हिंदुत्व के गौरव की प्राण प्रतिष्ठा

22 जनवरी, 2024- पाञ्चजन्य के  सम्पादक के रूप में इस दिन अयोध्या में होना भावुक करने वाला पल था।

Mar 8, 2024 - 15:20
Mar 9, 2024 - 09:26
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हिंदुत्व के गौरव की प्राण प्रतिष्ठा

22 जनवरी, 2024- पाञ्चजन्य के  सम्पादक के रूप में इस दिन अयोध्या में होना भावुक करने वाला पल था।

70 बरस तक लड़ाई न्यायालय में लड़ी गई। स्वतंत्र भारत के इस सबसे बड़े सामाजिक आंदोलन की सुखांत परिणति का साक्षी होना विह्वल कर देने वाला क्षण था। इस आंदोलन के दौरान पाञ्चजन्य के सम्पादक रहे तरुण विजय मेरे निकट खड़े थे। प्राण प्रतिष्ठा के तुरन्त बाद रामलला की मुस्काती मूरत देखते ही सहसा हम दोनों ने एक-दूसरे को बांहों में भर लिया। कार्यक्रम में उपस्थित हजारों लोगों की तरह हम दोनों की आँखों में अश्रुधारा फूट पड़ी। क्या यह भावना का उफान भर था?


नहीं! यह उस संघर्ष को लांघकर निकले सामाजिक उद्वेलन के आंसू थे। एक ऐसी बेचैनी और छटपहाट, जो बीती पाँच सदी से इस समाज के सीने में जमी बैठी थी, एकाएक छंट गई। आंसुओं का सागर बह निकला। वैसे, मीरबाकी से भी पहले, भारत के इस मानबिन्दु को झुकाने, गिराने का पहला दुष्कृत्य तो मिनिएंडर या मिहिरकुल ने किया था। यह ईसा से भी डेढ़ सदी पहले की बात है।


लव-कुश द्वारा स्थापित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर वह पहली मर्मान्तक चोट थी, किन्तु इस आघात के केवल तीन माह बाद शुंग वंशीय द्युमत्सेन ने मिहिरकुल की राजधानी कौशाम्बी पर अधिकार कर लिया, मिहिरकुल मारा गया। इसके बाद आरम्भ हुआ कुषाणों के हमले का लम्बा दौर। आक्रांताओं से जूझता हिन्दू समाज बाहरी शक्तियों से जी-जान से लड़ता भी रहा और मंदिर के भग्नावशेषों के बीच आस्था की लौ भी उसने जलाए रखी।


आक्रांताओं की नजर आस्था के इस केन्द्र पर थी, समाज लगातार अपने आराध्य के लिये लड़ रहा था। बाबर के समय करीब आधा दर्जन, हुमायूं के समय करीब एक दर्जन, अकबर के वक्त दो दर्जन और दुर्वांत औरंगजेब के समय तीन दर्शन युद्ध इस समाज ने अपने आस्था स्थल को उसका गौरव दिलाने के लिये लड़े। यह राष्ट्र की जिजीविषा, समाज की गौरव स्थापना का महायज्ञ था, जिसमें लगातार हिन्दू समाज प्राणों की आहुतियाँ दे रहा था। स्वयं लॉर्ड कनिंघम ने लखनऊ गजेटियर में लिखा, '1,74,000 हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही बाबर का सिपहसालार मीरबाकी मंदिर को तोप के गोलों से गिराने में सफल हो सका।"
शंकर क्या विश्व में किसी मत, पंथ का कोई और आस्था स्थल ऐसा है, जिसकी रक्षा के लिये पौने दो लाख लोगों ने प्राणोत्सर्ग किया हो? नहीं! यह अयोध्या ही थी। अयोध्या, जिससे युद्ध नहीं हो सकता उस 'अ' युध्य से युद्ध का लम्बा उपक्रम अंततः परास्त हुआ।


जो हिन्दू-मुस्लिम एकता का बिम्ब हो सकता था, उसे विवाद की फांस बनाने वाली मानसिकता, बांटो और राज करो की सोच, 1858 में मौलाना आमिर अली और रामगढ़ी के महंत रामचरण दास को कुबेर टीले पर फांसी देने वाली सोच अंततः परास्त हुई। समाज को बांटकर, लड़ाकर अपना हित साधने वाली शक्तियों की प्राण-शक्ति मानो इस 22 जनवरी को इस प्राण प्रतिष्ठा ने हर ली। यह क्षण विलक्षण है! किन्तु इस विह्वल कर देने वाली विलक्षणता में खोने का यह क्षण बिल्कुल नहीं है। इस अवसर पर भारत के गौरव की पुनर्स्थापना उन सभी को अवश्य खल रही होगी, जो इस देश के गरिमामयी अतीत और भविष्य की ओर बढ़ती गवींली पदचाप को लक्षित कर आघात करते रहे हैं।


भावनायें महत्वपूर्ण हैं किन्तु भविष्य इससे भी बढ़कर है। आंसुओं को थामें और रामलला को देखते हुए एक-दूसरे का हाथ थामे बढ़ते रहें। आस्था के साथ और व्यवस्था के साथ कदमताल करते हुए बढ़ते रहें।
अंधेरा छंटना अभी बस आरम्भ हुआ है। और अच्छी खबरें इस संगठित समाज और भविष्य की ओर बढ़ते भारत की देहरी पर खड़ी है।

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