सनातन की ज्योति और आधुनिक दौर में वैदिक पुनर्जागरण

डॉ. राधा मिश्रा काशी सदियों से भारतीय आध्यात्मिकता का हृदय रही है। गंगा की निरंतर बहती धारा की तरह यहाँ परंपरा भी अखंड रूप में प्रवाहित होती रही है। इसी पावन धरती पर हाल ही में एक ऐसी घटना घटी, जिसने देश-विदेश के विद्वानों, साधकों और युवाओं सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 19 […] The post सनातन की ज्योति और आधुनिक दौर में वैदिक पुनर्जागरण appeared first on VSK Bharat.

Dec 17, 2025 - 16:26
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सनातन की ज्योति और आधुनिक दौर में वैदिक पुनर्जागरण

डॉ. राधा मिश्रा

काशी सदियों से भारतीय आध्यात्मिकता का हृदय रही है। गंगा की निरंतर बहती धारा की तरह यहाँ परंपरा भी अखंड रूप में प्रवाहित होती रही है। इसी पावन धरती पर हाल ही में एक ऐसी घटना घटी, जिसने देश-विदेश के विद्वानों, साधकों और युवाओं सभी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। 19 वर्ष के एक युवक, देवव्रत महेश रेखे, ने वह उपलब्धि हासिल की है, जिसे बीती कई पीढ़ियों ने केवल सुना था, देखा नहीं था।

देवव्रत ने शुक्ल यजुर्वेद की माध्यंदिन शाखा का दंडक्रम पारायण, यानी लगभग 2000 मंत्रों का अत्यंत जटिल क्रम, लगातार 50 दिनों में पूर्ण किया। यह कोई साधारण पाठ नहीं था। यह लगभग 25 लाख वैदिक पदों का अनवरत उच्चारण था, जिसमें स्वर, गति और शुद्धता का संतुलन पल भर भी नहीं टूटा।

इस प्रकार की साधना न केवल शारीरिक सामर्थ्य, बल्कि मन के विलक्षण अनुशासन की मांग करती है। इसी कारण जब यह पूर्ण हुआ, तो काशी के “श्री वल्लभराम शालिग्राम सांगवेद विद्यालय” में एक गहन आध्यात्मिक वातावरण बन गया। वरिष्ठ आचार्यों ने इसे दुर्लभ उपलब्धि बताया, और देश के प्रधानमंत्री ने भी इसे युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा के रूप में सराहा।

देवव्रत का आरंभिक संस्कार और साधना की यात्रा

महाराष्ट्र के अहिल्यानगर में जन्मे देवव्रत एक साधारण, किंतु आदर्श संस्कारों वाले परिवार से आते हैं। उनके पिता महेश चंद्रकांत रेखे स्वयं वैदिक विद्या के ज्ञाता हैं। बच्चों में अध्ययन का बीज अक्सर घर से ही पड़ता है, और यही देवव्रत के साथ हुआ। कम उम्र में ही जब अन्य बच्चे खेल या मोबाइल के आकर्षण में रहते थे, देवव्रत मंत्रों का अभ्यास करते, सूक्ष्म उच्चारणों को समझते और पिता से लंबी-लंबी कक्षाएँ लेते।

वैदिक अध्ययन सामान्यतः वर्षों लेता है, परंतु देवव्रत ने इसे अपने निरंतर अभ्यास से असाधारण गति से आत्मसात किया। काशी पहुँचने के बाद जब उन्होंने 50 दिन की अखंड साधना का संकल्प लिया, तब किसी को भी अंदेशा नहीं था कि यह युवा बिना किसी चूक, बिना किसी विश्राम के इसे पूरा कर दिखाएगा।

उनकी साधना का अनुशासन सुनने वालों को विस्मित कर देता है। ब्रह्ममुहूर्त में आरंभ, दिन भर मंत्र जाप, और रात्रि में अल्प विश्राम। न कोई बाहरी व्यवधान, न कोई मानसिक विचलन। यह वह स्थिति है, जिसमें साधक स्वयं से आगे बढ़कर परंपरा का माध्यम बन जाता है।

परंपरा की शक्ति और युवा मन की संभावना

देवव्रत की इस उपलब्धि का सबसे बड़ा संदेश यह है कि परंपरा बोझ नहीं, अपितु शक्ति का स्रोत है।

आज के समय में जब शोर, भ्रम और त्वरित मनोरंजन ने युवाओं को व्यस्त रखा है, तब यह समझना जरूरी है कि मन की असली स्थिरता ज्ञान और साधना से आती है। देवव्रत ने यह दिखाया कि आधुनिक दुनिया का युवा भी चाह ले तो वैदिक विद्या में अद्भुत ऊँचाई प्राप्त कर सकता है। यह उपलब्धि सिद्ध करती है कि सनातन संस्कृति केवल इतिहास नहीं, एक जीवित परंपरा है जो आज भी उसी सामर्थ्य से फल-फूल सकती है जैसे पूर्व में होती थी।

वर्तमान परिस्थितियों में उपलब्धि का महत्व

आधुनिक समय में तेज़ बदलावों के बीच परंपरा के विरुद्ध कई धारणाएँ प्रसारित होती रही हैं। कभी शिक्षा के नाम पर, कभी मनोरंजन के नाम पर, और कभी प्रगतिवाद के नाम पर।

धर्म को पिछड़ा, परिवार को पुराना और संस्कृति को अप्रासंगिक बताने की प्रवृत्ति ने अनेक युवाओं को भ्रमित किया है।

लेकिन देवव्रत की साधना ऐसे समय में एक अलग ही दिशा दिखाती है।

उनका प्रयास किसी के विरोध में नहीं, बल्कि इस घोषणा में है कि, “ज्ञान वही स्थायी है जो मन को निर्मल करे और जीवन को अनुशासन दे।” जब एक 19 वर्षीय युवा वेदों के माध्यम से यह आदर्श प्रस्तुत करता है, तब यह केवल व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं रहती हैं, यह समाज के लिए संकेत बन जाती है कि हमारी जड़ें आज भी उतनी ही जीवंत हैं जितनी सदियों पहले थीं।

ऐसे उदाहरण आत्मविश्वास जगाते हैं कि भारत की संस्कृति को कोई बाहरी प्रभाव या अस्थायी विचारधारा कमजोर नहीं कर सकती, क्योंकि इसकी शक्ति भीतर से आती है वो साधना, ज्ञान, और गुरु-परंपरा से।

युवा पीढ़ी और समाज पर प्रभाव

देवव्रत की साधना के वीडियो और विवरण जब व्यापक रूप से साझा हुए, तो हजारों युवाओं ने उनमें प्रेरणा देखी। कई परिवारों में माता-पिता ने बच्चों को भारतीय ज्ञान परंपरा की ओर प्रोत्साहित करना शुरू किया। कई विद्यालयों में वैदिक अध्ययन के प्रति नई रुचियाँ जागीं। इसका वास्तविक महत्व आंकड़ों में नहीं, चेतना में है। जब एक युवा तप, अनुशासन और साधना का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करता है, तो वह अपने साथ अनेक युवाओं को भी दिशा देता है। यह नारे या भाषणों से नहीं होता ,यह जीवन जीने के ढंग से होता है, और देवव्रत ने अपने उदाहरण से यही सिद्ध किया।

देवव्रत महेश रेखे किसी परिचय के आश्रित नहीं। उनकी आयु भले कम हो, पर साधना की ऊँचाई अत्यंत बड़ी है। उन्होंने यह दिखाया कि अनुशासन, श्रद्धा और सतत अभ्यास से आज भी वैदिक परंपरा उसी प्राणवान चमक के साथ पुनर्जीवित हो सकती है। उनका 50 दिनों का दंडक्रम पारायण केवल एक अनुष्ठान नहीं, यह भारत की सांस्कृतिक आत्मा की पुनः पुष्टि है। यह घटना हमें याद दिलाती है कि समय चाहे जितना बदल जाए, परंतु वेद और उनसे निकली ज्ञान परंपरा हमेशा प्रकाश का स्रोत है और रहेगी।

देवव्रत ने केवल वेदों का पाठ नहीं किया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि “सनातन की ज्योति आज भी उतनी ही उजली है, और भविष्य के लिए अनंत आशा का दीप जला सकती है।”

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