स्वामी विवेकानंद भारतीय शास्त्रों सनातन धर्म के सिद्धांतों

सनातन धर्म के सिद्धांतों से व्यक्ति,

Jan 13, 2024 - 07:07
Jan 13, 2024 - 07:08
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स्वामी विवेकानंद  भारतीय शास्त्रों सनातन धर्म के सिद्धांतों

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय शास्त्रों के विज्ञानमय विचारों से दुनिया को परिचित कराया।

उन्होंने विश्व की समस्त सभ्यताओं को बताया कि सनातन धर्म के सिद्धांतों से व्यक्ति,

 समाज और राष्ट्र की बाह्य एवं आंतरिक उन्नति बिना एक दूसरे का अतिक्रमण किये भी संभव है।

कृति, धर्म और विज्ञान परस्पर कैसे एक दूसरे के पूरक है, इस पर स्वामी विवेकानंद का शिकागो में दिया ऐतिहासिक भाषण अंग्रेजों के लिए आईने की तरह था। क्योंकि 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों की फूट डालो, राज करो एवं भारतीय धर्म, शास्त्र और विचारों पर नीति विभाजनकारी और वर्चस्व की थी। इसी नीति के अंत के लिए भारत में विवेकानंद का उद्घोष परिवर्तनकारी सिद्ध हुआ। जिससे कालांतर में राष्ट्रीय आंदोलनों का न केवल जन्म हुआ बल्कि स्व आत्मबोध की अवधारणा ने गहरे पैठ की। इस तरह राष्ट्रवाद को एक नया रंग और जोश दिया एक युवा संन्यासी क्रांतिकारी ने। वो ओजस्वी युवा थे नरेन्द्र, जो बाद में स्वामी विवेकानन्द के नाम से विख्यात हुए। स्वामी विवेकानंद अपने परिधानों से संन्यासी अवश्य थे किंतु अपने विचारों, दर्शन और कर्म से वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखने वाले एक अनन्य राष्ट्रवादी। वो न धर्मग्रंथों को वरीयता देते थे, न कर्मकांडों को, वो वरीयता देते थे अपने उस राष्ट्र को, जिसका एक-एक नागरिक स्वाभिमान के साथ स्वतंत्र परिवेश में स्वांस ले सके। जहां भूख, गरीबी और दुर्बलता का नामोनिशान न हो और जो अपनी मूलभूत आध्यात्मिक विरासत की रक्षा के साथ-साथ विज्ञान के क्षेत्र में भी आगे हो।

स्वामी विवेकानंद ने वेदांत की गहन शिक्षाएं ग्रहण कीं। साथ ही उन्होंने पाश्चात्य दर्शन का भी गूढ़ अध्ययन किया। अपने राष्ट्र के समुचित विकास के लिए उन्होंने पूर्व व पश्चिम की संस्कृतियों के समन्वय के नीर क्षीर विवेक पर जोर दिया। वे राष्ट्र के विकास को ही अपना धर्म मानते थे और कहते थे कि वे

हजार बार नर्क जा सकते हैं यदि इससे राष्ट्र का भला हो। नौजवानों की शक्ति पर उन्हें अटूट विश्वास था, यही कारण था कि वो नौजवानों को बंद कमरे में गीता पढ़ने की बजाय खेल के खुले मैदानों में फुटबॉल खेलने का संदेश देते थे। वो प्रत्यक्ष और वास्तविक जगत की बात करते थे। किसी परोक्ष, अदृश्य शक्ति की बात नहीं करते थे। वो विज्ञान और आध्यात्मिक जीवन में समन्वय को सर्वोपरि महत्व देते थे। विज्ञान को वो ऐसा सोपान मानते थे जिसके माध्यम से राष्ट्र आर्थिक संपन्नता व सुरक्षा के ऊंचे आयामों को प्राप्त कर सकता है।


निश्चित रूप से स्वामी विवेकानंद मात्र एक संन्यासी नहीं थे। वे एक क्रांतिकारी थे। उन्होंने स्वाभिमानी, ओजस्वी, बलिदानी महागाथा लिखने वाले आमजन की अगुवाई की। वो अपने दौर के अनगिनत युवाओं के प्रेरणा स्रोत बने। देशभक्तों के सरताज सुभाष चंद्र बोस भी स्वामी विवेकानंद को अपना आराध्य मानते थे। यह स्वामी विवेकानंद का ही प्रभाव था कि न केवल बंगाल बल्कि पूरे देश के युवा उद्वेलित हुए। प्रेम उनके लिए क्रांति और उत्सर्ग बन रहा था। उनके विचार बंगाल में पड़े अकाल, भूख और पूरे देश की आहत आत्मा एवं उन युवाओं को गुलामी की अनगिनत बेड़ियों से खींच कर जीवन न्योछावर करने के लिए प्रेरित करने लगे। निस्संदेह स्वामी विवेकानंद का जाज्वल्य हृदय क्रांति के लिए ही बना था। किंतु उनकी पीढ़ी के हजारों देशभक्त युवाओं और विवेकानंद में एक अंतर था वे अत्यधिक विचारशील और अध्ययनशील थे। उनके पास न केवल तर्कशक्ति थी अपितु कार्य कारण विवेचना और तथ्यों का विश्लेषण करने की अपूर्व सामर्थ्य भी। इस तरह उनका दृष्टिकोणवैज्ञानिक था।

उन्होंने दुनियाभर के समाज के बारे में पढ़ा। उन्होंने भारत के स्वर्णिम अतीत को खंगाला और तब जाकर वो इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि दरिद्र नारायण की मुक्ति के बगैर देश का विकास संभव नहीं। अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा लेकर वे विश्व धर्म संसद मे भाषण देने पहुंचे और अपनी ओजमयी वाणी से उन्होंने भारत की प्राचीन, ज्ञान, विज्ञान की संपदा से विश्व का परिचय करवाया। भारतीय इतिहास में 11 सितंबर 1893 की वो तिथि स्वर्णाक्षरों में सदैव के लिए अंकित हो गई। स्वामी विवेकानंद का सबसे बड़ा योगदान यह था कि उन्होंने औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के लिए संघर्ष को आध्यात्मिक आधार और आयाम दिया। इसके साथ ही उन्होंने देश के नैतिक व सामाजिक उत्थान के लिए अनवरत कार्य किया। उनके लिए हिन्दू शब्द का अर्थ भारत, राष्ट्र था। तभी उन्होंने हुंकार भरी, गर्व से कहो कि मैं हिन्दू हूं। किन्तु वह हिन्दू और संन्यासी के रूप में जितना धार्मिक थे, उससे कहीं अधिक मानव मुक्ति के प्रेमी थे। उनका समस्त प्रयास आज़ाद भारत, जाति मुक्त और समरस जीवन समन्वय से सुदृढ़ भारत के लिए था। यही उनका परम लक्ष्य था। यही उनके संन्यासी होने का कारण था। और यही उनके धर्म परिधान का लक्ष्य भी।

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