संविधान हत्या के पचास वर्ष….चार / टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते…

प्रशांत पोळ 1975 के अगस्त में, अपनी सुरक्षा के लिए संविधान संशोधन करने के पश्चात, इंदिरा गांधी और संजय गांधी लग गए अपने अगले लक्ष्य की ओर। दो बातें प्रमुखता से साध्य करनी थीं। एक… बचे-खुचे विपक्षियों को और संघ के स्वयंसेवकों को समाप्त करना। ऐसी दहशत निर्माण करना कि देश के किसी भी नागरिक […] The post संविधान हत्या के पचास वर्ष….चार / टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते… appeared first on VSK Bharat.

Jun 26, 2025 - 20:39
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संविधान हत्या के पचास वर्ष….चार / टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते…

प्रशांत पोळ

1975 के अगस्त में, अपनी सुरक्षा के लिए संविधान संशोधन करने के पश्चात, इंदिरा गांधी और संजय गांधी लग गए अपने अगले लक्ष्य की ओर। दो बातें प्रमुखता से साध्य करनी थीं। एक… बचे-खुचे विपक्षियों को और संघ के स्वयंसेवकों को समाप्त करना। ऐसी दहशत निर्माण करना कि देश के किसी भी नागरिक को सरकार के विरोध में बोलने की हिम्मत ही ना हो। और दूसरा… जनसंख्या कम करके, इस देश को सुंदर बनाना।

अभी तक जॉर्ज फर्नांडीस, नानाजी देशमुख, सुब्रमण्यम स्वामी आदि भूमिगत थे। अनेक संघ के प्रचारक सरकार के हाथ नहीं लगे थे। इनको गिरफ्तार तो करना ही था, साथ ही दहशत भी निर्माण करनी थी।

कैसी दहशत निर्माण करते थे, उसके उदाहरण —

07 अप्रैल 1976 के दिन, ‘दिल्ली उच्च न्यायालय बार एसोसिएशन’ के चुनाव हुए। अब बार एसोसिएशन क्यों न हो, दहशत के इस माहौल में क्या और कैसे चुनाव हो सकते हैं..? इसलिए इस चुनाव में संजय गांधी के चेले डी.डी. चावला बड़ी ही सहजता से जीत जाएंगे, ऐसा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को लग रहा था।

पर हुआ उल्टा। डी.डी. चावला को पटखनी देकर, दिल्ली के तिहाड़ जेल में बंद संघ के स्वयंसेवक, प्राणनाथ लेखी जीतकर आए। यही किस्सा ‘जिला बार एसोसिएशन’ में दोहराया गया। वहां पर भी कंवरलाल गुप्ता चुनकर आए।

फिर क्या था… गुस्सा आमसमान पर। दूसरे ही दिन कोर्ट परिसर में बुलडोजर भेज दिए। जिला और सेशंस कोर्ट के आसपास अनेक वकीलों के कार्यालय थे। संजय के आदेश पर, उस दिन 1000 से ज्यादा कार्यालयों पर बुलडोजर चलाया गया। यह छुट्टी का दिन था। जैसे ही वकीलों को पता चला, वह भागते – दौड़ते आए, अपना सामान, कागजात बचाने। पर कुछ नहीं हो सका। पुलिस ने उन्हें बड़ी निर्ममता से लाठी मार-मार कर भगाया।

वकीलों में आक्रोश निर्माण हुआ। दूसरे ही दिन, इस घटना का विरोध करने के लिए कुछ वकीलों ने, मुख्य न्यायाधीश टी.वी. आर. ताताचारी को ज्ञापन देने का निश्चय किया। ज्ञापन देने 43 सीनियर एडवोकेट एक बस से जा रहे थे। पुलिस ने बस को रोका। सभी को गिरफ्तार किया। 24 को ‘मीसा’ में और 19 लोगों को राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम में बंद किया। अगले ही सप्ताह और 700 कार्यालय ध्वस्त कर दिए गए। कुल 98 वकीलों को मीसा में बंद किया।

किसी की क्या हिम्मत रहेगी, सरकार के विरोध में बोलने की..?

कुछ करने के लिए इंदिरा गांधी ने एक 20 सूत्रीय कार्यक्रम जारी किया, तो संजय गांधी का 5 सूत्रीय कार्यक्रम था। यह कार्यक्रम अच्छे थे। किंतु इन्हें करने के लिए आपातकाल की आवश्यकता नहीं थी, और इन्हें लागू किया गया जुल्म और दहशत के आधार पर।

संजय गांधी के दिमाग में आया, दिल्ली को सुंदर करना है। तुरंत आदेश जारी हुए। नई दिल्ली और पुरानी दिल्ली के बीच, दरियागंज के पहले, दिल्ली गेट और तुर्कमान गेट आदि स्थानों पर घनी बसाहट हैं। 13 अप्रैल, 1976 को वहां बुलडोजरों की फौज खड़ी हुई। यह बैसाखी का दिन था। बस्ती में धूमधाम थी। 16 अप्रैल को स्थानीय हिन्दू और मुस्लिम बुजुर्गों ने, मंत्री एचकेएल भगत से मिलकर निवेदन दिया कि हमारे घरों को ना गिराया जाए। मंत्री जी ने आश्वस्त भी किया।

किंतु 19 अप्रैल से बुलडोजर आगे बढ़ने लगे। उन्हें रोकने के लिए सारी बस्ती सड़क पर उतर आई। दोपहर को पुलिस ने जमा हुई भीड़ पर लाठी भांजना चालू किया। आंसू गैस के गोले भी फोड़े। किंतु क्या पुरुष, क्या महिला, क्या बच्चे… कोई भी हिलने को तैयार नहीं।

इस घटना से कुछ दूरी पर पर्यटन विभाग का एक सरकारी होटल था – होटल रणजीत। चार सितारा होटल। इस होटल के सामने के हिस्से में, चौथी मंजिल पर एक कमरा था। उसमें संजय गांधी, रुखसाना सुल्ताना के साथ बैठे हुए दूरबीन से यह सारा दृश्य देख रहे थे। पास वॉकी-टॉकी भी थी। जब भीड़ नहीं हट रही यह देखा, तो कहते हैं, उसने पुलिस आयुक्त को गोली चलाने के आदेश दिए।

और फिर जो रणक्रंदन तुर्कमान गेट पर हुआ, उसे देखकर जलियांवाला बाग के नरसंहार की याद आ गई। 14 बुलडोजर लोगों को रौंदते हुए अंदर घुसे। 1000 से ज्यादा घर जमींदोज किए गए।। 150 से ज्यादा लोग मारे गए, कुचले गए। पुलिस ने वहां के रहवासियों को न सिर्फ बुरी तरीके से पीटा, वरन् उनका बचा-खुचा माल भी लूट कर ले गए। अगले 45 दिन, तुर्कमान गेट परिसर कर्फ्यू में कराह रहा था..!

जो व्यक्ति, मंत्री, सांसद, विधायक तो छोड़िए, साधारण पार्षद भी नहीं था, ऐसे दबंगई ऐसे चलती थी..! (इस दुर्दांतक, भयानक घटना के बारे में एक अक्षर भी समाचार पत्रों में नहीं छप सका। सूचना प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल की दबंगई भी ऐसी ही थी..!)

दूसरा था,… नसबंदी। इस नसबंदी की मुहिम ने इतना आतंक मचाया कि लाखों पुरुषों का जीवन बर्बाद हुआ। अनेकों ने इसके कारण आत्महत्या की।

इंदिरा गांधी के चुनाव क्षेत्र, रायबरेली के पास, सुल्तानपुर का किस्सा – यहां के नारकादि गांव में जबरन नसबंदी करने के विरोध में जब गांव वाले इकट्ठा हुए, तो पुलिस ने उन पर गोली चलाई। 13 लोग मारे गए। सैकड़ों जख्मी हुए। पास के एक गांव में 25 लोग गोली से उड़ा दिए गए। अनेक हमेशा के लिए अपाहिज बन गए। पूरे उत्तर भारत में जबरन नसबंदी कार्यक्रम में सैकड़ों लोग, पुलिस की गोली के शिकार हुए। राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने, अपने आप को साबित करने के लिए नसबंदी को माध्यम माना। लक्ष्य से भी ज्यादा नसबंदी ऑपरेशंस अनेक राज्यों ने किए।

देश में दहशत का वातावरण था। न्यायालय में जाने का कोई रास्ता नहीं था, क्योंकि कोई सुनवाई ही नहीं थी। आपातकाल में बंद सारे कैदी, राजनीतिक बंदी थे। उन्हें उसी प्रकार की सुविधाएं अपेक्षित थीं। किंतु कहीं भी उनका पालन नहीं हुआ।

ग्वालियर की राजमाता विजयाराजे सिंधिया और जयपुर की महारानी गायत्री देवी को दिल्ली की तिहाड़ जेल में, एक गंदी कोठडी में रखा। उनके साथ वेश्याएं और गुनहगार स्त्रियों को रखा गया, ताकि इन दोनों राजपरिवार की स्त्रियों का मनस्वास्थ्य खराब हो।

ऐसे निराशाजनक वातावरण में, बेंगलुरु के कारागृह से अटल बिहारी वाजपेई जी ने एक कविता लिखी, जो चोरी छिपे भूमिगत पत्र के माध्यम से सारे समाज में पहुंचने लगी। इस कविता ने उन दिनों कार्यकर्ताओं का मनोबल ऊंचा रखा था –

टूट सकते हैं, मगर हम झुक नहीं सकते..

सत्य का संघर्ष सत्ता से,

न्याय लड़ता निरंकुशता से,

अंधेरे ने दी चुनौती है,

किरण अंतिम अस्त होती है।

दीप निष्ठा का लिए निष्कम्प,

वज्र टूटे या उठे भूकंप,

यह बराबर का नहीं है युद्ध,

हम निहत्थे, विरोधी हैं सन्नद्ध

हर तरह के शस्त्र से है सज्ज,

और पशुबल हो उठा निर्लज्ज।

किंतु फिर भी जूझने का प्रण,

पुन: अंगद ने बढ़ाया चरण,

प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार,

समर्पण की मांग अस्वीकार।

दांव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते।

टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते..!

(क्रमशः)

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