कल्याणकारी राज्य की प्रेरणास्रोत लोकमाता अहिल्याबाई

कल्याणकारी राज्य की प्रेरणास्रोत लोकमाता अहिल्याबाई, Lokmata Ahilyabai the source of inspiration welfare state,

Dec 13, 2024 - 19:00
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कल्याणकारी राज्य की प्रेरणास्रोत लोकमाता अहिल्याबाई
पश्चिमी विश्व में कल्याणकारी राज्य की संकल्पना अहिल्याबाई की मृत्यु के 125 वर्ष बाद अस्तित्व में आयी एवं द्वितीय विश्वयुद्ध में इसे व्यापक स्वीकृति मिली। पश्चिम के अनुसार राजा का अर्थ केवल शासन और शक्ति से अभिहित होता है। इसलिए मैलकम ने अपने प्रारंभिक विचारों में कहा था कि अहिल्याबाई का अधिक ध्यान राज्य के विस्तार की ओर होना चाहिए था। हालांकि, बाद में समकालीन विद्वानों और बुद्धिजीवियों से भारतीय दृष्टि विकसित कर चुके मैलकम ने अपना दृष्टिकोण बदल लिया। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि अहिल्याबाई के धार्मिक और कल्याणकारी कार्यों के कारण ही वे जनता में पूजनीय बन लोकमाता कहलाई।
आज से ढाई सौ वर्ष पूर्व लोकमाता अहिल्याबाई एक शासक के रूप में न केवल अपने राज्य में, बल्कि सम्पूर्ण भारत में अनेक धार्मिक और कल्याणकारी कार्य कर रही थी, परन्तु किसी शासक का यह आचरण पश्चिमी विश्व के लिए अनोखा था क्योंकि वह भारत की सांस्कृतिक जीवन दृष्टि और धर्मशील शासन से परिचित नहीं थे। पश्चिमी इतिहासकार जैसे सर जॉन मैलकम और अहिल्याबाई की पहली जीवनी लिखने वाले इतिहासकार तथा ग्रांट डफने जैसे इतिहासकारों का मानना था कि अहिल्याबाई को धार्मिक कार्यों पर पैसा खर्च करने के बजाय अपनी सेना को मजबूत करना चाहिए था और अपने राज्य का विस्तार करना चाहिए था।
इसके इतर भारतीय इतिहासकारों जैसे कि विश्वनाथ नारायण देव और वासुदेव ठाकुर आदि ने अहिल्याबाई की धार्मिक और कल्याणकारी नीतियों का जोरदार समर्थन किया है। यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि अहिल्याबाई के 30 वर्षों के शासन में जो शांति और आनंद प्रजा को प्राप्त हुआ, वह उस स्थिति में भी प्राप्त नहीं होता अगर अहिल्याबाई ने अपनी बनराशि का दोगुना भाग सेना बढ़ाने और अपने राज्य का विस्तार करने पर खर्च किया होता। आज शस्त्रीकरण की समस्या से जूझते सम्पूर्ण विश्व के लिए अहिल्याबाई की शासन पद्धत्ति एक उम्मीद की किरण है।
अहिल्याबाई का शासन भारतीय इतिहास में एक अद्वितीय प्रयोग था। राज्य की बागडोर एक समर्पित और धार्मिक नारी शक्ति के हाथों में थी। अहिल्याबाई ने करुणामूर्ति बन न्यायपूर्ण शासन किया। यह प्रयोग न केवल भारतीय इतिहास में बल्कि विश्व के इतिहास में भी बेजोड़ है। अहिल्याबाई ने अपनी सॉफ्ट पावर के माध्यम से शक्ति संतुलन स्थापित किया था जो उनके समय से बहुत आगे होने का प्रमाण है। महेश्वर दरबार से भेजे गए पत्रों में कई बार यह उल्लेख मिलता है कि अहिल्याबाई ने पेशवा को सैन्य मामलों पर बार-बार सुझाव दिए। अहिल्याबाई कुशल रणनीतिकार थीं और समय रहते मराठा राज्य पर आक्रमणकारी चालबाजियों