घर पर इस बारे में ज्यादा चर्चा हुई नहीं, 15 साल की उम्र में अखबार ज्यादा पढ़ा नहीं। जब शोध सामग्री दी गई तब मुझे लगा कि यह एक ऐसी कहानी है जिसका मैं हिस्सा बनना चाहता हूं, और यह कहानी बताई जानी चाहिए।

कहा जा रहा है कि आपकी छवि मोदी विरोधी व्यक्ति की थी, इसलिए सरकार के सामने उस छवि को सुधारने और फिल्म को हिट कराने के लिए आप ‘मोदी भक्त’ बन गए हैं। यह कहां तक सही है?
यह बहुत आम सवाल है, इसलिए अब यह मुझे परेशान नहीं करता। जो लोग कह रहे हैं कि यह प्रोपेगेंडा है उनके लिए मेरा जवाब है कि पहले जाकर फिल्म देखें। आज खासकर सोशल मीडिया पर लोग धुर वामपंथी या धुर दक्षिणपंथी हैं। हम संतुलन की बात करते हैं, लेकिन विचारों के संतुलन की बात कोई नहीं करता है। एक अच्छे समाज के लिए विचारों का संतुलन बहुत जरूरी है। फिल्म देखेंगे तो पता चलेगा कि हमारी मंशा इस फिल्म को बनाने के लिए किसी ‘वाम’ या ‘दक्षिण’ से नहीं जुड़ी है। यह मानवता से जुड़ी है, उन 59 लोगों के बारे में किसी ने बात नहीं की जो तड़पकर, जलकर इस दुनिया से चले गए। फिल्म मीडिया की भूमिका पर आधारित है। चीजें बदलती हैं। आज मैं वह नहीं हूं जो 10 साल पहले था। हो सकता है जो आज हूं वह 10 साल बाद न रहूं। मैं देशभर में, दुनियाभर में घूमता हूं, पहले मुझे जो चीजें बुरी लगती थीं आज लगता है, वे इतनी भी बुरी नहीं हैं।

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