विदेशी चंदे से आर्थिक आतंकवाद

आज से लगभग 40 वर्ष पहले 1985 में गुजरात सरकार ने नर्मदा नदी पर एक विशाल बांध और जल विद्युत परियोजना की रूपरेखा बनाई थी। इस परियोजना का उद्देश्य कच्छ और सौराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों को पीने और सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के साथ तीन राज्यों मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र को पर्याप्त […]

Dec 16, 2024 - 15:09
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विदेशी चंदे से आर्थिक आतंकवाद

आज से लगभग 40 वर्ष पहले 1985 में गुजरात सरकार ने नर्मदा नदी पर एक विशाल बांध और जल विद्युत परियोजना की रूपरेखा बनाई थी। इस परियोजना का उद्देश्य कच्छ और सौराष्ट्र के सूखाग्रस्त इलाकों को पीने और सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने के साथ तीन राज्यों मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र को पर्याप्त बिजली उपलब्ध कराना था। लेकिन जैसे ही सरकार ने इस परियोजना की घोषणा की, वैसे ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं के एक समूह ने खुद को पर्यावरणविद् के रूप में प्रस्तुत करते हुए प्रस्तावित परियोजना के विरुद्ध मुहिम छेड़ दी। इस मुहिम को ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ का नाम दिया गया। इस तथाकथित आंदोलन के जरिये वे इस परियोजना को दो दशक से अधिक समय तक बाधित करने में सफल रहे।

विदेशी शक्तियों के प्यादे

सुमित मेहता
चार्टर्ड अकाउंटेंट एवं ‘डाइग्नोसिंग जीएसटी फॉर डॉक्टर्स’ के लेखक

इन तथाकथित ‘पर्यावरणविदों’ के कुत्सित एजेंडे के कारण कच्छ और सौराष्ट्र के सुदूर सूखाग्रस्त इलाकों में मानवीय दृष्टि से पीने का पानी पहुंचाने और क्षेत्र के आर्थिक विकास में अनावश्यक देरी हुई। बाद में पता चला कि इस तथाकथित आंदोलन के लिए विदेशों से पैसा मिला था। बाकायदा ‘पर्यावरणविदों की एक स्थायी सेना’ बनाने और परियोजना को बाधित करने के लिए विदेशी योगदान अधिनियम-2010 (एफसीआरए) को ताक पर रखकर अवैध रूप से विदेशों से धन प्राप्त किया गया था। ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ चलाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अमेरिका के मैकआर्थर फाउंडेशन और ब्रिटेन के आक्सफैम से 42,000 अमेरिकी डॉलर मिले थे। साथ ही, उन्हें राइट लाइवलीहुड फाउंडेशन और गोल्डमैन फाउंडेशन जैसी विदेशी संस्थाओं से भी पैसे मिल रहे थे।

यह एकमात्र मामला नहीं है, जब एनजीओ का उपयोग करके देश में औद्योगिक और ढांचागत विकास को लक्षित किया गया। विदेशी शक्तियां भारत और इसकी अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने में जुटी हुई हैं। विदेशी शक्तियों के एजेंट और मुखौटा पर्यावरणविदों के रूप में काम करने वाले एनजीओ ने उनके एजेंडे को आगे बढ़ाया। इसे विदेशी शक्तियों द्वारा फैलाया गया आर्थिक आतंकवाद कहा जा सकता है, जो भारत को आर्थिक रूप से विकसित होते नहीं देखना चाहतीं। इस दृष्टि से मेधा पाटकर द्वारा चलाया गया ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ कोई अकेला मामला नहीं है। 2011 में तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र के विरुद्ध भी सुनियोजित षड्यंत्र रचा गया था। विदेशी पैसे के दम पर इस परमाणु परियोजना को ठप करने के लिए लोगों को लामबंद किया गया।

मनमोहन सिंह की स्वीकारोक्ति

फरवरी 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी विदेशी वित्त पोषित एनजीओ पर परमाणु ऊर्जा संयंत्र परियोजना के काम को बाधित करने का आरोप लगाया था। बाद में यह भी पता चला था कि तीन एनजीओ ने एफसीआरए का उल्लंघन कर पांथिक और सामाजिक कार्यों के लिए मिले दान के पैसे को विरोध प्रदर्शनों पर खर्च किया था। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, इस विरोध प्रदर्शन में तूतीकोरिन डायोसीज एसोसिएशन और तूतीकोरिन मल्टीपर्पज सोशल सर्विस सोसाईटी नामक एनजीओ भी शामिल थे, जिनका एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया गया था।

बताया जाता है कि इन एनजीओ ने परमाणु ऊर्जा परियोजना के विरुद्ध राजनीतिक विरोध प्रदर्शन के लिए लगभग 1.5 करोड़ रुपये खर्च किए थे। उस समय मनमोहन सिंह ने एक समाचार चैनल के विज्ञान संवाददाता से कहा था, ‘‘परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम मुश्किल में पड़ गया है, क्योंकि ये एनजीओ, जिनमें से अधिकतर संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थित हैं, नहीं चाहते कि हमारा देश ऊर्जा आपूर्ति बढ़ाए।’’

बाद में हमने भारत में बीटी बैंगन के खिलाफ भी इसी तरह के विदेशी वित्त पोषित विरोध प्रदर्शन देखे। उस समय भी मनमोहन सिंह ने इस विरोध को वित्त पोषित करने के लिए अमेरिका और स्कैंडिनेवियाई देशों के विदेशी वित्त पोषित एनजीओ पर आरोप लगाया था। उन्होंने कहा था, ‘‘ऐसे एनजीओ हैं, जिन्हें अक्सर संयुक्त राज्य अमेरिका और स्कैंडिनेवियाई देशों से वित्त पोषित किया जाता है, जो हमारे देश के सामने आने वाली विकास चुनौतियों की पूरी तरह से सराहना नहीं करते हैं।’’

निशाने पर आर्थिक विकास

अब विदेशी शक्तियों के निशाने पर देश का आर्थिक और बुनियादी ढांचा विकास है, जिसे वे भारत के अंदर और बाहर एनजीओ और लोगों का उपयोग करके बाधित या विलंबित या तहस-नहस करना चाहती हैं। ऐसे एनजीओ की सूची लंबी और अंतहीन है। 2018 में चीन द्वारा वित्त पोषित गैर सरकारी संगठनों ने तूतीकोरिन में वेदांता के स्टरलाइट कॉपरस्मेल्टर की भारत की निर्यात उन्मुख विनिर्माण सुविधा पर आर्थिक आतंकी हमला किया था।

उस समय भारत दुनिया में तांबे का सबसे बड़ा निर्यातक था। तब चीन ने तांबा निर्यातकों की एक लंबी सूची बनाई थी, जिसकी जानकारी लंदन मेटल एक्सचेंज (एलएमई) और अन्य कमोडिटी एक्सचेंज को ईमानदारी से नहीं दी थी। अगर चीन को अंतरराष्ट्रीय बाजार में उस इन्वेंट्री को खत्म करना पड़ता, तो तांबे की कीमतें गिर जातीं। इसका समाधान था- तमिलनाडु में वेदांता के तांबा स्मेल्टर को रोकना। इसके लिए चीन ने लंदन में ‘फॉइल वेदांत’ नाम से एक एनजीओ बनाया और भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुंचाने के लिए सुनियोजित वित्त पोषित मुहिम चलाई।

वेदांता के कॉपर स्मेल्टर के बंद होने के कारण भारत, जो तांबे का विशुद्ध निर्यातक था, तांबे का विशुद्ध आयातक बन गया। इससे देश को हजारों करोड़ रुपये की मूल्यवान विदेशी मुद्रा का नुकसान हुआ। साथ ही, भारतीय श्रमिक और वेतनभोगी वर्ग की नौकरियां और आय खत्म हो गई, क्योंकि तूतीकोरिन में छोटे और मध्यम उद्योगों के साथ-साथ वेदांता के तांबा स्मेल्टर पर निर्भर अन्य सभी छोटे व्यापारिक प्रतिष्ठानों का कारोबार खत्म हो गया और उन्हें आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा।

तमिलनाडु में कुडनकुलन परमाणु परियोजना के खिलाफ प्रदर्शन प्रायोजित था

चीन का एजेंडा

चीन अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने और अपने आर्थिक हितों की रक्षा के लिए भारत की विदेशी मुद्रा अर्जित करने वाली कंपनी पर आर्थिक आतंकी हमले को अंजाम देने और भारत के आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाने में सफल रहा। इसी तरह, फरवरी 2023 में हिंडनबर्ग नाम के एक विदेशी शॉर्ट सेलर का इस्तेमाल अडाणी समूह, जो एक अंतरराष्ट्रीय ढांचागत विकास और संचालक है, को लक्षित करने के लिए किया गया था। अडाणी समूह भारत में बंदरगाहों, हवाईअड्डों, बिजली संयंत्रों आदि के विकास और संचालन में शामिल है। अडाणी समूह ने पहले श्रीलंका, फिर हाइफा में बंदरगाहों के विकास और संचालन का ठेका हासिल किया। उसे महत्वपूर्ण स्वेज नहर के साथ-साथ मिस्र में औद्योगिक एसईजेड को विकसित करने का ठेका भी मिला।

इसमें कोई संदेह नहीं कि अडाणी समूह के महत्वाकांक्षी अंतरराष्ट्रीय प्रयास में भारत के रणनीतिक हित ध्यान में थे। कोलंबो बंदरगाह में चीन की रुचि थी, क्योंकि वह हिंद महासागर, जिसे अब इंडो-पैसिफिक क्षेत्र कहा जाता है, में भारत को घेरने के लिए ‘स्ट्रिंग आफ पर्ल्स’ पर काम कर रहा है। लेकिन कोलंबो बंदरगाह पर आधिपत्य का मतलब है कि भारत रणनीतिक रूप से चीन की ‘स्ट्रिंग आफ पर्ल्स’ रणनीति के खिलाफ काम कर रहा है। इसी तरह, हाइफा बंदरगाह रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, क्योंकि इसने एशिया को यूरोप से जोड़ने वाली चीन की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) योजना को तोड़ने में मदद की थी। इसे देखते हुए हिंडनबर्ग को काम पर लगाया गया। हिंडनबर्ग ने अडाणी समूह पर उस महत्वपूर्ण समय पर हमला किया, जब वह एक एफपीओ के माध्यम से पूंजी बाजार से इक्विटी द्वारा 20,000 करोड़ रुपये जुटा रहा था। इसके पीछे मंशा यह सुनिश्चित करके अडाणी समूह को नुकसान पहुंचाना थी कि वह न एफपीओ ला सके और न पैसे जुटा सके।

अब यह सार्वजनिक हो गया है कि एक चीन समर्थित फंड किंग्डन कैपिटल मैनेजमेंट एलएलसी ने अडाणी समूह के खिलाफ रिपोर्ट तैयार करने के लिए हिंडनबर्ग को काम पर रखा है।

मीडिया को बनाया औजार

भारत के विकास को पटरी से उतारने और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए अंतरराष्ट्रीय शक्तियां और डीप स्टेट लंबे समय से षड्यंत्र रच रहे हैं, जिसमें एनजीओ बड़ी भूमिका निभाते रहे हैं। लेकिन 2016-17 से सरकार की सख्ती के बाद गैर-सरकारी संगठनों को विदेशों से मिलने वाला धन स्रोत बंद हो गया तो डीप स्टेट ने दूसरे हथकंडे अपनाए। दरअसल, अगर कोई एनजीओ विदेशी से धन लेता है और इससे सामाजिक या पांथिक सद्भाव प्रभावित होता है, तो उसका विदेशी अंशदान विनियमन अधिनियम (एसीआरए) लाइसेंस रद्द कर दिया जाता है।

केंद्रीय गृह मंत्रालय ने साफ-साफ कहा है कि विकास विरोधी गतिविधियों, कन्वर्जन, दुर्भावना से प्रेरित विरोध प्रदर्शन को भड़काने और आतंकी या कट्टरपंथी संगठनों के साथ संबंध रखने वाले एनजीओ का एफसीआरए लाइसेंस रद्द कर दिया जाएगा। सर्वोच्च न्यायालय भी कह चुका है कि एनजीओ को विदेशों से धन प्राप्त करने का मौलिक अधिकार नहीं है। खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के अनुसार, कुछ एनजीओ ऐसी गतिविधियों में शामिल हैं, जो देश की सुरक्षा, वैज्ञानिक, सामरिक या आर्थिक हितों को प्रभावित कर सकती हैं। ऐसे एनजीओ की लगातार निगरानी की जा रही है, जो विदेशों से मिले पैसे से गैर-कानूनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। इनमें जॉर्ज सोरोस द्वारा वित्त पोषित ओपन सोसाइटी फाउंडेशन, ओपन सोसाइटी इंस्टीट्यूट आदि एनजीओ भी शामिल हैं। गृह मंत्रालय ने इन संस्थाओं को ‘पूर्व अनुमति’ सूची में रखा है, यानी बिना मंत्रालय की अनुमति के ये किसी भारतीय एनजीओ या कंपनियों को दान नहीं दे सकतीं। इसलिए डीप स्टेट सहित विदेशी संस्थाओं ने अपने मनचाहे काम के लिए भारत में पैसे भेजने के लिए माध्यम ढूंढना शुरू किया, जिनमें एनजीओ और मीडिया घराने शामिल थे।

बहरहाल, जब एनजीओ को विदेशी वित्तपोषण पर रोक लगी तो डीप स्टेट ने कुछ मीडिया घरानों को अपना मोहरा बनाया। उनके जरिये भारतीय मतदाताओं की नजर में देश में और देश से बाहर नरेंद्र मोदी की सरकार को बदनाम करने व उन्हें सत्ता से हटाने की मंशा से अराजकता पैदा करने के लिए वित्त पोषित किया। इसके बावजूद उन्हें अपने मंसूबों में सफलता नहीं मिली, तो डीप स्टेट ने अडाणी समूह को निशाना बनाया। अडाणी समूह को चोट पहुंचाने का मतलब था- भारत के आर्थिक हितों को चोट पहुंचाना। इसके लिए हिंडनबर्ग को काम पर लगाया गया।

2018 में स्टारलाइट विरोधी हिंसक प्रदर्शन से लेकर 2020 में दिल्ली दंगे और 2020-21 में किसानों के विरोध प्रदर्शन तक, इन सब में एनजीओ और कुछ मीडिया संस्थानों की भूमिका वित्त पोषण और उकसाने की रही। इसी तरह, 2023 में जॉर्ज सोरोस के ओपन सोसाइटी फाउंडेशन और ओमिडयार फाउंडेशन द्वारा वित्त पोषित प्रकाशनों के एक संघ ने मुट्ठी भर पत्रकारों और विपक्षी नेताओं के फोन में कथित स्पाइवेयर पेगासस का मुद्दा उठाया था। यहां तक कि उसने इस लोकसभा चुनाव में कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) का सहारा लिया, फिर भी सत्ता परिवर्तन करने में नाकामी ही हाथ लगी।

प्रश्न है ‘सॉफ्ट पावर’ के जरिये अमेरिकी डीप स्टेट ने भारत में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को अस्थिर और अस्त-व्यस्त करने का प्रयास कैसे किया? इसका जवाब है, हाल ही में फ्रांसीसी प्रकाशन मीडियापार्ट द्वारा ‘दुनिया की सबसे बड़ी जांच रिपोर्टिंग एजेंसी’ आर्गनाइज्ड क्राइम एंड करप्शन रिपोर्टिंग प्रोजेक्ट (ओसीसीआरपी) को लेकर किया गया खुलासा। इसमें मीडियापार्ट ने कहा है कि ओसीसीआरपी ने डीप स्टेट से 4.7 करोड़ डॉलर (47 मिलियन डॉलर) लेकर उन देशों की सरकारों के बारे में ‘खोजी रिपोर्ट’ प्रकाशित की, जिनका अमेरिका विरोध करता था।

आपइंडिया की प्रधान संपादक नूपुर जे शर्मा ने एक साक्षात्कार में कहा था कि बिग टेक प्लेटफॉर्म देश में गुप्त रूप से ‘नैरेटिव वारफेयर’ छेड़ने के लिए डीप स्टेट के सबसे बड़े वाहकों में से एक रहे हैं। उन्होंने ‘Wikipedia’s War on India’ शीर्षक से 187 पन्नों का एक डोसियर प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला है कि विकीपीडिया की मूल कंपनी ‘विकीमीडिया फाउंडेशन’ भारत के खिलाफ व्यापक ‘सूचना युद्ध’ अभियानों में शामिल रही है। इसे वह भारत की ‘संप्रभुता, स्वतंत्रता और अखंडता’ पर सीधा हमला बताती हैं। उन्होंने विकीपीडिया पर गूगल के साथ मिलकर अमेरिकी डीप स्टेट के इशारे पर भारत विरोधी नैरेटिव को बढ़ावा देने का भी आरोप लगाया है। उनके अनुसार, विकीमीडिया फाउंडेशन के मुख्य दानदाताओं में से एक है टाइड्स फाउंडेशन, जिसे अमेजन, गूगल, मेटा, जॉर्ज सोरोस और रोथ्सचाइल्ड फाउंडेशन जैसे तकनीकी दिग्गजों द्वारा वित्त पोषित किया जाता है।

प्रख्यात अधिवक्ता और राज्यसभा सांसद महेश जेठमलानी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर अपनी लंबी पोस्ट में चीनी एजेंट और जासूस अनला चेंग और उसके पति मार्क ई. किंग्डन पर आरोप लगाया था। मार्क किंग्डन, किंग्डन कैपिटल मैनेजमेंट एलएलसी का मालिक है, जो भारत के आर्थिक और भू-रणनीतिक हितों को आगे बढ़ाने में शामिल भारतीय कंपनी को निशाना बनाकर उसके आर्थिक हितों को नुकसान पहुंचाने के लिए आर्थिक आतंकवाद को अंजाम देता है। जेठमलानी ने चीनी जासूस अनला चेंग और उसके पति पर शॉर्ट सेलिंग से लाखों डॉलर कमाने का आरोप लगाया था, जिसके कारण अडाणी समूह के मार्केट कैप में भारी गिरावट आई थी।

इसमें भारतीय खुदरा निवेशकों के बारे में भी कोई विचार नहीं किया गया। चीनी हितों को बढ़ावा देने के नापाक मंसूबों के तहत एक भारतीय कॉरपोरेट प्रतिद्वंद्वी को नष्ट करने के लिए बेकसूर निवेशकों को भी आर्थिक रूप से बर्बाद कर दिया। अडाणी समूह को आर्थिक नुकसान पहुंचाने के पीछे कारण यह था कि उसने ऊंची बोली लगाकर कई रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय परियोजनाएं हासिल की थीं, जिन पर चीन टकटकी लगाए बैठा था।

एक खुले विश्वव्यापी बाजार में विदेशी वित्त पोषित एनजीओ का उपयोग करके दूसरे देशों, उनके वैश्विक भू-राजनीतिक, भू-रणनीतिक और आर्थिक हितों को लक्षित करने के लिए छलावे और फरेब की एक नई दुनिया अस्तित्व में आई है। किसी समूह द्वारा आर्थिक अस्थिरता पैदा करने की कोशिश करना और अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाना, आर्थिक आतंकवाद इसी तरह काम करता है।

ओसीसीआरपी हैअमेरिकी सरकार का साझेदार!

ओसीसीआरपी की स्थापना 2008 में बोस्निया की राजधानी साराजेवो में की गई थी। शुरुआत में इसका काम एक मीडिया नेटवर्क के रूप में बाल्कन क्षेत्र में संगठित अपराध और भ्रष्टाचार की जांच करना था। लेकिन 16 वर्ष बाद यह ‘दुनिया का सबसे बड़ा खोजी रिपोर्टिंग संगठन’ बन गया है। इसका वार्षिक बजट 2 करोड़ यूरो है, जिसका नेटवर्क हर महाद्वीप में है, जिससे 200 लोग जुड़े हुए हैं। 2021 में यूएसएआईडी की प्रमुख सामंथा पावर ने ओसीसीआरपी को अमेरिकी सरकार का ‘साझेदार’ बताया था। उनकी एजेंसी ने एक कार्यक्रम को वित्त पोषित किया है, जो ओसीसीआरपी रिपोर्टिंग के खुलासे के आधार पर न्यायिक जांच या मंजूरी प्रक्रियाओं को शीघ्र करने का प्रयास करके अपनी कथित जांच को हथियार बनाता है। वाशिंगटन, एम्स्टर्डम और साराजेवो में स्थित ओसीसीआरपी के साथ दुनिया भर के ‘सबसे प्रतिष्ठित’ कहे जाने वाले 70 पत्रकार और 50 मीडिया संस्थान जुड़े हुए हैं, जिनमें अमेरिका के द न्यूयॉर्क टाइम्स, द वाशिंगटन पोस्ट, ब्रिटेन के द गार्डियन, डेर स्पीगल और Suddeutsche Zeitung तथा जर्मनी और फ्रांस में ले मॉद आदि प्रमुख हैं। मीडियापार्ट के अनुसार, यूएसएआईडी वित्तपोषण, मीडिया साझेदारों, पत्रकारों और बड़े पैमाने पर लोगों से जुड़ाव की बात छिपाता है। लेकिन आज भी ओसीसीआरपी के बजट का लगभग आधा हिस्सा प्रदान करता है।

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