विशेषाधिकार की मानसिकता समान अधिकारों की आवश्यकता

विशेषाधिकार की मानसिकता समान अधिकारों की आवश्यकता,

Dec 13, 2024 - 19:02
 0

यह घटना स्पष्ट रूप से यह दिखाती है कि कुछ मुस्लिम नेता अपने विशेषाधिकार की मानसिकता को लेकर उग्र और असंवेदनशील होते हैं। यह मानसिकता केवल समान अधिकारों की आवश्यकता पर आधारित एक सशक्त दृष्टिकोण के जरिए ही समाप्त की जा सकती है। यदि समाज में सबके लिए समान अधिकारों और न्याय की भावना को मजबूत किया जाए, तो विशेषाधिकार की भावना कम हो सकती है। जब तक यह मानसिकता नहीं बदलेगी, तब तक मुस्लिम नेताओं की उग्र बयानबाजी और संविधान या कानून के प्रति अनादर जारी रहेगा।

संविधान और कानून की सम्मानजनक स्थिति को समझने के लिए यह महत्वपूर्ण है कि समाज में हर किसी को समान अधिकार मिलें, और कोई भी वर्ग अपने धार्मिक या सामाजिक मान्यताओं के आधार पर कानून को चुनौती न दे। संविधान के प्रति अवहेलना करने से समाज में अस्थिरता उत्पन्न होती है, और किसी भी समुदाय को खुद को ऊपर मानने की मानसिकता अपनाने का अधिकार नहीं होना चाहिए।

समाज में समान अधिकारों की स्थापना करने से ही इस तरह के बयानों और हिंसा की घटनाओं का निराकरण किया जा सकता है। यह जरूरी है कि हर नागरिक को संविधान और कानून का पालन करने की जिम्मेदारी दी जाए, और किसी भी समुदाय को विशेषाधिकार की भावना से ऊपर उठने का अवसर न मिले। 

उग्र व्यवहार के बिना कानूनी प्रक्रिया सहजता से चलती। मुस्लिम नेता इसे चुनौती देना ही अपना विशेषाधिकार मानते हैं। वे इस पर गर्व करते हैं। अकबरुद्दीन ओवैसी की तरह कई मुस्लिम नेता धमकी देते रहे हैं, 'पुलिस हटा दो, तब देख लेंगे कि किसमें कितना दम है।' ऐसी ही बात सौ साल पहले मौलाना अकबर शाह खान ने कही थी। उन्होंने महामना मदन मोहन मालवीय को 'पानीपत के चौथे युद्ध' की चुनौती दी थी। इसी अंदाज में निजामुद्दीन दरगाह के प्रमुख ख्वाजा हसन निजामी ने कहा था, 'हिंदुओं में शासन करने की क्षमता नहीं। मुसलमानों ने शासन किया है और मुसलमान ही शासन करेंगे।'
हाल में सैयद शहाबुद्दीन, आजम खान, इमरान मसूद, तौकीर रजा आदि नेता सरकार, सेना, न्यायाधीशों को भी धमकाते रहे हैं। सैयद शहाबुद्दीन ने धमकी दी थी, 'अरब देशों से कहकर भारत को तेल की आपूर्ति बंद करा देंगे।' ऐसे उग्र बयानों पर कानूनी कार्रवाई तो दूर, खुली भर्त्सना भी नहीं होती। गैर-मुस्लिम नेता चुप रहते हैं। गत सौ सालों से भारतीय राजनीति की यह स्थायी विडंबना है। मौलाना अली बंधु एक से एक हिंसक भाषण देते थे, पर गांधीजी उन्हें 'परिशुद्ध आत्मा' बताते थे। इस तरह धमकी-भीरुता-हिंसा का स्वचालित दुष्चक्र बनता है। इस प्रवृत्ति की विस्तृत समीक्षा डा. आंबेडकर ने की थी।
अपनी पुस्तक 'थाट्स आन पाकिस्तान' में उन्होंने लिखा था, 'मुसलमान अब हिटलर की भाषा का प्रयोग कर रहे हैं और जर्मनी में जिस महत्व की मांग हिटलर ने की थी, वे उसकी आकांक्षा यहां कर रहे हैं।' ('संपूर्ण वाङमय', खंड 15)। आंबेडकर ने लिखा था, 'इस प्रवृत्ति का दूसरा प्रमाण मुसलमानों द्वारा गोहत्या के अधिकार और मस्जिदों के पास बाजे-गाजे की मनाही की मांग से मिलता है। शरीयत में मजहबी उद्देश्य से गोवध पर कोई बल नहीं दिया गया। इसलिए जब वे मक्का मदीना जाते हैं, तो गोवध नहीं करते, पर भारत में दूसरे किसी पशु की बलि देकर वे संतुष्ट नहीं होते। सभी मुस्लिम देशों में किसी मस्जिद के सामने से गाजे-बाजे के साथ गुजर सकते हैं, पर भारत में मुस्लिम इस पर आपत्ति करते हैं।'
इस विडंबना-मुस्लिम नेताओं की उग्रता और हिंदू नेताओं की चुप्पी से भारतीय समाज और शासन की जो दुर्गति हुई है, उसका आकलन असंभव है। इस विडंबना से दोनों समुदायों के बीच अस्वस्थकर भावनाएं बनी हैं। आखिर ग्रंथि जिस जगह हो, इलाज उसी का आवश्यक होता है। उपेक्षा से वह गांठ जड़ीभूत होती है। जब देश का कानून उत्तेजक भाषणबाजी को अपराध बताता है, तो जो भी ऐसा करे, उसे दंडित होना चाहिए, लेकिन आम तौर पर मुस्लिम नेताओं पर वैसे भाषणों के लिए शायद ही कभी कार्रवाई होती हो। फलतः मुस्लिम नेता अपने गुमान में और भी चढ़ते रहते हैं। यदि हिंदू नेता आंबेडकर की तरह, दृढ़तापूर्वक केवल शाब्दिक आलोचना भी करें तो विशेषाधिकार जताने वाले मुस्लिमों पर लगाम लगे। तभी यहां मानवतावादी न्यायप्रिय मुस्लिम नेता भी उभरते।
जोर-जबरदस्ती का अंदाज ठुकराने पर मुस्लिम नेता कहीं भी मनमानी चलाने में असमर्थ हैं।
सऊदी अरब में प्रमुख इस्लामी स्थानों की रक्षा अमेरिकी संरक्षण में होती है। अकूत आर्थिक संसाधन के बाद भी तमाम मुस्लिम देशों की सेनाएं मिलकर एक इजरायल को नहीं हरा सकतीं। भारत पर भी पाकिस्तान के चार- चार हमले हार में बदले। मुस्लिम नेताओं की ठसक दूसरों की चुप्पी से ही चलती है। अन्यथा स्वामी दयानंद, श्रद्धानंद, श्रीअरविंद या आंबेडकर जैसे नेताओं ने जब भी उनकी घमंडी मानसिकता को ठुकराया, तो उन्हें उत्तर नहीं सूझा। उलटे मुस्लिम नेताओं ने वैसे नेताओं को आदर दिया, जो उनसे आंख मिलाकर बात करते थे। उदाहरण के लिए स्वामी दयानंद को दी गई सर सैयद अहमद की श्रद्धांजलि। इसकी तुलना में किसी मुस्लिम नेता ने गांधीजी को रंच मात्र भी मान नहीं दिया, जो आजीवन हिंदुओं के हित कुर्बान करते रहे। इस्लामी श्रेष्ठता के स्थान पर मानवीय समानता को सामने रखना ही सही नीति है। घमंडी अंदाज को ठुकराकर केवल समान अधिकार की टेक पर ही विशेषाधिकारी मानसिकता खत्म की जा सकती है। उस पर चुप्पी साधने या झुकने से उसे बढ़ावा ही मिलता है। इससे आगे और भी अधिक क्षति होनी तय है। जिस दिन भारतीय शासन बिना मजहब, जाति, क्षेत्र देखे हर उत्तेजक भाषण पर समान रूप से कठोर कार्रवाई करने लगेगा, उसी दिन यह समस्या खत्म होनी आरंभ होगी।
इस्लामी मत भी बौद्ध, ईसाई या हिंदू मत के समान ही आदर या आलोचना का पात्र है। इस टेक से तनिक भी विचलन उस विशेषाधिकारी मानसिकता को ही बढ़ाता है, जिसने लाखों लोगों की बलि ली है। इसे बंद करने के लिए सही उपाय शैक्षिक और मनोवैज्ञानिक है। इसे केवल कानून-व्यवस्था का विषय मानना भूल है। मुस्लिम नेताओं की आक्रामक भाषा मनोवैज्ञानिक दबाव है, जिससे हिंदू नेता भ्रमित होते हैं। उन्हें सहजता, किंतु दृढ़ता से इसे ठुकराना होगा।

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार