संघ की शक्ति, धैर्य और अनुग्रह
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘संगठित शक्ति और राष्ट्रीय चरित्र’ निर्माण के आह्वान के साथ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है। यह ‘धैर्य और अनुग्रह’ की गाथा है, जो राष्ट्र-केंद्रित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को परिभाषित करती है, जिसका शताब्दी वर्ष इस वर्ष विजयादशमी से शुरू हुआ है। रा.स्व.संघ की महत्वपूर्ण यात्रा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान […]
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ‘संगठित शक्ति और राष्ट्रीय चरित्र’ निर्माण के आह्वान के साथ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर चुका है। यह ‘धैर्य और अनुग्रह’ की गाथा है, जो राष्ट्र-केंद्रित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को परिभाषित करती है, जिसका शताब्दी वर्ष इस वर्ष विजयादशमी से शुरू हुआ है।
रा.स्व.संघ की महत्वपूर्ण यात्रा स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हिंदुओं को संगठित करने और सनातन धर्म के अनुयायियों के रूप में वर्गीकृत लोगों में विश्वास पैदा करने के लिए बहुत ही मामूली रूप से अस्तित्व में आने के बाद शुरू हुई।
दशहरा, जो बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, के अवसर पर सन् 1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के नेतृत्व में रा.स्व.संघ ने आकार लिया। तब से यह तमाम संघर्षों और उतार-चढ़ावों का सामना करते हुए शनै: शनै: बढ़ता रहा और आज एक विशाल आंदोलन में बदल गया है, विश्व स्तर पर इसकी पहचान सबसे बड़े स्वैच्छिक संगठन या आंदोलन के रूप में बन गई है।
स्थापना के बाद से समाज के कुछ वर्गों के लिए काफी समय तक रा.स्व.संघ एक पहेली बना रहा। चूंकि दूर से संघ को समझना कठिन है, इसलिए इसे अक्सर गलत समझा गया। संघ की अनूठी कार्य संस्कृति और संघ के नि:स्वार्थ स्वयंसेवकों द्वारा संचालित संगठन गहराई से देश की सभ्यता एवं संस्कृति से जुड़े हुए हैं, जहां से इसे शक्ति मिलती है। इसलिए तमाम संघर्षों और उतार-चढ़ाव के बावजूद संघ मजबूती से खड़ा रहा।
इस विजयादशमी उत्सव में सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने रेशिम बाग स्थित मुख्यालय में संघ के सौ साल पूरे होने पर संगठन के निरंतर विकास के कुछ बिंदुओं पर प्रकाश डाला। इस अवसर पर उन्होेंने दो बड़े कारकों ‘संगठित शक्ति और राष्ट्रीय चरित्र’ को रेखांकित किया, जिसका भारत, हिंदू समाज के साथ संघ के विकास में भी योगदान रहा।
आज 73,000 से अधिक शाखाओं के साथ संघ एक विशाल इकाई है और आनुषांगिक संगठनों का एक समूह ‘परिवार’ या ‘बड़े परिवार’ का निर्माण करता है। संघ द्वारा देशभर में 1,20,000 से अधिक सेवा परियोजनाओं और लगभग 30,000 विद्यालयों का संचालन किया जा रहा है। ये संघ के स्वयंसेवकों की नि:स्वार्थता, बलिदान और साहस की तस्वीर पेश करते हैं। इसके अलावा, 63,000 मंडलों (प्रत्येक 8-10 गांवों के समूह) में फैली रा.स्व.संघ की शाखाएं या बुनियादी निर्माण इकाइयां हर दिन खुले स्थानों पर आयोजित की जाती हैं, जो संगठन को सक्रिय बनाती हैं। इनमें 28,000 से अधिक साप्ताहिक शाखाएं एक और विशेष आयाम जोड़ती हैं।
संघ मानव-निर्माण और चरित्र-निर्माण के दोहरे उद्देश्य के साथ 1,00,000 से अधिक गांवों तक पहुंचने की राह पर है। शाखाओं के साथ संघ गांवों, अर्ध-शहरी और शहरी इलाकों में विभिन्न समुदायों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, आत्मनिर्भरता जैसी अपनी सेवा परियोजनाओं को आगे बढ़ा रहा है। अगले कुछ माह में संघ अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर जाएगा। लेकिन कोई भी आसानी से इस संगठन की पहुंच का अनुमान नहीं लगा सकता। इसका उदाहरण अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण के लिए संघ द्वारा चलाया गया जन अभियान है। मंदिर निर्माण के लिए संसाधन और समर्थन जुटाने के लिए संघ के स्वयंसेवकों का मात्र 40 दिन में 5,75,000 गांवों में 12.9 करोड़ से अधिक परिवारों तक पहुंचना, संगठन की दृढ़ता और समाज के बीच उसके प्रभाव को दर्शाता है।
अधिकांश विश्लेषक यह जानने के लिए उत्सुक थे कि संघ आगे क्या करेगा? किसी भी स्वयंसेवी संगठन के लिए 100 वर्ष की यात्रा बहुत बड़ी बात होती है। लेकिन ऐसा लगता है कि संघ और इसके स्वयंसेवकों की यात्रा आगे भी अनवरत जारी रहेगी। सरसंघचालक ने विजयादशमी पर अपने उद्बोधन में पंच परिवर्तन के जो विचार रखे, वे दीर्घकालिक मुद्दों के बारे में भविष्य की स्पष्ट दृष्टि प्रदान करते हैं, जिन पर संगठन काम करना चाहता है। पर्यावरणीय क्षरण से लेकर हिंदू पारिवारिक मूल्यों के क्षरण तक, ऐसा प्रतीत होता है कि आपसी संबंध आगे चलकर कार्य योजना का केंद्र बिंदु बन गए हैं। संघ के पंच परिवर्तनों में सामाजिक स्तर पर समरसता लाना, वैयक्तिक स्तर पर स्व का बोध कराकर उनमें आत्म-सम्मान का भाव पैदा करना, पारिवारिक स्तर पर कुटुंब प्रबोधन, देश स्तर पर नागरिक कर्तव्य का भाव जगाना और वैश्विक स्तर पर पर्यावरण अनुकूल जीवन को बढ़ावा देने जैसे कार्य शामिल हैं।
सरसंघचालक ने केवल ‘पंच परिवर्तन’ के जरिये समाज में गुणात्मक परिवर्तन लाने के पांच आयाम ही तय नहीं किए हैं, बल्कि उन्होंने मानवता के सामने आने वाले बड़े तात्कालिक मुद्दों को भी सूचीबद्ध किया है। इनमें ‘डीप स्टेट’, ‘वोकिज्म’, ‘कल्चरल मार्क्सिस्ट’ जैसे मुद्दे प्रमुख हैं। ये सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित शत्रु हैं, जो असंतोष को हवा देकर समाज को तोड़ते हैं, उसे व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा करते हैं, संस्कार तथा आस्था को चोट पहुंचाते हैं। भारत में विभिन्न तंत्रों तथा संस्थानों द्वारा किए जा रहे विकृत प्रचार और कुसंस्कार खासतौर से नई पीढ़ी को बुरी तरह प्रभावित कर रहे हैं।
इसी तरह, उन्होंने अपने उद्बोधन में हमास और इस्राएल के बीच संघर्ष से परिभाषित पश्चिमी एशियाई संकट से लेकर बांग्लादेश में तख्तापलट तक, जिसके कारण हिंदुओं का नरसंहार हुआ, उसका विशेष रूप से उल्लेख किया। भारत के परिप्रेक्ष्य से भी सरसंघचालक ने कई प्रमुख मुद्दे उठाए, विशेष कर कोलकाता के आर.जी.कर अस्पताल जैसे कई स्थानों में बलात्कार की शर्मनाक घटनाएं, जिसके कारण चिकित्सक बेमियादी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं।
इसके अलावा, श्री भागवत ने पंजाब, जम्मू-कश्मीर, उत्तर-पश्चिमी सीमाओं पर लद्दाख, केरल व तमिलनाडु तट तथा बिहार से मणिपुर तक फैले पूरे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में अशांति का सामना करने के लिए ‘मजबूत होने के महत्व’ और समाज के एकजुट होने पर भी जोर दिया। उन्होंने विभाजनकारी तत्वों द्वारा संघर्ष पैदा करने के प्रयासों की ओर भी संकेत किया।
आस्था आधारित असहिष्णुता और गणेश चतुर्थी, दुर्गा पूजा या रामनवमी जैसे त्योहारों के दौरान हिंसा भड़काने के प्रयासों का भी उन्होंने उल्लेख किया और समाज को सशक्त होने और समरसता स्थापित करने के महत्व पर जोर दिया।
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