क्यों लेती है सरकार मंदिरों से टैक्स भारत के मंदिरों पर कसता शिकंजा

भारत के मठ-मंदिर मात्र पूजा-अर्चना तथा भेंट अर्पित करने के स्थान न होकर समाज की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक चेतना तथा ज्ञान-विज्ञान के केंद्र रहे हैं।

Apr 28, 2024 - 13:47
May 2, 2024 - 17:43
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क्यों लेती है सरकार मंदिरों से टैक्स भारत के मंदिरों पर कसता शिकंजा

मठ-मंदिरों पर कसता सरकारी शिकंजा 

क्या सरकार मंदिरों से टैक्स लेती है

क्यों लेती है सरकार मंदिरों से टैक्स

भारत के मठ-मंदिर मात्र पूजा-अर्चना तथा भेंट अर्पित करने के स्थान न होकर समाज की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक चेतना तथा ज्ञान-विज्ञान के केंद्र रहे हैं। जैसे हृदय, रक्त के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं को ऑक्सीजन पहुंचाने तथा कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य अपशिष्ट बाहर निकालकर शरीर का पोषण करता है, उसी तरह मठ-मंदिर भी समाज में ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार तथा अज्ञान एवं कुरीतियों से संघर्ष के केंद्र रहे हैं।

मोदी सरकार में भारत के प्राचीन ...

मठ-मंदिरों पर समाप्त हो सरकारी नियंत्रण

भारत तथा के मठ-मंदिर मात्र पूजा-अर्चना तथा भेंट अर्पित करने के स्थान न होकर समाज की सांस्कृतिक, आध्यात्मिक एवं आर्थिक चेतना तथा ज्ञान-विज्ञान के केंद्र रहे हैं। जैसे हृदय, रक्त के माध्यम से शरीर की कोशिकाओं को ऑक्सीजन पहुंचाने तथा कार्बन डाइऑक्साइड एवं अन्य अपशिष्ट बाहर निकालकर शरीर का पोषण करता है, उसी तरह मठ-मंदिर भी समाज में ज्ञान-विज्ञान एवं संस्कृति के प्रचार-प्रसार तथा अज्ञान एवं कुरीतियों से संघर्ष के केंद्र रहे हैं।

मठ-मंदिर ऐसे संस्कार केंद्र रहे हैं जो मानव जीवन की वास्तविकता, व्यापकता एवं सार्थकता का अहसास तो कराते ही हैं, अहं ब्रह्मास्मि एवं धर्मो रक्षति रक्षितः जैसी अदृश्य, अव्यक्त एवं अनंत क्षमताओं का बोध कराने के माध्यम भी बनते हैं। सनातन की आशा, विश्वास, श्रद्धा एवं शक्ति के स्रोत होने के साथ ही ये उसकी संस्कारशाला तथा विशिष्ट वास्तुकला, चित्रकला, प्रौद्योगिकी एवं सर्वसाधारण के इकठ्ठा होकर उत्सव मनाने तथा अन्य सामाजिक कार्य करने की प्रेरणा देने वाले प्रेरणा स्थल रहे हैं। भारतवर्ष के अनेक राजा मंदिर में प्रतिष्ठित इष्ट देव को ही वास्तविक शासक मानकर उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। मेवाड़ के महाराणा श्री एकलिंग महादेव को मेवाड़ का शासक और स्वयं को उनका प्रतिनिधि अथवा दीवान मानते थे।

मंदिरों की संपत्ति पर नियंत्रण

अंग्रेजों के भारतीय सत्ता पर काबिज होने से पहले, भारत के मठ-मंदिरों का प्रबंधन भारत के स्थानीय समुदायों द्वारा किया था। उस कालखंड में विदेशी आक्रांताओं ने भारतीय समाज में हीन भावना जगाने, धर्मांतरण के लिए विवश करने तथा आर्थिक हितों की पूर्ति के लिए भारत के अनेक मठ-मंदिरों को न केवल लूटा बल्कि ध्वस्त करने एवं उनका स्वरूप बदलने का प्रयास भी किया। अयोध्या, मथुरा एवं काशी के साथ ही कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर, गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर, कर्नाटक का मंदिर, मदुरई (तमिलनाडु) का मीनाक्षी मंदिर, जौनपुर (उ०प्र०) का अटाला मंदिर इस बर्बरता और लूटमार के आज भी गवाह हैं।

फ्री हिंदू टेंपल: मंदिरों को सरकारी शिकंजे से कब मिलेगी मुक्ति?

अरब यात्री अल-बरुनी के सोमनाथ मंदिर की भव्यता एवं समृद्धि के वर्णन से प्रेरित हो महमूद गजनवी ने 8 जनवरी 1026 को सोमनाथ मंदिर पर आक्रमण कर वहां की विशाल संपत्ति को तो लूटा ही, वहाँ आए पुरुष श्रद्धालुओं एवं पुजारियों को मौत के घाट उतारा और महिलाओं तथा बच्चियों को दासता के नरक में झोंक दिया। इसी तरह भारत पर शासन करते हुए अंग्रेजों ने मठ-मंदिरों की संपत्ति को अपने नियंत्रण में लेने के लिए कई कानून बनाए। वर्ष 1925 में अंग्रेजों द्वारा लाए गए, 'Madras Religious and Charitable Endowments Act 1925' का जब मुस्लिमों और ईसाइयों ने विरोध किया तो उन्हें इससे बाहर रखकर इसका नाम बदलकर 'Madras Hindu Religious and Endowments Act 1927' करते हुए इसे केवल हिंदुओं के लिए लागू कर दिया गया। वर्ष 1947 में भारत के आजाद होने के बाद भारतीय समाज को विश्वास था कि सरदार वल्लभ भाई पटेल के नेतृत्व में शुरू हुआ सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार भारत के मठ-मंदिरों की स्वायत्तता का मार्ग प्रशस्त करेगा। परंतु इसके उलट यहां की सरकारें मठ-मंदिरों का संचालन येन केन प्रकारेण अपने हाथों में लेने का खेल खेलती रहीं जो आज भी भली-भांति जारी है। 

हालिया प्रकरण है कर्नाटक सरकार द्वारा 'कर्नाटक हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती (संशोधन) विधेयक 2024' का पारित किया जाना। इसकी परतें खंगालने पर पता लगता है कि, 'कर्नाटक हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम 1997 (Karnataka Hindu Religious Institutions and Charitable Endowments Act, 1997)' को कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा एक रिट अपील के कारण रद्द कर दिया गया था। तत्पश्चात उच्चतम न्यायालय द्वारा उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाते हुए अधिनियम के सेक्शन 25 को छोड़कर शेष अधिनियम को लागू करने की अनुमति दे दी गई थी। तत्पश्चात कर्नाटक सरकार ने निर्णय के प्रभावों के परीक्षण हेतु एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया और समिति की सिफारिशों के आधार पर इस अधिनियम को बदलने का निर्णय लिया। ज्ञात हो कि कर्नाटक सरकार का मुजरई विभाग लगभग 35000 मठ-मंदिरों का संचालन करता है।

वर्ष 2011 में संशोधित अधिनियम में अधिसूचित संस्थानों एवं सरकार से प्राप्त अनुदान से राज्य धार्मिक परिषद को सार्वजनिक पूल निधि (COMMON POOL FUND) बनाने के लिए अधिकृत किया गया। अधिनियम में यह व्यवस्था की गई थी कि जिन अधिसूचित संस्थानों की कुल आय 10 लाख रुपये से अधिक है उनसे उनकी शुद्ध आय का 10 प्रतिशत तथा जिनकी कुल आय 5 लाख रुपये से अधिक परंतु 10 लाख रुपये से अधिक नहीं है, उनकी शुद्ध आय का 5 प्रतिशत इस निथि में जमा होगा। हाल ही में कर्नाटक सरकार 'कर्नाटक हिंदू धार्मिक संस्थान और धर्मार्थ बंदोबस्ती (संशोधन) विधेयक 2024' लेकर आई जिसे पहली बार वहां के विधानमंडल ने खारिज कर दिया। परंतु हठधर्मिता दिखाते हुए कर्नाटक सरकार ने इसे तब पास करा लिया जब विपक्षी दल सदन का बहिष्कार कर रहे थे।

हालांकि इसमें विपक्ष की मिलीभगत से भी इंकार नहीं किया जा सकता, विशेषकर जब वो ही 2011 के अधिनियम के निर्माता रहे हों। इस कानून के अनुसार जिन मंदिरों की सालाना आमदनी 10 लाख रुपये से एक करोड़ रुपये के बीच है, उनसे पांच प्रतिशत और एक करोड़ रुपये से अधिक आमदनी वाले मंदिरों से 10 प्रतिशत रकम इकट्ठा कर राज्य धार्मिक परिषद द्वारा प्रशासित सार्वजनिक पूल रकम में रखने की व्यवस्था है। सरकार का तर्क है कि जमा धन का उपयोग पुजारियों तथा अन्य कर्मचारियों के परिवारों (लगभग 40000) के जीवन बीमा, मृत्यु लाभ, छात्रवृत्ति आदि के लिए किया जाएगा।

साथ ही सरकार नियंत्रित जिन मंदिरों की सालाना आय 5 लाख रुपये से कम है उनके रख रखाव में भी इसका उपयोग किया जाएगा। न केवल कर्नाटक अपितु अन्य सरकारें भी मठ-मंदिरों के बेहतर प्रबंधन के नाम पर नादिरशाही कानून बनाने की आदी रही हैं। धार्मिक स्वतंत्रता तथा धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता संबंधी भारतीय संविधान के 25वें एवं 26वें अनुच्छेद की पृष्ठभूमि में स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि यह व्यवस्था केवल मठ-मंदिरों के लिए ही क्यों? मठ-मंदिरों के प्रबंधन में ही सरकारी दखलंदाजी क्यों? आवश्यकता आज देश में इन विसंगतियों को और बढ़ाने नहीं अपितु उनकी जड़ों में मट्ठा डालने की है।

देश में जब एकसमान आचार संहिता पर बहस चल रही हो, उस समय ऐसे कानून बनाना समाज में भ्रम अवश्य पैदा करता है। क्या अब वह समय नहीं आ गया है जब संविधान के अनुरूप सभी मजहबों को समान अधिकार एवं धार्मिक स्वतंत्रता देते हुए सरकार मठ-मंदिरों को अपने चंगुल से अविलंब मुक्त करे? प्रशासनिक दक्षता एवं बेहतर प्रबंधन की आड़ में हड़पे गए मठ-मंदिर आज भी उपेक्षा, बदहाली और कुप्रबंधन के शिकार हैं। उदाहरण के लिए, तमिलनाडु सरकार के अनुसार वर्ष 1997-2018 (25 वर्ष) में प्रदेश के मठ-मंदिरों से लगभग 1000 मूर्तियों की चोरी हुई, जिनमें से मात्र 18 को ही पुनः प्राप्त किया जा सका।

आंकड़ों के अनुसार देश के एक लाख से अधिक मंदिरों पर जहां सरकारों का पूर्ण नियंत्रण है, अन्य मजहबों के पूजा स्थल सरकारी नियंत्रण से पूर्णतः मुक्त हैं। हालांकि भारतीय समाज के प्रयासों से इस दिशा में कुछ सराहनीय परिणाम आने अवश्य आरंभ हुए हैं। जैसे वर्ष 2021 में उत्तराखंड में बद्रीनाथ, केदारनाथ, यमनोत्री, तथा गंगोत्री सहित 51 मंदिरों को राज्य सरकार ने अपने नियंत्रण से मुक्त कर दिया। वहीं उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने भी अयोध्या नगर निगम को मंदिरों एवं अन्य धार्मिक संस्थानों से इस आधार पर हाउस टैक्स, वाटर टैक्स, सीवर टैक्स आदि न वसूलने के लिए कहा है कि ये मंदिर, धर्मशालाएं एवं परोपकारी संस्थान जनसेवा एवं पुण्य का कार्य कर रहे हैं।

अब संविधान का सम्मान करते हुए दलों की दलदल से निकलकर सभी सरकारों को थार्मिक स्थलों के नियंत्रण संबंधी कानूनों को स्वयं खत्म करना चाहिए। समानता एवं स्वतंत्रता केवल संविधान के पृष्ठों तक ही सीमित न होकर यथार्थ में परिलक्षित होनी चाहिए। आशा है सरकारों की मठ-मंदिरों पर आधिपत्य की गजनवी लिप्सा का अंत शीघ्र होगा।

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार