भावनाओं का विस्तार गुरुजी आरएसएस 

श्री गुरुजी का स्वयंसेवकों के प्रति स्नेह, आत्मीयता और समर्पण का प्रेरक प्रसंग। भूखे रहकर भी स्वयंसेवकों से मिलने की प्राथमिकता, रिश्तेदार जैसा अपनापन और सहज व्यवहार के कारण गुरुजी हर स्वयंसेवक के हृदय में बस जाते थे।

Aug 1, 2025 - 20:23
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भावनाओं का विस्तार गुरुजी आरएसएस 
भावनाओं का विस्तार गुरुजी आरएसएस 
भावनाओं का विस्तार गुरुजी आरएसएस 
"एक बार गुरुजी रेलगाड़ी से अजमेर से इंदौर जा रहे थे। उन दिनों गाड़ी दो घंटे तक रास्ते में रतलाम स्टेशन पर रुकती थी । रतलाम में गोपालराव नामक एक स्वयंसेवक थे। उनके घर पर गुरुजी का भोजन रखा गया था। लेकिन रतलाम स्टेशन पर गाड़ी ही देर से पहुँची। कार्यकर्ताओं ने कार्यक्रम निश्चित किया था। दो घंटे का समय था ।
स्थानीय स्वयंसेवकों के साथ बातचीत और भोजन। गुरुजी रतलाम आए, तब समाचार मिला कि गाड़ी विलंब से आई है और जल्दी ही जाने वाली है। तब सबसे पहले भोजन होगा, ऐसी व्यवस्था की गई। परंतु गुरुजी ने कहा, "नहीं, स्वयंसेवक आए हैं, उनके साथ बातचीत पहले करेंगे, बाद में समय बचेगा तो भोजन करेंगे अन्यथा आज भोजन नहीं करेंगे।" गुरुजी स्वयंसेवकों के साथ बातचीत करने बैठे। गुरुजी के सामने स्वयंसेवक आते तब गुरुजी सर्वस्व भूल जाते थे। भोजन एक ओर रखा रह गया। गाड़ी का समय हो गया। गुरुजी को भोजन किए बिना ही जाना पड़ा। गुरुजी जा रहे थे, तभी गोपालराव की आँखों से आँसू निकल आए। गुरुजी आज मेरे प्रांगण में आकर भूखे वापस चले जाएँगे !
सभी स्वयंसेवक दुःखी हो गए। गुरुजी उनकी भावना को समझ गए। गुरुजी ने कहा, "भाई, मैं स्वयंसेवक हूँ, तुम्हारे हृदय को जानता हूँ। मैं इंदौर से जब अजमेर वापस जाऊँगा तब शाम के वक्त मैं इधर से ही जाने वाला हूँ। शाम के वक्त आपके घर पर भोजन करूँगा।" गुरुजी रात के वक्त भोजन नहीं करते थे। एक छोटा सा स्वयंसेवक गोपालराव, उसकी आँखों के आँसू देखकर गुरुजी उसके हृदय के मर्म को समझ गए। स्वयंसेवक की भावना को वे हृदय से स्पर्श कर सकते थे, अनुभव कर सकते थे। क्योंकि हजारों स्वयंसेवकों के जीवन के साथ उनका तादात्म्यीकरण हो गया था। वे प्रतिक्षण स्वयंसेवक होने की भावना को विस्तृत ही करते रहते थे।
स्वयंसेवक और स्वयंसेवक, सरसंघचालक और स्वयंसेवक की मर्यादा की सीमा रेखा टूटकर दोनों के बीच में भाई-भाई का रूप स्थापित हो जाता था। प्रवीणचंद्र दोशी नामक एक स्वयंसेवक सन् १९५६ में रंगून से संघ - शिक्षा वर्ग में शामिल होने के लिए अप्रैल में भारत आए थे। संघ का शुभारंभ नागपुर में हुआ, इसलिए प्रत्येक स्वयंसेवक नागपुर र की भूमि को तीर्थस्थान समझता है । २३ अप्रैल, १९५६ के दिन प्रवीणचंद्र दोशी नागपुर पहुँचे और बोरिया- बिस्तर लेकर सीधे ही परम पूजनीय गुरुजी के निवास स्थान पर पहुँच गए। गुरुजी के दर्शन हुए, इसलिए अपने को धन्य मान रहे थे।
इस अवसर पर गुरुजी के आस-पास दूसरे पंद्रह-बीस प्रौढ़ स्वयंसेवक भी बैठे थे। इसी समय प्रवीणचंद्र का सामान्य परिचय हुआ। एक डॉक्टर भी वहाँ बैठे थे। तब डॉक्टर ने प्रवीणचंद्र से पूछा कि यहाँआपके रिश्तेदार कौन हैं और नागपुर में कहाँ ठहरे हैं ? डॉक्टर का प्रश्न सुनकर प्रवीणचंद्र सोच में पड़ गए इसका क्या उत्तर दें? उसी वक्त तुरंत ही गुरुजी ने उत्तर दिया, 'यह मेरा रिश्तेदार है और मेरे घर में ठहरा है । "
गुरुजी के मुख से ऐसे शब्द सुनकर ही प्रवीणचंद्र का रोम- रोम प्रफुल्लित हो उठा, उसकी आँखों में आँसू छलक आए। यह स्नेह, आत्मीयता एक स्वयंसेवक से दूसरे स्वयंसेवक को मिलती है। यह स्वाभाविक व्यवहार परम पूजनीय गुरुजी के जीवन का व्यवहार था। पूजनीय गुरुजी को संघ का प्रत्येक स्वयंसेवक पुत्रवत् प्रिय था। स्वयंसेवक की प्रतिष्ठा सुनकर वे भी पुलकित हो जाते थे। किसी भी नए आदमी को गुरुजी का उत्तुंग व्यक्तित्व देखकर 'इन-एक्सेसिबल, ' सरसंघचालक के पास जाते वक्त प्राय: स्वयंसेवक हिचकिचाहट, मन में घबराहट का अनुभव करता है; परंतु एक बार गुरुजी के संपर्क में जो व्यक्ति आता था, वह अवश्य ही धन्यता का अनुभव करता था। डर, घबराहट और हिचकिचाहट समाप्त हो जाती थी । गुरुजी के संपर्क में आने के बाद उम्र के छोटे-बड़े के भेद मिट जाते थे । गुरुजी बाल स्वयंसेवकों के साथ बालक जैसे बन जाते थे। एक बार पूज्य गुरुजी नागपुर की गौरक्षा उपशाखा में गए। प्रार्थना के बाद वे कार की ओर जा रहे थे, तब उनके साथ बाल-शिशु स्वयंसेवक भी मस्ती करते हुए जा रहे थे। कार के पास आकर गुरुजी ने दरवाजा खोला, तब एक शिशु स्वयंसेवक ने पूछा, "क्यों जी, यह तेरी मोटरकार है ?" और शिशु के इस सवाल के साथ ही दोनों के बीच प्रश्नोत्तरी आरंभ हो गई-
"हाँ, मेरी है।"
" तू चलाता है इसे ?"
"हाँ, मैं चलाता हूँ।"
'तुझे मोटर चलाने की याद है ?" 46
“हाँ, मोटर मुझे याद है। "
“यार, तू कमाल है!" शिशु स्वयंसेवक ने आश्चर्य प्रकट किया। एक शिशु स्वयंसेवक सरसंघचालक परम पूजनीय गुरुजी, को प्रशस्ति देकर कह रहा है- "कमाल है तू तो । "
- श्री गुरुजी, एक स्वयंसेवक : नरेंद्र मोदी : पृष्ठ 24
@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,