और हमलावरों के दुष्ट स्वभाव को भलीभांति समझ लेती थीं। इसीलिए उन्होंने पेशवा को लिखा था कि श्रीमंत (पेशवा) को शिलेदारों और हुजूरात मे नए सिपाहियों की भर्ती करनी चाहिए। हर जगह अपनी फौज भेजें और उन्हें (अंग्रेजों को) आतंकित करना चाहिए। श्रीमंत सेना की उपेक्षा करते हैं यह अच्छी बात नहीं। हमेशा श्रीमंत के साथ सेना लगभग बीस-पच्चीस हजार होनी चाहिए। सरकारी सेनाओं और फ्रांसीसियों को एकजुट करके बंबई भेजा जाना चाहिए और वसई को सरकारी सेनाओं और अंग्रेजों द्वारा फिर से स्थापित (मुक्त) किया जाना चाहिए।
इसी तरह अहिल्याबाई ब्रिटिश चालबाजियों से पूरी तरह परिचित थीं। उन्होंने ब्रिटिशों की चालों को इस प्रकार वर्णित किया कि "हिंसक जानवरों को कई चालों से मार सकते हैं, लेकिन भालू को मारना कठिन है। यह तभी मरेगा जब उसे पकड़कर मार दिया जाएगा। नहीं तो अगर कोई उसकी चपेट में आ जाए तो वह उसे गुदगुदी करके मार डालेगा। अंग्रेजों से लड़ाई भी इस भालू की तरह है।"
अहिल्याबाई ने दुश्मन के शत्रु को मित्र बनाने की नीति में महारत हासिल की थी। 1792-93 के आस-पास अहिल्याबाई ने एक ब्रिटिश शैली की सैन्य टुकड़ी बनाई थी, जिसमें उन्होंने एक अमेरिकी जनरल बॉयड को नियुक्त किया था। यह बात सिद्ध करती है की अहिल्याबाई एक तरफ लोक कार्यों तो दूसरी तरफ सैन्य व्यवस्थाओं में बेहतर समन्वय स्थापित कर रही थीं।
अहिल्याबाई ने जाति, वर्ण, धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया, उन्होंने ब्राह्मण, मराठा, बहुजन, आदिवासी, मुसलमानों सहित सभी के कल्याण हेतु समान रूप से कार्य किया। यहां तक कि दूसरे राज्यों के मुसलमान, जैसे निजाम भी उनकी राज्य में शरण मांगते थे। महेश्वर दरबार के इतिवृत्त में उल्लेख मिलता है कि टीपू सुलतान के राज्य का एक ब्राह्मण महेश्वर में शरण लेने आया था। यह उद्धरण यह दर्शाता है कि अहिल्याबाई के शासनकाल में अन्य राज्यों की प्रजा भी उनकी तरफ आशा की दृष्टि से देखती थी। उन्होंने 13 विभिन्न रियासतों में अपने राज्याधिकारी नियुक्त किए थे और उन रियासतों ने भी उनके दरबार में अपने राज्याधिकारी भेजे थे। उपरोक्त विवरण अहिल्याबाई के द्विपक्षीय संबंधों की सफलता की कहानी स्वयं कहते हैं। यह स्पष्ट करता है कि अहिल्याबाई का शासन न केवल धार्मिक सहिष्णुता का प्रतीक था, बल्कि यह एक ऐसा मॉडल भी था, जो समावेशिता और समानता के सिद्धांतों को मानता था। उनके शासन ने न केवल लोगों को शांति और सुरक्षा प्रदान की, बल्कि उनके कल्याण के लिए एक स्थायी आधार भी तैयार किया। इस तरह से विदेशी आक्रमण की कोई आशंका नहीं थी। उनके राज्य में जानकार व्यक्तियों और कलाकारों का सम्मान किया जाता था। प्रसिद्ध साहित्यकार प्रो. अनिल सहस्रबुद्धे ने अहिल्याबाई के कार्यों का आलोचनात्मक विश्लेषण किया है। वे कहते हैं, "जनता की बुनियादी आवश्यकताओं जैसे भोजन, वस्त्र और आश्रय की व्यवस्था करना शासक की जिम्मेदारी है।"
इसी क्रम में प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने अहिल्याबाई के बारे में एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। वे कहते हैं कि मूल दस्तावेजीय साक्ष्यों के साथ साबित किया जा सकता है कि अहिल्याबाई एक उच्च श्रेणी की कूटनीतिज्ञ थीं। उनकी लोकसेवा और दानशीलता संकीर्ण धार्मिकता नहीं थे अपितु मूल्यों की स्थापना के स्थायी केंद्र थे।
इंदौर राज्य की आय को 'दौलत' (खजाना) और 'खजगी' (निजी) नामक दो भागों में बांटा गया था। इंदौर एकमात्र राज्य था, जिसमें ऐसा प्रावधान था। अहिल्याबाई की सास, गौतमाबाई को महेश्वर और चंदवाड़ के उप-विभागों का उपहार दिया गया था। उन्होंने उनके संचालन का प्रबंधन स्वतंत्र रूप से किया। वहां की आय को स्त्री धन माना जाता था और इसे निजी संपत्ति में स्थानांतरित किया जाता था। गौतमाबाई के निधन के बाद, निजी संपत्ति के वित्तीय अधिकार अहिल्याबाई को मिल गए। अहिल्याबाई ने अपने स्त्री धन से भारत भर में मंदिरों, आश्रयों, सड़कों कुओं और खाद्य वितरण केंद्रों जैसे जन कल्याण कार्यों को वित्त पोषित किया। यह एक अभूतपूर्व और आश्चर्यजनक घटना थी। इसके अलावा, उनकी दैनिक आवश्यकताएं भी निजी संपत्ति से वित्त पोषित की जाती थीं। अहिल्याबाई वृढ़ता से मानती थीं कि वह जन कल्याण के लिए पैदा हुई थीं और प्रजाजनों के हितों की रक्षा करना उनका सर्वोच्च कर्तव्य था। उनके दरबार में न्याय विभाग कमाई के अधीन नहीं था। लोगों को मुफ्त में न्याय प्रदान किया जाता था। लोग अहिल्याबाई की न्यायशीलता के प्रति सुनिश्चित थे।
गांधीजी के शिष्य विनोबा भावे ने कहा है कि मोरोपंत और अनंतफंडी जैसे कवियों द्वारा अहिल्याबाई का जो वर्णन किया गया है, वह अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। यह वास्तविकता है। उनके द्वारा किया गया यह कार्य न केवल देश को एकजुट करता है, बल्कि हमारी महान परंपरा की वैश्विक सोच को भी उजागर करता है। तत्कालीन परिस्थिति में अयोध्या, वाराणसी आदि स्थान उस समय मुस्लिम शासन के अधीन थे। उन्होंने उन राज्यों के शासकों से मंदिरों के निर्माण या पुनर्निर्माण की अनुमति कैसे प्राप्त की होगी? इससे स्पष्ट होता है कि अहिल्याबाई ने अपने व्यापक वैश्विक दृष्टिकोण से कल्याणकारी कार्यों को प्रेरित किया। उन्हें अन्य राज्यों, विशेषकर मुस्लिम शासित राज्यों में मंदिरों और अन्य संरचनाओं के निर्माण की अनुमति उनकी मजबूत विदेश नीति के कारण मिली, जो समन्वय और सहयोग पर जोर देती थी।
हैदराबाद के निज़ाम हो या टीपू सुल्तान, सभी ने अहिल्याबाई के प्रति सम्मान और स्नेह प्रकट किया। अहिल्याबाई की विदेश नीति उम्दा थी। अहिल्याबाई ने मानवता और कल्याण के मंत्र पर अपने शासन का संचालन किया। इसलिए, अहिल्याबाई को 'पुण्यश्लोक' की उपाधि मिली। उनके द्वारा भारत के विभिन्न भागों में लागू की गई कल्याणकारी परियोजनाओं की संरचनाएं 250 वर्षों के बाद आज भी खड़ी है और राष्ट्रीयता के विचार के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई हैं।

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार