"द इमरजेंसी" ... जब एक तानाशाह के अहंकार ने देश के संविधान को उखाड़ के फेंक दिया था ....
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भारत में संविधान और लोकतंत्र की हत्यारी, अंग्रेजी शासन के नौकरशाह A.O.Hume के द्वारा स्थापित पार्टी, अंग्रेज़ों की मानसिकता वालो के दत्तक पुत्री का कारनामा -- पचीस जून 1975 को भारत में इमरजेंसी लगा कर सविधांन को खत्म कर दिया था इंदिरा गाँधी का कारनामा - देश पर एक कलंक “इमर्जेंसी " लगाने वाली खानदानी के जहरीले लोग अपने द्वारा तहस नहस किये संविधान की पुस्तक हाथ में लेकर कल नौटंकी कर रहे थे ...
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इमर्जेंसी समर्थक कम्युनिस्ट गैंग भी आज कल संविधान बचाने का नौंटकी कर रही है .... आपके सामने भारतीय संविधान के प्रस्तावना की वास्तविक प्रति है, जिसके बारे मे सविधांन निर्माती सभा ने यह निर्धारित किया था की इसमें कोई भी छेड़छाड़ नही कर सकता है, लेकिन पुरे देश को जेल मे डालकर आज जो नौंटकी कर रहे है इन्होंने बाबा साब के सविधांन को बदल दिया था
पढ़ें: कैसे लगा आपातकाल, कैसे बरपा सरकारी कहर। 25/6/1975
नई दिल्ली। हिंदुस्तान की नौजवान पीढ़ी, आज के आजादी के माहौल में खुलकर अपने विचार रखती है। सरकार की आलोचना भी करती है लेकिन सोचिए अगर नौजवानों को फेसबुक की हर पोस्ट पहले सरकार को भेजनी पड़े और सरकार जो चाहे वही फेसबुक पर दिखे तो क्या होगा।
अगर, ट्विटर, व्हाट्स एप के मैसेज पर लग जाए सेंसर टीवी पर वही दिखे-अखबार में वही छपे जो सरकार चाहे, यानी लग जाए, बोलने लिखने सुनने की आजादी पर सेंसर तो क्या होगा? आज की पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती, लेकिन जिन लोगों ने 40 साल पहले आपातकाल का दौर देखा है, वो जानते हैं तब क्या होगा?
40 साल पहले जब इंदिरा गांधी सरकार ने आपातकाल लगाया था तो जुल्म का ऐसा ही दौर चला था। सवाल ये है कि 40 साल पहले देश में क्या हुआ कि आपातकाल की जरूरत पड़ गई, वो आपातकाल जो आजाद भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है।
कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने कहा कि जैसी स्थिति थी उस समय उसे देखते हुए ये लगाना जरूरी लगा था। विपक्ष द्वारा सेना से सरकार के हुक्म न मानने की अपील करना, सरकार को उखाड़ फेंकने की बात करना एक तरह से बगावत का माहौल बन गया था। शायद इसीलिए इमरजेंसी लगानी पड़ी। आपातकाल का वो दौर इतना भयानक था कि कांग्रेस भी अब उसे भूल मानती है लेकिन, उस वक्त की बगावत जैसे हालात की दुहाई भी दी जाती है तो क्या देश में सचमुच बगावत के हालात बन रहे थे? सच ये है कि सरकार की नीतियों की वजह से महंगाई दर 20 गुना बढ़ गई थी। गुजरात और बिहार में शुरू हुए छात्र आंदोलन से उद्वेलित जनता सड़कों पर उतर आई थी। उनका नेतृत्व कर रहा था सत्तर साल का एक बूढ़ा जिसने इंदिरा सरकार की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ संपूर्ण क्रांति का नारा दिया।
रामलीला मैदान में रैली से हिली इंदिरा सरकार:
जिस रात को इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की, उस रात से पहले दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की अगुवाई में एक विशाल रैली हुई। वो तारीख थी 25 जून 1975। इस रैली में लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरागांधी को ललकारा था और उनकी सरकार को उखाड़ फेंकने का आह्वान किया। इस रैली में कांग्रेस और इंदिरा विरोधी मोर्चे की मुकम्मल तस्वीर सामने आई, क्योंकि इस रैली में विपक्ष के लगभग सभी बड़े नेता थे। यहीं पर राष्ट्रकवि दिनकर की मशहूर लाइनें सिंहासन खाली करो कि जनता आती है की गूंज नारा बन गई थी।
इंदिरा, 12 जून 1975 को आए इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले से पहले से पहले ही बेचैन थीं जिसमें रायबरेली से उनका चुनाव निरस्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट से भी उन्हें आधी राहत मिली थी। आखिरकार उन्होंने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे की सलाह पर धारा-352 के तहत देश में आंतरिक आपातकाल लगाने का फैसला किया।
वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और इंदिरा गांधी के सहायक आर के धवन कहते हैं कि अगर कोई एक व्यक्ति जिम्मेदार हो तो वो सिद्धार्थ शंकर रे थे जिनका रोल सबसे अहम था। 29 जून को कांग्रेस विरोधी ताकतों ने हड़ताल का अह्वान किया था इसलिए 25 जून को इमरजेंसी लगानी पड़ी क्योंकि पहले से ही हालत काफी खराब थी।
