संविधान हत्या दिवस – राष्ट्र सेविका समिति और आपातकाल

25 जून 1975, भारतीय लोकतंत्र का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन। देश में आपातकाल लगा दिया गया। कई संस्थाओं और संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कई राजनीतिक/सामाजिक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल था। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और कई लोग कारावास में गये। जेलें भर गईं। अनेक […] The post संविधान हत्या दिवस – राष्ट्र सेविका समिति और आपातकाल appeared first on VSK Bharat.

Jun 26, 2025 - 20:38
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संविधान हत्या दिवस – राष्ट्र सेविका समिति और आपातकाल

25 जून 1975, भारतीय लोकतंत्र का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण दिन। देश में आपातकाल लगा दिया गया। कई संस्थाओं और संगठनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। कई राजनीतिक/सामाजिक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। उनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शामिल था। संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया और कई लोग कारावास में गये। जेलें भर गईं।

अनेक कार्यकर्ता भूमिगत होकर काम कर रहे थे। इस दौरान राष्ट्र सेविका समिति का काम भी प्रभावित हुआ, कई सेविकाओं को कष्ट उठाना पड़ा।

लेकिन वंदनीया मौसी जी (लक्ष्मीबाई केलकर) और ताई (सरस्वती ताई आपटे) के मार्गदर्शन में सेविकाओं ने धैर्य के साथ इसका सामना किया।

एक तो संघ के जो स्वयंसेवक पकड़े गए, उनके घरों में मातृशक्ति आरंभ में संभ्रमित हो गई क्योंकि सबसे बड़ी चिंता आर्थिक थी। चूंकि परिवार का मुखिया पुरुष कारावास में था, इसलिए पैसे की समस्या बहुत बड़ी थी।

ऐसे में कई महिलाओं ने काम करना शुरू कर दिया अथवा उन्होंने छोटा-बड़ा काम ढूंढकर पैसे कमाना शुरू किया। कई महिलाएं पापड़ आदि खाद्य पदार्थ, लड्डू आदि बनाकर अथवा सिलाई या फॉल-पिको जैसे काम करके मार्ग निकाल रही थीं। उस समय डर के मारे सगे-संबंधी भी दूर हो गए थे। लेकिन समिति की सेविकाएं उनके पीछे मजबूती से खड़ी रहीं।

समिति का दैनिक कार्य कुछ अलग रूप में जारी था क्योंकि प्रतिबंधित संगठनों में समिति का नाम नहीं था। इसलिए समिति का काम जारी था। सेविकाएं राजबंदियों के घर जाकर परिवार को मानसिक संबल प्रदान करना, उनकी समस्याओं में मदद करना, बीमारी हो या बच्चों की पढ़ाई-लिखाई, सभी तरह के काम सेविकाएं सुचारू रूप से कर रही थीं। उस समय सेविकाओं ने कई जोखिम भरे काम भी किए जैसे कि भूमिगत हुए कार्यकर्ताओं, नेताओं को अपने घरों में रखना और किसी को पता न लगने देना कि वे घर में हैं, साथ ही महत्वपूर्ण संदेश/दस्तावेज पहुंचाना आदि।

वास्तव में जिन परिवारों के पुरुष कारावास में थे, वहां की महिलाओं को त्योहारों या समारोहों में बुलाने से परहेज किया जाने लगा। इससे मानसिक परेशानी तो होती ही थी। परिवार के पुरुष कारावास में थे, इसलिए आर्थिक तंगी भी थी। ऊपर से घर के सारे काम, सारी जिम्मेदारियां अकेले ही संभालना और समाज में उपेक्षा! ऐसी स्थिति में उन्होंने साहसपूर्वक मार्ग बनाया। समिति के संस्कार काम आए।

आपातकाल के विरोध में आंदोलन करने, और सत्याग्रह करने का निर्णय लिया गया। उस समय मौसी जी ने सेविकाओं को सक्रिय भाग लेने को कहा। इसके अनुसार अनेक सेविकाएं सहभागी हुईं। उन्होंने कारावास सहन किया।

मौसी जी और ताई स्वयं राजबंदियों के घर जाकर उन्हें हिम्मत देने का काम करती थीं। सेविकाएं सभी त्योहारों पर कारागार में स्वयं जाकर सभी भाइयों से मिलती थीं। राखी पूर्णिमा, दशहरा, दीवाली आदि पर उनसे मिलती थीं और उनके साथ त्यौहार मनाती थीं। सेविकाओं ने उस समय सभी का मनोबल बढ़ाने का महत्वपूर्ण कार्य किया।

अंततः 1977 में चुनाव की घोषणा हुई। उस समय सभी महिलाओं ने उत्साहपूर्वक प्रचार कार्य किया। उनसे जो बन पड़ा, उन्होंने किया। नुक्कड़ सभा हो या बड़ी जनसभा, चुनाव प्रचार, नारे लगाना, भाषण देना, घर-घर जाकर प्रचार करना, उसके लिए धन इकट्ठा करना, सभी तरह के काम करके उन्होंने सफलता प्राप्त की।

आज इस घटना के पचास वर्ष हो रहे हैं, लेकिन उस दिन को भूलना मुश्किल है। पर एक बात अवश्य हुई, मातृशक्ति ने सही अर्थों में सभी मोर्चों पर सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी।

शैलजा देशपांडे

पश्चिम महाराष्ट्र प्रांत कार्यवाहिका

राष्ट्र सेविका समिति, पुणे

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