घूस की छूट से बच नहीं पाएंगे जनप्रतिनिधि
तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोचों के सांसदों को घूस दी थी।
घूस की छूट से बच नहीं पाएंगे जनप्रतिनिधि
देश की संसदीय राजनीति के परिप्रेक्ष्य में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय पीठ ने ऐतिहासिक निर्णय दिया है। मुख्य न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ को अध्यक्षता वाली पीठ ने इसी न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ के 26 साल पुराने निर्णय को पलटते हुए कहा है कि रिश्वत लेकर सदन में वोट देने वाले सांसद और विधायक अब संसदीय विषेशाधिकार की ओट लेकर बच नहीं पाएंगे। इन पर अब घुसखोरी का मुकदमा चलेगा।
वस्तुतः 1998 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव ने अपनी अल्पमत सरकार बचाने के लिए झारखंड मुक्ति मोचों के सांसदों को घूस दी थी। इस मामले में घूसखोर सांसद मुकदमे से इसलिए बच गए थे, क्योंकि उन्हें विशेषाधिकार का सुरक्षा कवच मिला हुआ था। न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने इस सुरक्षा कवच का हवाला देते हुए 'नोट फार बोट' के संदर्भ में संसद को ही ऐसे सांसदों पर कार्रवाई करने का अधिकारी माना था।
अब इसी निर्णय में आमूलचूल बदलाव किया गया है। सांसद और विधायक यदि रिश्वत लेकर मतदान करते हैं या अनर्गल भाषण देते हैं, तो उन पर मुकदमा चलेगा। दे रहे हैं, उनसे तो यही जाहिर होता है
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार की नैतिक शुचिता पर आंच जुलाई 2008 में तब आई थी, जब उसने लोकसभा में विश्वास मत हासिल किया था। यह स्थिति अमेरिका के साथ गैर-सैन्य परमाणु सहयोग समझौते के विरोध में वामपंथी दलों द्वारा मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी के कारण निर्मित हुई थी। वामदलों के अलग हो जाने के बावजूद सरकार का वजूद कायम रहा, क्योंकि उसने बड़े पैमाने पर नोट के बदले सांसदों के बोट खरीदे थे।
इस मामले में संजीव सक्सेना और सुहैल हिंदुस्तानी को हिरासत में लिया गया था। इनकी गिरफ्तारी के बाद आए बयानों से जाहिर हुआ था कि सरकार बचाने के लिए वोटों को खरीदने का इशारा शीर्ष नेतृत्व की और से हुआ था। हमारे निर्वाचित सांसदों में से अनेक ने घूस के लालच में नैतिकता की सभी सीमाएं लांघने का काम स्टिंग आपरेशन के जरिये की गई बातचीत में भी किया है। वस्तुतः जब राजनीति का मकसद येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर काबिज रहने और किसी भी प्रकार से धन कमाने का हो जाए, तब सवाल संसद में प्रश्न पूछने का हो या विश्वास मत के दौरान मत प्राप्त करने का, राष्ट्र और जनहित गौण हो जाते हैं।
प्रजातंत्र के मंदिरों में जो परिदृश्य दिखाई कि राष्ट्रीय हित अनैतिक आचरण और बाजारवाद की महिमा बढ़ाने में समर्पित किए जा रहे हैं। पीवी नरसिंह राव की अल्पमत सरकार से लेकर विश्वास मत के जरिये मनमोहन सरकार को बचाए जाने तक सांसदों का मोलभाव होता है। महुआ मोइत्रा द्वारा पैसे लेकर सवाल पूछने के मामले ने एक बार फिर तय किया है कि संसद में संविधान की शपथ लेने के बाद भी सांसद संविधान और लोकतंत्र की गरिमा से खिलवाड़ करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
समय सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय पीठ ने कथित आरोपी सांसदों को संविधान के अनुच्छेद 105 में दर्ज प्रविधान के अंतर्गत छूट दी थी। इसमें प्रविधान है कि किसी सांसद द्वारा संसद के भीतर की गई कार्यवाही को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। फिर चाहे वह कोई टिप्पणी हो या दिया गया वोट। ऐसे प्रविधान संविधान निर्माताओं ने शायद इसलिए रखे होंगे, जिससे जनप्रतिनिधि अपने काम को निर्भीकता से अंजाम दे सकें? लेकिन यह देश और जनता का दुर्भाग्य ही है कि जब बच निकलने के ये कानूनी रास्ते सार्वजनिक होकर प्रचलन में आ गए तो सांसद अपने नैतिक व संवैधानिक दायित्व से भी विचलित होने लग गए। किंतु अब सात सदस्यों की पीठ ने इस विशेषाधिकार के रूप में मिले सुरक्षा कवच को खत्म कर दिया है
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