निराश करती आंदोलन से उपजी राजनीति
आजादी के दूसरे आंदोलन के बाद देश ने इन नेताओं से व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद लगा रखी थी
निराश करती आंदोलन से उपजी राजनीति
पवित्र उद्देश्यों के साथ आरंभ किए गए आंदोलनों से उभरी राजनीति में जब आंदोलन के मूल्य तिरोहित होने लगते हैं तो लोकमानस निराश हो उठता है
पिछली सदी में इंदिरा गांधी की तानाशाही को उखाड़ फेंकने वाला जेपी आंदोलन जब चरम पर था, तब उस आंदोलन के नायक जयप्रकाश नारायण को चंद्रशेखर ने एक चिट्ठी लिखी थी। भारतीय राजनीतिक इतिहास में उस पत्र की चर्चा कम ही हुई है। उस चिट्ठी में चंद्रशेखर ने आंदोलन में शामिल हुए लोगों के बारे में कहा था कि वे व्यवस्था को बदलने के लिए आंदोलन में शामिल नहीं हो रहे हैं, बल्कि वे सत्ता के लिए आ रहे हैं। चंद्रशेखर ने यह भी चिंता जताई थी कि भविष्य में वे लोग अपनी अपनी जातियों के नेता साबित होंगे। जेपी आंदोलन से उभरे नेताओं की राजनीति को गहराई से देखेंगे तो पाएंगे कि चंद्रशेखर की चिंता कितनी सही थी।
आजादी के दूसरे आंदोलन के बाद देश ने इन नेताओं से व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद लगा रखी थी, लेकिन उस आंदोलन के नायकों ने व्यवस्था परिवर्तन के बजाय पहले से जारी राजनीतिक व्यवस्था में ही खुद को खपाकर उसी परंपरा को जारी रखा, जिसके लिए वे कांग्रेस की आलोचना करते नहीं थकते थे। जेपी आंदोलन के नायकों की यहां चर्चा को लेकर प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आखिर इसका संदर्भ क्या है? दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या राजनीति और उसके नायक आंदोलनों का इस्तेमाल सिर्फ अपनी निजी राजनीतिक हैसियत बनाने के लिए करते हैं?
आंदोलनों के दौरान गला फाड़-फाड़कर वे जिस व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे होते हैं, क्या वह सिर्फ ताकत हासिल करने का जरिया ही होता है। जेपी आंदोलन का प्रमुख चेहरा रहे लालू प्रसाद यादव हों या फिर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से उभरे अरविंद केजरीवाल, इनकी राजनीति और इनका हश्र देखकर तो ऐसा ही लगता है। आज की युवा पीढ़ी जेपी आंदोलन के बाद पैदा हुई है। लिहाजा वह जेपी आंदोलन और उसके नैतिक दावों की साक्षी नहीं रही। जेपी आंदोलन में शामिल रही पीढ़ी अब भी है। आज की युवा पीढ़ी ने साल 2011 में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को देखा है। फरवरी 2011 में रामलीला मैदान में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुए आह्वान के दौरान तमाम दिग्गज जुटे। तब देश में राष्ट्रमंडल खेल घोटाला और टूजी घोटाले की गूंज सुनाई दे रही थी।
महाराष्ट्र में भ्रष्टाचार के खिलाफ सफल आंदोलन चला चुके अन्ना हजारे के नेतृत्व में उस आंदोलन का सूत्रपात हुआ। तब ऐसा माहौल बना था कि अब तो देश से भ्रष्टाचार खत्म रुख करने के खिलाफ थे, लेकिन उनके शिष्य रहे अरविंद केजरीवाल मनीष सिसोदिया ने अन्य साथियों के मिलकर नई किस्म की राजनीति का करते हुए राजनीतिक दल का गठन तब लोगों को यह आस बंधी कि किया। इन्हें सत्ता मिली तो भावी शासन भ्रष्टाचार मुक्त होगा। अब आम आदमी पार्टी पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं। अदालत से भी उसके नेताओं को कोई राहत मिलती दिख रही। ऐसे में स्वच्छ राजनीति का सपना भी ध्वस्त होता दिख रहा है। आंदोलनों के सफल होने के जनाकांक्षाएं उफान पर होती हैं। जनता आंदोलनकारियों के दिखाए सपनों अक्सर सच मान लेती है।
जेपी आंदोलन के बाद की राजनीति हो या अन्ना आंदोलन के बाद उभरी राजनीति या फिर के छात्र आंदोलन के बाद हुए चुनाव हों, लोकमानस खुले दिल से उन लोगों के साथ खड़ा हुआ, जिन्होंने अपने आंदोलन के उद्देश्य को जमीनी हकीकत बनाने का सपना दिखाया। हालांकि आंदोलन के बाद उभरी जनता पार्टी से लेकर असम गण परिषद और आम आदमी पार्टी ने भी आम आदमी के ऐसे सपनों को तोड़ने का ही काम किया। व्यवस्था बदलने का सपना दिखाने वाली राजनीति उसी व्यवस्था और परिपाटी का हिस्सा बनने लगी, जिसे उलट देने के लिए उसने आंदोलन किए थे।
जनता पार्टी के नेताओं को जयप्रकाश नारायण ने गांधी जी की समाधि राजघाट पर शपथ दिलवाई। असम के छात्र आंदोलन के बाद उभरी असम गण परिषद की सरकार भी एक तरह से असम की राजनीतिक संस्कृति संस्कृति क को बदलने के सपने के साथ आगे बढ़ी। अवैध घुसपैठियों को बाहर करने के जिस आंदोलन के साथ वह उभरी थी, उस मकसद को पूरा करने के बजाय उसके नेता आपस में ही लड़ने लगे। व्यवस्था बदलने के साथ ही राजनीति में परिवारवाद की समाप्ति आंदोलन से उपजे दलों का घोषित उद्देश्य रहा, लेकिन जेपी आंदोलन से उपजे कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो शेष सभी आकंठ भ्रष्टाचार और परिवारवाद में डूबे मिलेंगे।
कुछ की अपनी पार्टियां हैं, जिन्हें प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह चलाया जा रहा है। असम गण परिषद के प्रमुख और छात्र आंदोलन के बाद बने मुख्यमंत्री प्रफुल्ल कुमार महंत के खिलाफ विरोध की सुगबुगाहट उनकी पत्नी जयश्री के हाथों में सत्ता केंद्रित होने के बाद शुरू हुई थी। जेपी आंदोलन के सेनानियों की आज अपनी पार्टियां हैं और उनके बाद उनकी संताने ही उन्हें संभाल रही हैं। जेपी आंदोलन के दौरान सामान्य पृष्ठभूमि वाले नेताओं के पास आज हजारों करोड़ की संपत्ति है।
आंदोलन के दौरान आत्मसात किए गए मूल्यों को उन्होंने कहीं किनारे रख दिया हैं। उन पर वही सब कुछ करने का आरोप है, जिसके विरोध में उन्होंने आंदोलन किए थे। केजरीवाल ने भी भ्रष्टाचार मिटाने का दावा किया था। इस समय उनके दो मंत्री और एक सांसद जेल में हैं। वह खुद अदालत से राहत का इंतजार कर रहे हैं। अक्सर आंदोलन व्यापक और पवित्र उद्देश्यों के साथ खड़े होते हैं। जब इन्हीं आंदोलनों से उभरी राजनीति आंदोलन के मूल्यों को तिरोहित करने लगती हैं तो लोकमानस निराश हो उठता है। इससे आंदोलन विरोधी माहौल बनता है। यही वजह है कि जब ऐसे आंदोलन का नायक गिरफ्तार होता है तो लोकमानस में वैसा उबाल नहीं दिखता, जैसा उसके आंदोलनकारी रहते वक्त उसके समर्थन में उठता है। तो क्या मान लिया जाए कि आंदोलन से उभरी राजनीति से उम्मीद बेमानी है? आंदोलनकारी राजनीति की परिणति तो कम से कम यही सोचने को विवश कर रही है।
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