गलत निर्णय को नजीर बनने से रोकना सराहनीय

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को ऐतिहासिक बताया है। अपने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की है

Mar 7, 2024 - 23:01
Mar 7, 2024 - 23:07
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गलत निर्णय को नजीर बनने से रोकना सराहनीय

गलत निर्णय को नजीर बनने से रोकना सराहनीय

पीवी नरसिंह राव की सरकार के अविश्वास प्रस्ताव पर सरकार को बचाने के लिए सांसदों की कथित खरीद-फरोख्त पर आज से 26 साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह कहकर अपने हस्तक्षेप से पल्ला झाड़ लिया था कि संसद या विधानसभाओं के भीतर होने वाली कार्रवाइयों में निर्णय लेने का अधिकार इनके अध्यक्षों को है। लेकिन बाद में जब सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को नजीर की तरह दूसरे मामलों में उपयोग किया जाने लगा तो शायद सर्वोच्च न्यायालय को लगा कि इसमें देर भले हो गई हो, पर हस्तक्षेप करना आवश्यक है। लोकतंत्र के भविष्य के लिए यह निर्णय महत्वपूर्ण है

 विधायक, यदि किसी ने रिश्वत लेकर सदन में वोट दिया या कोई सवाल पूछा तो ऐसे लोगों को संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत हासिल 'विशेषाधिकार' छिन जाएगा या इसका उन्हें लाभ नहीं मिलेगा। सुप्रीम कोर्ट के सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने लगभग 26 साल पहले दिए गए अपने ही एक पुराने निर्णय को पलट दिया। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एएस बोपन्ना, जस्टिस एमएम सुंदरेश, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस मनोज मिश्रा की पीठ ने कहा, 'हम 1998 में पीवी नरसिंह राव मामले में दिए गए उस निर्णय से सहमत नहीं हैं, जिसमें सांसदों और विधायकों को सदन में भाषण देने या बोट के लिए रिश्वत लेने पर मुकदमे से छूट दी गई थी।


उल्लेखनीय है कि साल 1998 में पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 2 के बहुमत से तय किया था कि ऐसे मामलों में भी जनप्रतिनिधियों पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। तब देश की सबसे बड़ी अदालत का तर्क था कि संसद और विधानसभा के अंदर इसके सदस्यों पर कोई एक्शन लेने का अधिकार इनके अध्यक्षों का है। लेकिन उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने ही कोर्ट द्वारा दिए गए इस निर्णय को स्वीकार करने योग्य नहीं पाया। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के सामूहिक वक्तव्य में कहा गया है कि यदि कोई जनप्रतिनिधि रिश्वत लेता है, तो उस पर उसी समय केस बन जाता है, यह बात मायने नहीं रखती कि उसने वोट दिया या नहीं या इस संबंध में कोई स्पीच दी या नहीं। न्यायाधीशों ने अपने निर्णय में स्पष्टता से कहा कि सदन के अंदर बहस और विचार-विमर्श का माहौल बनाए रखना लोकतंत्र की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के इस ऐतिहासिक निर्णय में बार बार इस बात पर जोर दिया गया है कि सदन के अंदर बहस और विचार विमर्श का माहौल हर हाल में बनाए रखना जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को ऐतिहासिक बताया है। अपने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर प्रधानमंत्री ने टिप्पणी की है कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय से राजनीति में स्वच्छता आएगी और देश के आम लोगों का राजनीतिक व्यवस्था पर विश्वास गहरा होगा। सुप्रीम कोर्ट के सामने वास्तव में यह मामला इसलिए आया था, क्योंकि झारखंड मुक्ति मोर्चा की एक विधायक 1998 में सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को अपने बचाव के लिए दलील के रूप में उपयोग करना चाह रही थीं। वस्तुतः झारखंड मुक्ति मोर्चा के वरिष्ठ नेता शिबू सोरेन की बड़ी बह सीता सोरेन झारखंड के जामा विधानसभा क्षेत्र से पहली बार वर्ष 2009 में विधायक बनी थीं और वर्तमान में भी वह यहां से विधायक हैं।

शिबू सोरेन के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन की पत्नी पर वर्ष 2012 में राज्यसभा चुनावों के दौरान एक उम्मीदवार को वोट देने के बदले में रिश्वत लेने का आरोप लगा था। साल 2014 में झारखंड उच्च न्यायालय ने केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) द्वारा उनके विरुद्ध दायर मामले को रद करने से इन्कार कर दिया था, इस पर सीता सोरेन ने उसी साल सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी कि 1998 के पीवी नरसिंह राव केस के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और अनुच्छेद 194 (2) में सांसदों और विधायकों को संवैधानिक सुरक्षा प्राप्त  कोर्ट से अपनी अपील में यह भी कहा कि संविधान का दस्तावेज देश का शीर्ष दस्तावेज है। इसलिए इसका पालन होना चाहिए।

कुल मिलाकर सीता सोरेन ने पीवी नरसिंह राव पर चले मुकदमे का उदाहरण प्रस्तुत करके सुप्रीम कोर्ट से उन्हें स्थायी राहत दिलवाने की बात कही थी यानी वह चाहती थीं कि सुप्रीम कोर्ट निर्णय दे दे कि किसी विधायक या सांसद के सदन के भीतर के आचरण पर कोई कानूनी कार्रवाई या मुकदमा नहीं चल सकता। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस दलील को मानने से मना कर दिया है, जिसका मतलब यह है कि अब सीता सोरेन के विरुद्ध मुकदमा चलेगा। गौरतलब है कि सीता सोरेन को इस मामले में मार्च 2019 में तब राहत मिल गई थी, जब मामले की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संबंधित पीठ ने कहा था कि 1998 के नरसिंह राव केस में दिया गया निर्णय सीधे ऐसे मामले से जुड़ा था।


सितंबर 2023 में मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाले पांच न्यायाधीशों की बेंच ने इस केस के तीन महत्वपूर्ण पहलुओं का जिक्र किया और कहा कि इन पर पुनर्विचार करने की आवश्यकता थी, इसलिए उन्होंने इसे सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया। सीजेआइ चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पीठ ने तब पाया था कि अनुच्छेद 194 (2) और 105 (2) का उद्देश्य विधायकों को प्रतिशोध के डर के बिना वोट डालने की अनुमति देना था, न कि उन्हें आपराधिक कानून के उल्लंघन से बचाना था। दूसरी बात यह भी नोट की गई 

 पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव केस में न्यायमूर्ति एससी अग्रवाल की असहमति महत्वपूर्ण श्री, इसे ध्यान में रखा गया और तीसरा जो महत्वपूर्ण बिंदु इस निर्णय में शामिल था, वह यह था कि क्या रिश्वत का अपराध तभी माना जाए‌गा, जब रिश्वत का भुगतान हो जाएगा या जब रिश्वत लेकर विधायक उसके बदले समर्थन ले लेगा? वास्तव में यह एक ऐसा मामला था जो सर्वोच्च न्यायालय की साख पर बट्टे की तरह था, क्योंकि जब सांसदों और विधायकों को सदन के अंदर ऐसी सुविधाएं प्रदान की जाती हैं, तो सदन के बाहर भी अपराधों के प्रति लोगों का रवैया उपेक्षापूर्ण हो जाता है। (ईआरसी)

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