आधी रात को हुई आपातकाल की घोषणा:
25 और 26 जून की दरमियानी रात आपातकाल के आदेश पर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के दस्तखत के साथ देश में आपातकाल लागू हो गया। अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना कि भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।
लेकिन, सच इंदिरा की घोषणा से ठीक उलटा था। देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था। रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर के धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था।
नामों पर बार बार इंदिरा गांधी से सलाह मश्विरा किया जा रहा था। 26 जून की सुबह जब इंदिरा सोने गईं तब तक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे। मगर ये तो अभी शुरुआत ही थी, क्योंकि जुल्म का दौर अब शुरू ही होने वाला था जिसने अगले 19 महीने तक देश को दहलाए रखा।
आपातकाल, मतलब सरकार को असीमित अधिकार:
आपातकाल वो दौर था जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा 352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है। आपात काल का मतलब था, - इंदिरा जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं।
- लोकसभा विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी।
- मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे
- सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।
सारे विपक्षी नेताओं को जेल, मीसा डीआईआर का कहर सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई।
कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई। उस काले दौर में जेल यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं।
देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने समझने का मौका मिला। लालू नीतीश और सुशील मोदी जैसे बिहार के नेताओं ने इसी पाठशाला में अपनी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पढ़ाई की।
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे।
संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया उसके लिए जेल के दरवाजे खुले थे। मीडिया ही नहीं न्यायपालिका भी डर गई थी।
दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के आर्टिकल 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस पर मुहर लगा दी। यहां तक कहा गया कि
किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती क्योंकि आर्टिकल 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं। लिहाजा जुल्म की इंतेहा ही हो गई।
बॉलीवुड पर भी चला सरकारी डंडा:
विरोध प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक कवि और फिल्म कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। कहते हैं मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुंह बंद करने के लिए ही नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रशंसा कराने के लिए भी विद्या चरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए थे। उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने गाने पर मजबूर किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए, उनके घर पर आयकर के छापे पड़े। अमृत नाहटा की फिल्म 'किस्सी कुर्सी का' को सरकार विरोधी मान कर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलजार की आंधी पर भी पाबंदी लगाई गई। आर के धवन कहते हैं कि संजय गांधी के पॉलीटिक्स में आने के बाद 5 सूत्रीय प्रोग्राम के तहत नसबंदी का मामला खराब हो गया और जब इंदिरा को लगा कि अब दुरुपयोग हो रहा है तो उन्होंने इमरजेंसी हटाने का फैसला किया।
वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि संजय गांधी ने मुझे बताया कि वो 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए।
एक बार इंदिरा ने कहा था कि आपातकाल लगने पर विरोध में कुत्ते भी नहीं भौंके थे, लेकिन 19 महीने में उन्हें गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने अचानक ही मार्च में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया। 16 मार्च को हुए चुनाव में इंदिरा और संजय दोनों ही हार गए। 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया लेकिन पीछे छोड़ गया है लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक।