हल्दी रस्म: परंपरा या फिजूलखर्ची? अमीरों के चक्कर में पिसता गरीब

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Mar 17, 2025 - 19:20
Mar 17, 2025 - 19:23
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हल्दी रस्म: परंपरा या फिजूलखर्ची? अमीरों के चक्कर में पिसता गरीब

हल्दी रस्म: परंपरा या फिजूलखर्ची? अमीरों के चक्कर में पिसता गरीब

भारतीय शादियों में रस्म-रिवाजों की भरमार है। हर रस्म का अपना एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व है। इन्हीं रस्मों में एक है हल्दी की रस्म, जिसे आमतौर पर विवाह से एक-दो दिन पहले आयोजित किया जाता है। यह रस्म प्रतीक है पवित्रता, सौंदर्य और शुभता का। पुराने समय में हल्दी रस्म घर के आंगन में, परिवार के सदस्यों और करीबी रिश्तेदारों के बीच बड़े ही सादगीपूर्ण तरीके से निभाई जाती थी। लेकिन समय के साथ इसमें भव्यता और दिखावे का ऐसा तड़का लगा कि आज यह रस्म फिजूलखर्ची का प्रतीक बनती जा रही है, खासकर ग्रामीण इलाकों में, जहां अब भी आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं है।

हल्दी रस्म का पारंपरिक महत्व

हल्दी को भारतीय संस्कृति में शुद्धता और औषधीय गुणों के लिए जाना जाता है। विवाह से पहले दूल्हा-दुल्हन के शरीर पर हल्दी का लेप लगाना न केवल उनकी सुंदरता बढ़ाने के लिए किया जाता है, बल्कि यह बुरी शक्तियों से बचाव का प्रतीक भी माना जाता है। इसके पीछे वैज्ञानिक कारण भी हैं — हल्दी एंटीसेप्टिक होती है, जिससे त्वचा को लाभ पहुंचता है।

पहले यह रस्म घर के बुजुर्गों द्वारा निभाई जाती थी। महिलाएं पारंपरिक गीत गाते हुए घर के बने पकवानों के साथ सादगी से रस्म पूरी करती थीं। खर्च भी सीमित रहता था, और रस्म का सार भावनात्मक जुड़ाव और पारिवारिक मेलजोल होता था।


बदलते दौर में बदलती हल्दी रस्म

लेकिन आज का समय ‘दिखावे’ का है। सोशल मीडिया के प्रभाव, शादी को स्टेटस सिंबल बनाने की होड़ और शहरी तामझाम के अंधानुकरण ने हल्दी रस्म को एक बड़े इवेंट में बदल दिया है। महंगे टेंट, डी.जे., सजावट, ड्रेस कोड, फोटोग्राफर और थीम बेस्ड फंक्शन ने इस सादगीपूर्ण रस्म का स्वरूप पूरी तरह बदल दिया है।

ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां पहले लोग अपने साधनों के अनुसार शादियों में खर्च करते थे, अब अमीरों की देखा-देखी और सामाजिक दबाव के कारण साधारण परिवार भी कर्ज में डूबने लगे हैं। हल्दी रस्म अब महंगे कपड़े, खानपान, तोहफों और नाच-गाने के बिना अधूरी मानी जाती है। गांवों में भी लाखों रुपए खर्च करके हल्दी समारोह आयोजित किया जा रहा है, जो एक चिंताजनक स्थिति है।


अमीरों के चक्कर में गरीबों की दुर्दशा

समाज में अमीर वर्ग के लिए यह महंगे फंक्शन सिर्फ दिखावे या मनोरंजन का साधन हो सकते हैं। लेकिन मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय परिवारों के लिए यह रस्म आर्थिक बोझ बनकर सामने आती है। उन्हें डर सताता है कि अगर हल्दी रस्म साधारण तरीके से की गई तो लोग क्या कहेंगे? बेटी या बेटे की शादी में समाज में उनकी प्रतिष्ठा पर सवाल उठ सकते हैं। नतीजतन, कई परिवार कर्ज लेकर भी इस रस्म को ‘भव्य’ बनाने में जुट जाते हैं।

ग्रामीण इलाकों में किसान या मजदूर वर्ग, जिनकी मासिक आय सीमित है, वे भी अमीरों को देखकर हल्दी के लिए टेंट, केटरिंग, डीजे, ब्यूटी पार्लर, थीम डेकोरेशन पर हजारों-लाखों खर्च कर रहे हैं। शादी के बाद यह कर्ज चुकाना उनके लिए एक नई समस्या बन जाता है।


फिजूलखर्ची के नतीजे

  1. आर्थिक कर्ज में फंसना
    ग्रामीण परिवार, जो पहले सीमित साधनों में सादगी से शादी करते थे, अब हल्दी रस्म में 50 हजार से लेकर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं। इस खर्च की भरपाई के लिए उन्हें या तो साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता है या जमीन गिरवी रखनी पड़ती है।

  2. परिवार पर मानसिक दबाव
    शादी जैसी खुशी के मौके पर भी माता-पिता को आर्थिक तंगी और सामाजिक दबाव झेलना पड़ता है। शादी के बाद कई परिवार कर्ज न चुका पाने के कारण मानसिक तनाव और अवसाद में चले जाते हैं।

  3. आनुष्ठानिक सार की क्षति
    जब रस्म का फोकस दिखावे पर हो जाए, तो उसका मूल भाव खो जाता है। हल्दी रस्म का असल मकसद परिवारजनों का मिलन और शुभकामना देना है, न कि प्रदर्शन करना।


समाज में बनती असमानता की खाई

जब गांव का गरीब परिवार भी अमीरों की तरह हल्दी रस्म भव्य तरीके से करने की कोशिश करता है, तब समाज में अमीरी-गरीबी की खाई और चौड़ी होती है। अमीर तो अगले दिन फिर से महंगी पार्टी कर लेंगे, लेकिन गरीब के लिए तो यह सिर्फ आर्थिक नुकसान और सामाजिक दबाव का कारण बनता है। धीरे-धीरे, यह रस्म उस वर्ग के लिए अभिशाप बनती जा रही है, जो अपनी स्थिति से ऊपर उठकर ‘लोगों की नजरों’ में अच्छा दिखने की चाहत में खुद को खो बैठा है।


क्या हो समाधान?

  1. सादगी को प्रोत्साहन देना
    हल्दी जैसी रस्मों में पारंपरिक, घरेलू और सादे तरीकों को अपनाना चाहिए। गांवों में पंचायतें इस मुद्दे पर जागरूकता अभियान चला सकती हैं।

  2. सामूहिक शादियों को बढ़ावा
    कई राज्यों में सामूहिक शादियां कराई जा रही हैं। ऐसी पहल हल्दी जैसी रस्मों में भी की जा सकती है, जिससे खर्च कम हो।

  3. सोशल मीडिया दिखावे से दूरी
    युवाओं को समझना होगा कि शादी जीवन का महत्वपूर्ण पड़ाव है, पर यह सिर्फ सोशल मीडिया पर ‘परफेक्ट इवेंट’ दिखाने का जरिया नहीं है।

  4. समाज के वरिष्ठों की भूमिका
    गांव के बुजुर्गों, सामाजिक संगठनों और शिक्षित युवाओं को आगे आकर लोगों को यह समझाना चाहिए कि दिखावे में पड़कर फिजूलखर्ची करना न तो जरूरी है और न ही उचित।


हल्दी रस्म भारतीय संस्कृति का अहम हिस्सा है, लेकिन जब परंपरा दिखावे में बदल जाए और लोगों को आर्थिक रूप से तोड़ने लगे, तो हमें रुककर सोचना चाहिए। अमीरों के पीछे भागने की होड़ में गरीब तबका फंसता जा रहा है। हमें यह समझने की जरूरत है कि खुशहाल और समृद्ध विवाह उन्हीं का होता है, जिसमें भावनाओं की प्रधानता हो, न कि पैसों के प्रदर्शन की।

अब समय आ गया है कि हम हल्दी जैसी रस्मों को उनकी मूल भावना के साथ सादगी से मनाना सीखें और समाज में एक सकारात्मक बदलाव लाएं।

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,