श्री गुरुजी एक स्वयंसेवक - नरेंद्र मोदी BOOK

श्री गुरुजी: एक स्वयंसेवक - नरेंद्र मोदी द्वारा लिखित पुस्तक, शिक्षा और सामाजिक सेवा में योगदान की प्रेरक कहानी Shri Guruji A Swayamsevak Narendra Modi

Aug 20, 2025 - 17:29
Aug 20, 2025 - 18:56
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श्री गुरुजी एक स्वयंसेवक - नरेंद्र मोदी BOOK
Shri Guruji A volunteer Narendra Modi

RSS Shri Guruji A Swayamsevak Narendra Modi

Rashtriya Swayamsevak Sangh ke Vartman Sanchalak kaun hai?

पूजनीय श्री गुरुजी
भासंसद् ने रत के कोटि-कोटि लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाली भारत की संसद् ने एक महापुरुष को श्रद्धांजलि दी थी।। । इस महापुरुष ने संसद् के द्वार कभी नहीं देखे, फिर भी संसद् के दोनों सदनों ने अपनी परंपरा को तोड़ा था। वे दोनों सदनों में से किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। ऐसे महापुरुष को श्रद्धांजलि दी गई। भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा था-"जो संसद् के सदस्य नहीं, ऐसे प्रतिष्ठित सज्जन श्री गोलवलकर आज हमारे बीच नहीं रहे। वे विद्वान् थे; शक्तिशाली, आस्थावान् थे। अपने प्रभाषी व्यक्तित्व और विचारों के प्रति अटूट निष्ठा की वजह से राष्ट्र-जीवन में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान थी।"
सारे देश के समाचार-पत्रों ने इस महापुरुष को श्रद्धांजलि अर्पित की थी। हैदरावाद के 'द डेक्कन क्रॉनिकल' ने लिखा-"स्वामी विवेकानंद के समान वे भी हिंदुस्तान की आत्मा की साकार मूर्ति थे।"
'नवभारत टाइम्स' ने लिखा था- "विचार और आदर्शों में एकता स्थापित करनेवाले स्वर्गीय गुरु गोलवलकरजी के जीवन की निस्पृहता, तेजस्विता, त्याग और तपस्या को हम हृदय से स्वीकार करते हैं। ये सारे गुण आज अपने राष्ट्रीय जीवन से लुप्त हो रहे हैं। आदर्शों की वैयक्तिक साधना ओज के हजारों विचारकों के हाथ में उपहास का विषय बन चुकी है; लेकिन यह एक ऐतिहासिक एवं निर्विवाद तथ्य है कि किसी भी राष्ट्र का एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में तब तक निर्माण नहीं हो सकता, जब तक 

कि उसमें उन गुणों का समावेश न हो, जो गुण श्री गोलवलकरजी के जीवन में दृष्टिमान होते हैं। इन महान् गुणों के समक्ष धर्मनिरपेक्षता एवं लोकतांत्रिक जीवन-दर्शन की चमक आज फीकी दिखाई दे रही है।"
'द मदरलैंड' लिखता है-"आज श्री गुरुजी का अस्तित्व नहीं है, परंतु अनगिनत जीवों के हृदय में उन्होंने प्रकाश प्रज्वलित किया है। जब-जब अंधकार इस देश को घेरता रहेगा तब-तब वह प्रकाश देश को विविध रूपों में प्रकाशित करता रहेगा। उनके निधन के प्रति हम शोक व्यक्त करते हैं। परंतु पृथ्वी पर आज जिन लोगों का जन्म नहीं हुआ है, ऐसी भावी पीढ़ी पुलकित होगी कि ऐसा एक फरिश्ता इस धरती पर आ चुका है। उनकी पवित्र स्मृति को हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि।"
'हिंदुस्तान' ने लिखा- "गुरु गोलवलकरजी का जीवन श्रेष्ठ समर्पण का एक उज्ज्वल उदाहरण है। निश्चित ध्येय-प्राप्ति के लिए, जीने और मरने के लिए, जीवन में संयम, संकल्प-शक्ति और कष्ट सहन करने की शक्ति अपेक्षित होती है। गुरुजी में ये गुण संस्कारगत थे। भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों की साधना और सिद्धि के बीच उन्होंने साधना को स्थापित किया, क्योंकि उनका निष्कर्ष था कि साधना ही ध्रुवशक्ति है। गुरु गोलवलकर का जीवन और उनकी राष्ट्रसेवा शुद्ध सुषर्ण जैसे पुरुषार्थ की है। सच्चरित्रता उनकी तपश्चर्या थी और राष्ट्रभक्ति उनकी निष्ठा। उनके जीवन में चारित्रिक संदेह का कोई अवकाश ही नहीं था।"


बंबई के एक मासिक ने लिखा- "उनका व्यक्तित्व व्यास, वाल्मीकि, रामदास, तुकाराम, विवेकानंद और दूसरे हजारों ऋषियों की परंपरा में मिला हुआ था।"
गुजरात के समाचार-पत्रों ने उनको श्रद्धांजलि दी थी। दैनिक 'गुजरात समाचार' ने लिखा- श्री गुरुजी का देहावसान होने से देश ने राष्ट्रवाद का एक प्रबल शक्तिमान पुरस्कर्ता गंवा दिया।"

के स्थान पर रहकर माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर 'गुरुजी' के दुलारे नाम से परिचित थे। उनकी आर.एस.एस. संस्था का अनुशासन एवं विशिष्ट शिक्षा की दृष्टि से जनता पर विशिष्ट प्रभाव है। श्री गोलवलकर के अवसान से आर.एस.एस. और जनसंघ को असाधारण नुकसान हुआ है, जो कभी पूर्ण नहीं कर पाएँगे।"
'जनसत्ता' ने लिखा- "स्वामी विवेकानंद और मदनमोहन मालवीय की कड़ी में भारतीयत्व के बारे में देश के वर्तमान नेताओं में वे सिर्फ अकेले ही एक ज्योतिर्मय थे।" देश के अनेक श्रेष्ठ पुरुषों ने इस महापुरुष को श्रद्धांजलि दी थी। सर्वोदय के एक श्रेष्ठ चिंतक दादा धर्माधिकारी ने कहा था, "वे अखंड राष्ट्रीयता के प्रतीक थे।" विनोबाजी ने कहा था, "श्री गुरुजी का दृष्टिकोण व्यापक, उदार एवं राष्ट्रीय था। वे प्रत्येक वात राष्ट्रीय दृष्टि से ही सोचते थे। आध्यात्मिकता में उनका अटूट विश्वास था। सभी धर्मों के प्रति उनके हृदय में आदर-भाष था। उनमें संकुचित मानसिकता को स्थान नहीं था। वे प्रतिक्षण राष्ट्रीय, उच्चतम राष्ट्रीय विचारों से ओत-प्रोत कार्य करते थे।"


जब यह महामानव लगभग चालीस वर्ष की उम्र के थे तब लंदन के वी.वी.सी. ने एक बार कहा था, "भारत के क्षितिज पर देदीप्यमान एक सितारा चमक रहा है।" महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने कहा था, "वे एक संत पुरुष थे।"


राष्ट्रमालिका के मोती
हिं दुस्तान के सुप्रसिद्ध लोगों ने उनके जीवन को विभिन्न प्रकार से अलंकृत किया था। वे देश को एक अखंड राष्ट्रमालिका को जोड़नेवाले देदीप्यमान सितारा थे। इतिहास को धरोहर पर दृष्टि डालते वक्त एक के बाद एक महानुभावों का स्मरण होता है। शंकराचार्य का नाम लेते ही अद्वैतवाद याद आता है।
बुद्ध का नाम लेते ही करुणा स्मृति-पटल पर छा जाती है। महावीर के साथ अहिंसा सम्मिलित है। 

स्वामी विवेकानंदजी की विश्व मंच पर से वीर गर्जना और दरिद्रनारायण
को सेवा"
तिलक का 'स्वराज' मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है।
आधुनिक मनु के रूप में डॉ. अंबेडकर"
स्वामी श्रद्धानंद का बलिदान
भगतसिंह की शहादत
सरदार का दृढ़ मनोषल
गांधी की फकीरी"
किसी-न-किसी गुण की वजह से इन व्यक्तियों का जीवन राष्ट्रसेवा में अमर हो गया। इसी राष्ट्रमालिका के एक मोती थे परमपूज्य श्री माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर गुरुजी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और समग्र राष्ट्र में वे 'गुरुजी' के नाम से पहचाने जाते थे।
उनका जीवन विविधताओं से भरा हुआ था। उनके जीवन को समझना इतना आसान नहीं है। वे जिसके हृदय को स्पर्श करते थे, उसको ऐसा प्रतीत होता था कि वे कोई आध्यात्मिक पुरुष हैं। लेकिन दुनिया ने जिन आध्यात्मिक पुरुर्षो को देखा है उन लोगों की तरह वे कभी भी जन समुदाय से दूर नहीं भागते थे। वे सदैव लोगों के बीच में ही रहते थे।


पूजनीय गुरुजी हिमालय की कंदराओं में नाक पकड़कर आध्यात्मिक साधना के लिए नहीं बैठे थे। इसलिए मन में एक प्रश्न पैदा होता है कि क्या वे सचमुच आध्यात्मिक पुरुष थे? कभी-कभी ऐसा लगता है कि वे पहुत बड़े नेता थे। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि हम गलत हैं। भौतिक विज्ञान के गूढ़ रहस्य की चर्चा करते समय ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने किसी महान् वैज्ञानिक का जीवन व्यतीत करने के लिए जन्म लिया था। ऐसे विचार मन में उत्पन्न होते थे, लेकिन जीवन के सारे अंशों को जोड़ते हुए ऐसा लगता था कि वे इन सभी से कुछ अलग ही थे। 

अखंड स्वयंसेवकत्व
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नका जीवन कितनी विविधताओं से भरपूर था। हम तो उनके केवल एक 3 ही व्यक्तित्व को संपूर्णतः पहचान सकते थे और वह थी स्वयंसेवकत्व। जीवन के दूसरे उनके व्यक्तित्व भी अंतर्दृष्टि के समक्ष प्रकाशित रहते थे, मगर वे हमारी पकड़ में नहीं आते थे। लेकिन जब पूज्य गुरुजी से मिलते थे तष ऐसा लगता था कि उनको स्वयंसेषकत्व से कम कुछ भी प्रभाषित नहीं करता थी। स्वयंसेवकत्व से अधिक उनकी किसी प्रकार की आकांक्षा नहीं थी।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने गुरुजी के लिए कहा थी- "You know what is wrong with your Guruji?" और फिर उन्होंने स्वयं ही प्रत्युत्तर दिया- "His unambitiousness."


अर्थात् वह मनुष्य महत्त्वाकांक्षी नहीं है। मनुष्य का महत्त्वाकांक्षी न होना भी वहुत बड़ी सिद्धि है। उनकी एक ही आकांक्षा थी- 'पूर्ण स्वयंसेवक'। स्वर्यसेषक का मतलब होता है-स्व का समर्पण, स्व की आहुति, संपूर्ण जीवन को एक आदर्श के लिए पूर्ण करना। पूज्य गुरुजी का जीषन अखंड स्वयंसेवक की ज्योति से प्रकाशित था। इसके लिए उन्होंने विश्राम और विराम को सदैव के लिए तिलांजलि दे दी थी।


परमपूज्य गुरुजी ने अपनी साधना के बारे में कहीं लिखा है कि "मुझे कभी भी प्रभु-भक्ति की आकांक्षा नहीं रही है। मुझे ईश्वर-प्राप्ति की एक उमंग थी। अष ईश्वर-प्राप्ति के लिए में निकला तष मुझे कहा गया था कि 'जाऔं, बरतन साफ करो, झाड़ लगाओ, बाग में साफ-सफाई करो, गार्यों को चराने के लिए ले जाओ।' गुरुजी ने जो वताया था कि ईश्वर-प्राप्ति की अपनी जिज्ञासा के लिए मैं किसी भी अपेक्षा के विना इन कार्यों में तल्लीन हो पूज्य गुरुजी के जीवन में विविध उतार-चढ़ाव आए। वे अपने माता-पिता की आओठ संतानों में से केवल एक ही जीवित रहे थे। सात संतानों की मृत्यु के बाद केषात एक ही संतान जीवित रही हो, तव माता व पिता को अपने पुत्र के प्रति कितना प्रेम, कितनी बड़ी आकांक्षा होती है। माँ के हृदय में कितने स्वप्न साकार रूप लेने को विचलित होते हैं? लेकिन इन सारी आकांक्षाओं और स्वों के बीच जब अपना इकालौता पुत्र जीषण के किसी दूसरे ही मार्ग पर चला जाए तब माता-पिता को दुःखा होना स्वाभाविक है। यह पुत्र तो सितार और आँसुरी में पारंगत थी। जन-हृदय को आंदोलित करने की अगाध शक्ति इसके पास थी। माँ को अधिक दुःख न हो. इस कल्पना से पूजनीय गुरुजी माधषराष- मधु एक बार अपना घर त्यागकर अध्यात्म के पथ पर चले गए।


हिमालय की कंदराओं में घूमते रहे। उनको ईश्वर-प्राप्ति की आकांक्षा थी। आध्यात्मिक जीवन के शिखर पर पहुँचने की मनोकामना थी। हिमालय की कंदराओं में घूमते-घूमते वह छोटा सा मधु सारगाडी आश्रम में जाकर स्थित हो गया। एम.एस-सी. तक अध्ययन किया थी। विज्ञान के रहस्यों को जानकारी थी। उनके विचारों में विज्ञान, धर्म और संस्कृति का सुंदर मित्रेण रहता था। इसलिए इस अध्यात्म पुरुष ने एक बार कहा था, "विज्ञान के विकास पर ही मानव की प्रगति निर्भर है।"
उनके जीवन में आध्यात्मिकता की जिज्ञासा पूर्ण करनेवाले उनके गुरु थे स्वामी अखंडानंदजी रामकृष्ण परमहंस के ग्यारह पटशिष्यों में से एक। एक बार स्वामी अखंडानंदजी ने गुरुजी के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "माधव, तेरे सिर के वारल, तेरे मुख पर दाढ़ी, तेरी मूंछ में सब बहुत सुंदर लगते हैं। इनसे तेरा व्यक्तित्व निराला प्रकट होता है। माधव, इस दाढ़ी और सिर के बालों को कभी कटवाना नहीं।" उन्होंने अपने गुरुजी की इच्छा का कभी भी अनादर नहीं किया। जीवन के अंत तक उन्होंने अपने केसों को 

सँकरा। इसीलिए उनका व्यक्तित्व एक आध्यात्मिक पुरुष की तरह अंत तक प्रकाशित रहा।
बात बहुत सरल सी है। आपको और मुझे कोई आकर कई कि 'भाई, आप बहुत अच्छे विखाई बेते हो. इन बालों को बढ़ाओ। इम सबको ऐसा लगे कि डॉ. अब करवाना नहीं है। परंतु गुरुजी का जीवन यहाँ तक सीमित नहीं रहा। अखंडानंदजी ने जितनी सहजता से कहा था कि बार्ली की मत करवाना, सुरक्षित रखना। उतनी ही सहजता से उन्हें बालों को वारा।
एक बर डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवारजी ने कहा था, "माधवराव, इस संघ-कार्य की धुरा संवारना।" पूज्य डॉ. हेडगेवारजी मुल्यु-राम्या पर थे, जीवन का अंतिम स्वास ले रहे थे। मृत्यु निश्चित थी। सन् १९२५ में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। १९४० तक सारे देश में इसका विस्तार ही गया था। उस वक्त भी बहुत सहजता से उन्होंने पूज्य गुरुजी की कड़ा था. "माधत्र, आप इस कार्य को सँवारना।" मात्र यही एक वाक्य १९४० में कड़ा गया था।
डॉ. हेडगेवारजी में विश्वास
रा भर चिंतन, मनन और मंथन करके डॉ. हेडगेवारजी ने गुरुजी की यह नहीं कहा था कि इस बैश की परिस्थिति केसी है? एक हजार साल की गुलामी से हिंदू समाज में कितने कुसंस्कार आ गए हैं. इसकी आलोचना भी नहीं की थी। गुरुजी भी रात भर सोए नहीं थे। डॉक्टर साहब ने बेशभक्ति के गीत नहीं सिखाए थे, मात्र सहज रूप में इतना ही कड़ा था कि 'माधव, इस कार्य को संवारना।'
मोड़ी देर के लिए आप कल्पना कीजिए यह क्षण कैसा रहा होगा ? गुरुजी ने कितना चिंतन किया होगा? कहाँ-कहाँ से जानकारियाँ प्राप्त की डॉगी? कितने ही दिन और रात बैठकर हिंदुत्व के पाठ पड़े होंगे। हिंदू समाज के पतन की सामान्य बातों से भी अवगत कराया होगा? अध्यात्म, प्रभु-प्राप्ति और मोक्ष की मनोकामना की तुलना में समाज-देवता के चरणों में स्वर्य समर्पण की प्रेरणा जगाने के लिए क्या किया होगा ?
सन् १९४० में संघ का स्वरूप, संत्र की चर्चा संघ का प्रभाव प्रारंभिक अवस्था में डॉ था। इसके संस्थापका की षिवाई के बाब उसका भविष्य हंसा होगा? ऐसे हजारों सवाल सामान्य मनुष्य के मन में जाग्रत् हाँ, यह सहज है। डॉ. हेडगेवाराजी और गुरुजी के बीच कैसा ताबात्म्य सेतु बना डोगा ? भषिच्य के गर्भ में छिपी हुई इजारों अनिश्चितताओं के बीच भविष्य में कितना बड़ा यकीन स्थापित होगा? नवयुवक माधव भविष्य में भारत की जिम्मेवारियाँ उठाने के लिए सक्षम समर्थ होंगे, ऐसा पक्का यकीन डॉक्टर साइब की रहा होगा।
व्यक्ति को परखने की डॉक्टरजी की शक्ति और गुरुजी के मारवर्ती व्यक्तित्व की जैसी विशेषता होगी कि आध्यात्मिक कार्य में डूबे हुए गुरुजी अपने जीवन-पथ जो बदलकर समाज-साक्षात्कार के लिए आजीवन जुट गए होंगे? अपना जीवन समर्पित कर दिया होगा ? ऐसा ही इला कि गुरुवी ने अपने शरीर का प्रत्येक कण और जीवन का प्रत्येक क्षण डॉक्टरजी के द्वारा बी गर्छु जिम्मेवारियों की पूर्ण करने के लिए समर्पित कर दिया। डॉक्टरजी का एक छोटा सा वाक्य 'माधव, अब से यह सारा बापको ही संवारना है। केसी अविस्मरणीय, अद्भुत घटना, कैसी अप्रतिम परख, केसी बीर्घ-दृष्टि, कितना यकीन। डाँ, यह गुरुजी की अपनी विशेषता थी।
जितनी सहजता से स्वामी अखंडावती ने कहा था कि ये केरा सँवारना, उतनी ही सहजता से डॉ. हैडगेवारजी ने भी कहा था। और ये सब सुननेवाले माधवराव ने जीवन के अंत तक ११४० से १९७३ तक भारतवर्ष का अखंड भ्रमण करके, एकनिष्ठ पुरुषार्थ करके, एक ही ध्येय की जीवन का लक्ष्य बनाकर पतत्वेषु जायो नमस्ते नमस्ते चरितार्थ करते-करते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को विशाल वटवृक्ष बना दिया। 

अखंड संघ-साधना
गु उजी का मन-रुवय आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत था। इम सबको ऐसा जरूर लगता होगा कि ऐसे आध्यात्मिक पुरुष नै संघ-जीवन को स्वीकार क्यों किया ? संपूर्ण जीवन भगवा ध्वज की निष्ठा में क्यों समर्पित कर दिया? इस संदर्भ में उन्द्रनि थोड़ा कुछ कड़ा है। बेनिक तरुण भारत' के पूर्व संपादक स्वर्गस्थ गं.त्र्यं. माडखोलकर भाकलाइव के साथ पूष्ध गुरुजी की लंबी बातचीत हुई थी। इस अवसर पर डॉक्टर साडच स्वयं उपस्थित थे। पुस्तक के अनुसंधान में चर्चा पूर्ण होने के बाद गुरुजी की अनुमति लेकर भाऊसाहब ने गुरुजी से व्यक्तिगत प्रश्न पूछा। गुरुजी की मृत्यु के पश्चात् नागपुर के 'तरुण भारत' बेनिक (१६ जून, १९७३) में 'त्रिकोणी संगम' शीर्षक नाम से भाऊसाहब ने लिखे हुए लेख में इस व्यक्तिगत प्रश्न और प्रालों के अनुसंधान में गुरुजी द्वारा किए गए प्रत्युत्तर का उल्लेख किया। इस लेख में माहखेलकर लिखते हैं-मैंने गुरुजी से पूछा, सुना है कि आप बीच में संघ का कार्य छोड़कर बंगाल के रामकृष्ण आश्रम में चले गए थे और वहाँ आपने स्वामी विवेकानंद के गुरुबंधु के पास बीक्षा ली थी, तो फिर आप रामकृष्ण आश्रम छोड़कर फिर से संघ में क्यों आए? आपको नहीं लगता कि आश्रम की भूमिका से संघ की भूमिका भिन्न है ?" मेरा यह सवाल सुनकर गुरुजी स्तब्ध हो गए। बी-तीन मिनट तक खुली आँखों से सोचने लगे, जैसे दे किसी दूसरे मनीजगत् में पहुंच गए हों। थोड़े समय के बाद उन्होंने मंव गति से बोलना शुरू किया। गुरुजी ने कड़ा "आपने यकायक यह सवाल पूछा है. परंतु आवम और संघ की भूमिका में अंतर है या नहीं, इसका प्रत्युत्तर तो डॉक्टर साइक ही मेरे से अच्छा और अधिकारपूर्वक काड़ सकेंगे। मेरा मनोभाव प्रारंभ से ही अध्यात्म के साथ-साथ राष्ट्र संघटन के कार्य में अधिक रमता रहा है। यह कार्य संघ में रहकर अधिक फलबायक रूप से कर सकूँगा ऐसा अनुभव मुझे मेरे बनारस, नागपुर और कलकत्ता के प्रवास के समय हुआ। 

इसलिए मैंने संघ कार्य में अपना स्व और सरीर को समर्पित कर दिया है। मुझे लगता है कि स्वामी विकानंद के तत्त्वज्ञान, उपदेश और उनकी कार्य पद्धति के साथ मेरा बद्र आचरण सुसंगत है। मुझ पर उनका इतना प्रभाव है कि इसके अलावा किसी दूसरी विभूति के जीवन या उपदेश का उतना नहीं है। मुझे यकीन है कि संत्र में रहकर ही में स्वामी विवेकानंद के कार्य की आगे बड़ा सकूँगा।"
इस विषय पर विराव तर्क करते वक्त गुरुजी के नयनों में आत्मविश्वास की जो चमक मैंने बेखी, षड़ में कभी भी नहीं भूल सकता। डॉक्टर साइय भी यकायक गंभीर हो गए थे। ऐसी बी गुरुजी की पूर्ण समर्पण के पीछे की मनीकल्पना। डॉक्टर साहब के कई हुए एक छोटे से वाक्य से उनके जीवन में अखंड स्वयंसेषकत्व प्रज्वलित रहा और उसका जीवन के अंत तक इस्तेमाल करते रहे। वे तैतीस वर्षों तक हुन समर्पित भावों की वजह से अखंड संघ-साधना करते रहे।


श्री गुरुजी का अद्धेय भाव कभी स्थिर नहीं था। प्रतिदिन इसमें वृद्धि डी होती रहती थी। करें डेडगेवारी के साथ प्रारंभिक मुलाकार्ती में संख्य के सिवा कुछ भी नहीं मिलता था। धीरे-धीरे इसमें निज्ञासा का तत्त्व बहা। श्री गुरुजी स्वयं कहते कि उनके भाषणों का मेरी बुद्धि पर कोई असर नहीं होता: लेकिन कालांतर में उनके बड़ी भाषण, वही राम और उनकी यही मुखाकृति मेरे बुद्धि-पटल की बकर इदय की गहराई में पहुँच जाती थी। डॉक्टर साहच ने केवल बुद्धि पर नहीं कि सारे भावविएव पर अब्जा कर लिया था। प्रद्धाभाष से यह प्रक्रिया निरंतर चलती रही। डॉक्टरनी के वेडाषसान जो बाब भी रुकी नहीं और आगे बहुते हुए वो भाष इतने उच्छ स्थान पर पहुंचे ये कि अपने स्वयं के लिए गुरुजी कहते थे कि "जय-जब मुझे उलझन पेवा होती है तब-तब डॉक्टरजी का जीवन मुझे प्रेरणा देता है. रास्ता अविराम राष्ट्रयात्रा
तीस वर्षों तक अखंड परिभ्रमण करना कोई साधारण बात नहीं थी। क्या शारीर से वे कभी अस्वस्थ नहीं हुए होंगे? क्या रास्ते में उनकी गाड़ी खराब नहीं हुई होगी ? उनका विमान, रेलगाड़ी लैंट नहीं हुई होगी? गरमी-ठंडी, बुखार या यकायक परिवर्तित इवामान का असर उन पर नहीं हुआ होगा? न जाने कितनी कठिनाइयाँ उन्होंने बरवारत की डाँगी। लेकिन पूष्य गुरुजी ने जीवन भर किसी भी प्रकार की अपेक्षा के बिना संपूर्ण की भावना चरितार्थ करने का दृढ़ निश्चय किया था। इसलिए तेतीस वर्षों तक शरीर का प्रत्येक कण, रक्त का प्रत्येक बिंदु जीवन का प्रत्येक क्षण इस मातृभूमि के हित के लिए, यह भारतमाता परम वैभव प्राप्त करे, अपनी कोटि-कोटि संतानों को विश्व के मंच पर प्रकाशित स्वरूप प्राप्त हो, इस प्रकार की सुबय की अदम्य इच्छा को लेकर माधवराव आजीवन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक के स्थान पर कठोर परिश्रम करके सारे देश में घूमते रहे। एक बार किसी ने पूज्य गुरुजी से पूछा कि आपका निवास स्थान कहाँ है ? तब उन्होंने सहज भाव से कहा- रेल का किती वर्षों तक उनकी अखंड, अविराम यात्रा चलती रही। कैंसर से व्याधिग्रस्त होने के बाद भी उनके चरण नहीं रुके समय देश का प्रयास चलता रहा।


सन् १९४३ का एक प्रसंग भूल नहीं सकता। पूना में प्रांतीय स्तर के कार्यकर्ताओं की बैठक थी। गुरुजी भी उस बैठक में उपस्थित थे। सरसंघचालक होने के बात्र उनका समग्र राष्ट्र स्तर पर अखंड प्रयास का प्रारंभ ही था। किसी प्रकार का विराम नहीं, कभी विश्राम नहीं, कार्यकर्तागण प्रेम से कभी-कभी आराम करने की सलाइ बेते थे, तब इसी बैठक में अपने की दी गई सलाइ का उल्लेख अपने प्रवचन में किया और कड़ा, "विश्राम! अब कसा विश्राम? विराम तो तब ही संभव है जब हाथ में लिया हुआ कार्य पूर्ण हो, या फिर चिता पर।" 

आत्मजागृति के स्वयंसेवक
लोकडीष्ट में वे संचालक थे, परंतु सवयं के प्रतिक्षण आत्मजाग्रति के स्वयंसेवक थे। मध्य भारत प्रांत का संघ शिक्षा वर्ग ग्वालियर में आयोजित था। इसमें पूज्य गुरुजी उपस्थित थे। एक बार वे भोजन की पंक्ति में बैठी थे। भोजन की व्यवस्था करनेवाले कार्यकर्ता ने सूचना दी कि बीच की पंक्ति में जो अतिथि बैठे हैं, वे भोजन करके जब तक न चले जाएँ तब तक स्वयंसेवकों को खड़े नहीं होना है। शिविरार्थियों की भोजन की बीच की पंक्ति में पूज्य गुरुजी, राजमाता सिंधिया, श्री अटल बिहारी वाजपेयी सहित अनेश लोग बैठे थे। सूचनानुसार बीच की पंक्ति के सभी लोग खड़े होकर चले गए, परंतु गुरुजी खाड़े नहीं हुए। तब अधिकारी ने विनती की कि आपको भी जाना है। उस समय गुरुजी ने कहा, "आपने सूचना ही ऐसी वी थी कि स्वयंसेवकों को जाना नहीं है. केवल अतिथियों को ही जाना है। में तो स्वयंसेवक हूँ में किस तरह सूचना का अनावर कर सकता हूँ।" सोच-विचार करें तो यह घटना सामान्य लगेगी, लेकिन यह सामान्य घटना भी पूज्य गुरुजी का स्वयंसेवकत्व डी जाग्रत् हुआ बताती है। एक छोटी सी सूचना भी उनको स्वयंसेवक के नाते स्पर्श कर गई। मैं अंत तक खड़े नहीं हुए। सभी स्वयंसेवक भीजन करने के बाब खड़े हुए तब डी गुरुजी खड़े हुए। गुरुजी के मन में सरसंघचालक होते हुए भी ऐसा भाव था कि सबसे पहले इम स्वयंसेवक है। वे स्वयंसेवक के भाष को समझ सकते थे, उनके मर्म को हृदयसागर में स्थापित कर सकते थे। उनका यह भावविलगातार जाग्रत्कीरहता था।
भावनाओं का विस्तार
ए एक बार गुरुजी रेलगाड़ी से अजमेर से इंबीर जा रहे थे। उन बिनों गाड़ी वो घंटे तक रास्ते में रतलाम स्टेशन पर उकती थी। रतलाम में गौपालराव नामक एक स्वयंसेवक थे। उनके घर पर गुरुजी का भौजन रखा

@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,