मेरी ताकत मोदी नहीं, भारत की 140 करोड़ जनता और महान संस्कृति है: प्रधानमंत्री

Lex Fridman Podcast #460: नरेंद्र मोदी – भारत के प्रधानमंत्री | शक्ति, लोकतंत्र, युद्ध और शांति का संक्षिप्त हिंदी सारांश दिया गया है मेरी ताकत मोदी नहीं, भारत की 140 करोड़ जनता और महान संस्कृति है: प्रधानमंत्रीNarendra Modi, Prime Minister of India, Lex Fridman Podcast, Narendra Modi interview, Modi Lex Fridman, India politics, Indian democracy, Narendra Modi leadership, Modi foreign policy, India economy, India war peace, India power politics, India global influence, Narendra Modi 2025, Modi governance, Modi India development, Indian Prime Minister interview, Lex Fridman Narendra Modi, Modi international relations, Indian diplomacy, Modi on democracy, Modi on war, Modi peace talks, India-US relations, India-China relations, Indian defense policy, Modi podcast 2025,

Mar 16, 2025 - 18:50
Mar 16, 2025 - 19:01
 0
मेरी ताकत मोदी नहीं, भारत की 140 करोड़ जनता और महान संस्कृति है: प्रधानमंत्री

मोदी नहीं, 140 करोड़ देशवासियों की ताकत बोलती है: पीएम मोदी,

मेरी ताकत मोदी नहीं, भारत की 140 करोड़ जनता और महान संस्कृति है: प्रधानमंत्री,

मोदी नहीं जाता, भारत की संस्कृति और परंपरा जाती है: पीएम मोदी,

हज़ारों सालों की संस्कृति और 140 करोड़ देशवासी मेरी असली ताकत: मोदी,

जहाँ जाता हूँ, मोदी नहीं भारत की शक्ति जाती है: प्रधानमंत्री मोदी,

Lex Fridman के इस पॉडकास्ट एपिसोड में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विस्तार से बातचीत की। उन्होंने भारत के लोकतंत्र, देश की आर्थिक प्रगति, और वैश्विक मंच पर भारत की बढ़ती भूमिका पर अपने विचार साझा किए। प्रधानमंत्री मोदी ने युद्ध और शांति को लेकर भारत की रणनीति, बड़े देशों जैसे अमेरिका और चीन के साथ संबंध, तथा विश्व में भारत की स्थिति पर भी चर्चा की। इसके अलावा, उन्होंने शक्ति और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन, शासन के सामने आने वाली चुनौतियों, और अपने व्यक्तिगत नेतृत्व के सिद्धांतों के बारे में भी अपने विचार व्यक्त किए।

मेरी जो ताकत है, वह मोदी नहीं है, 140 करोड़ देशवासी, हज़ारों सालों की महान संस्कृति, परंपरा, वही मेरा सामर्थ्य है। इसलिए मैं जहाँ भी जाता हूँ, तो मोदी नहीं जाता है, हज़ारों साल की वेद से विवेकानंद की महान परंपरा को 140 करोड़ लोगों और उनके सपनों को लेकर, उनकी आकांक्षाओं को लेकर मैं निकलता हूँ और इसलिए मैं दुनिया के किसी नेता से हाथ मिलाता हूँ, तो मोदी हाथ नहीं मिलाता है, 140 करोड़ लोगों का हाथ होता है। तो सामर्थ्य मोदी का नहीं है, सामर्थ्य भारत का है। जब भी हम शांति के लिए बात करते हैं, तो विश्व हमें सुनता है। क्योंकि यह बुद्ध की भूमि है, यह महात्मा गांधी की भूमि है,  तो विश्व हमें सुनता है और हम संघर्ष के पक्ष में नहीं हैं। हम समन्वय के पक्ष में हैं। न हम प्रकृति से संघर्ष चाहते हैं। न हम राष्ट्रों के बीच में संघर्ष चाहते हैं। हम समन्वय चाहने वाले लोग हैं। और उसमें अगर कोई भूमिका हम अदा कर सकते हैं, तो हमने निरंतर अदा करने का प्रयत्न किया है।

मेरा जीवन बहुत ही अत्यंत गरीबी में बीता था। लेकिन हमने कभी गरीबी का बोझ महसूस नहीं किया,

क्योंकि जो व्यक्ति बढ़िया जूते पहनता है, और अगर उसके पास जूते नहीं हैं, तो उसे लगता है कि यह कमी है। अब हमने तो जिंदगी में कभी जूते पहने ही नहीं थे, तो हमें क्या मालूम था कि जूते पहनना भी एक बहुत बड़ी चीज होती है। तो हम वह तुलना करने की अवस्था में नहीं थे। हम जीवन ऐसे ही जिए हैं। मेरे प्रधानमंत्री बनने के बाद, मैंने मेरे शपथ समारोह में पाकिस्तान को स्पेशल बुलाया था ताकि एक शुभ शुरुआत हो। लेकिन हर बार हर अच्छे प्रयास का परिणाम नकारात्मक निकला। हम आशा करते हैं कि उनको सद्बुद्धि मिलेगी। सुख शांति के रास्ते पर जाएंगे और वहाँ की अवाम भी दुखी होगी, ऐसा मैं मानता हूँ। देखिए, आपने जो कहा, आलोचना और कैसे सामना करते हैं। तो अगर मुझे एक वाक्य में कहना हो, तो मैं उसका स्वागत करता हूँ। क्योंकि मेरा एक दृढ़ विश्वास है कि आलोचना, यह लोकतंत्र की आत्मा है। मैं सभी इन नौजवानों से कहना चाहूँगा

जीवन में रात कितनी ही अंधेरी क्यों न हो, लेकिन वह रात ही है, सुबह होना तय होता है। - अब आप नरेंद्र मोदी के साथ मेरी बातचीत सुनने वाले हैं, वो, भारत के प्रधानमंत्री हैं।

यह मेरे जीवन की ऐसी बातचीत है, जो शब्दों से परे है और इसने मुझपर गहरा असर डाला है। मैं इस बारे में आपसे कुछ बात करना चाहूँगा। आप चाहें तो वीडियो को आगे बढ़ाकर, सीधे हमारी बातचीत को सुन सकते हैं।

नरेंद्र मोदी की ज़िंदगी की कहानी बहुत शानदार रही है। उन्होंने गरीबी से लड़ते हुए, 140 करोड़ लोगों के सबसे बड़े लोकतंत्र के

नेता बनने तक का सफर तय किया है। जहाँ वे एक बार नहीं, बल्कि तीन बार बहुत बड़ी जीत के साथ देश के प्रधानमंत्री बने।

एक नेता के तौर पर, उन्होंने भारत को बांधे रखने के लिए कई संघर्ष किए हैं। एक ऐसा देश जहाँ कई संस्कृतियाँ हैं, और बहुत सारे समुदाय भी हैं।

ऐसा देश जिसके इतिहास में धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक तनाव की कई घटनाएँ रही हैं।वे सख्त और कभी-कभी थोड़े विवादित फैसले लेने के लिए भी जाने जाते हैं। और इसी वजह से करोड़ों लोग उन्हें पसंद भी करते हैं।

और कई उनकी आलोचना भी करते हैं। हमने इन सब विषयों पर एक लंबी बातचीत की है।

दुनिया में सभी बड़े नेता उनका सम्मान करते हैं और उन्हें शांति के सिपाही और एक दोस्त की तरह देखते हैं। ऐसे देशों के नेता भी उनका सम्मान करते हैं, जहाँ युद्ध चल रहे हैं। चाहे बात अमेरिका-चीन की हो, यूक्रेन-रूस की हो,

या बात इज़राइल-फिलिस्तीन या मिडिल ईस्ट की हो। उनका हर जगह सम्मान है।

आज के इस समय में कम से कम मुझे इस बात का आभास हो गया है कि इंसानियत और इंसानों का भविष्य इस समय एक नाज़ुक मोड़ पर खड़ा है,

कई जगह युद्ध हो सकते हैं। ये युद्ध देशों से लेकर दुनिया तक फैल सकते हैं। न्यूक्लियर पावर देशों में तनाव बढ़ना,

AI से लेकर नूक्लीअर फ्यूज़न तक के तकनीकी विकास, ऐसे बदलाव लाने का लक्ष्य रखते हैं जो समाज और भू-राजनीति को पूरी तरह से बदल सकते हैं।और इससे राजनीतिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल भी बढ़ सकती है।

इस समय हमें अच्छे नेताओं की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। वे नेता जो शांति ला सकें, और दुनिया को जोड़ें, तोड़ें नहीं।

जो अपने देश की रक्षा करने के साथ-साथ पूरी इंसानियत का भला सोचने की कोशिश करें।और दुनिया का भी। इन्हीं कुछ बातों की वजह से मैं कह सकता हूँ कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ हुई मेरी यह बात

आज तक की कुछ सबसे खास बातचीत में से एक है। हमारी बातचीत में कुछ ऐसी बातें हैंजिन्हें सुनकर आपको लगेगा कि मैं सत्ता से प्रभावित होता हूँ। ऐसा नहीं है, ना ऐसा हुआ है, ना कभी होगा।

मैं कभी किसी की भक्ति नहीं करता, खासकर सत्ता वाले लोगों की। मुझे ताकत, पैसे और शोहरत पर भरोसा नहीं है,क्योंकि ये चीज़ें किसी के भी दिल, दिमाग और आत्मा को भ्रष्ट कर सकती हैं।चाहे बातचीत, कैमरे के सामने हो या कैमरे के बिना, मेरी हमेशा कोशिश रहती है

कि मैं इंसानी दिमाग को पूरी तरह समझ पाऊँ। अच्छा हो या बुरा, मुझे सब कुछ जानना और समझना है।अगर हम गहराई में जाएँ, तो मुझे लगता है कि हम एक ही हैं। हम सब में, कुछ अच्छाई है और कुछ बुराई भी है।हम सबकी अपने-अपने संघर्ष और उम्मीदों की कहानियाँ हैं। चाहे आप दुनिया के बड़े नेता हों, या भारत के कोई मज़दूर,

या चाहे आप अमेरिका में काम करने वाले मज़दूर या किसान हों। वैसे इससे मुझे याद आया कि मैं ऐसे कई अमेरिकन मज़दूरों और किसानों से कैमरे के बिना बात करूँगा, कैमरे के सामने भी कर सकता हूँ, क्योंकि अभी मैं दुनिया और अमेरिका में घूम रहा हूँ।

यहाँ मैंने नरेंद्र मोदी के बारे में जो बातें कही या कहने वाला हूँ वे बस उनके नेता होने से जुड़ी नहीं हैं, बल्कि उनके व्यक्तित्व से भी जुड़ी हैं। मैंने उनके साथ जो लंबा समय कैमरे के सामने और कैमरे के पीछे बिताया,

हमारी बातचीत में काफी गहराई थी। इसमें गर्मजोशी, हमदर्दी, हंसी-मज़ाक दिखेगा।

अंदर और बाहर वाली शांति की बात भी दिखेगी। हमने इस बातचीत पर अपना काफी ध्यान लगाया है।

ऐसी बातचीत जो समय के बंधन से परे है। मैंने सुना है कि वे सभी लोगों से इसी हमदर्दी और करूणा से मिलते हैं।

वे सभी तबकों के लोगों से इसी तरह से मिलते और बात करते हैं। और इन्हीं सब बातों की वजह से

यह एक बेहतरीन अनुभव रहा, जिसे मैं शायद ही कभी भुला पाऊँगा। वैसे आपको एक और बात बतानी है,

आप इस बातचीत के कैप्शन इंग्लिश, हिंदी और बाकी भाषाओं में पढ़ सकते हैं, और इस वीडियो को इन्हीं भाषाओं में सुन भी सकते हैं।

आप इसे दोनों भाषाओं में भी सुन सकते हैं, जहाँ मैं इंग्लिश बोलते हुए सुनाई दूँगा, और पीएम मोदी हिंदी बोलते हुए सुनाई देंगे।

अगर आप चाहें तो आप अपनी पसंदीदा भाषा में इस वीडियो के सबटाइटल देख सकते हैं।

यूट्यूब में आप "सेटिंग्स" आइकन पर क्लिक करके आवाज़ की भाषा बदल सकते हैं। फिर "ऑडियो ट्रैक" पर क्लिक करें,

और हमारी बातचीत को अपनी पसंदीदा भाषा में सुनने के लिए उस भाषा को चुनें। पूरी बातचीत को इंग्लिश में सुनने के लिए इंग्लिश भाषा को चुनें।

और हिंदी में सुनने के लिए हिंदी को चुनें। यह बातचीत जैसे हुई, वैसे सुनने के लिए मतलब मोदी जी को हिंदी और मुझे इंग्लिश में सुनने के लिए

प्लीज़ "हिंदी (लैटिन)" वाला ऑडियो ट्रैक विकल्प चुनें। आप इस पूरी बातचीत को या तो

एक ही भाषा में सुन सकते हैं, या हिंदी और इंग्लिश दोनों भाषाओं में। अपनी पसंदीदा भाषा के सबटाइटल के साथ भी।

वीडियो की डिफ़ॉल्ट भाषा इंग्लिश है। मैं इसके लिए 'इलेविन लैब्स' और बेहतरीन ट्रांसलेटर्स को धन्यवाद कहना चाहता हूँ।

हमने पूरी कोशिश की है कि प्रधानमंत्री मोदी की आवाज़ एआई क्लोनिंग के ज़रिए इंग्लिश में एकदम असली जैसी लगे।

मेरा वादा है कि मैं भाषाओं की वजह से कभी हमारे बीच दूरियाँ नहीं आने दूँगा।

और मेरी कोशिश रहेगी कि दुनिया में हर जगह, हर भाषा में इन बातचीतों को सुना जाए।

मैं फिर से आप सबको दिल की गहराइयों से धन्यवाद देना चाहता हूँ।

मेरे लिए यह बेहतरीन सफर रहा है। और आपका हर समय मेरे साथ होना, मेरे लिए एक बड़े सम्मान की बात है।

आप सबसे दिल से प्यार है। आप "लैक्स फ़्रिडमन पॉडकास्ट" देख रहे हैं।

तो दोस्तों वो घड़ी आ गई है, जब आप मेरी बातचीत सुनेंगे, भारत के पीएम, नरेंद्र मोदी के साथ।

Fasting

मैं आपको बताना चाहूँगा कि मैंने उपवास रखा है। अब वैसे पैंतालीस घंटे यानी लगभग दो दिन हो गए हैं।

मैं बस पानी पी रहा हूँ, खाना बंद है। मैंने यह इस बातचीत के सम्मान और तैयारी के लिए किया है।

ताकि हम आध्यात्म वाले तरीके से बात करें। मैंने सुना है कि आप भी काफी उपवास रखते हैं।

क्या आप उपवास रखने का कारण बताना चाहेंगे? और इस समय आपके दिमाग की क्या स्थिति होती है।

- पहले तो मेरे लिए बड़े आश्चर्य की बात है कि आपने उपवास रखा है।

और उस भूमिका से रखा है, जैसे यह आपने मेरे सम्मान में रखा हो।

मैं इसके लिए आपका बहुत आभार व्यक्त करता हूँ।

भारत में...

...जो धार्मिक परंपराएँ हैं। वे दरअसल एक जीवनशैली हैं।

और हमारे सुप्रीम कोर्ट ने... ...हिंदू धर्म की बहुत बढ़िया व्याख्या की है।

हमारी कोर्ट ने कहा है कि हिंदू धर्म का मतलब बस पूजा-पाठ ही नहीं है।

लेकिन यह... ...जीने का तरीका है।

जीवन जीने की पद्धति। और उसमें हमारे शास्त्रों में शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा,

इंसानियत को कैसे ऊँचाई पर ले जाएँ, इन सारे विषयों पर एक प्रकार से...

...चर्चा भी है और उसके लिए कुछ रास्ते भी हैं। परंपराएँ हैं और व्यवस्थाएँ हैं।

उसमें एक उपवास भी है। वैसे उपवास ही सबकुछ नहीं होता।

और भारत में संस्कृति के रूप में, दर्शनशास्त्र के रूप में कहूँ,

तो कभी-कभी मैं देखता हूँ कि एक तो अनुशासन के लिए लोग करते हैं। मैं अगर सामान्य भाषा में बात करूँ,

या भारत को नहीं जानने वाले दर्शकों के लिए कहूँ तो...

...जीवन में शरीर के अंदर और बाहरी अनुशासन के लिए

यह बहुत ही अच्छा है। यह जीवन को बेहतर बनाने में भी काम आता है। जब आप उपवास करते हैं,

आपने भी देखा होगा कि जैसा आपने कहा आप दो दिनों से बस पानी पी रहे हैं।

आपकी जितनी इंद्रियाँ हैं, खासकर सुगंध की हो, स्पर्श की हो, स्वाद की हो।

ये इतनी जागरुक हो गई होंगी कि आपको पानी की खुशबू भी आ रही होगी।

आपने पहले कभी पानी पीते हुए, पानी की खुशबू का अनुभव नहीं किया होगा। कोई चाय भी आपके बगल से लेकर गुजरेगा, तो उस चाय या कॉफ़ी की खुशबू आएगी।

आपने फूल पहले भी सूँघा होगा आज भी करेंगे। आप उसको सूँघकर पहचान सकते हैं।

यानी आपकी सारी इंद्रिंयाँ जो हैं, एकदम से सक्रिय हो जाती हैं।

और इनकी जो क्षमता है,

चीज़ों को महसूस करने और प्रतिक्रिया देने की क्षमता भी कई गुना बढ़ जाती है।

मैं तो इसका अनुभवी हूँ। दूसरा मेरा अनुभव है कि आपके सोचने की गति को

यह बहुत ही... बहुत तेज़ कर देते हैं।

नया पन भी देते हैं। आप एकदम से अलग सोचने लगते हैं। मैं नहीं जानता बाकियों के उपवास के क्या अनुभव होंगे, मेरा तो यही है।

दूसरा ज़्यादातर लोगों को लगता है कि उपवास मतलब खाना छोड़ देना।

खाना न खाना। यह तो शरीर से जुड़ी बात है।

किसी व्यक्ति को कठिनाई के कारण खाना नहीं मिला। पेट में कुछ नहीं गया।

अब उसको कैसे उपवास मानेंगे? यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।

जैसे मैं लंबे समय से उपवास करता रहा हूँ। उपवास के पहले भी मैं पांच-सात दिन

पूरे शरीर को अंदर से साफ करने के लिए योगा और आयुर्वेद की मदद लेता हूँ।

या हमारी पारंपरिक तरीकों को अपनाता हूँ। फिर मैं उपवास शुरू करने से पहले कोशिश करता हूँ

जितना ज़्यादा पानी पी सकूँ, उतना पीता हूँ।

खुद की अंदर से सफाई की वजह से मेरा शरीर उपवास के लिए तैयार हो जाता है।

जब मैं उपवास करता हूँ, तो मेरे लिए वह एक भक्ति होती है। मेरे लिए उपवास एक अनुशासन है।

और मैं उपवास के समय कितनी ही बाहर की गतिविधी करता हूँ,

लेकिन मैं अंदर से खोया हुआ रहता हूँ।

अपने ही अंदर रहता हूँ। और मुझे उससे एक अच्छे अनुभव की अनुभूति होती है।

और यह उपवास में किताबों को पढ़कर, या किसी के उपदेश के कारण या

मेरे परिवार में किसी कारण से उपवास चल रहा है, उन चीज़ों से नहीं हुआ है।

मेरा खुदका एक अनुभव था। स्कूल के समय की बात है,

हमारे यहाँ महात्मा गांधी की जो इच्छा थी, गौ-रक्षा की इच्छा।

इसको लेकर के कोई आंदोलन चल रहा था, सरकार कोई कानून नहीं बना रही थी।

उस समय पूरे देश में... ...सार्वजनिक जगह पर बैठकर एक दिन का उपवास करने का कार्यक्रम था।

हम तो बच्चे थे। अभी-अभी शायद प्राइमरी स्कूल से निकले होंगे।

मेरा वहाँ उपवास पर बैठने का मन कर गया। और मेरे जीवन का वह पहला अनुभव था।

उतनी छोटी उम्र में भी न तो मुझे भूख लग रही थी, न ही कुछ खाने की इच्छा हो रही थी।

मैं जैसे नई एक चेतना प्राप्त कर रहा था।

तो मुझे इसपर विश्वास हो गया कि यह कोई विज्ञान है। जिसमें बात सिर्फ भूखे रहने की नहीं है।

यह उससे कुछ बहुत बड़ी चीज़ है। फिर मैंने धीर-धीरे खुदको

कई प्रयोगों से शरीर को और मन को बेहतर बनाने का प्रयास किया।

तो मैं उपवास की इस लंबी प्रक्रिया से निकला हूँ।

और दूसरी बात है कि मेरा काम करना कभी बंद नहीं हुआ। मैं उतना ही काम करता हूँ, कभी-कभी तो लगता है ज़्यादा करता हूँ।

और मैंने देखा है कि उपवास के दौरान मुझे अगर कहीं अपने विचारों को व्यक्त करना है,

तो मैं हैरान हो जाता हूँ कि ये विचार कहाँ से आते हैं। कैसे निकलते हैं। - हा-हा।

- मुझे बहुत अच्छा लगता है। - तो आप उपवास में भी दुनिया के बड़े लोगों से मिलते हैं।

आप अपना प्रधानमंत्री वाला काम भी करते हैं। आप उपवास में और कभी-कभी नौ दिनों के उपवास में भी दुनिया के एक बड़े नेता के तौर पर

अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हैं। - ऐसा है, इसका एक लंबा इतिहास है। शायद सुनने वाले भी थक जाएँगे।

हमारे यहाँ एक चातुर्मास की परंपरा है। जब वर्षा ऋतु होती है।

तो हमारी खाना पचाने की ताकत कमज़ोर हो जाता है। और वर्षा ऋतु में...

...एक समय ही भोजन करना है। यानी 24 घंटों में एक बार। और वह मेरा करीब जून के आधे महीने बाद शुरू होता है।

दिवाली के बाद, मतलब नवंबर में खत्म होता है। कभी चार महीने के लिए और कभी साढ़े चार महीने के लिए।

वह मेरी एक परंपरा चलती है। जिसमें मैं चौबिस घंटे में एक बार खाता हूँ।

फिर एक नवरात्रि आती है, जो आमतौर पर भारत में सितंबर या अक्टूबर में आती है।

और पूरे देश में उस समय दुर्गा पूजा का उत्सव होता है। शक्ति उपासना का उत्सव होता है।

वह नौ दिन का उत्सव होता है। तो मैं उसमें मैं पूरी तरह बस गर्म पानी पीता हूँ।

वैसा गर्म पानी पीना मेरी आदत है, मैं हमेशा ही गर्म पानी पीता हूँ।

मेरे पुराने जीवन की वजह से मेरी ऐसी आदत बनी हुई है।

हमारे यहाँ दूसरी नवरात्रि मार्च-अप्रैल में आती है।

जिसे हमारे यहाँ "चैत्र नवरात्रि" कहते हैं। जो शायद इस वर्ष 31 मार्च से शुरू हो रहा है।

तो वो नौ दिन मैं उपवास करता हूँ और दिन में कोई एक फल एक बार खाता हूँ।

जैसे मान लेते हैं मैंने पपीता चुना। फिर मैं नौ दिनों तक बस पपीता ही खाऊँगा।

और दिन में बस एक बार खाऊँगा। तो मेरी नौ दिन का ऐसा उपवास रहता है।

तो साल भर में इतने उपवास रखने हैं, और सालों से यह परंपरा मेरे जीवन में बन गई है।

शायद मैं कह सकता हूँ कि 50-55 साल से मैं यह कर रहा हूँ।

- क्या कभी ऐसा हुआ है कि आप किसी दुनिया के बड़े नेताओं से मिले हों और पूरी तरह उपवास पर रहे हों?

उनकी क्या प्रतिक्रिया थी? आप भूखे रह सकते हैं, यह देखकर उन्हें कैसा लगता है? और मैं आपको बताना चाहूँगा कि आप बिल्कुल सही हैं।

मेरे दो दिन के उपवास के कारण, मेरी सजग रहने की क्षमता, मेरी चीज़ों की महसूस करने की क्षमता

मेरे अनुभव में, बहुत बढ़ गई है। मैं पूछ रहा था कि आपको किसी नेता की कहानी याद है, जब आपने उनके सामने उपवास रखा?

- ऐसा है कि मैं ज़्यादातर लोगों को पता नहीं होने देता।

यह मेरा निजी मामला है, तो मैं इसका प्रचार नहीं करता... - हाँ।

- ...लोगों को थोड़ा-बहुत पता चलने लगा, जब से मैं मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री बना उसके बाद ही पता चलने लगा।

वरना यह मेरा निजी मामला है। पर लोगों को पता चल गया है, तो मैं लोगों को अच्छे से बताता हूँ ताकि उन्हें फायदा हो।

यह मेरी निजी चीज़ तो है नहीं। मेरा अनुभव है, जो किसी को भी काम आ सकता है।

क्योंकि मेरा तो जीवन ही लोगों के लिए है, जैसे एक बार प्रधानमंत्री बनने के बाद

मेरी राष्ट्रपति ओबामा के साथ एक मीटिंग थी।

उन्होंने रात के खाने पर बुलाया। तब जाकर दोनों सरकारों के बीच चर्चा चली,

उन्होंने कहा खाने पर आएँ, पर उन्हें बताया गया कि प्रधानमंत्री कुछ खाते नहीं।

तो वह बहुत चिंता में थे कि कैसे... ...इतने बड़े देश के प्रधानमंत्री आ रहे हैं,

उनकी खातिरदारी कैसे करें। उन्हें चिंता हुई। जब हम बैठे तो मेरे लिए गर्म पानी आया।

फिर मैं ओबामा जी से बड़ी मज़ाक में कहा कि देखो भाई मेरा खाना आ गया है।

ऐसा करके मैंने गिलास सामने रखा। फिर मैं बाद में दोबारा जब गया, तो उन्हें याद था।

उन्होंने कहा कि देखिए पिछली बार आपका उपवास था, इस बार आप... दूसरी बार वैसे दिन का खाना था।

...इसबार उपवास नहीं है तो दोगुना खाना होगा। - आपके बचपन की बात करते हैं।

Early life

आप एक कम संपन्न परिवार से आते हैं, फिर सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री बन जाते हैं। यह कई लोगों के लिए एक प्रेरणा वाली कहानी हो सकती है।

आपका परिवार भी अधिक संपन्न नहीं था और आप बचपन में एक कमरे के घर में रहते थे।

आपका मिट्टी का घर था और वहाँ पूरा परिवार रहता था। अपने बचपन के बारे में कुछ बताइए।

कम सुविधाओं ने कैसे आपके व्यक्तित्व को बेहतर बनाया।

- मेरा जन्म उत्तर गुजरात के एक शहर महेसाणा में हुआ।

वहाँ वडनगर नाम का कस्बा है, उधर मेरा जन्म हुआ। वैसे वह स्थान बहुत ऐतिहासिक है,

और वहीं मेरा जन्म हुआ, वहीं मेरी पढ़ाई हुई।

अब यह आज की दुनिया को देखते हैं जब तक मैं...

...गाँव में रहता था, जिस परिवेश में रहता था,

अब मेरे गाँव की कुछ विशेषताएं रही हैं, जो शायद दुनिया में बहुत ही अनोखी हैं।

जब मैं स्कूल में पढ़ता था, तो मेरे गाँव के एक सज्जन थे।

वे हमें लगातार स्कूल में बच्चों को कहते कि देखो भाई आप लोग कहीं जाएं

कहीं पर भी आपको कोई भी नक्काशी वाला पत्थर मिलता है या पत्थर पर कुछ लिखा मिलता है,

नक्काशी की हुई कोई चीज मिलती है, तो यह स्कूल के इस कोने में इकट्ठा करना है।

उसमें रुचि बढ़ने लगी तो पता चला हमारा गांव तो बहुत ही पुराना है, ऐतिहासिक है।

फिर कभी स्कूल में चर्चा होती थी, तो उससे जानकारी मिलने लगी।

बाद में शायद चीन ने एक फिल्म बनाई थी। और मैं उस फिल्म के विषय में कहीं अख़बार में पढ़ा था कि

चीन के दार्शनिक ह्वेनसांग, वे मेरे गाँव में काफी समय रहे थे।

कई सदियों पहले। वह जगह बौद्ध शिक्षा का एक बड़ा केंद्र था। तो मैंने उसके विषय में जाना।

और शायद चौदह सौ ईसवी में बौद्ध शिक्षा का केंद्र था।

बारहवीं सदी का एक विजय स्मारक, सत्रहवीं सदी का एक मंदिर,

सोलहवीं सदी में दो बहनें थीं, जो संगीत में बहुत पारंगत थीं, उनका नाम ताना-रीरी था।

यानी इतनी चीजें सामने आने लगी, जो मुझे पता नहीं थी।

फिर जब मैं मुख्यमंत्री बना तो मैंने बड़ा खुदाई का काम शुरू करवाया।

खुदाई का काम किया तो पता चला उस समय हजारों बौद्ध भिक्षुओं की शिक्षा का यह केंद्र था।

और बुद्ध, जैन, हिंदु तीनों परंपराओं का वहाँ प्रभाव रहा था।

और हमारे लिए इतिहास केवल किताबों तक सीमित नहीं था।

हर पत्थर बोलता था, हर दीवार कह रही थी कि मैं क्या हूँ।

और जब हमने यह खुदाई का काम शुरू किया, तो इतिहास के लिए महत्वपूर्ण चीजें मिलीं।

अब तक उन्हें 2,800 साल के सबूत मिले हैं,

जो दिखाते हैं कि यह शहर अविनाशी रूप से

अखंड रूप से, 2,800 वर्षों से आबाद रहा है, यहाँ मनुष्य जीवन रहा है, और 2,800 वर्षों में इसके विकास के पूरे सबूत प्राप्त हुए हैं।

अभी वहाँ अंतरराष्ट्रीय स्तर का एक संग्रहालय भी बना है, लोगों के लिए।

खासकर के पुरातत्व के जो छात्र हैं, उनके लिए यह अध्ययन का एक बड़ा क्षेत्र बन गया है।

तो, एक तो, जहाँ मेरा जन्म हुआ, उसकी अपनी एक विशेषता रही है।

और मेरा सौभाग्य देखिए, शायद कुछ चीजें कैसे होती हैं, पता नहीं।

काशी मेरी कर्मभूमि बनी। अब काशी भी अविनाशी है।

काशी, बनारस, वाराणसी जिसे कहते हैं, वह भी सैकड़ों वर्षों से निरंतर एक जीवंत शहर है।

तो शायद कुछ ईश्वर की व्यवस्था होगी कि मैं एक वडनगर में पैदा हुआ व्यक्ति

काशी में जाकर, आज अपनी कर्मभूमि बनाकर माँ गंगा के चरणों में जी रहा है।

जब मैं अपने परिवार की बात करता हूँ, तो पिताजी, माताजी, हम भाई-बहन,

मेरे चाचा, चाची, मेरे दादा, दादी, सब लोग बचपन में साथ रहते थे।

तो हम लोग छोटे से घर में रहते थे, शायद यह जगह तो बहुत बड़ी है, जहाँ हम बैठे हैं।

जिसमें कोई खिड़की भी नहीं थी, एक छोटा सा दरवाजा था। वहीं हमारा जन्म हुआ, वहीं हम पले-बढ़े।

अब गरीबी का विषय आता है, वह आज स्वाभाविक है कि जिस प्रकार से सार्वजनिक जीवन में लोग आते हैं,

उस हिसाब से तो मेरा जीवन बहुत ही अत्यंत गरीबी में बीता था।

लेकिन हमने कभी गरीबी का बोझ महसूस नहीं किया,

क्योंकि जो व्यक्ति बढ़िया जूते पहनता है,

और अगर उसके पास जूते नहीं हैं, तो उसे लगता है कि यह कमी है। अब हमने तो जिंदगी में कभी जूते पहने ही नहीं थे,

तो हमें क्या मालूम था कि जूते पहनना भी एक बहुत बड़ी चीज होती है। तो हम वह तुलना करने की स्थिति में नहीं थे।

हम जीवन ऐसे ही जिए हैं और हमारी माँ बहुत ही परिश्रम करती थीं।

मेरे पिताजी बहुत परिश्रम करते थे। मेरे पिताजी की विशेषता यह थी और वे इतने अनुशासित थे

कि बहुत सुबह, 4:00 - 4:30 बजे वह घर से निकल जाते थे। काफी दूर पैदल जाकर, कई मंदिरों में जाकर फिर दुकान पर पहुँचते थे।

तो जो जूते पहनते थे, वह चमड़े के थे, गाँव में जो बनाता है,

बहुत ही कठोर होते थे एकदम, तो आवाज बहुत आती थी, टक, टक, टक करके।

तो वह चलते थे जब दुकान जाते थे, तो लोग कहते थे कि हम घड़ी मिला लेते थे

कि हाँ, दामोदर भाई जा रहे हैं।

यानी इतना उनका अनुशासित जीवन था, बहुत मेहनत करते थे, वह रात देर तक काम करते थे।

वैसे हमारी माताजी भी घर की परिस्थितियों में कोई कठिनाई महसूस न हो, उसके लिए करती रहती थीं।

लेकिन इन सबके बावजूद भी हमें कभी

अभाव में जीने की इन परिस्थितियों ने मन पर नकारात्मक प्रभाव पैदा नहीं किया।

मुझे याद है, मेरे तो कभी स्कूल में जूते पहनने का सवाल ही नहीं था।

एक दिन मैं स्कूल जा रहा था। मेरे मामा मुझे रास्ते में मिल गए।

उन्होंने कहा, "अरे! तू ऐसे स्कूल जाता है, जूते नहीं हैं।"

तो उस समय उन्होंने कैनवास के जूते खरीदकर मुझे पहना दिए।

अब उस समय तो शायद वह 10-12 रुपए में आते होंगे, वे जूते।

अब वह कैनवास के थे, उस पर दाग लग जाते थे,

तो सफेद कैनवास के जूते थे। तो मैं क्या करता था जब शाम को स्कूल की छुट्टी हो जाती थी, तो मैं थोड़ी देर स्कूल में रुकता था।

और जो शिक्षक ने चॉकस्टिक का उपयोग किया होता था और उसके टुकड़े जो फेंके होते थे, वह तीन-चार कमरों में जाकर इकट्ठा करता था।

और वह चॉकस्टिक के टुकड़े घर ले आता था, और उसको मैं भिगोकर, पॉलिश बनाकर,

मेरे कैनवास के जूते पर लगाकर, चमकदार सफेद बनाकर जाता था।

तो मेरे लिए वह संपत्ति थी, बहुत महान वैभव अनुभव करता था।

पता नहीं क्यों बचपन से हमारी माँ स्वच्छता वगैरह के विषय में बहुत ही जागरूक थीं।

तो हमें भी शायद वह संस्कार मिल गए थे, मुझे जरा कपड़े ढंग से पहनने की आदत कैसे है पता नहीं, लेकिन बचपन से थी।

जो भी हो उसको ठीक से पहनूँ। तो इस्त्री कराने के लिए या प्रेस कराने के लिए तो हमारे पास कोई व्यवस्था थी नहीं।

तो मैं यह तांबे के लोटे में पानी भरकर गर्म करके उसको चिमटे से पकड़कर,

मैं खुद अपना प्रेस करता था। और स्कूल चला जाता था। तो यह जीवन, यह जीवन का एक आनंद लेता था।

हम लोग कभी, यह गरीब है, क्या है, कैसे है, यह लोग कैसे जीते हैं, इनका जीवन कैसा है,

ऐसा तो कभी संस्कार नहीं हुआ। जो है उसी में मस्तमौला से जीना, काम करते रहना।

कभी रोना नहीं इन चीजों को लेकर। और मेरे जीवन की इन सारी बातों को भी, सौभाग्य कहो या दुर्भाग्य कहो,

यह राजनीति में ऐसी मेरी परिस्थिति बन गई कि यह चीजें निकलकर आने लगीं। क्योंकि जब मुख्यमंत्री की मेरा शपथ हो रही थी,

तो टीवी वाले मेरे गाँव पहुँच गए, मेरे दोस्तों को पूछने लग गए, मेरे घर का वे वीडियो निकालने के लिए चले गए।

तब पता चला कि यह कौन है, यह कहाँ से आ रहा है। लोगों को उसके पहले कोई ज्यादा मेरे विषय में जानकारी नहीं थी।

तो जीवन मेरा ऐसा ही रहा है। और हमारी माता जी का एक स्वभाव रहा था कि सेवा भाव उनकी प्रवृत्ति में था और,

उनको कुछ परंपरागत चीजें आती थीं, दवाई की, तो बच्चों का वह इलाज करती थीं।

तो सुबह पाँच बजे बच्चे सूर्योदय से पहले उनसे इलाज करवाते थे।

तो वह सब लोग, हमारे घर पर सब लोग आ जाते थे, छोटे बच्चे रोते भी रहते थे, तो हम लोगों को भी जल्दी उठना होता था उसके कारण।

और माँ फिर उनका इलाज करती रहती थीं। तो यह सेवा भाव जो है, वह एक प्रकार से इन्हीं चीजों से पनपा हुआ था।

एक समाज के प्रति संवेदना, किसी के लिए कुछ अच्छा करना, तो ऐसे एक परिवार से मैं समझता हूँ कि...

...माता, पिता, मेरे शिक्षकों के, जो भी मुख्य परिवेश मुझे मिला, उसी से मेरा जीवन चला।

Advice to Young People

- बहुत सारे युवा लोग हैं, जो इसे सुन रहे हैं जो वास्तव में आपकी कहानी से प्रेरित हैं।

उन बहुत ही साधारण शुरुआतों से लेकर के, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नेता बनने तक।

तो आप उन युवाओं को क्या कहना चाहेंगे, जो संघर्ष कर रहे हैं, दुनिया में खोए हुए हैं,

और अपना रास्ता खोजने की कोशिश कर रहे हैं, आप उन्हें क्या सलाह दे सकते हैं? - मैं सभी इन नौजवानों से कहना चाहूँगा,

जीवन में रात कितनी ही अंधेरी क्यों न हो,

लेकिन वह रात ही है, सुबह होना निश्चित है।

और इसलिए हममें वह धैर्य चाहिए, आत्मविश्वास चाहिए।

हाँ, यह बात है और मैं हालात की वजह से नहीं हूँ।

ईश्वर ने मुझे किसी काम के लिए भेजा है, यह भाव होना चाहिए। और मैं अकेला नहीं हूँ, जिसने मुझे भेजा है, वह मेरे साथ है।

यह एक अटूट विश्वास होना चाहिए। कठिनाइयाँ भी कसौटी के लिए हैं, कठिनाइयाँ मुझे विफल करने के लिए नहीं हैं।

मुसीबतें मुझे मजबूत बनाने के लिए हैं, मुसीबतें मुझे हताश-निराश करने के लिए नहीं हैं।

और मैं तो हर ऐसे संकट को हर मुसीबत को हमेशा अवसर मानता हूँ।

तो मैं नौजवानों से यही कहूँगा। दूसरा धैर्य चाहिए, शॉर्टकट नहीं चलता है।

हमारे यहाँ रेलवे स्टेशन पर लिखा रहता है, कुछ लोगों को आदत होती है पुल पर से रेलवे पटरी पार करने के बजाय नीचे से भागने की

तो वहाँ लिखा होता है, शॉर्टकट आपको काट देगा।'

तो मैं नौजवानों को भी कहूंगा, शॉर्टकट आपको छोटा कर देगा, कोई शॉर्टकट नहीं होता, एक धैर्य होना चाहिए, धीरज होनी चाहिए।

और हमें जो भी दायित्व मिलता है न उसमें जान भर देनी चाहिए।

उसको मस्ती से जीना चाहिए, उसका आनंद लेना चाहिए।

और मैं मानता हूँ कि अगर यह मनुष्य के जीवन में आता है,

उसी प्रकार से बहुत कुछ है। वैभव ही वैभव है, कोई चिंता का विषय नहीं है।

वह भी अगर कंबल ओढ़कर सोता रहेगा तो वह भी बर्बाद हो जाएगा।

उसने तय किया है न, यह भले ही मेरे आसपास होगा, लेकिन मुझे मेरे अपने सामर्थ्य से इसमें वृद्धि करनी चाहिए।

मुझे मेरे सामर्थ्य से समाज को ज्यादा देना चाहिए। यानी मैं अच्छी स्थिति में हूँ, तो भी मेरे लिए करने के लिए बहुत कुछ है।

अच्छी स्थिति में नहीं हूँ, तो भी करने के लिए बहुत काम है। यह मैं कहना चाहूँगा।

दूसरा, मैंने देखा है कि कुछ लोग, चलो यार हो गया इतना सीख लिया, बहुत हो गया।

जीवन में भीतर के विद्यार्थी को कभी मरने नहीं देना चाहिए, लगातार सीखते रहना चाहिए।

हर चीज सीखने का जिनका, अब मुझे...

...शायद मुझे किसी काम के लिए ही तो जीना होगा, तो,

अब गुजराती भाषा मेरी मातृभाषा है और

हम हिंदी भाषा जानते नहीं थे।

वाकचातुर्य क्या होता है? बात कैसे करनी चाहिए? तो पिताजी के साथ चाय की दुकान पर मैं बैठता था।

तो उतनी छोटी आयु में इतने लोगों से मिलने का मौका मिलता था

और मुझे हर बार उसमें से कुछ न कुछ सीखने को मिलता था। कुछ तरीके, उनकी बात करने का तरीका, इन चीजों से मैं सीखता था।

कि हाँ, यह चीजें हम भी, भले ही आज हमारी स्थिति नहीं है, लेकिन कभी हो तो हम ऐसा क्यों न करें?

हम इस प्रकार से क्यों न रहें? तो सीखने की वृत्ति मैं समझता हूँ कि हमेशा रहनी चाहिए।

और दूसरा मैंने देखा है कि ज़्यादातर लोगों को

पाने, बनने के, मन में एक सपने होते हैं, लक्ष्य होते हैं,

और वह जब नहीं होता है तो निराश हो जाते हैं।

और इसलिए मैंने हमेशा मेरे मित्रों से मुझे बात करने का मौका मिलता है, मैं कहता हूँ, "भाई देखिए,

पाने और बनने के सपनों के बजाय, कुछ करने का सपना देखो।"

जब करने का सपना देखते हो, और मान लीजिए आपने दस तक पहुँचना तय किया, आठ पहुँचे,

तो आप निराश नहीं होंगे। आप दस के लिए मेहनत करोगे। लेकिन आपने कुछ बनने का सपना तय कर लिया

और वह नहीं हुआ, तो जो हुआ है वह भी आपको बोझ लगने लगेगा। इसलिए जीवन में इसकी कोशिश करनी चाहिए।

दूसरी बात, क्या मिला, क्या नहीं मिला, मन में भाव यह होना चाहिए, "मैं क्या दूँगा?"

देखिए, संतोष जो है न, वह आपने क्या दिया, उसकी कोख से पैदा होता है।

Journey in the Himalayas

- और मैं आपको बताना चाहूँगा कि मेरा बचपन से ही यही करने का सपना था, जो मैं अभी कर रहा हूँ।

तो मेरे लिए यह एक बहुत खास पल है। 17 साल की उम्र में एक और रोमांचक भाग आता है

जब आप घर छोड़कर दो साल तक हिमालय में घूमते रहे, आप अपने उद्देश्य, सच और भगवान की तलाश में थे।

वैसे आपके उस समय के बारे में लोग कम ही जानते हैं। आपका घर नहीं था, आपके पास कोई चीज़ें नहीं थी। आपका जीवन एकदम सन्यासी वाला था।

आपके पास सिर के ऊपर छत नहीं होती थी। आप उस समय के कुछ आध्यात्मिक पलों, पद्धति या अनुभवों के बारे में बात करना चाहेंगे?

- आपने मुझे लगता है काफी मेहनत की है।

देखिए, मैं... ...मैं इस विषय में ज्यादा बातें करता नहीं हूँ,

लेकिन बाहरी चीज़ें आपको जरूर कह सकता हूँ।

अब देखिए मैं छोटे से स्थान पर रहा। हमारी ज़िंदगी ही एक सामूहिकता की थी।

क्योंकि लोगों के बीच में ही रहना और जीना वही था।

और गांव में एक लाइब्रेरी थी, तो वहाँ जाना किताबें पढ़ना।

अब उन किताबों में जो मैं पढ़ता था, तो मुझे लगता था कि मुझे अपने जीवन को...

...हम भी क्यों न अपने जीवन ऐसे ट्रेन करें? जब मैं स्वामी विवेकानंद जी और छत्रपति शिवाजी महाराज के बारे में पढ़ता था,

तो सोचता था कि वे कैसे जीवन को गढ़ते थे। और उसी से प्रेरित होकर, मैं भी अपने जीवन में कई प्रयोग करता रहता था।

मेरे वे प्रयोग शारीरिक स्तर पर होते थे, शरीर से जुड़े हुए होते थे।

जैसे, हमारे यहाँ उतनी ठंड नहीं होती, लेकिन दिसंबर में कभी-कभी होती है।

लेकिन फिर भी रात में...

...और... ठंडा लगता है, स्वाभाविक है।

तो मैं तय करता था कि आज मैं खुले में बाहर सो जाऊँगा।

और कुछ भी शरीर पर ओढ़ने के लिए नहीं लूँगा। देखता हूँ ठंड क्या करती है।

तो मैं कभी-कभी शरीर के साथ ऐसे प्रयोग, बहुत कम उम्र में करता था, और यह हमेशा चलता रहता था।

और मेरे लिए लाइब्रेरी जाना, किताबें पढ़ना और तालाब जाना, ये सब आम बातें थीं।

परिवार के सब लोगों के कपड़े धोना, यही मेरा स्विमिंग का काम हो जाता था।

मेरी शारीरिक गतिविधि तो स्विमिंग ही थी। तो ये सारी चीज़ें मेरे जीवन से जुड़ी हुई थीं।

उसके बाद जब मैं विवेकानंद जी को पढ़ने लगा तो मैं और ज़्यादा आकर्षित हुआ।

एक बार मैंने स्वामी विवेकानंद जी के बारे में पढ़ा। उनकी माँ बीमार थीं।

और वे श्री रामकृष्ण परमहंस जी के पास गए।

शुरू में तो वे उनसे झगड़ा करते थे, बहस करते थे।

अपने शुरुआती दिनों में। वे अपनी पूरी बौद्धिक क्षमता का उपयोग करते थे।

और कहते कि मेरी माँ बीमार है। मैं पैसे कमाता तो आज माँ की कितनी सेवा करता।

रामकृष्ण देव ने कहा, "भाई मेरा सिर क्यों खा रहे हो तुम? जाओ, माँ काली के पास जाओ। माँ काली तो हैं ही। उनसे मांगो, तुम्हें जो चाहिए वो।"

तो विवेकानंद जी गए। माँ काली की मूर्ति के सामने घंटों तक बैठे रहे।

साधना करते रहे, बैठे रहे। कई घंटों के बाद वापस आए,

तो रामकृष्ण देव ने पूछा, "अच्छा भाई, मांग लिया तूने माँ से?" वे बोले, "नहीं, मैंने तो नहीं माँगा।" अच्छा, तो उन्होंने कहा, "दोबारा जाना कल।

तेरा काम माँ करेंगी। माँ से माँगो न?" दूसरे दिन गए, तीसरे दिन गए।

और फिर, उन्होंने महसूस किया,

मैं क्यों कुछ मांग नहीं सका? मेरी माँ की तबियत खराब थी, मुझे ज़रूरत थी।

लेकिन मैं माँ के पास बैठा हूँ, मैं साक्षात माँ में ऐसे खोया हुआ हूँ,

लेकिन फिर भी मैं कुछ भी मांग नहीं पाता हूँ माँ से, ऐसे ही खाली हाथ लौट आता हूँ।

और रामकृष्ण देव जी से कहते हैं कि मैं तो खाली हाथ चला आया। मैंने तो कुछ नहीं माँगा।

देवी के पास जाना और कुछ मांग न पाना,

उस एक बात ने उनके मन के अंदर एक ज्योति जला दी।

उनके जीवन में एक चिंगारी थी, और उसी से देने का भाव जागा।

मैं समझता हूँ कि शायद,

विवेकानंद जी की वह छोटी सी घटना मेरे मन पर थोड़ा प्रभाव कर गई कि जगत को क्या देना है।

शायद संतोष उसी से पैदा होगा। जगत से मैं कुछ पाने के लिए सोचूंगा तो मेरे मन में पाने की भूख ही जगती रहेगी।

और उसी विचार में था कि शिव और जीव का एकात्म क्या होता है?

शिव की सेवा करनी है, तो जीव की सेवा करो। शिव और जीव में एकत्व का अनुभव करो।

सच्चा अद्वैत इसी में जिया जा सकता है। तो मैं ऐसे विचारों में खो जाता था।

फिर थोड़ा मन उस तरफ चला जाता था। मुझे याद है एक घटना।

हम जिस मोहल्ले में रहते थे, उसके बाहर एक महादेव जी का मंदिर था।

तो वहाँ एक संत आए थे। तो वे संत कुछ न कुछ साधना वगैरह करते रहते थे।

मेरा भी उनके प्रति थोड़ा आकर्षण हो रहा था कि इनके पास शायद कुछ आध्यात्मिक शक्ति होगी।

क्योंकि विवेकानंद जी को तो पढ़ते थे, देखा तो नहीं था। तो कुछ ऐसे ही लोग देखने को मिलते थे।

तो नवरात्रि का व्रत कर रहे थे, तब उन्होंने अपने हाथ पर,

हमारे यहाँ ज्वार बोलते हैं, वह उगाया हुआ था। एक प्रकार से घास हाथ के ऊपर उगाना और ऐसे ही सोना, नौ-दस दिन तक।

ऐसा एक व्रत होता है। तो वह महात्मा जी कर रहे थे। अब उन्हीं दिनों में मेरे मामा के परिवार में एक मौसी की शादी थी।

मेरा परिवार मामा के घर जा रहा था। अब मामा के घर जाना किसी भी बच्चे के लिए आनंद की बात होती है।

मैंने घरवालों से कहा, "नहीं, मैं तो नहीं आऊँगा। मैं तो यहीं रहूँगा। मैं स्वामी जी की सेवा करूँगा।"

"इनके हाथ पर यह ज्वार रखा हुआ है, यह तो खा-पी नहीं सकते। तो मैं ही उनकी सेवा करूँगा।"

तो उस बचपन में मैं शादी में नहीं गया। मैं उनके पास रहा और स्वामी जी की सेवा कर रहा था।

तो शायद मेरा मन कुछ उसी दिशा में लग गया था। कभी लगता था कि हमारे गाँव में

कुछ लोग जो फौज में काम करते थे, छुट्टियों में आते थे तो वर्दी पहन कर चलते थे, तो

मैं भी दिन भर उनके पीछे-पीछे भागता था कि यह देखो, कितने बड़े देश की सेवा कर रहे हैं।

तो ऐसे, बस मन में यह भाव रहता था कि मुझे कुछ करना है।

तो ज़्यादा समझ नहीं थी। कोई रोडमैप भी नहीं था।

बस इस जीवन को जानने और पहचानने की भूख थी। तो मैं चल पड़ा, निकल पड़ा।

तो रामकृष्ण मिशन से मेरा... ...संपर्क हुआ। वहाँ के संतों ने बहुत प्यार दिया, मुझे बहुत आशीर्वाद दिया।

स्वामी आत्मस्थानंद जी के साथ तो मेरी बड़ी घनिष्ठता बन गई। वह लगभग सौ साल तक जीवित रहे।

और जीवन के उनके आखिरी क्षणों में मेरी बहुत इच्छा थी कि वे मेरे प्रधानमंत्री निवास में आकर रहें।

पर उनकी ज़िम्मेदारी इतनी थीं कि वह आ नहीं पाए। जब मैं मुख्यमंत्री था, तब तो आते थे। मुझे उनका बहुत आशीर्वाद मिलता था। लेकिन उन्होंने मुझे मार्गदर्शन दिया कि

"तुम क्यों यहाँ आए हो? तुम्हें तो कुछ और काम करना है।

तुम्हारी प्राथमिकता क्या है? खुद की भलाई या समाज की भलाई?

विवेकानंद जी ने जो भी कहा, वह समाज की भलाई के लिए है। तुम तो सेवा के लिए बने हो।"

तो मैं... ...एक प्रकार से वहाँ थोड़ा निराश भी हुआ,

क्योंकि उपदेश ही सुनने को मिला, मदद तो नहीं मिली। फिर मैं अपने रास्ते पर चलता रहा।

हिमालय के जीवन में कई जगह रहा। बहुत कुछ अनुभव किया और देखा।

जीवन के बहुत सारे अनुभव रहे। कई लोगों से मिलना हुआ।

बड़े-बड़े तपस्वी लोगों से मिलने का अवसर मिला। लेकिन मेरा मन स्थिर नहीं था।

शायद उम्र भी ऐसी थी, जिसमें जिज्ञासा बहुत थी, जानने समझने की इच्छा थी।

एक नया अनुभव था। वहाँ का मौसम भी अलग था, पहाड़ों में

बर्फीले पहाड़ों के बीच रहना होता था। लेकिन इन सबने मुझे गढ़ने में बहुत मदद की।

मेरे भीतर की क्षमता को उससे मुझे बल मिला।

साधना करना, ब्रह्म मुहूर्त में उठना, स्नान करना, लोगों की सेवा करना।

सहज रूप से जो बुजुर्ग संत होते थे, तपस्वी संत, उनकी सेवा करना।

एक बार वहाँ प्राकृतिक आपदा आई थी, तो मैं काफ़ी गाँव वालों की मदद में लग गया।

तो यह मेरे, जो संत महात्मा जो भी थे, जिनके पास मैं कभी न कभी रहता था।

मैं ज़्यादा दिन एक जगह पर नहीं रहता था। मैं ज़्यादातर भटकता ही रहता था।

एक प्रकार से वैसा ही जीवन था। - और जो लोग नहीं जानते, उन्हें बताना है कि

Becoming a monk

आपने रामकृष्ण मिशन आश्रम में स्वामी आत्मस्थानंद के साथ काफी समय बिताया है।

जैसा कि आपने अभी बताया। उन्होंने आपका सेवा के जीवन की ओर मार्गदर्शन किया।

तो एक और चीज़ होने की संभावना थी कि जहाँ आप सन्यास ले सकते थे

सबकुछ त्यागकर सन्यासी बन जाते। तो आप सन्यासी नरेंद्र मोदी के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में आज हमारे सामने होते।

और उन्होंने हर स्तर पर सेवा का जीवन जीने का फ़ैसला लेने में आपकी मदद की।

- ऐसा है कि बाहरी तौर पर तो आपको लगता होगा कि

इसे कोई नेता कहते होंगे या प्रधानमंत्री कहते होंगे, मुख्यमंत्री कहते होंगे।

लेकिन मेरा जो भीतर का जीवन है, वह बस एक निरंतरता है।

बचपन में माँ बच्चों का उपचार करती थीं, उस समय उन बच्चों को संभालने वाला मोदी,

हिमालय में भटकता हुआ मोदी या आज इस स्थान पर बैठकर काम कर रहा है मोदी,

उन सब में एक निरंतरता है। हर पल दूसरों के लिए ही जीना है।

और उस निरंतरता के कारण मुझे साधु और नेता में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं दिखता,

दुनिया की नज़रों में तो होता है। क्योंकि साधु के कपड़े अलग होते, जीवन अलग होता, दिन भर की भाषा अलग होती। यहाँ काम अलग हैं।

लेकिन मेरे भीतर का जो व्यक्तित्व है, वह तो उसी वैराग्य भाव से दायित्व को संभाल रहा है।

RSS and Hindu nationalism

- आपके जीवन का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा यह है कि आपने जीवन भर अपने देश भारत को सबसे ऊपर रखने की बात कही है।

जब आप आठ साल के थे, तब आप आर एस एस में शामिल हुए। जो हिंदू राष्ट्रवाद के विचार का समर्थन करता है।

क्या आप आर एस एस के बारे में बता सकते हैं और उनका आप पर क्या प्रभाव पड़ा? आप जो भी आज हैं और आपके राजनीतिक विचारों के विकास पर उनका क्या प्रभाव पड़ा?

- देखिए, एक तो बचपन में कुछ न कुछ करते रहना, यह मेरा स्वभाव था।

मुझे याद है, मेरे यहाँ एक माकोसी थे, मुझे नाम ठीक से याद नहीं।

वे सेवा दल में शायद थे। माकोसी सोनी या ऐसा कुछ नाम था।

वे अपने पास एक डफ़ली जैसा बजाने का वाद्य रखते थे।

और वह देशभक्ति के गीत गाते थे, और उनकी आवाज़ भी बहुत अच्छी थी। तो वह हमारे गाँव में आते थे। और अलग-अलग जगहों पर उनके कार्यक्रम होते थे।

तो मैं पागल की तरह बस उनको सुनने चला जाता था। रात-रात भर उनके देशभक्ति के गाने सुनता था। मुझे बहुत मज़ा आता था।

क्यों आता था, वह पता नहीं। वैसे ही मेरे यहाँ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा चलती थी।

शाखा में खेल-कूद होता है, और देशभक्ति के गीत होते थे। वह मन को बड़ा अच्छा लगता था, मन को छूता था।

तो ऐसे ही करके हम संघ में आ गए। तो संघ से एक संस्कार तो मिला कि

कुछ भी सोचो, करो। अगर पढ़ भी रहे हो तो सोचो इतना पढ़ूं, इतना पढ़ूं कि देश के काम आऊं।

अगर व्यायाम करता हूँ, तो ऐसा व्यायाम करूं कि मेरा शरीर भी देश के काम आए। ये संघ के लोग सिखाते रहते हैं। अब संघ एक बहुत बड़ा संगठन है।

शायद अब उसके सौ साल हो रहे हैं, यह सौवां वर्ष है। और दुनिया में इतना बड़ा स्वयंसेवी संगठन कहीं होगा, ऐसा मैंने तो नहीं सुना है।

करोड़ों लोग उसके साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन संघ को समझना इतना सरल नहीं है।

संघ के काम को समझने का प्रयास करना चाहिए। और संघ स्वयं तो एक 'जीवन का उद्देश्य', जिसे कहते हैं,

इसके विषय में आपको एक अच्छी दिशा देता है। दूसरा, देश ही सब कुछ है और जन सेवा ही प्रभु सेवा है।

यह जो हमारे वेदकाल से कहा गया है, जो हमारे ऋषियों ने कहा, जो विवेकानंद ने कहा

वही बातें संघ के लोग करते हैं। तो स्वयंसेवक को कहते हैं कि तुम्हें संघ से जो प्रेरणा मिली,

वह एक घंटे की शाखा, वह उससे नहीं, वर्दी पहनना, वह स्वयंसेवक संघ नहीं है।

तुम्हें समाज के लिए कुछ करना चाहिए। और उस प्रेरणा से आज ऐसे काम चल रहे हैं, जैसे,

कुछ स्वयंसेवकों ने सेवा भारती नाम का संगठन खड़ा किया है। यह सेवा भारती जो गरीब बस्तियाँ होती हैं, झुग्गी-झोपड़ी में गरीब लोग रहते हैं,

जिसको वे सेवा बस्ती कहते हैं। मेरी जानकारी के अनुसार, वे करीब सवा लाख सेवा प्रकल्प चलाते हैं।

किसी सरकार की मदद के बिना, समाज की मदद से, वहाँ जाना, समय देना, बच्चों को पढ़ाना,

उनके स्वास्थ्य की चिंता करना, ऐसे-ऐसे काम करते हैं। संस्कार उनके अंदर लाना, उस इलाके में स्वच्छता का काम करना।

सवा लाख एक छोटा आंकड़ा नहीं है। वैसे कुछ स्वयंसेवक हैं, संघ में ही गढ़े हुए हैं।

वे वनवासी कल्याण आश्रम चलाते हैं। और जंगलों में आदिवासियों के बीच में रहकर, आदिवासियों की सेवा करते हैं।

सत्तर हज़ार से ज़्यादा 'वन टीचर वन स्कूल' यानी एकल विद्यालय चलाते हैं।

और अमरीका में भी कुछ लोग हैं, जो उनके लिए शायद 10 डॉलर या 15 डॉलर दान करते हैं, इस काम के लिए।

और वे कहते हैं एक 'कोका-कोला' नहीं पीनी है इस महीने, एक 'कोका-कोला' मत पियो,

और उतना पैसा यह एकल विद्यालय को दो। अब सत्तर हज़ार एकल विद्यालय

आदिवासी बच्चों को पढ़ाने के लिए चलाना, यह बहुत बड़ी बात है। कुछ स्वयंसेवकों ने शिक्षा में क्रांति लाने के लिए 'विद्या भारती' नाम का संगठन खड़ा किया।

करीब पच्चीस हज़ार स्कूल चलते हैं उनके, देश में।

और तीस लाख से ज़्यादा छात्र एक समय में होते हैं। और मैं मानता हूँ अब तक करोड़ों विद्यार्थियों की

और बहुत ही कम खर्च में पढ़ाई होती है। और संस्कार को भी प्राथमिकता हो, ज़मीन से जुड़े हुए लोग हों,

कुछ न कुछ हुनर सीखें, समाज पर बोझ न बनें। यानि जीवन के हर क्षेत्र में, वे चाहें महिला हों, युवा हों, यहाँ तक कि मजदूर भी।

शायद सदस्यता के हिसाब से मैं कहूँ तो, 'भारतीय मजदूर संघ' है।

शायद उसके पचपन हज़ार के करीब यूनियन हैं और करोड़ों की संख्या में उनके सदस्य हैं।

शायद दुनिया में इतना बड़ा लेबर यूनियन कुछ नहीं होगा। और सिखाया क्या जाता है?

वामपंथी लोगों ने मजदूरों के आंदोलनों को बड़ा बल दिया।

लेबर मूवमेंट जो लगे हैं, उनका नारा क्या होता है? "दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ"। फिर देख लेंगे। यह भाव होता है।

ये मजदूर संघ वाले क्या कहते हैं, जो आरएसएस की शाखा से निकले स्वयंसेवक मजदूर संघ चलाते हैं? वे कहते हैं, "वर्कर्स यूनाइट द वर्ल्ड."

वे कहते हैं, "दुनिया के मज़दूरों एक हो जाओ."

ये कहते हैं "वर्कर्स यूनाइट द वर्ल्ड" - यूनाइट द वर्ल्ड। - यह कितना बड़ा वैचारिक बदलाव है, वाक्य भले ही दो शब्दों में इधर-उधर हैं।

शाखा से निकले हुए लोग, अपनी रुचि, प्रकृति, प्रवृत्ति के अनुसार जब काम करते हैं,

तो इस प्रकार की गतिविधियों को बढ़ावा देते हैं। और जब इन कामों को देखेंगे,

तब आपको समझ आएगा कि सौ सालों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने,

भारत के चकाचौंध भरी दुनिया से दूर रहते हुए,

एक साधक की तरह समर्पित भाव से काम किया है। तो मेरा यह सौभाग्य रहा कि ऐसे पवित्र संगठन से मुझे जीवन के संस्कार मिले।

मुझे जीवन जीने का उद्देश्य मिला फिर मेरा सौभाग्य रहा कि मैं कुछ समय के लिए संतों के बीच चला गया।

तो मुझे आध्यात्मिक आधार मिला। तो अनुशासन मिला, जीवन का उद्देश्य मिला और संतों के सानिध्य में आध्यात्मिक आधार मिला।

स्वामी आत्मस्थानंद जी जैसे लोगों ने जीवन भर मेरा हाथ पकड़ कर रखा। हर पल मेरा मार्गदर्शन करते रहे।

तो रामकृष्ण मिशन, स्वामी विवेकानंद जी, उनके विचार, संघ का सेवाभाव,

इन सबने मुझे गढ़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है।

Explaining India

- लेकिन उन्होंने भारत के विचार को आगे बढ़ाने में भी मदद की है। वह कौन सा विचार है जो भारत को एकजुट करता है? एक राष्ट्र के रूप में भारत क्या है?

वह कौन सा बुनियादी विचार है जो इन सभी अलग-अलग समाजों, समुदायों और संस्कृतियों को एकजुट करता है? आपको क्या लगता है?

- देखिए, भारत एक सांस्कृतिक पहचान है।

एक सांस्कृतिक, हजारों साल पुरानी सभ्यता है।

भारत की विशालता देखिए, सौ से ज़्यादा भाषाएँ,

हज़ारों बोलियाँ। आप भारत में कुछ मील चलेंगे, हमारे यहाँ कहते हैं, बीस मील पर बोली बदल जाती है।

रीति-रिवाज़ बदल जाते हैं, भोजन बदल जाता है, पहनावा बदल जाता है।

दक्षिण से लेकर उत्तर भारत तक, आपको पूरे देश में विविधताएँ दिखेंगी।

लेकिन जब थोड़ा और गहराई में जाएँगे, तो आपको एक अंतर्धारा मिलेगी, एक सूत्र मिलेगा।

जैसे मैं कहूँ, हमारे यहाँ भगवान राम की चर्चा हर जगह सुनने को मिलेगी। राम का नाम हर जगह सुनने को मिलेगा।

लेकिन आप देखेंगे, तमिलनाडु से शुरू करेंगे और जम्मू कश्मीर तक जाएँगे,

आपको कोई न कोई व्यक्ति ज़रूर मिलेगा, जिसके नाम में कहीं न कहीं राम होगा।

गुजरात में जाएंगे तो 'राम भाई' नाम मिलेगा, तमिलनाडु में जाएंगे तो 'रामचंद्रन' नाम होगा,

महाराष्ट्र में जाएंगे तो 'रामभाऊ' नाम होगा। यानी, यही विशेषता भारत को सांस्कृतिक रूप से बाँधे हुए है।

अब जैसे, आप स्नान भी करते हैं हमारे देश में, तो क्या करते हैं?

स्नान तो वे बाल्टी वाले पानी से ही करते हैं, लेकिन प्रार्थना में 'गंगे चाहे यमुने' कहते हैं, चाहे वह गोदावरी हो, सरस्वती हो,

यानि भारत के हर कोने की नदियों का स्मरण करके, "नर्मदे सिंधु कावेरी जलेस्मिन सन्निधिं कुरु" का जाप करते हैं।

यानि, सभी नदियों के पानी से मैं स्नान कर रहा हूँ। पूरे देश का भाव। हमारे यहाँ संकल्प की एक परंपरा होती है।

कोई भी काम करें, पूजा हो, तो संकल्प लेते हैं।

और आप संकल्प पर बड़ी हिस्ट्री लिख सकते हैं। यानी किस प्रकार से मेरे देश में डेटा कलेक्शन होता था,

हमारे शास्त्र कैसे काम करते थे, यह बड़ा अनोखा तरीका था। कोई संकल्प लेता है या पूजा करता है या मान लीजिए शादी हो रही है,

तो पूरे ब्रह्मांड से शुरू करते हैं, जंबूद्वीपे भारतखंडे आर्याव्रत' से शुरू करते हुए, गाँव तक आते हैं।

फिर उस परिवार तक आएंगे, फिर उस परिवार के जो देवता होंगे, उनका स्मरण करेंगे।

यानी, यह भारत में, और आज भी हिंदुस्तान के हर कोने में हो रहा है।

लेकिन दुर्भाग्य से पश्चिमी मॉडल क्या रहा, दुनिया के और मॉडल क्या रहे, वे शासकीय व्यवस्था के आधार पर ढूंढने लगे।

भारत में शासकीय व्यवस्थाएँ भी कई प्रकार की रहीं। कई बिखरी हुई, कई टुकड़ों में दिखेंगी। राजा-महाराजाओं की संख्या दिखेगी।

लेकिन भारत की एकता, इन सांस्कृतिक बंधनों से है।

हमारे यहाँ तीर्थ यात्रा की परंपरा रही है। चार धाम की शंकराचार्य ने स्थापना की।

आज भी लाखों लोग एक स्थान से दूसरे स्थान तक तीर्थ यात्रा करते हैं। हमारे यहाँ काशी में लोग आएंगे,

रामेश्वरम का पानी काशी और काशी का पानी रामेश्वरम ले जाने वाले, अनेक प्रकार के लोग आपको मिलेंगे।

यानी, एक प्रकार से, हमारे पंचांग भी देखेंगे, तो आपको देश में इतनी चीज़ें मिलेंगी, जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते।

Mahatma Gandhi

- अगर हम आधुनिक भारत की नींव के इतिहास पर नज़र डालें,

महात्मा गांधी और आप सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक हैं।

इतिहास के सबसे अहम लोगों में से एक हैं। और निश्चित रूप से भारत के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक हैं।

महात्मा गांधी की आपको सबसे अच्छी बात क्या लगती है?

- आप जानते हैं, मेरा जन्म गुजरात में हुआ।

मेरी मातृभाषा गुजराती है। महात्मा गांधी का जन्म भी गुजरात में हुआ,

और उनकी मातृभाषा भी गुजराती है। वे बैरिस्टर बने,

विदेशों में रहे। उन्हें बहुत सारे अवसर मिले,

लेकिन उनके भीतर जो भाव था, जो परिवार से संस्कार मिले थे।

उन सभी सुखों को छोड़कर भारत के लोगों की सेवा के लिए आ गए।

भारत की आज़ादी की जंग में वे उतर गए।

महात्मा गांधी का कम या अधिक प्रभाव आज भी भारतीय जीवन पर किसी न किसी रूप में दिखता है।

और महात्मा गांधी जी ने जो बातें कहीं, उनको जीने का प्रयास किया।

अब जैसे स्वच्छता, वे स्वच्छता के बड़े आग्रही थे, लेकिन वे खुद भी स्वच्छता करते थे।

और कहीं पर भी जाते, तो स्वच्छता की चर्चा भी करते थे। दूसरा, भारत का आज़ादी आंदोलन देखिए।

भारत चाहे मुगलों के अधीन रहा हो या अंग्रेजों के अधीन रहा हो, या कोई और रहा हो।

हिंदुस्तान में सैकड़ों वर्षों की गुलामी के बावजूद भी

कोई समय ऐसा नहीं गया होगा, और कोई भूभाग ऐसा नहीं रहा होगा

जहाँ भारत में कहीं न कहीं आज़ादी की लौ जली न हो।

लाखों लोगों ने अपने आप को बलिदान दिया, लाखों लोगों ने बलिदान दिया, आज़ादी के लिए मर मिटे।

जवानी जेलों में खपा दी। महात्मा गांधी ने भी आज़ादी के लिए काम किया, लेकिन फर्क क्या था?

वे तपस्वी लोग थे, वीर पुरुष थे, त्यागी लोग थे, देश के लिए मरने-मिटने वाले लोग थे,

लेकिन आते थे और देश के लिए शहीद हो जाते थे। परंपरा तो बहुत बनी रही, उसने एक वातावरण भी बनाया,

लेकिन गांधी जी ने जन आंदोलन खड़ा किया।

और सामान्य आदमी यदि झाड़ू भी लगाता है, तो कहते हैं कि तुम आज़ादी के लिए कर रहे हो। किसी को पढ़ा रहे हो, तो बोले तुम आज़ादी के लिए कर रहे हो।

तुम चरखा कात रहे हो, खादी बना रहे हो, तुम आज़ादी के लिए काम कर रहे हो।

तुम कुष्ठ रोग के मरीज की सेवा कर रहे हो, तुम आज़ादी के लिए कर रहे हो। उन्होंने हर काम को आज़ादी के रंग से रंग दिया।

और इसके कारण भारत का सामान्य आदमी भी लगने लगा हाँ, मैं भी आज़ादी का एक सैनिक बन गया हूँ।

यह जन आंदोलन इतना बड़ा गांधी जी ने बनाया जिसको अंग्रेज कभी समझ ही नहीं पाए। अंग्रेजों को कभी अंदाज़ा ही नहीं था कि एक चुटकी भर नमक दांडी यात्रा

एक बहुत बड़ा रेवोल्यूशन पैदा कर सकता है। और करके दिखाया। उनकी बात और उनका जीवन, व्यवहार शैली,

उनका दिखना, बैठना, उठना, उन सबका एक प्रभाव था और मैंने तो देखा है कि

वाकई उनके किस्से बड़े मशहूर हैं। वे एक बार गोलमेज परिसर में,

एक अंग्रेज शायद, गोलमेज परिसर में जा रहे थे,

बकिंघम पैलेस में किंग जॉर्ज से उनकी मुलाकात का समय था। अब गांधी जी अपना धोती और एक चादर लगाकर पहले चले गए।

उस अब तमाम लोगों को एतराज था कि भाई ऐसे कपड़ों में मिलने आ रहे हैं, महाराज को।

गांधी जी ने कहा कि भाई मुझे कपड़े पहनने की क्या जरूरत है? जितने कपड़े आपके राजा के बदन पर हैं,

वो हम दोनों के लिए काफी हैं। तो यह मज़ाकिया स्वभाव उनका था।

तो महात्मा गांधी की कई विशेषताएं रही हैं और मुझे लगता है कि उन्होंने सामूहिकता का भाव जो जगाया।

और जनशक्ति के सामर्थ्य को पहचाना। मेरे लिए आज भी वह उतना ही महत्वपूर्ण है। मैं जो भी काम करता हूँ, मेरी कोशिश रहती है

कि वह उस जन सामान्य को जोड़ करके करूँ। जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की भागीदारी हो।

सरकार ही सब कुछ कर लेगी, यह भाव मेरे मन में नहीं होता है। समाज की शक्ति अपरम्पार होती है, यह मेरा मत रहता है।

- तो गांधी जी बीसवीं सदी के शायद सबसे महान नेताओं में से एक थे।

आप भी 21वीं सदी के सबसे महान नेताओं में से एक हैं।

वे दोनों समय अलग थे। और आप जियो-पॉलिटिक्स के खेल और कला में कुशल रहे हैं।

तो आपसे जानना चाहूँगा कि आप चीज़ों को सही से संभाल रहे हैं। मतलब आप बड़े देशों के साथ भी अच्छे से बातचीत करके रास्ता निकाल लेते हैं।

तो बेहतर क्या है? लोगों का आपसे प्यार करना या आपसे डरना? ऐसा लगता है कि आपको सब प्यार करते हैं, पर उनको आपकी ताकत का भी पता है।

आप वो संतुलन कैसे ढूँढते हैं? इसपर कुछ बताना चाहेंगे?

- पहली बात तो यह है कि यह तुलना करना उचित नहीं होगा कि बीसवीं सदी के महान नेता गांधी थे।

वह बीसवीं हो, इक्कीसवीं हो या बाईसवीं हो, गांधी हर सदी के लिए महान नेता हैं।

आने वाली सदियों तक महात्मा गांधी रहने वाले हैं क्योंकि मैं उनको उसी रूप में देखता हूँ और आज भी मैं उनको प्रासंगिक देख रहा हूँ।

जहाँ तक मोदी का सवाल है, मेरे पास एक दायित्व है,

लेकिन मेरा दायित्व उतना बड़ा नहीं है जितना कि मेरा देश बड़ा है।

व्यक्ति उतना महान नहीं है, जितना कि मेरा देश महान है। और मेरी जो ताकत है, वह मोदी नहीं है।

140 करोड़ देशवासी, हज़ारों सालों की महान संस्कृति,

परंपरा, वही मेरा सामर्थ्य है। इसलिए मैं जहाँ भी जाता हूँ,

तो मोदी नहीं जाता है, हज़ारों साल की वेद से विवेकानंद की महान परंपरा को

140 करोड़ लोग और उनके सपनों को लेकर, उनकी आकांक्षाओं को लेकर मैं निकलता हूँ

और इसलिए मैं दुनिया के किसी नेता से हाथ मिलाता हूँ, तो मोदी हाथ नहीं मिलाता है।

140 करोड़ लोगों का हाथ होता है। सामर्थ्य मोदी का नहीं है,

सामर्थ्य भारत का है। और उसी के कारण और मुझे याद है, मैं 2013 में...

...जब मेरी पार्टी ने तय किया कि मैं प्रधानमंत्री का उम्मीदवार रहूँगा,

तो मेरी जो आलोचना होती थी, वह एक ही आलोचना होती थी और वह व्यापक रूप से चर्चा हुई।

मोदी तो एक स्टेट का नेता है, एक राज्य को चलाया है, उसको विदेश नीति क्या समझ आएगी?

वह विदेश में जा के क्या करेगा? एसी सारी बातें होती थीं। और मुझे जितने भी मेरे इंटरव्यू होते थे,

उसमें यह सवाल मुझसे पूछा जाता था, तब मैंने एक जवाब दिया था। मैंने कहा कि देखिये भाई,

एक प्रेस इंटरव्यू में तो पूरी विदेश नीति मैं समझा नहीं सकता हूँ और वह न ही ज़रूरी है।

लेकिन मैं इतना आपको कहता हूँ, कि हिंदुस्तान न आँख झुकाकर बात करेगा।

न आँख उठाकर बात करेगा। लेकिन अब हिंदुस्तान आँख में आँख मिलाकर बात करेगा। तो, मैं 2013 में इस प्रकार से

आज भी उस विचार को लेकर मैं चलता हूँ। मेरे लिए मेरा देश प्रथम है,

लेकिन किसी को नीचा दिखाना, किसी को बुरा-भला कहना,

यह न मेरे संस्कृति के संस्कार हैं, न मेरी सांस्कृतिक परंपरा है और हम तो मानते हैं कि

पूरी मानव जाति का कल्याण, भारत में तो 'जय जगत' की कल्पना रही है।

विश्व बंधुत्व की कल्पना से 'वसुधैव कुटुम्बकम' के विचार लेकर

हम सदियों से पहले से हम पूरे पृथ्वी, पूरे ब्रह्मांड के कल्याण की कल्पना करने वाले लोग रहे हैं।

और इसलिए आपने देखा होगा कि हमारी बातचीत भी क्या होती है? मैंने दुनिया के सामने

जो अलग-अलग विचार रखे हैं, उन विचारों को अगर आप विश्लेषण करेंगे,

जैसे मैंने एक विषय रखा, एनवायरनमेंट की इतनी चर्चा होती है, मेरे एक भाषण में मैंने कहा,

वन नेशन', 'वन सन', 'वन वर्ल्ड, वन ग्रिड' फिर जब कोविड चल रहा था, तो जी20 में ही मेरा एक संबोधन था, मैंने कहा भाई हमारा...

...'वन हेल्थ' का विचार हमें बनाना चाहिए। यानी हमेशा मेरी कोशिश रही है,

जैसे हमने जी20 का हमारा लोगो था। कि 'वन अर्थ, वन फैमिली, वन फ्यूचर'

हर चीज़ में हम उस भूमिका से ही पले-बढ़े हैं। अब दुनिया को ये चीजें, अब मैंने जैसे रिन्यूएबल एनर्जी का मूवमेंट चलाया है,

भाई, इंटरनेशनल सोलर अलायंस को हमने जन्म दिया है। और 'वन सन, वन वर्ल्ड, वन ग्रिड' उस भावना और दुनिया को, ग्लोबल हेल्थ की जब बात आई,

तो मैंने कोविड में कहा था 'वन अर्थ, वन हेल्थ'। अब जब 'वन अर्थ, वन हेल्थ' कहता हूँ, तो जीव मात्र, चाहे वह वनस्पति हो,

पशु-पक्षी हों या मानव जीवन हो, यानी मेरी हमेशा कोशिश रही है

कि दुनिया का कल्याण करने वाली मूलभूत चीज़ों की ओर हमने कोशिश करनी चाहिए।

अगर हम सब मिलकर-- और दूसरी बात है कि आज दुनिया आपस में जुड़ी है।

आप अकेले में नहीं रह सकते। आज दुनिया एक-दूसरे पर निर्भर करती है।

अकेले होकर आप कुछ नहीं कर सकते हैं और इसलिए आपको सबके साथ ताल मिलाने की आदत भी

बनानी होगी और सबको सबके साथ ताल मिलाने की आदत बनानी पड़ेगी। तो हम इस काम को आगे बढ़ा सकते हैं। यूनाइटेड नेशन्स जैसी संस्थाओं का जन्म हुआ।

वर्ल्ड वॉर के बाद, लेकिन समय के साथ उसमें जो बदलाव होने चाहिए, वह नहीं हुए।

उसके कारण आज कितना रेलेवन्स रहा, कितना नहीं, उस पर बहस चल रही है।

Path to peace in Ukraine

- आपने इस बारे में बात की है कि आपके पास दुनिया में शांति स्थापित करने का कौशल है,

अनुभव है, जियो-पॉलिटिकल दबदबा है। आज दुनिया में और वर्ड स्टेज पर, सबसे बड़ा पीसमेकर बनने के लिए जबकि कई वार्स चल रहे हैं।

क्या आप मुझे बता सकते हैं कि आप शांति की स्थापना कैसे करेंगे?

दो देशों के युद्ध के बीच शांति समझौता लाने में मदद कर सकते हैं। उदाहरण के तौर पर रूस एंड यूक्रेन।

- आप देखिए, मैं उस देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ,

जो भगवान बुद्ध की भूमि है। मैं उस देश का प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ,

जो महात्मा गांधी की भूमि है। और ये ऐसे महापुरुष हैं कि जिनके उपदेश,

जिनकी वाणी, वर्तन, व्यवहार पूरी तरह शांति को समर्पित है और इसलिए...

...सांस्कृतिक रूप से, ऐतिहासिक रूप से, हमारा बैकग्राउंड इतना मजबूत है

कि जब भी हम शांति के लिए बात करते हैं, तो विश्व हमें सुनता है।

क्योंकि यह बुद्ध की भूमि है, यह महात्मा गांधी की भूमि है, तो विश्व हमें सुनता है और हम संघर्ष के पक्ष में नहीं हैं।

हम समन्वय के पक्ष में हैं। न हम प्रकृति से संघर्ष चाहते हैं।

न हम राष्ट्रों के बीच में संघर्ष चाहते हैं। हम समन्वय चाहने वाले लोग हैं।

और उसमें अगर कोई भूमिका हम अदा कर सकते हैं, तो हमने निरंतर अदा करने का प्रयत्न किया है।

अब जैसे मेरा रूस के साथ भी घनिष्ठ संबंध है, और यूक्रेन के साथ भी घनिष्ठ संबंध है।

मैं राष्ट्रपति पुतिन के सामने बैठकर मीडिया को कह सकता हूँ कि यह युद्ध का समय नहीं है

और मैं ज़ेलेंस्की को भी एक मित्र भाव से उनको भी कहता हूँ, कि भाई, दुनिया कितनी ही आपके साथ खड़ी क्यों न हो जाए,

युद्ध भूमि में कभी भी परिणाम नहीं निकलने वाला है। परिणाम तो टेबल पर ही निकलने वाला है

और टेबल पर परिणाम तब निकलेगा जब उस टेबल पर यूक्रेन और रूस दोनों मौजूद होंगे।

पूरी दुनिया यूक्रेन के साथ बैठकर कितनी ही बात कर ले। उससे परिणाम नहीं आता है। दोनों पक्षों का होना ज़रूरी है।

और शुरू में समझा नहीं पा रहा था, लेकिन आज जो इस प्रकार का वातावरण बना है, उससे मुझे लगता है कि अब रूस-यूक्रेन पर मैं आशावादी हूँ.

कि बहुत, उन्होंने खुद ने तो गंवाया है, दुनिया का बहुत नुकसान हुआ है। अब ग्लोबल साउथ को सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है।

पूरे विश्व में भोजन, ईंधन और उर्वरक का संकट बना हुआ है।

इसलिए पूरा विश्व चाहता है कि जल्द से जल्द शांति स्थापित हो।

और मैं हमेशा कहता हूँ, "भाई, मैं शांति के पक्ष में हूँ।" मैं न्यूट्रल नहीं हूँ, मैं शांति पर एक पक्ष है। और मैं उसके लिए प्रयत्न करता हूँ।

India and Pakistan

- एक और बहुत ही ऐतिहासिक और जटिल टकराव रहा है, वह है भारत और पाकिस्तान का टकराव।

यह दुनिया के सबसे खतरनाक टकराव में से एक है। दोनों ही परमाणु शक्ति हैं, दोनों की विचारधारा काफी अलग है।

आप शांति चाहते हैं, आप दूर की सोचने वाले नेता हैं।

आप भारत-पाकिस्तान के बीच दोस्ती और शांति का क्या रास्ता देखते हैं?

- एक तो, कुछ इतिहास की बातें हैं जिनको शायद दुनिया के बहुत लोगों को पता नहीं है।

1947 से पहले आज़ादी की लड़ाई सब लोग कंधे से कंधा मिलाकर के लड़ रहे थे।

और देश आज़ादी के लिए, आज़ादी का जश्न मनाकर इंतज़ार कर रहा था।

उसी समय, क्या मजबूरी रही होंगी, वह कई उसके भी पहलू हैं, उसकी लंबी चर्चा हो सकती है,

लेकिन उस समय जो भी नीति निर्धारक लोग थे, उन्होंने भारत के विभाजन को स्वीकार किया।

और कहा कि मुसलमानों को उनका अलग देश चाहिए, तो भाई दे दो। ऐसा और भारत के लोगों ने सीने पर पत्थर रखकर...

...बड़ी पीड़ा के साथ, इसको भी मान लिया।

लेकिन माना तो उसका परिणाम उसी समय ही आया कि लाखों लोग कत्लेआम में मारे गए।

पाकिस्तान से ट्रेनें भर-भर करके लहूलुहान और लाशें आने लगीं।

बड़ा डरावना दृश्य था।

उन्हें अपना पाने के बाद लगना चाहिए था कि चलो भाई, हमें हमारा मिल गया। भारत के लोगों ने दे दिया है।

भारत का धन्यवाद करें और हम सुख से जिएं। उसके बजाय उन्होंने लगातार भारत से संघर्ष का रास्ता चुना।

अब प्रॉक्सी वॉर चल रहा है। अब यह कोई विचारधारा नहीं है। विचारधारा ऐसे थोड़ी होती है।

कि लोगों को मारो, काटो, टेररिस्टों को भेजने करने का काम चल रहा है और सिर्फ़ वह हमारे साथ ही नहीं,

अब दुनिया में कहीं पर भी आतंकवाद की घटना घटती है, तो कहीं न कहीं सूत्र पाकिस्तान जा करके अटकते हैं।

अब देखिए, 9/11 इतनी बड़ी घटना घटी अमेरिका में,

उसका मेन जो सूत्रधार था ओसामा बिन लादेन, वह आखिर में कहां से मिला?

पाकिस्तान में ही शरण लिए बैठा था। तो दुनिया पहचान गई है कि एक प्रकार से

आतंकवादी प्रवृत्ति, आतंकवादी मानसिकता

और वह सिर्फ भारत ही नहीं है, दुनिया भर के लिए परेशानी का केंद्र बन चुका है। और हम लगातार उनको कहते रहे हैं कि इस रास्ते से किसका भला होगा?

आप आतंकवाद के रास्ते को छोड़ दीजिए, यह सरकारी आतंकवाद जो है, वह बंद होना चाहिए।

आतंकवादियों के हाथ में सब छोड़ दिया है, क्या होगा फायदा? और इसी शांति के प्रयास के लिए मैं खुद लाहौर चला गया था।

मेरे प्रधानमंत्री बनने के बाद, मैंने मेरे शपथ समारोह में पाकिस्तान को स्पेशल बुलाया था ताकि एक शुभ शुरुआत हो।

लेकिन हर बार हर अच्छे प्रयास का परिणाम नकारात्मक निकला।

हम आशा करते हैं कि उनको सद्बुद्धि मिलेगी। सुख शांति के रास्ते पर जाएंगे और वहाँ की अवाम भी दुखी होगी, ऐसा मैं मानता हूँ,

क्योंकि वहाँ की जनता भी यह नहीं चाहती होगी कि वे रोज़मर्रा ऐसी जिंदगी जिएं, और इस प्रकार के मार-धाड़, खून-खराबा,

बच्चे मर रहे हैं, जो टेररिस्ट बन कर के आते हैं, उनकी जिंदगी तबाह हो जाती है।

- क्या कोई ऐसी कहानी है, जिसमें आपने कोशिश की हो, पाकिस्तान के साथ सब ठीक करना चाहा हो,

जो पाकिस्तान के साथ संबंध सुधारने की कोशिशों से जुड़ी हो, जो भविष्य में आगे का रास्ता दिखा सके।

- पहली बात तो यह है कि संबंध सुधारने की सबसे बड़ी पहल थी,

प्रधानमंत्री बनते ही शपथ समारोह में उनको निमंत्रित करना।

यह अपने आप में बहुत बड़ी घटना थी। और कई दशकों के बाद हुई थी यह घटना।

और शायद जो लोग मुझे 2013 में सवाल पूछते थे कि मोदी की विदेश नीति क्या होगी,

उन सबने जब यह सुना कि मोदी ने सार्क देशों के सभी नेताओं को शपथ समारोह में बुलाया,

तो वह चौंक गए थे और इस निर्णय की प्रक्रिया जो हुई थी उसके संबंध में,

हमारे उस वक्त के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी साहब ने अपनी किताब में जो संस्मरण लिखे हैं।

उसमें इस घटना का वर्णन बहुत बढ़िया ढंग से किया है। और सचमुच में भारत की विदेश नीति कितनी स्पष्ट है और कितनी आत्मविश्वास से भरी है,

उसके दर्शन हो चुके थे और भारत शांति के प्रति प्रतिबद्ध है।

उसका संदेश दुनिया के सामने साफ गया था, लेकिन परिणाम सही नहीं मिले।

Cricket and Football

- वैसे आपसे एक थोड़ा सा रोमांचक सवाल पूछना है। भारत या पाकिस्तान में से किसकी क्रिकेट टीम बेहतर है?

दोनों टीमों की पिच पर दुश्मनी के चर्चे भी सभी ने सुने हैं। और दोनों में जियो-पॉलिटिकल तनाव भी है, जिसकी अभी आपने बात की है।

स्पोर्ट्स, खासकर क्रिकेट और फुटबॉल.. देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने और आपसी सहयोग बढ़ाने में कैसी भूमिका निभाते हैं?

- वैसे, खेल पूरी दुनिया में ऊर्जा भरने का काम करते हैं।

खेल भावना दुनिया को आपस में जोड़ने का काम करती है।

तो मैं खेलों को बदनाम होते हुए नहीं देखना चाहूँगा। खेलों को मैं मानव विकास यात्रा का अत्यंत महत्वपूर्ण

और खेल दिल के प्रतीक के रूप में हमेशा समझता हूँ।

दूसरा विषय है कि कौन अच्छा, कौन बुरा।

अगर खेल की तकनीक के बारे में कहें, तो मैं इसका विशेषज्ञ नहीं हूँ।

तो तकनीक जो लोग जानते होंगे, वही बता सकते हैं, कि किसका खेल अच्छा है और कौन खिलाड़ी अच्छे हैं।

लेकिन कुछ परिणाम से पता चलता है, जैसे अभी कुछ दिन पहले ही

भारत और पाकिस्तान के बीच एक मैच हुआ। तो जो परिणाम आया है, उससे पता चलेगा कि कौन बेहतर टीम है? स्वाभाविक पता चलेगा।

- हाँ, मैंने भी 'द ग्रेटेस्ट राइवलरी, इंडिया वर्सेस पाकिस्तान' नाम की सीरीज़ देखी है,

जिसमें कई बेहतरीन खिलाड़ियों और मैचों की बात हुई है। दोनों देशों की ऐसी टक्कर और मुकाबला देखकर अच्छा लगता है।

आपने फुटबॉल के बारे में भी बात की है। भारत में फुटबॉल बहुत पॉपुलर है। तो एक और मुश्किल सवाल, आपका फुटबॉल का सबसे पसंदीदा खिलाड़ी कौन है?

हमारे पास मैसी, पेले, मैराडोना, क्रिस्टियानो रोनाल्डो, जिदान जैसे नाम हैं।

आपको आजतक का सबसे महान फुटबॉल खिलाड़ी कौन लगता है? - यह बात सही है कि भारत का बहुत बड़ा क्षेत्र ऐसा है,

जहाँ फुटबॉल अच्छी तरह खेला जाता है। और फुटबॉल की हमारी महिला टीम भी अच्छा काम कर रही है,

पुरुषों की टीम भी अच्छा काम कर रही है। लेकिन अगर पुरानी बातें हम करें,

80 के दशक की, तो मैराडोना का नाम हमेशा उभर कर आता है।

हो सकता है कि उस पीढ़ी के लिए वह एक हीरो के रूप में देखे जाते हों।

और आज की पीढ़ी से पूछोगे तो वे मैसी की बात बताएँगे। लेकिन मुझे एक और दिलचस्प घटना आज याद आ रही है, आपने पूछा तो।

हमारे यहाँ मध्य प्रदेश नाम का एक राज्य है, जो भारत के मध्य भाग में है।

वहाँ शहडोल नाम का जिला है। वह सारा आदिवासी क्षेत्र है। काफ़ी आदिवासी लोग रहते हैं।

तो मैं वहाँ आदिवासी महिलाओं के जो स्वयं सहायता समूह चलते हैं, उनसे बातचीत करने का मेरा एक,

मुझे एकदम पसंद है, ऐसे लोगों से बातचीत करना, तो मैं मिलने गया था। लेकिन वहाँ मैंने देखा कि कुछ लोग खेलों के कपड़े पहने हुए हैं,

80-100 नौजवान, छोटे बच्चे, कुछ नौजवान, कुछ बड़ी उम्र के, सब लोग एक ही प्रकार से थे।

तो मैं स्वाभाविक रूप से उनके पास गया। तो मैंने कहा "आप लोग सब कहाँ से हैं?" तो बोले हम मिनी ब्राज़ील से हैं।

मैंने कहा यह मिनी ब्राज़ील क्या है भाई ज़रा? तो बोले हमारे गाँव को लोग मिनी ब्राज़ील कहते हैं।

मैंने कहा कैसे मिनी ब्राज़ील कहते हैं? बोले हमारे गाँव में हर परिवार में चार-चार पीढ़ियों से लोग फुटबॉल खेलते हैं।

राष्ट्रीय खिलाड़ी, अस्सी के करीब हमारे गाँव से निकले हैं।

पूरा गाँव फुटबॉल को समर्पित है। और वे कहते हैं कि हमारे गाँव का वार्षिक मैच जब होता है,

तो 20-25 हज़ार दर्शक आसपास के गाँवों से आते हैं। तो भारत में फुटबॉल का जो इन दिनों क्रेज़ बढ़ रहा है, मैं उसको शुभ संकेत मानता हूँ।

क्योंकि वे टीम भावना भी पैदा करता है। - हाँ, फुटबॉल उन बेहतरीन खेलों में से एक है जो न सिर्फ भारत,

बल्कि पूरी दुनिया को एकजुट करता है, और इससे किसी भी खेल की ताकत का पता चलता है।

Donald Trump

आपने हाल ही में अमेरिका का दौरा किया और डोनाल्ड ट्रंप के साथ अपनी दोस्ती को फिर से मज़बूत किया।

एक दोस्त और नेता के रूप में आपको डोनाल्ड ट्रंप के बारे में क्या पसंद है?

- मैं एक घटना का वर्णन करना चाहूँगा। शायद आप उससे अंदाज़ा लगा सकते हैं कि मैं किन बातों की तरफ इशारा कर रहा हूँ।

अब जैसे हमारा ह्यूस्टन में एक कार्यक्रम था, 'हाउडी मोदी'

मैं और राष्ट्रपति ट्रंप, दोनों, और पूरा स्टेडियम दर्शकों से भरा हुआ था।

इतने लोगों का जमा होना अमेरिका के जीवन में बहुत बड़ी घटना है। खेलकूद के मैदान में होता है पर किसी राजनीतिक रैली में

इतने ज़्यादा लोग होना बहुत बड़ी बात है। तो भारतीय प्रवासी लोग इकट्ठे हुए थे।

तो हम दोनों ने भाषण दिए। वे नीचे बैठकर मुझे सुन रहे थे।

अब यह उनका बड़प्पन है। अमेरिका के राष्ट्रपति स्टेडियम में नीचे बैठकर,

सुन रहे हैं और मैं मंच पर से भाषण कर रहा हूँ। यह उनका बड़प्पन है। मैं भाषण देकर नीचे गया।

और हम तो जानते हैं कि अमेरिका की सुरक्षा कितनी कड़ी होती है...

....बहुत कड़ी होती है। कितने प्रकार की जाँच होती है।

मैं जाकर उन्हें धन्यवाद देने गया, तो मैंने उनको ऐसे ही कहा, अगर, मैंने कहा, "आपको ऐतराज़ न हो,

तो आइए, हम ज़रा एक, पूरे स्टेडियम का चक्कर काट के आते हैं।" इतने लोग हैं तो, हाथ ऊपर करके, नमस्ते करके आ जाते हैं।

आपके अमेरिका के जीवन के लिए यह असंभव है कि हज़ारों की भीड़ में अमेरिकी राष्ट्रपति चल पड़े।

एक पल का भी विलम्ब किए बिना, वे मेरे साथ भीड़ में चल पड़े।

अमेरिका का जो सुरक्षा तंत्र था, एकदम से वह बेचैन हो गया था।

मेरे दिल को छू गया कि इस व्यक्ति में हिम्मत है। वह फ़ैसले खुद लेते हैं।

और दूसरा मोदी पर उनको भरोसा है कि मोदी ले जा रहा है तो चलिए, चलते हैं।

तो यह आपसी विश्वास का भाव इतना मज़बूत है, मैंने उसी दिन देखा।

और मैंने राष्ट्रपति ट्रंप को उस दिन जिस रूप में महसूस किया,

कि सुरक्षा वालों से पूछे बिना मेरे साथ चल देना हजारों लोगों के बीच में। और अब उसका वीडियो देखोगे तो आपको आश्चर्य होगा।

जब उन पर गोली चली, अब इस चुनाव अभियान में तो मुझे राष्ट्रपति ट्रंप वही नज़र आए।

उस स्टेडियम में मेरा हाथ पकड़ कर चलने वाले ट्रंप। और गोली लगने के बाद भी अमेरिका के लिए जीना, अमेरिका के लिए ही ज़िन्दगी।

यह जो उनका दृढ़ विश्वास था। क्योंकि मैं 'नेशन फर्स्ट' वाला हूँ। वे 'अमेरिकन फर्स्ट' वाले हैं।

मैं 'भारत फर्स्ट' वाला हूँ। तो हमारी जोड़ी बराबर जम जाती है। तो ये चीज़ें हैं, जो अपील करती हैं।

और मैं मानता हूँ कि ज्यादातर दुनिया में राजनेताओं के बारे में मीडिया में इतना कुछ छपता है,

कि हर कोई एक-दूसरे को मीडिया के माध्यम से आंकता है।

ज़्यादातर लोग स्वयं एक-दूसरे से मिलकर, एक-दूसरे को न पहचानते हैं, न जानते हैं। और शायद तनाव का कारण भी यह तीसरा पक्ष का हस्तक्षेप ही है।

मैं जब पहली बार व्हाइट हाउस गया,

तो राष्ट्रपति ट्रंप के बारे में बहुत कुछ मीडिया में छपता था। उस समय वे नए-नए आए थे।

दुनिया ज़रा, कुछ अलग ही रूप में उनको देखती थी।

मुझे भी भाँति-भाँति की बातें बताई गई थी। जब मैं व्हाइट हाउस पहुँचा, पहले ही मिनट में

उन्होंने सारे प्रोटोकॉल की दीवारें तोड़ दीं। एकदम से, और फिर जब मुझे पूरे व्हाइट हाउस में घुमाने ले गए,

और मुझे दिखा रहे थे और मैं देख रहा हूँ, उनके हाथ में कोई कागज़ नहीं था, कोई पर्ची नहीं थी, कोई साथ में व्यक्ति नहीं था।

मुझे दिखा रहे थे, यह अब्राहम लिंकन यहाँ रहते थे। यह कोर्ट इतना लंबा क्यों है? इसके पीछे क्या कारण है?

इस टेबल पर किस राष्ट्रपति ने हस्ताक्षर किए थे? तारीख के साथ बोलते थे।

मेरे लिए वह बहुत प्रभावशाली था कि वे संस्थान का कितना सम्मान करते हैं।

कितना अमेरिका के इतिहास के साथ उनका कैसा लगाव है?

और कितना सम्मान है? वह मैं अनुभव कर रहा था। और बड़े खुले मन से काफी बातें मुझसे कर रहे थे।

यह मेरी पहली मुलाकात का मेरा अनुभव था। और मैंने देखा कि जब वह, उनके पहले कार्यकाल के बाद चुनाव बाइडेन जीत गए,

तो यह चार साल का समय हुआ। मेरे और उनके बीच में जानने वाला कोई व्यक्ति उन्हें मिलता था,

तो इन चार सालों में ज़्यादा नहीं तो पचासों बार, उन्होंने कहा होगा, "मोदी मेरे दोस्त हैं, मेरी शुभकामनाएं देना।"

आमतौर पर, यह बहुत कम होता है। यानि एक तरह से हम भले ही आमने-सामने न मिलें,

लेकिन हमारे बीच सीधा और अप्रत्यक्ष संवाद या निकटता, या विश्वास, यह अटूट रहा है।

- उन्होंने कहा कि आप उनसे कहीं ज़्यादा अच्छे और बेहतर मोलभाव करते हैं।

यह बात उन्होंने हाल ही में आपकी यात्रा के दौरान कही। एक वार्ताकार के तौर पर आप उनके बारे में क्या सोचते हैं

और आपके अनुसार उनके कहने का क्या मतलब था कि आप मोलभाव में अच्छे हैं? - अब यह तो मैं कह नहीं सकता, क्योंकि यह उनका बड़प्पन है

कि वे मुझसे, जो आयु में भी उनसे छोटा हूँ, वे मेरी सार्वजनिक रूप से प्रशंसा करते हैं।

अलग-अलग विषयों में प्रशंसा करते हैं। लेकिन यह बात सही है कि मैं अपने देश के हितों को ही सर्वोपरि मानता हूँ।

और इसलिए मैं भारत के हितों को लेकर हर मंच पर अपनी बात रखता हूँ।

किसी का बुरा करने के लिए नहीं रखता हूँ। सकारात्मक रूप से रखता हूँ, इसलिए किसी को बुरा भी नहीं लगता है।

लेकिन मेरे आग्रह को तो सब जानते हैं कि भाई मोदी हैं, तो इन चीज़ों का आग्रह करेंगे।

और वह तो मेरे देश के लोगों ने मुझे यह काम दिया है। तो मेरा देश ही मेरा शीर्ष नेतृत्व है।

मैं तो उनकी इच्छा का ही पालन करूँगा। - आपने अमेरिका की अपनी यात्रा पर कई अन्य लोगों के साथ भी महत्वपूर्ण बैठकें कीं।

एलोन मस्क, जेडी वेंस, तुलसी गैबर्ड, विवेक रामास्वामी। उन बैठकों में से कुछ मुख्य बातें क्या हैं, जो ख़ास रहीं?

कोई अहम फैसले या खास यादें? - देखिए मैं यह कह सकता हूँ कि राष्ट्रपति ट्रंप को

मैंने पहले कार्यकाल में भी देखा है, और दूसरे कार्यकाल में देखा है। इस बार पहले से बहुत अधिक वह तैयार हैं।

उन्हें क्या करना है, उसके बारे में उनके दिमाग में कदम रोडमैप बहुत स्पष्ट है।

और मैं देख रहा हूँ कि मैं उनकी टीम के लोगों से मिला। मैं मानता हूँ बहुत अच्छी टीम उन्होंने चुनी है।

और इतनी अच्छी टीम है तो राष्ट्रपति ट्रंप का जो भी विज़न है,

उसे लागू करने वाली सामर्थ्यवान टीम मुझे महसूस हुई, जितनी मेरी बातें हुई हैं।

जिन लोगों से मेरा मिलना हुआ, चाहे तुलसी जी हों, या विवेक जी हों, या एलोन मस्क हों।

एक पारिवारिक माहौल था। सब अपने परिवार के साथ मिलने आए थे।

तो मेरा परिचय एलोन मस्क से तब से है, जब मैं मुख्यमंत्री था, तब से मेरा उनका परिचय है।

तो अपने परिवार के साथ, बच्चों के साथ आए थे तो, स्वाभाविक है, वह माहौल था।

ख़ैर, बातें तो होती हैं। कई विषयों पर चर्चा होती है। अब उनका जो डोज वाला मिशन चल रहा है,

तो वे बड़े उत्साहित भी हैं कि किस प्रकार से वह कर रहे हैं। लेकिन मेरे लिए भी खुशी का विषय है, क्योंकि मैं 2014 में आया।

तो मैं भी चाहता हूँ कि मेरे देश में, जो पुरानी बीमारियाँ जो घुस गई हैं,

मेरे देश को मैं उन बीमारियों से, ग़लत आदतों से, जितनी ज़्यादा मुक्ति दिला सकता हूँ, वह तो दूँ।

अब जैसे, मेरे यहाँ मैंने देखा 2014 में आने के बाद,

हमारी कोई, इतनी कोई वैश्विक स्तर पर चर्चा नहीं है, जितनी राष्ट्रपति ट्रंप और डोज की चर्चा है।

लेकिन मैं उदाहरण दूँ तो आपको ध्यान में आएगा, कैसे काम हुआ है? मैंने देखा कि, जो सरकार के कुछ योजनाओं के फ़ायदे होते हैं,

ख़ास करके लोक कल्याण के काम,

कुछ ऐसे लोग उसका फ़ायदा लेते थे, जिनका कभी जन्म ही नहीं हुआ था।

लेकिन नकली नाम होना। शादी हो जाती है, विधवा हो जाते हैं, पेंशन मिलना शुरू हो जाता है,

विकलांग हो जाते हैं तो पेंशन मिलना। और मैंने फिर उसकी जाँच शुरू की। आप जानकर हैरान होंगे।

दस करोड़ लोग। 100 मिलियन लोग।

दस करोड़ ऐसे नाम, फ़र्ज़ी नाम, डुप्लिकेट नाम, उनको मैंने व्यवस्था से बाहर निकाला।

और उसके कारण जो पैसों की बचत हुई, भाई, मैंने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर शुरू किया।

जो पैसा दिल्ली से निकलेगा, उतना ही पैसा उसके जेब में जाना चाहिए। इसके कारण मेरे देश का करीब तीन लाख करोड़ रुपये का पैसा जो ग़लत हाथों में जाता था,

उसकी बचत हुई है। डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के कारण। टेक्नोलॉजी का मैं भरपूर उपयोग करता हूँ, उसके कारण बिचौलिए वगैरह न रहें।

सरकार में मैंने खरीदारों के लिए जेम पोर्टल बनाया टेक्नोलॉजी का। तो सरकार को ख़रीदी में भी बहुत पैसा बच रहा है, समय बच रहा है,

प्रतिस्पर्धा अच्छी मिल रही है, अच्छी चीज़ें मिल रही हैं। हमारे यहाँ नियमों का बोझ भी बहुत था।

मैंने चालीस हज़ार नियम खत्म किए। पुराने कानून ढेर सारे थे, जिनका कोई कारण नहीं था।

करीब पंद्रह सौ कानून मैंने खत्म किए। तो मैं भी एक तरह से सरकार में इस प्रकार की जो चीज़ें हावी हो रही थीं,

उससे मुक्ति दिलाने का प्रयास कर रहा हूँ। तो ये चीज़ें ऐसी हैं जो, डोज का जो काम है,

स्वाभाविक है, ऐसी चीज़ों की चर्चा होना बहुत स्वाभाविक होता है। - आप और शी ज़िंगपिंग एक-दूसरे को दोस्त मानते हैं।

China and Xi Jinping

हाल के तनावों को कम करने और चीन के साथ संवाद और सहयोग फिर से शुरू करने में मदद के लिए,

उस दोस्ती को कैसे फिर से मज़बूत किया जा सकता है? - देखिए, भारत और चीन का संबंध यह कोई आज का नहीं है।

दोनों प्राचीन संस्कृति हैं, प्राचीन सभ्यताएं हैं।

और आधुनिक विश्व में भी उनकी भूमिका है।

आप अगर पुराने रिकॉर्ड देखेंगे, सदियों तक चीन और भारत एक दूसरे से सीखते रहे हैं।

और दोनों मिलकर दुनिया की भलाई के लिए कुछ न कुछ योगदान करते हैं, वैश्विक स्तर पर।

पुराने जो रिकॉर्ड हैं, वह कहते हैं कि दुनिया का जो सकल घरेलू उत्पाद था, उसका 50% से ज़्यादा अकेले भारत और चीन का हुआ करता था।

इतना बड़ा योगदान भारत का रहा है। और मैं मानता हूँ कि इतने सशक्त संबंध रहे, इतने गहरे सांस्कृतिक संबंध रहे

और पहले की सदियों में कोई हमारे बीच में संघर्ष का इतिहास नहीं मिलता है। हमेशा एक दूसरे से सीखना, एक दूसरे को जानने का ही प्रयास रहा है।

और बुद्ध का प्रभाव किसी ज़माने में तो चीन में काफ़ी था।

और वह विचार यहीं से ही गया था।

हम भविष्य में भी

इन संबंधों को ऐसे ही मज़बूत बनाए रखना चाहेंगे, जारी रखना चाहेंगे।

यह ज़रूरी है। जहाँ तक मतभेदों की बात है, दो पड़ोसी देश होते हैं तो कुछ न कुछ तो होता है।

कभी-कभार असहमति भी बहुत स्वाभाविक है, कोई ऐसा तो नहीं है कि हर चीज़ एक जैसी हो, यह तो एक परिवार में भी रहता है।

लेकिन हमारी कोशिश है कि हमारे जो मतभेद हैं, विवाद में न बदलें,

उस दिशा में हमारा प्रयास रहता है। उसी प्रकार से हम मतभेद नहीं, संवाद पर ही ज़ोर देते हैं।

तभी जाकर एक स्थिर, सहयोगात्मक रिश्ता दोनों ही देशों के लिए सर्वश्रेष्ठ हित में है।

यह सच है कि हमारा सीमा विवाद चलता रहता है।

तो 2020 में सीमा पर जो घटनाएं घटीं, उसके कारण हमारे बीच स्थितियाँ काफी तनावपूर्ण हो गईं।

लेकिन अभी राष्ट्रपति शी के साथ मेरा मिलना हुआ। उसके बाद सीमा पर जो स्थिति थी, उसमें सामान्य स्थिति आ चुकी है,

2020 से पहले की स्थिति में हम लोग काम कर रहे हैं। अब धीरे-धीरे वह विश्वास और वह उत्साह, उमंग और ऊर्जा वापस आ जाए,

उसमें थोड़ा समय लगेगा, क्योंकि बीच में पाँच साल का अंतराल गया है।

हमारा साथ होना न सिर्फ़ फ़ायदेमंद है, बल्कि वैश्विक स्थिरता और समृद्धि के लिए भी ज़रूरी है

और जब इक्कीसवीं सदी एशिया की सदी है, तो हम तो चाहेंगे कि भारत-चीन के बीच प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक है।

प्रतिस्पर्धा कोई गलत चीज़ नहीं है। पर यह संघर्ष में नहीं बदलना चाहिए। - दुनिया एक उभरते हुए वैश्विक युद्ध को लेकर चिंतित है।

चीन और अमेरिका के बीच तनाव। यूक्रेन और रूस में तनाव, यूरोप में तनाव इज़राइल और मध्य पूर्व में तनाव।

आप इस बारे में क्या कह सकते हैं कि इक्कीसवीं सदी में हम वैश्विक युद्ध को कैसे टाल सकते हैं?

ज़्यादा संघर्ष और युद्ध की ओर बढ़ने से कैसे बच सकते हैं?

- देखिए, कोविड ने हम सबकी मर्यादाओं को उजागर कर दिया।

हम जितने भी भले ही अपने आपको महान राष्ट्र क्यों न मानते हों,

बहुत प्रगतिशील क्यों न मानते हों, वैज्ञानिक रूप से बहुत ही आगे गए हुए मानते हों,

जो भी हो, सब अपने-अपने तरीके से आगे हैं। लेकिन कोविड के काल में हम सब ज़मीन पर आ गए। दुनिया के हर देश।

और तब लगता था कि दुनिया इससे कुछ सीखेगी।

और एक नए विश्व व्यवस्था की तरफ हम जाएंगे। जैसे, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद एक विश्व व्यवस्था बनी।

वैसी शायद कोविड के बाद बनेगी। लेकिन दुर्भाग्य से, स्थिति यह बनी कि शांति की तरफ जाने के बजाय दुनिया बिखर गई।

एक अनिश्चितता का दौर आ गया। युद्ध ने उसे और मुसीबत में डाल दिया।

और मैं मानता हूँ कि आधुनिक युद्ध सिर्फ़ संसाधन या हित के लिए नहीं हैं।

आज मैं देख रहा हूँ कि इतने तरह के संघर्ष चल रहे हैं।

शारीरिक लड़ाइयों की तो चर्चा होती है, लेकिन हर क्षेत्र में संघर्ष चल रहा है।

जो अंतर्राष्ट्रीय संगठन बने हैं, लगभग अप्रासंगिक हो गए हैं, उनमें कोई सुधार नहीं हो रहा है।

संयुक्त राष्ट्र जैसे संस्थान अपनी भूमिका अदा नहीं कर पा रहे हैं।

दुनिया में जो लोग कानून की नियमों की परवाह नहीं करते,

वह सब कुछ कर रहे हैं, कोई रोक नहीं पा रहा है। तो ऐसी स्थितियों में बुद्धिमानी यही होगी कि सब लोग...

...संघर्ष का रास्ता छोड़कर समन्वय के रास्ते पर आगे आएं।

और विकासवाद का रास्ता सही होगा, विस्तारवाद का रास्ता काम नहीं आएगा।

और जैसा मैंने पहले ही कहा, दुनिया एक दूसरे पर निर्भर करती है, आपस में जुड़ी हुई है, हर किसी को हर एक की ज़रूरत है।

कोई अकेला कुछ नहीं कर सकता है। और मैं देख रहा हूँ कि जितने अलग-अलग मंचों पर मुझे जाना होता है,

उसमें चिंता सबको सता रही है, संघर्ष की। हम आशा करते हैं कि बहुत जल्द इससे मुक्ति मिले।

Gujarat riots in 2002

- मैं अभी भी सीख रहा हूँ। - आप घड़ी की तरफ देख रहे हैं। - नहीं-नहीं, मैं अभी यह काम सीख रहा हूँ, प्रधानमंत्री जी।

मैं इसमें ज़्यादा अच्छा नहीं हूँ। ठीक है। अपने करियर और अपने जीवन में

आपने भारत के इतिहास में कई कठिन हालात देखे हैं। 2002 के गुजरात दंगे उनमें से एक है।

वह भारत के हाल ही के इतिहास के सबसे कठिन समय में से एक था। जब गुजरात के हिंदू और मुस्लिम लोगों के बीच हिंसा हुई।

जिसमें एक हज़ार से ज़्यादा मौतें हुईं। इससे उस जगह के धार्मिक तनाव का पता चलता है।

जैसा कि आपने बताया उस समय आप गुजरात के मुख्यमंत्री थे। तबकी बात करें तो उस समय से आपने क्या सीखा है?

मैं यह भी बताना चाहूँगा कि भारत की सुप्रीम कोर्ट ने दो बार फैसला दिया है। उन्होंने 2012 और 2022 में कहा कि आपकी हिंसा में कोई भूमिका नहीं थी।

2002 के गुजरात दंगों की हिंसा में। लेकिन मैं जानना चाहता था कि आपने उस समय से क्या सबसे बड़ी बातें सीखी?

- देखिए, मैं समझता हूँ कि सबसे पहले जो आपने कहा कि मैं इस विषय में विशेषज्ञ नहीं हूँ, मैं...

अब इंटरव्यू ठीक कर रहा हूँ या नहीं कर रहा हूँ, जो आपके मन में दुविधा पैदा हुई। मुझे लग रहा है कि आपने काफ़ी मेहनत की है, काफ़ी शोध किया है

और आपने हर चीज़ की बारीकियों में जाने का प्रयास किया है। तो मैं यह नहीं मानता हूँ कि आपके लिए कोई कठिन काम है।

और आपने जितने पॉडकास्ट किए हैं, मैं मानता हूँ कि आप लगातार अच्छा ही प्रदर्शन कर रहे हैं।

और आपने मोदी से सवाल करने के बजाय

भारत के परिवेश को जानने की भरपूर कोशिश की है, ऐसा मैं महसूस कर रहा हूँ। और इसलिए मैं समझता हूँ कि सच्चाई तक जाने के आपके प्रयास में ईमानदारी नज़र आती है।

और इस प्रयास के लिए मैं आपका बहुत-बहुत अभिनंदन करता हूँ। - धन्यवाद। - जहाँ तक आपने उन पुरानी बातों की बात की। लेकिन आप 2002 और गुजरात के दंगों...

...लेकिन उससे पहले के कुछ दिनों का मैं आपको एक 12-15 महीनों का एक चित्र आपके सामने पेश करना चाहूँगा,

ताकि आपको अंदाज़ा आ जाए, कि क्या स्थिति थी।

जैसे 24 दिसंबर 1999, यानी तीन साल पहले की बात है।

काठमांडू से दिल्ली जो उड़ान आ रही थी, उसे अपहरण कर अफगानिस्तान ले जाया गया, कंधार में ले गए।

और भारत के सैकड़ों यात्रियों को बंदी बनाया गया। पूरे भारत में एक बहुत बड़ा तूफान था। लोगों के जीवन और मृत्यु का सवाल था।

अब 2000 में हमारे यहाँ लाल किले में आतंकी हमला हुआ, दिल्ली में।

एक नया और उसके साथ तूफान जुड़ गया। 11 सितंबर 2001, अमेरिका में ट्विन टावर पर बहुत बड़ा आतंकी हमला हुआ,

उसने फिर एक बार दुनिया को चिंतित कर दिया, क्योंकि यह सब जगह पर करने वाले एक ही प्रकार के लोग हैं।

अक्टूबर 2001 को जम्मू-कश्मीर विधानसभा पर आतंकी हमला हुआ।

13 दिसंबर 2001 को भारत की संसद पर आतंकी हमला हुआ।

यानी आप उस समय की 8-10 महीने की घटनाएँ देखिए, वैश्विक स्तर की घटनाएँ,

आतंकी घटनाएँ, खून-खराबे की घटनाएं, निर्दोष लोगों की मौत की घटनाएँ।

तो कोई भी, एक प्रकार से अशांति के लिए एक चिंगारी काफ़ी होती है।

स्थिति पैदा हो चुकी थी, बन चुकी थी। ऐसे समय, अचानक, 7 अक्टूबर 2001,

मुझे मुख्यमंत्री बनने का दायित्व मेरे सिर पर आ गया अचानक, और वह भी मेरी सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी थी।

गुजरात में जो भूकंप आया था, उस भूकंप के पुनर्वास के लिए बहुत बड़ा काम था

और पिछली शताब्दी का सबसे बड़ा भूकंप था। हज़ारों लोग मारे गए थे।

तो एक काम के बीच मेरे लिए मुख्यमंत्री का काम मेरे ज़िम्मे आ गया।

बहुत महत्वपूर्ण काम था और मैं शपथ लेने के बाद पहले ही दिन से इस काम में जुड़ गया था।

मैं एक ऐसा व्यक्ति हूँ जिसका कभी सरकार नाम से कोई रिश्ता नहीं रहा।

मैं सरकार में कभी रहा नहीं, मैं सरकार क्या होती है, जानता नहीं था। मैं कभी विधायक नहीं बना। मैंने कभी चुनाव नहीं लड़ा।

मुझे जीवन में पहली बार चुनाव लड़ना पड़ा। मैं 24 फरवरी 2002 को पहली बार विधायक बना, एक चुना हुआ जनप्रतिनिधि बना।

और मैं पहली बार 24, 25 या 26 फरवरी को गुजरात विधानसभा में मैंने पैर रखा।

27 फरवरी 2002, विधानसभा में मेरा बजट सत्र था, हम सदन में बैठे थे,

और उसी दिन, यानी अभी मुझे विधायक बने तीन दिन हुए थे...

और गोधरा की घटना हो गई और भयंकर घटना थी। लोगों को ज़िंदा जला दिया गया था।

आप कल्पना कर सकते हैं कि जो कंधार के विमान अपहरण को, या संसद पर का हमला कहो या 9/11 कहो,

ये सारी घटनाओं का पृष्ठभूमि हो और उसमें इतनी बड़ी संख्या में लोगों का मर जाना, ज़िंदा जला देना।

आप कल्पना कर सकते हैं कि स्थिति कैसी होगी। कुछ भी नहीं होना चाहिए, हम भी चाहते हैं, कोई भी चाहेगा शांति ही रहनी चाहिए।

दूसरा, जो कहते हैं ये बहुत बड़े दंगे वगैरह, तो यह भ्रम फैलाया गया है।

अगर 2002 के पहले का डेटा देखें तो पता चलता है

कि गुजरात में कितने दंगे होते थे। हमेशा कहीं न कहीं कर्फ्यू लगा रहता था।

पतंग के चक्कर में सांप्रदायिक हिंसा हो जाती थी, साइकिल टकरा जाने पर सांप्रदायिक हिंसा हो जाती थी।

2002 से पहले गुजरात में 250 से ज़्यादा बड़े दंगे हुए थे।

और 1969 में जो दंगे हुए थे, वह तो करीब 6 महीने चले थे।

अरे तब तो हम कहीं थे ही नहीं दुनिया के उस चित्र में, उस समय की मैं बता रहा हूँ।

और इतनी बड़ी घटना एक ऐसा चिंगारी बिंदु बन गया कि कुछ लोगों की हिंसा हो गई।

लेकिन न्यायालय ने उसे बहुत विस्तार से देखा है।

लंबे समय तक, और उस समय हमारे जो विरोधी लोग हैं, वह सरकार में थे।

और वह तो चाहते थे कि हम पर जितने आरोप लगे थे, हमको सज़ा हो जाए। लेकिन उनके लाखों कोशिशों के बाद भी न्यायपालिका ने

पूरी तरह विस्तार से उसका विश्लेषण किया, 2-2 बार किया और हम पूरी तरह निर्दोष पाए गए।

जिन लोगों ने गुनाह किया था, उनके लिए न्यायालय ने अपना काम किया है। लेकिन सबसे बड़ी बात है, जिस गुजरात में साल में कहीं न कहीं दंगे हुआ करते थे,

2002 के बाद, आज 2025 है, गुजरात में 20-22 सालों में कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ, पूरी तरह शांति है,

और हमारी कोशिश यह रही है कि हम वोट बैंक की राजनीति नहीं करते,

हम सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास, सबका प्रयास, इसी मंत्र को लेकर चलते हैं।

तुष्टिकरण की राजनीति से हम आकांक्षा की राजनीति की तरफ गए हैं। और उसके कारण जिसको भी कुछ करना है, वह हमारे साथ जुड़ जाते हैं,

और एक अच्छी तरह गुजरात विकसित राज्य बने, उस दिशा में हमने लगातार प्रयास करते रहे हैं,

अब विकसित भारत के लिए काम कर रहे हैं, उसमें भी गुजरात अपनी भूमिका अदा कर रहा है।

- बहुत से लोग आपको प्यार करते हैं। मैंने यह कई लोगों से सुना है, लेकिन ऐसे लोग भी हैं जो आपकी आलोचना करते हैं, मीडिया समेत,

और मीडिया के लोगों ने 2002 के गुजरात दंगों पर आपकी आलोचना की है।

आलोचना के साथ आपका कैसा रिश्ता है? कैसे आप आलोचकों से निपटते हैं, कैसे आप आलोचना से निपटते हैं,

जो मीडिया या आपके आस-पास या आपके जीवन में कही से भी आ सकती है?

- देखिए, आपने जो कहा, आलोचना और कैसे सामना करते हैं।

तो अगर मुझे एक वाक्य में कहना हो, तो मैं उसका स्वागत करता हूँ।

क्योंकि मेरा एक दृढ़ विश्वास है कि आलोचना, यह लोकतंत्र की आत्मा है।

अगर आप सच्चे लोकतंत्रवादी हैं, आपके खून में लोकतंत्र है,

तो हमारे यहाँ तो शास्त्रों में कहा जाता है, 'निंदक नियरे राखिए'

जो आलोचक होते हैं, वह सबसे निकट होने चाहिए, आपके पास।

तो आप लोकतांत्रिक तरीके से, अच्छे ढंग से, अच्छी जानकारियों के साथ काम कर सकते हैं।

और मैं मानता हूँ कि आलोचना होनी चाहिए और ज़्यादा होनी चाहिए

और बहुत तीखी आलोचना होनी चाहिए। लेकिन मेरी शिकायत यह है कि आजकल आलोचना नहीं हो रही है।

आलोचना करने के लिए बहुत अध्ययन करना पड़ता है, विषय की बारीकी में जाना पड़ता है, सच और झूठ खोज कर के निकालना पड़ता है।

आजकल लोग शॉर्टकट ढूँढने की आदत के कारण कोई स्टडी करते नहीं हैं, रिसर्च नहीं करते हैं,

कमज़ोरियों को ढूंढकर निकालते नहीं हैं और आरोप लगाने में लग जाते हैं।

आरोपों और आलोचना के बीच में बहुत अंतर होता है। आप जिन लोगों का हवाला दे रहे हैं, वह आरोप हैं, वह आलोचना नहीं है।

और लोकतंत्र की मज़बूती के लिए आलोचना चाहिए। आरोप से किसी का भला नहीं होता है। तू-तू मैं-मैं चलता है।

और इसलिए मैं आलोचना का हमेशा स्वागत करता हूँ और जब आरोप झूठे होते हैं,

तो मैं बहुत स्वस्थ तरीके से अपने समर्पण के साथ मेरे देश की सेवा में लगा रहता हूँ।

- हाँ, आप जिस चीज़ की बात कर रहे हैं, वह मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि मैं अच्छी पत्रकारिता की प्रशंसा करता हूँ।

और दुर्भाग्य से, आधुनिक समय में बहुत से पत्रकार फटाफट सुर्खियों की तलाश में रहते हैं,

आरोप लगाते हैं क्योंकि ऐसा करने से उन्हें फायदा पहुँचता है। क्योंकि उन्हें सुर्खियाँ चाहिए, सस्ती लोकप्रियता चाहिए।

मुझे लगता है कि महान पत्रकार बनने के लिए इच्छा और भूख होनी चाहिए। और उसके लिए गहरी समझ की आवश्यकता होती है।

और इससे मुझे दुख होता है कि कितनी बार ऐसा हुआ है। हमारी बात करने का भी यही कारण है। मुझे नहीं लगता कि मैं इसमें बहुत अच्छा हूँ,

लेकिन मैं इन्हीं कारणों से आपसे बात करना चाहता था। लोग ज्यादा कोशिश भी नहीं करते और, ज्यादा रिसर्च भी नहीं करते।

मुझे नहीं पता कि मैंने कितनी किताबें पढ़ी हैं। मैंने सिर्फ अनुभव करने, सिर्फ समझने की कोशिश की तैयारी में बहुत कुछ पढ़ा है।

इसमें बहुत तैयारी, बहुत काम लगता है। और मैं चाहूँगा कि बड़े पत्रकार ऐसा ही करें।

इसी आधार से आप आलोचना कर सकते हैं, गहराई से जांच कर सकते हैं आप वास्तव में, सत्ता में बैठे लोगों की स्थिति कैसी है,

इसकी जटिलता की जांच कर सकते हैं। उनकी ताकत, उनकी कमज़ोरिया, और उनकी गलतियाँ भी जो उन्होंने की हैं,

लेकिन इसके लिए बहुत ज़्यादा तैयारी की ज़रूरत है। काश ऐसे महान पत्रकार इस तरह के और काम करें।

- देखिए, मैं बताता हूँ, अच्छी तरह से निर्देशित और विशिष्ट आलोचना वास्तव में नीति निर्धारण में, मदद करती है।

स्पष्ट नीतिगत दृष्टिकोण इससे निकलता है। और मैं विशेष रूप से ऐसी चीज़ों पर ध्यान भी देता हूँ

कि ऐसी जो आलोचना होती है, उसका मैं स्वागत करता हूँ। देखिए, आपने जो कहा, पत्रकारिता, सुर्खी,

देखिए अगर सुर्खियों का मोह हो, और शायद कोई शब्दों का खेल खेले, मैं उसे बहुत बुरा नहीं मानता हूँ।

एजेंडा लेकर के जो काम किया जाता है, सत्य को नकार दिया जाता है,

तब, वह आने वाले दशकों तक बर्बादी करता है।

किसी को अच्छे शब्दों का मोह हो जाए, कोई पाठकों या दर्शकों को अच्छा लगे,

चलिए, तो उतना सा हम समझौता कर लें। लेकिन इरादा ग़लत हो, एजेंडा तय करके चीज़ों को सेट करना हो,

तो वह चिंता का विषय होता है। - और उसमें, सत्य पीड़ित होता है, ऐसा मेरा मानना है।

- मुझे याद है, मेरा, एक बार, लंदन में मेरा एक भाषण हुआ था।

वहाँ का एक अखबार है लंदन में, गुजराती अखबार है, तो उनका एक कार्यक्रम था, उसमें मुझे...

तो मैंने ऐसे ही अपने भाषण में कहा, मैंने कहा, देखिए, क्योंकि वह पत्रकार थे, पत्रकार का कार्यक्रम था,

तो मैंने कहा, देखिए भाई, पत्रकारिता कैसी होनी चाहिए? मक्खी जैसी होनी चाहिए कि मधुमक्खी जैसी होनी चाहिए?

तो मैंने कहा कि मक्खी जो होती है, वह गंदगी पर बैठती है, और गंदगी ही उठाकर फैलाती है।

मधुमक्खी है, जो फूल पर बैठती है, और मधु लेकर के मधु फैलाती है।

लेकिन, कोई ग़लत करे, तो मधुमक्खी ऐसा डंक देती है,

कि तीन दिन तक आप अपना चेहरा किसी को दिखा नहीं सकते हैं। तो मैंने कहा अब मैं...

मेरे इस आधी बात को उठा लिया किसी ने, और उसका इतना विवाद खड़ा कर दिया।

तो मैं बहुत ईमानदारी से किसी के प्रति नकारात्मकता के विचार में नहीं कह रहा था,

ऊपर से मैं तो ताकत बता रहा था कि मधुमक्खी की ताकत यह है, कि वह ऐसा एक छोटा सा भी डंक लगा दे,

तो आप तीन दिन तक मुँह नहीं दिखा सकते हैं। मुँह छुपा करकर रहना पड़ेगा।

यह ताकत होनी चाहिए पत्रकारिता की। लेकिन, कुछ लोगों को मक्खी वाला रास्ता अच्छा लगता है।

Biggest democracy in the world

- अब मेरी जिंदगी का नया लक्ष्य है, मधुमक्खी की तरह बनना आपने लोकतंत्र का ज़िक्र किया, तो...

...और 2002 तक आपको सरकार के बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी। लेकिन 2002 से लेकर आज तक, मेरी गिनती में आपने आठ चुनाव जीते हैं।

तो, भारत में कई चुनावों में 80 करोड़ से भी ज़्यादा लोग मतदान करते हैं।

इतने बड़े चुनाव जीतने के लिए, और 1.4 अरब लोगों के देश में चुनाव जीतने के लिए, क्या करना पड़ता है,

जहाँ आपको दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में उन लोगों का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिलता है?

- ऐसा है, मैं जब से राजनीति में आया हूँ। मैं राजनीति में बहुत देर से आया।

पहले तो मैं संगठन का काम करता था, तो मेरे पास...

संगठन का काम रहता था, तो चुनाव व्यवस्था देखने का भी काम रहता था। तो, मैंने अपना समय वहीं समर्पित किया।

24 वर्षों से, गुजरात और भारत के लोगों ने नेतृत्व करने के लिए मुझ पर भरोसा जताया है।

तो समर्पण और कर्तव्य की गहरी भावना के साथ,

मैं जनता-जनार्दन को मैं ईश्वर मानता हूँ। उसने मुझे जो दायित्व दिया है।

इसको पूरा करने का मैं प्रयास करता हूँ। मैं कभी भी उनके विश्वास को टूटने नहीं देता।

और वे मुझे वैसे ही देखते हैं जैसा मैं वास्तव में हूँ। मेरी सरकार हर नागरिक तक कल्याणकारी योजनाओं को

पहुँचाना सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध है। हर योजना को अपने लक्षित लाभार्थियों तक पहुँचना ही चाहिए।

हर लाभार्थी के साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। जाति, पंथ, धर्म, धन या विचारधारा के आधार पर किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए।

हमें हर किसी की भलाई और समृद्धि सुनिश्चित करने का प्रयास करना चाहिए। और उसके कारण अगर किसी का काम नहीं भी हुआ है।

तो उसको यह नहीं लगता कि मेरे साथ गलत वजहों से ऐसा हुआ। उन्हें यह जानकर सुकून मिलता है कि उचित समय आने पर उन्हें भी लाभ होगा।

इससे विश्वास की गहरी भावना पैदा होती है। और विश्वास ही मेरी शासन शैली का आधारशिला है।

दूसरा, मेरा शासन चुनावों के उतार-चढ़ाव से परे है।

मेरा शासन चुनावों पर नहीं, लोगों पर आधारित है। मेरे देश के लोगों का भला कैसे हो।

मेरे देश के लिए अच्छा क्या हो। जैसा कि आप जानते होंगे, मैं एक बार आध्यात्मिक जागृति की खोज में निकला था।

तो अब, मैं अपने राष्ट्र को अपना भगवान मान लिया है। और मैंने जनता-जनार्दन को भगवान का रूप मान लिया है।

एक समर्पित पुजारी की तरह, मेरा हृदय लोगों की सेवा करने पर केंद्रित है।

मैं लोगों से दूरी नहीं बनाता। मैं उन्हीं के बीच, उन्हीं में से एक बनकर रहता हूँ।

और मैं सबके सामने कहता हूँ कि अगर आप 11 घंटे काम करोगे तो मैं 12 करूँगा। लोग इसे पहचानते हैं, और इसीलिए वे मुझ पर विश्वास करते हैं।

इसके अलावा, मेरा कोई निहित स्वार्थ नहीं है। मेरा कोई दोस्त या रिश्तेदार नहीं है जिसे मेरे पद से कोई फायदा हो।

तो सामान्य आदमी इन चीज़ों को पसंद करता है। और शायद ऐसे कई कारण होंगे।

इसके अलावा, मैं लाखों समर्पित स्वयंसेवकों वाली पार्टी से आता हूँ,

स्वयंसेवक जो पूरी तरह से भारत माता और उसके नागरिकों के कल्याण के लिए समर्पित हैं।

उनका राजनीति में कोई स्वार्थ नहीं रहा है। उन्होंने न तो कोई पद संभाला है, न ही प्रभाव जहाँ चलता है, वहाँ भटके हैं।

ऐसे लाखों कार्यकर्ता हैं, जो दिन रात काम करते हैं। मुझे दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी से संबंधित होने पर गर्व है।

और मेरी पार्टी उतनी पुरानी भी नहीं है। यह लाखों कार्यकर्ताओं की कड़ी मेहनत को दर्शाता है।

उनकी निस्वार्थ सेवा को समुदाय द्वारा व्यापक रूप से पहचाना और महत्व दिया जाता है।

यह भाजपा में लोगों के विश्वास को मजबूत करता है, और उसके कारण चुनाव जीतते हैं।

मैंने कभी अपनी चुनावी जीत का हिसाब नहीं लगाया, लेकिन हमें लोगों का आशीर्वाद मिला है।

- मैं अविश्वसनीय चुनाव प्रणाली और तंत्र के बारे में आपकी राय क्या है सोच रहा था। भारत में जैसे चुनाव होते हैं, उसने मुझे हैरान कर दिया।

तो, बहुत सारे रोचक किस्से सामने आते हैं। उदाहरण के लिए कोई भी मतदाता मतदान केंद्र से

दो किलोमीटर से अधिक दूर नहीं होना चाहिए। इसकी वजह से, भारत के दूरदराज के क्षेत्रों में,

वोटिंग मशीन ले जाने की, कई कहानियां हैं। यह वास्तव में अविश्वसनीय है। बस हर एक मतदाता मायने रखता है।

और 60 करोड़ से ज़्यादा लोगों के मतदान कराने का तंत्र...

क्या कोई ऐसा किस्सा है जिसके बारे में आप बात कर सकते हैं जो आपको विशेष रूप से प्रभावशाली लगे,

या शायद आप आम तौर पर इतने बड़े चुनाव कराने के लिए तंत्र के बारे में बात कर सकते हैं,

वह भी इतने बड़े लोकतंत्र में? - सबसे पहले, तो मैं आपका आभारी हूँ कि आपने बहुत ही अच्छा सवाल पूछा है।

लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले किसी भी व्यक्ति को ज़रूर इस जवाब को सुनना चाहिए।

कभी-कभी परिणामों पर चर्चा करते हैं, लेकिन पर्दे के पीछे के सभी काम को अनदेखा कर दिया जाता है।

आइए हाल ही में संपन्न हुए 2024 के आम चुनावों को उदाहरण के तौर पर लेते हैं।

98 करोड़ पंजीकृत मतदाता थे!

उनमें से प्रत्येक मतदाता के पास एक पंजीकृत आईडी

और सभी आवश्यक विवरण, एक विशाल डेटाबेस था। और यह संख्या पूरे उत्तरी अमेरिका की पूरी आबादी से दोगुनी है।

यह पूरे यूरोपीय संघ की कुल आबादी से भी ज़्यादा है।

98 करोड़ पंजीकृत मतदाताओं में से,

64.6 करोड़ लोग मई की भीषण गर्मी में अपना वोट डालने के लिए निकले।

कुछ इलाकों में तापमान 40 डिग्री तक पहुँच गया, फिर भी उन्होंने अपना वोट डालना चुना! और यह मतदाता संख्या अमेरिका की आबादी से दोगुनी है।

हमारे पास दस लाख से ज़्यादा मतदान केंद्र थे। क्या आप इसमें शामिल जनशक्ति की कल्पना कर सकते हैं?

मेरे देश में 2,500 से ज़्यादा राजनीतिक दल हैं।

यह आँकड़ा अकेले ही पूरी दुनिया को हैरानी में डाल सकता है!

मेरे देश में 900 से ज़्यादा चौबीसों घंटे चलने वाले न्यूज़ चैनल हैं।

5,000 से ज़्यादा अखबार रोज़ाना प्रकाशित होते हैं। वे सभी अपने-अपने तरीके से लोकतंत्र को बनाए रखने में भूमिका निभाते हैं।

यहाँ के साधारण गांव वाले भी तेज़ी से तकनीक को अपनाते हैं।

ईवीएम से वोट देते हैं, दुनिया के देशों में चुनाव के परिणाम महीनों तक नहीं आते हैं।

इतने लोग होने के बाद भी, एक ही दिन में परिणाम घोषित कर देते हैं! और आपने यह कहकर बिलकुल सही कहा

कि सबसे दूरदराज के क्षेत्रों में भी मतदान केंद्र हैं। हम मतदान केंद्रों को ले जाने के लिए हेलीकॉप्टर तक का इस्तेमाल करते हैं।

मेरा मानना है कि अरुणाचल प्रदेश में सबसे ऊँचाई वाला मतदान केंद्र रिकॉर्ड पर है।

मेरे यहाँ गुजरात के गिर जंगल में सिर्फ एक मतदाता के लिए एक मतदान केंद्र बनाया गया था। हमने यह सुनिश्चित किया कि उनके लिए कहीं नहीं,

बीच जंगल में एक मतदान केंद्र स्थापित किया जाए। तो हमारे यहाँ...

...लोकतंत्र को मजबूत करने और यह सुनिश्चित करने की अपनी अटूट प्रतिबद्धता में हम कोई कसर नहीं छोड़ते हैं

कि हम हमेशा चुनाव के लिए तैयार रहें।

मेरा मानना है कि भारत का चुनाव आयोग स्वतंत्र और

निष्पक्ष चुनावों के लिए एक वैश्विक पैमाना है।

सारे निर्णय वह करता है। दुनिया के विश्वविद्यालयों को इसका गहन विश्लेषण करने की ज़रूरत है।

इस बात पर एक केस स्टडी होनी चाहिए कि इसे कैसे चलाया जाता है। मतदाताओं की भारी संख्या को देखते हुए, क्या आप राजनीतिक जागरूकता को समझ रहे हैं?

यह सब दुनिया भर में युवा पीढ़ी के लिए एक उत्कृष्ट केस स्टडी बनेगी।

- मुझे लोकतंत्र से प्यार है। इन्हीं कुछ वजहों से मुझे अमेरिका से प्यार है।

लेकिन जैसे भारत में लोकतंत्र काम करता है. इससे ज़्यादा खूबसूरत कुछ भी नहीं है।

जैसा कि आपने कहा, 90 करोड़ लोग मतदान करने के लिए पंजीकृत हैं!

यह वास्तव में एक केस स्टडी है। यह देखना खूबसूरत है कि इतने सारे लोग अपनी मर्ज़ी से

उत्साह से, एक साथ आते हैं, किसी ऐसे व्यक्ति के लिए वोट डालते हैं जो उनका प्रतिनिधित्व करेगा, जैसे, वे इसमें काफी उत्साह से भाग लेते हैं।

किसी व्यक्ति के लिए यह महसूस करना वाकई महत्वपूर्ण है कि उनकी आवाज़ सुनी जाएगी। यह खूबसूरत है।

जिस बात से बात निकली है, आपको बहुत से लोग प्यार करते हैं। आप दुनिया के सबसे शक्तिशाली इंसानों में से एक हैं।

Power

क्या आप कभी इस बारे में सोचते हैं कि इतनी शक्ति का आप पर अलग प्रभाव हो सकता है?

खासकर सत्ता के इतने सालों में? - मुझे नहीं लगता कि "शक्तिशाली" शब्द मेरे जीवन पर फिट बैठता है।

मैं कभी भी शक्तिशाली होने का दावा नहीं कर सकता। मैं एक सेवक हूँ।

मैं तो खुद को प्रधानमंत्री नहीं, बल्कि प्रधान सेवक के रूप में देखता हूँ। और सेवा के मंत्र को लेकर ही मैं निकला हूँ।

जहाँ तक शक्ति का सवाल है, यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में मैंने कभी ज़्यादा नहीं सोचा।

मैं राजनीति में पावर के लिए नहीं आया था।

शक्ति की तलाश करने के बजाय, मैं काम करने और काम करवाने के लिए प्रतिबद्ध रहता हूँ।

मैं शक्ति से ज़्यादा उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित करता हूँ। मैंने हमेशा लोगों की सेवा करने के लिए खुद को समर्पित किया है।

मैंने हमेशा उनके जीवन में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए खुद को समर्पित किया है।

- जैसा कि आपने ज़िक्र किया, आप बहुत काम करते हैं। आप जी जान से काम करते हैं।

क्या आप कभी अकेलापन महसूस करते हैं?

- देखिए, मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता।

क्योंकि मैं हमेशा अपने साथ किसी को खड़ा देखता हूँ।

और जब मुझे लगता है मेरे कोई साथ है... तो इससे मेरा दिमाग हमेशा स्थिर रहता है।

लोग सोचेंगे कि मेरे साथ कौन है? तो मैं कहता हूँ, "मेरे साथ और कोई नहीं, ईश्वर हैं।"

मैं कभी अकेला नहीं होता, वह हमेशा मेरे साथ होता है।

मैं हमेशा उसी भाव में रहता हूँ। मैंने स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों को अपनाया था।

कि मानव जाति की सेवा ही भगवान की सेवा है।

मेरे लिए देश ही देव है, और नर ही नारायण है।

मैं इस विश्वास के साथ इस पथ पर चलता हूँ कि लोगों की सेवा करना भगवान की सेवा करना है।

और इसलिए मुझे कभी अकेलापन लगा हो, ऐसा कभी मेरे साथ नहीं हुआ है।

मैं कोरोना का एक उदाहरण देता हूँ।

सारे बंधन लगे थे, यात्रा बंद थी।

मैंने लॉकडाउन में अपने समय का ज़्यादा से ज़्यादा सदुपयोग करने का एक तरीका निकाला।

मैंने वीडियो कॉन्फैंस के द्वारा सरकार चलाने का मॉडल बना दिया।

मैंने घर से काम करना शुरू किया, मीटिंग घर से की। मैं ऐसे ही व्यस्त रहा।

मैंने यह किया कि मैंने उन लोगों से संपर्क किया जिनके साथ मैंने अपने पूरे जीवन में काम किया था।

देश भर में मेरी पार्टी के कार्यकर्ता हैं, मैंने 70 और उससे अधिक उम्र के लोगों की एक सूची बनाई।

मैंने कोविड के समय एक छोट से छोटे कार्यकर्ता को भी याद किया।

मैंने व्यक्तिगत रूप से 70 वर्ष से अधिक उम्र वाले कार्यकर्ताओं को फोन किया। और कोविड के समय मैं उनके परिवार और उनकी तबियत के बारे में पूछता था।

उनके आस-पास की व्यवस्था कैसी है। मैं यह सारी बातें उनके साथ करता था।

तो मैं भी एक प्रकार से उनसे जुड़ जाता था। पुरानी यादें ताज़ा हो जाती थी। उनको भी लगता था कि इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी वाला इंसान

बीमारी के समय मेरा हाल चाल पूछ रहा है। और मैं हर दिन औसतन 30-40 फ़ोन करता था।

और पूरे कोरोना-काल में मैंने ऐसा किया। और मुझे खुदको भी पुराने लोगों से बात करने का आनंद मिलता था।

यह अकेलापन नहीं था, बस खुद को व्यस्त रखने के तरीका था।

और मेरा बातचीत करने में काफी अभ्यास है। मेरे हिमालय में बिताए वे पल, मेरी इन चीज़ों में काफी मदद करते हैं।

Hard work

- मैंने कई लोगों से सुना है कि जितने लोगों को वे जानते हैं, उनमें आप सबसे ज़्यादा मेहनती हैं,

इसके पीछे आपकी क्या सोच है? आप हर दिन कई घंटे काम करते हैं। क्या आप कभी थकते नहीं हैं?

इन सब, इन सब चीजों के दौरान आपकी ताकत और धैर्य का स्रोत क्या है?

- देखिए एक तो मैं यह नहीं मानता हूँ कि मैं ही काम करता हूँ। मैं अपने आसपास लोगों को देखता हूँ और हमेशा सोचता हूँ,

यह तो मुझसे ज़्यादा काम करते हैं। मैं जब किसान को याद करता हूँ, तो मुझे लगता है किसान कितनी मेहनत करता है।

खुले आसमान के नीचे कितना पसीना बहाता है। मैं अपने देश के जवान को देखता हूँ तो मुझे विचार आता है कि

अरे, कोई बर्फ में, कोई रेगिस्तान में, कोई पानी में, दिन-रात कितने घंटे काम कर रहा है।

मैं किसी मजदूर को देखता हूँ तो मुझे लगता है, यह कितनी मेहनत कर रहा है। यानी मैं हमेशा सोचता हूँ कि हर परिवार में मेरी माताएं-बहनें,

परिवार के सुख के लिए कितनी मेहनत करती हैं। सुबह सबसे पहले उठ जाती हैं, रात को सबसे बाद में सोती हैं,

और परिवार के हर व्यक्ति की देखभाल करती हैं, सामाजिक रिश्तों को भी संभालती हैं।

तो जैसे मैं सोचता हूँ, तो मुझे लगता है, अरे, लोग कितना काम करते हैं?

मैं कैसे सो सकता हूँ? मैं कैसे आराम कर सकता हूँ? तो मुझे स्वाभाविक प्रेरणा, मेरी आँखों के सामने जो चीज़ें हैं,

वही मुझे प्रेरित करती रहती हैं। दूसरा, मेरी ज़िम्मेदारी मुझे आगे बढ़ाती है।

जो ज़िम्मेदारी देशवासियों ने मुझे दी है, मुझे हमेशा लगता है कि मैं पद पर मौज-मस्ती करने के लिए नहीं आया हूँ।

मेरी तरफ से मैं पूरा प्रयास करूँगा। हो सकता है मैं दो काम न कर पाऊँ।

लेकिन मेरे प्रयास में कमी नहीं रहेगी। मेरे परिश्रम में कमी नहीं रहेगी। और जब मैं 2014 में चुनाव लड़ रहा था,

तब मैंने पहले जब गुजरात में था, तब भी लोगों के सामने रखा था, और यहाँ आया तो यहाँ भी कहा था,

मैंने कहा, मैं देशवासियों से वादा करता हूँ, कि मैं कभी भी परिश्रम करने में पीछे नहीं रहूँगा।

दूसरा, मैं कहता था कि मैं बुरे इरादे से कोई काम नहीं करूँगा।

और तीसरा मैं कहता था, मैं अपने लिए कुछ नहीं करूँगा। आज मुझे चौबीस साल हो गए हैं।

इतने लंबे समय से देशवासियों ने मुझे सरकार के मुखिया के रूप में काम करने का मौका दिया है,

मैंने इन तीन कसौटियों पर अपने आप को हमेशा परखा है और मैं इनका पालन करता हूँ।

तो मेरे लिए प्रेरणा है, 1.4 अरब लोगों की सेवा करना,

उनकी आकांक्षाएं, उनकी आवश्यकताएं,

जितनी मेहनत कर सकूँ, जितना हो सके, मैं करने के मूड में रहता हूँ। आज भी मेरी ऊर्जा वही है।

Srinivasa Ramanujan

- एक इंजीनियर और गणित प्रेमी होने के नाते, मुझे पूछना होगा, श्रीनिवास रामानुजन एक सदी पहले के भारतीय गणितज्ञ थे।

उन्हें इतिहास के सबसे महानतम गणितज्ञों में से एक माना जाता है। अपने आप सब सीखा, गरीबी में पले-बढ़े।

आपने अक्सर उनके बारे में बात की है। आपको उनसे क्या प्रेरणा मिलती है?

- देखिए, मैं उनका बहुत आदर करता हूँ।

और मेरे देश में हर कोई उनका आदर करता है। क्योंकि, विज्ञान और आध्यात्मिकता के बीच बहुत गहरा संबंध है, ऐसा मेरा मानना है।

बहुत से वैज्ञानिक और उन्नत दिमाग वाले लोग, अगर थोड़ा भी देखें, तो वे आध्यात्मिक रूप से भी बहुत आगे होते हैं।

वे उससे अलग नहीं होते हैं। श्रीनिवास रामानुजन कहते थे कि उन्हें गणितीय विचार,

उस देवी से आते हैं, जिसकी वे पूजा करते थे।

यानी विचार तपस्या से आते हैं। और तपस्या सिर्फ़ कड़ी मेहनत नहीं है।

एक तरह से किसी एक काम के लिए खुद को समर्पित कर देना, खुद को खपा देना,

स्वयं ही जैसे वह कार्य का रूप बन जाए।

और ज्ञान के जितने ज़्यादा स्रोतों के लिए हम खुले रहेंगे,

हमारे पास उतने ही ज़्यादा विचार आएंगे। हमें जानकारी और ज्ञान के बीच में फर्क करना भी समझना चाहिए।

कुछ लोग जानकारी को ही ज्ञान मानते हैं। और जानकारी का बहुत बड़ा भंडार लेकर घूमते रहते हैं।

मैं नहीं मानता कि जानकारी का मतलब ज्ञान होना है। ज्ञान एक ऐसी विधा है, जो एक प्रक्रिया के बाद धीरे-धीरे विकसित होती है।

और हमें उस फर्क को समझकर, इस विषय को देखना चाहिए।

Decision-making process

- आपकी छवि एक फैसला लेने वाले नेता की है। तो क्या आप मुझे विचारों के इस विषय पर कुछ बता सकते हैं?

आप फ़ैसले कैसे लेते हैं? आपकी प्रक्रिया क्या है? जैसे जब कुछ बड़ा दांव पर लगा हुआ हो,

तब उसके लिए फैसले लेना, जहां कोई स्पष्ट उदाहरण न हो, बहुत अनिश्चितता हो, संतुलन बनाना हो, तो आप निर्णय कैसे लेते हैं?

- इसके पीछे बहुत सी बातें हैं। एक, शायद हिंदुस्तान में मैं एक ऐसा राजनेता हूँ, जो मेरे देश के

85 से 90 प्रतिशत जिलों में रात्रि विश्राम कर चुका हूँ।

मैं अपने पहले के जीवन की बात करता हूँ। मैं भ्रमण करता था। उससे जो मैंने पाया है, जो सीखा है,

तो मेरे पास जमीनी स्तर पर स्थितियों के विषय में सीधी जानकारी का बहुत बड़ा भंडार है।

किसी से पूछा हुआ, जाना हुआ, या सिर्फ किताबों से पाया हुआ ज्ञान नहीं है। दूसरा...

...शासन की दृष्टि से देखें तो मेरे पास किसी प्रकार का बोझ नहीं है।

कि जिस बोझ को लेकर मुझे दबा रहना है, जिसके आधार पर मुझे चलना है, वह नहीं है।

तीसरा, निर्णय करने में मेरा एक तराजू है: मेरे लिए मेरा देश सबसे पहले।

मैं जो कर रहा हूँ, उससे मेरे देश का नुकसान तो नहीं हो रहा है? और, दूसरा हमारे यहाँ महात्मा गांधी कहते थे

कि भाई तुम्हें कोई निर्णय करते समय कोई उलझन हो तो तुम किसी गरीब का चेहरा देख लो, उनको याद करो।

और सोचो, क्या यह उसके काम आएगा? तो आपका निर्णय सही होगा। वह मंत्र मेरे बहुत काम आता है।

कि भाई आप सामान्य मानवीय को याद करो, कि मैं जो कर रहा हूँ, वह... दूसरी एक प्रक्रिया यह है कि मैं बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ हूँ।

मेरी सरकार में मेरे अफसरों को मेरे प्रति ईर्ष्या भी होती होगी,

और उनको तकलीफ़ भी होती होगी। और वह यह कि मेरे सूचना के माध्यम बहुत हैं और बहुत पुख्ता और जीवंत हैं।

और इसलिए मुझे चीजों की जानकारियां, बहुत सारी, मिल जाती हैं, कई जगहों से।

तो मुझे कोई आकर के ब्रीफ़ करे, वही अकेली जानकारी नहीं होती है।

मेरे पास दूसरे पहलू भी होते हैं। दूसरा, मेरे अंदर एक विद्यार्थी भाव है।

मान लीजिए कोई बात समझ नहीं आई। मुझे किसी अफसर ने कुछ बताया। तो मैं विद्यार्थी भाव से उसको पूछता हूँ,

भाई, अच्छा मुझे बताओ, भाई कैसे है? फिर क्या है? फिर कैसे है? और कभी मेरे पास दूसरी जानकारी है, तो मैं वकील बनकर उल्टे प्रश्न पूछता हूँ।

उसको बहुत बारीकी से अनेक प्रकार से मंथन करना पड़ता है।

तो ऐसा करने से अमृत निकले, इस प्रकार की मेरी कोशिश रहती है।

दूसरा, जब मैं निर्णय लेता हूँ, मुझे लगता है कि हाँ, यह करने जैसा है,

तो फिर मैं अपने सहमत लोगों के साथ अपने विचारों को

साधारण शब्दों में साझा करता हूँ। उनके भी प्रतिक्रिया देखता हूँ कि इस निर्णय का क्या असर होगा।

और जब मुझे फिर, विश्वास हो जाए, कि हाँ, यह मैं सही कर रहा हूँ,

तो पूरी प्रक्रिया मेरी-- यह जो मैं इतना बोलता हूँ, इतना भी समय नहीं लगता है। मेरी गति बहुत तेज़ है।

अब जैसे मैं एक उदाहरण दूँ, कोरोना के समय कैसे निर्णय लिए?

अब मुझे नोबेल पुरस्कार विजेता मिलते हैं, अर्थव्यवस्था में अलग-अलग तरह के मुझे उदाहरण देते थे।

फलाने देश ने यह कर दिया, ढिकाने ने यह किया, आप भी करो-आप भी करो। बड़े-बड़े अर्थशास्त्री आकर मेरा सिर खाते थे।

राजनीतिक पार्टियाँ मुझ पर दबाव डालती थीं, इतना पैसा दे दो, उतना पैसा। मैं कुछ नहीं करता था। मैं सोचता था, मुझे क्या करना चाहिए?

और फिर मैंने अपने देश की परिस्थिति के अनुसार अपना निर्णय लिया।

मैं गरीब को भूखा नहीं सोने दूंगा। मैं...

...रोजमर्रा की ज़रूरतों के लिए सामाजिक तनाव पैदा नहीं होने दूंगा। ऐसे कुछ विचार मेरे मन में तय हुए।

पूरी दुनिया तो लॉकडाउन में पड़ी थी। पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था बैठ चुकी थी।

दुनिया मुझ पर दबाव डालती थी कि खजाना खाली करो, नोट छापो, और नोट देते रहो। अर्थव्यवस्था कैसे चलाएँ? मैं उस रास्ते पर जाना नहीं चाहता था।

लेकिन अनुभव यह कहता है कि मैं जिस रास्ते पर चला, वह सही था।

मैंने विशेषज्ञों की राय सुनी थी, समझने का प्रयास भी किया था, उनका विरोध भी नहीं किया था।

लेकिन मैंने अपने देश की परिस्थिति, अपने अनुभव, उन सबको मिलाकर, मिश्रण करके

जिन चीज़ों को विकसित किया, और जो व्यवस्थाएँ खड़ी कीं उसके कारण,

कोविड के तुरंत बाद दुनिया ने जो महंगाई झेली, वह मेरे देश ने नहीं झेली।

मेरा देश आज दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे तेज़ी से प्रगति करने वाला देश है।

उसका मूल कारण, उस संकट के समय, बड़े धैर्य के साथ,

दुनिया भर के सिद्धांतों को लागू करने के मोह में पड़े बिना,

अखबार वालों को अच्छा लगेगा या बुरा लगेगा, अच्छा छपेगा या नहीं छपेगा, आलोचना होगी, इन सारी बातों से ऊपर उठकर,

मैंने बुनियादी सिद्धांतों पर ध्यान देते हुए काम किया, और मैं सफलता के साथ आगे बढ़ा।

तो मेरी अर्थव्यवस्था को भी लाभ हुआ। तो मेरी कोशिश यही रही, कि मैं इन्हीं बातों को लेकर चलूँ।

दूसरा, मेरी जोखिम लेने की क्षमता बहुत ज़्यादा है।

मैं यह नहीं सोचता कि मेरा क्या नुकसान होगा। अगर मेरे देश के लिए सही है, मेरे देश के लोगों के लिए सही है, तो मैं जोखिम लेने को तैयार रहता हूँ।

और दूसरा, मैं ज़िम्मेदारी लेता हूँ। मान लीजिए कभी कुछ ग़लत भी हो जाए तो मैं किसी और पर नहीं डालता हूँ।

मैं खुद ज़िम्मेदारी लेता हूँ। हाँ, मैं खुद खड़ा रहता हूँ।

और जब आप ज़िम्मेदारी लेते हैं, तो आपके साथी भी आपके प्रति समर्पण भाव से जुड़ जाते हैं।

उनको लगता है कि यह आदमी हमें डूबने नहीं देगा, हमें मरने नहीं देगा। यह खुद हमारे साथ खड़ा रहेगा।

क्योंकि, मैं ईमानदारी से निर्णय कर रहा हूँ। मैं अपने लिए कुछ नहीं कर रहा हूँ।

देशवासियों से कहा-- गलती हो सकती है। मैंने देशवासियों से पहले ही कहा था कि मैं इंसान हूँ, मुझसे गलती हो सकती है।

बुरे इरादे से काम नहीं करूँगा। तो वे बातें सब तुरंत देखते हैं कि यार, मोदी ने 2013 में यह कहा था,

अब यह हो गया है। लेकिन उसका इरादा ग़लत नहीं होगा। वह कुछ अच्छा करना चाहता होगा, नहीं हुआ होगा।

तो समाज मैं जैसा हूँ, वैसा ही देखता है, स्वीकार करता है।

AI

- आपने कुछ हफ़्ते पहले फ़्रांस में एआई शिखर सम्मेलन में एआई पर एक बेहतरीन भाषण दिया।

उसमें आपने भारत में एआई इंजीनियरों की बड़ी संख्या के बारे में बात की। मुझे लगता है कि शायद

यह दुनिया में प्रतिभाशाली इंजीनियरों की सबसे बड़ी संख्या में से एक है। तो भारत एआई के क्षेत्र में, वैश्विक नेतृत्व कैसे हासिल कर सकता है?

वर्तमान में यह अमेरिका से पीछे है। भारत को एआई में दुनिया से आगे निकलने और फिर सबसे अच्छा बनने के लिए क्या करना होगा?

- एक बात आपको शायद ज़्यादा लगेगी, और हो सकता है किसी को बुरी भी लगे।

लेकिन जब आपने पूछा है तो अभी मेरे मन से निकल रहा है, मैं कहना चाहता हूँ,

दुनिया एआई के लिए कुछ भी कर ले, भारत के बिना एआई अधूरा है।

बहुत ज़िम्मेदारी से यह बात मैं कह रहा हूँ। देखिए...

...एआई के संबंध में आपके अपने अनुभव क्या हैं? आपने मेरा पेरिस वाला भाषण तो सुना।

और उसको लगभग सभी लोग मानते हैं। क्या कोई अकेला एआई विकसित कर सकता है क्या? आपका खुद का अनुभव क्या है?

- असल में आपने अपने भाषण में एआई के सकारात्मक प्रभाव और एआई की सीमाओं का एक शानदार उदाहरण दिया।

मुझे लगता है कि आपने जो उदाहरण दिया वह यह है कि जब आप इसे एक ऐसे व्यक्ति की फ़ोटो बनाने के लिए कहते हैं

जो अपने-- - लेफ्ट हेंड से लिख रहा है। लेफ्ट हेंड से। तो ये हमेशा एक... ऐसे व्यक्ति की फ़ोटो बनाता है, जो राइट हेंड से लिखता है।

तो इस तरह पश्चिमी देशों द्वारा एक एआई सिस्टम बनाना, जिसमें भारत उस प्रक्रिया का, हिस्सा नहीं है, जिसमें यह..

हमेशा दाएँ हाथ वाले व्यक्ति की फ़ोटो बनाएगा। तो ये ऐतिहासिक रूप से... दुनिया का एक ज़रूरी हिस्सा है,

और विशेष रूप से 21वीं सदी में। - मुझे लगता है देखिए, एआई विकास एक सहयोग है।

यहाँ हर कोई एक दूसरे को अपने अनुभव और ज्ञान से सहयोग कर सकता है।

और भारत सिर्फ़ इसका मॉडल नहीं बना रहा है, बल्कि विशेष उपयोग के मामलों के हिसाब से,

एआई आधारित ऐप्लिकेशन को भी विकसित कर रहा है।

जीपीयू को समाज के सभी वर्गों तक पहुँचाने के लिए,

हमारे पास एक अलग मार्केटप्लेस आधारित मॉडल पहले से ही मौजूद है।

भारत में सोच में बदलाव आ रहा है, ऐतिहासिक कारण, सरकारी कार्यशैली

या अच्छे समर्थन प्रणाली की कमी के कारण, यह सही है कि औरों को देरी लगती होगी।

मुझे याद है, जब 5जी आया। दुनिया को लगता था कि हम 5जी में काफ़ी पीछे हैं।

लेकिन एक बार जब हमने शुरू किया, तो आज हम दुनिया में सबसे तेज़ गति से 5जी पहुँचाने वाले देशों में से एक बन गए हैं।

मुझे याद है, अमेरिका की एक कंपनी के मालिक आए थे। वे अपना अनुभव बता रहे थे।

वे कह रहे थे कि अगर मैं अमेरिका में विज्ञापन दूँ, इंजीनियरों की ज़रूरत है,

तो मेरे पास जो इंजीनियर आएंगे, वह ज़्यादा से ज़्यादा एक कमरा भर जाए, इतने आते हैं।

और अगर मैं हिंदुस्तान में विज्ञापन दूँ, तो एक फ़ुटबॉल मैदान भी छोटा पड़ जाए, इतने इंजीनियर आते हैं।

यानी भारत के पास इतनी बड़ी मात्रा में प्रतिभा का भंडार है।

यह इसकी सबसे बड़ी ताकत है। और आर्टिफिशिल इंटेलिजेंस भी इंसानी इंटेलिजेंस के सहारे ही आगे बढ़ती है।

इंसानी इंटेलिजेंस के बिना आर्टिफिशिल इंटेलिजेंस का भविष्य नहीं हो सकता है। और वो इंसानी इंटेलिजेंस, भारत की युवा प्रतिभा में है।

और मैं समझता हूँ कि, यह अपने आप में बहुत बड़ी ताकत है। लेकिन, अगर आप देखें, तो कई टॉप टैक लीडर,

सबसे पहले, टैक टैलेंट, लेकिन अमेरिका में टैक लीडर भारतीय मूल के हैं। सुंदर पिचाई, सत्या नडेला, अरविंद श्रीनिवास,

आप उनमें से कुछ से मिले हैं, उनकी भारतीय पृष्ठभूमि की कौन सी बात,

जो उन्हें इतना सफल होने में सक्षम बनाती है? देखिए, भारत के संस्कार ही ऐसे हैं कि जन्मभूमि और कर्मभूमि,

दोनों का सम्मान करना चाहिए, उसमें कोई भेद नहीं होना चाहिए।

जितना जन्मभूमि के प्रति समर्पण भाव हो, उतना ही कर्मभूमि के प्रति समर्पण भाव होना चाहिए।

और आप जो अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकते हैं, वह देना चाहिए। और इन्हीं संस्कारों के कारण हर भारतीय

अपना सर्वश्रेष्ठ देने के लिए, वह जहाँ भी हो, कोशिश करता है।

वह बड़े पद पर हों तब ही ऐसा करेंगे, यह नहीं, छोटे पद पर भी। और दूसरा, वे कहीं गलत चीज़ में फँसते नहीं हैं।

ज्यादातर वह सही काम करता है और दूसरा उनका स्वभाव है कि हर एक के साथ घुल-मिल जाते हैं।

अंततः सफलता के लिए आपके पास केवल ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है।

आपके पास टीम वर्क करने की ताकत होना बहुत बड़ी बात है।

हर एक व्यक्ति को समझ कर उनसे काम लेने की क्षमता बहुत बड़ी बात होती है।

ज़्यादातर, भारत में पले-बढ़े लोग, जो संयुक्त परिवार से निकले हुए लोग होते हैं,

खुले समाज में से निकले हुए लोग होते हैं, उनके लिए इस प्रकार के बड़े-बड़े कामों का नेतृत्व करना बहुत आसान होता है।

और सिर्फ़ ये बड़ी-बड़ी कंपनियाँ ही नहीं, दुनिया के कई देशों में अच्छे और महत्वपूर्ण पदों पर आज भारतीय काम कर रहे हैं।

भारतीय पेशेवरों की समस्या सुलझाने की जो कुशलता है, सोचने की जो समझ है,

और मैं समझता हूँ कि वह क्षमता इतनी बड़ी है, कि उनका व्यक्तित्व विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धी हो जाता है।

और बहुत ही फायदेमंद हो जाता है। और इसलिए मैं समझता हूँ, कि इनोवेशन, बिज़नेस, स्टार्टअप, बोर्ड रूम,

आप कहीं पर भी देखिए, आपको भारत के लोग असाधारण काम करते हुए मिलेंगे।

अब हमारे यहाँ अंतरिक्ष क्षेत्र देख लीजिए आप। पहले से अंतरिक्ष हमारा सरकार के पास था।

मैंने आकर के उसको 1-2 साल पहले सबके लिए खोल दिया। इतने कम समय में 200 स्टार्टअप अंतरिक्ष क्षेत्र में हैं।

और हमारी जो चंद्रयान वगैरह की जो यात्राएँ हैं, वह इतनी कम लागत में होती हैं।

अमेरिका की हॉलीवुड की फिल्म का जितना खर्चा होता है, उससे कम खर्चे में मेरी चंद्रयान यात्रा हो जाती है।

तो दुनिया देखती है, कि वह इतनी किफायती है, तो क्यों न हम उसके साथ जुड़ें।

तो उस प्रतिभा के प्रति आदर अपने आप पैदा हो जाता है। तो मैं समझता हूँ कि यह हमारे सांस्कृतिक नीति की एक पहचान है।

- तो आपने इंसानी इंटेलिजेंस के बारे में बात की। तो क्या आपको इसकी चिंता है कि एआई, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस,

हम इंसानों की जगह ले लेगी? - ऐसा है कि हर युग में...

...कुछ समय तक तकनीक और मानव के बीच, स्पर्धा का वातावरण बनाया गया।

या उनके बीच में संघर्ष का वातावरण बनाया गया।

मानव जाति को ही चुनौती देगा, ऐसा ही माहौल बनाया गया। लेकिन हर बार टेक्नोलॉजी भी बढ़ती गई

और मानव उससे एक कदम आगे ही बढ़ता गया, हर बार ऐसा हुआ। और मनुष्य ही है जो उत्तम तरीके से उस तकनीक का उपयोग करता है।

और मुझे लगता है कि एआई के कारण इंसान को

इंसान होने का मतलब सोचना पड़ रहा है, यह एआई ने अपनी ताकत दिखाई है।

क्योंकि जिस तरीके से वह काम कर रहा है, उसने इंसान को प्रश्न लगा दिया है।

लेकिन जो इंसान की कल्पना शक्ति है, एआई जैसी कई चीज़ें वह पैदा कर सकता है।

शायद इससे भी ज़्यादा कर देगा आने वाले दिनों में, और इसलिए मैं नहीं मानता हूँ कि

उस कल्पना शक्ति की कोई जगह ले पाएगा। - मैं आपसे सहमत हूँ, इससे मुझे और बहुत से लोगों को

यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि क्या चीज़ इंसान को खास बनाती है, क्योंकि ऐसा लगता है ऐसा बहुत कुछ है।

जैसे कि कल्पना, रचनात्मकता, चेतना, डरने की क्षमता, प्यार करने की, सपने देखने की क्षमता

सबसे अलग सोचने की क्षमता, सबसे अलग, उससे अलग, उससे अलग! जोखिम लेने की, ये सब चीजें।

- अब देखिए, देखभाल करने की जो स्वाभाविक क्षमता है,

मनुष्य एक दूसरे की जो चिंता करता है। अब कोई मुझे बताए कि एआई यह कर सकता है क्या?

- यह 21वीं सदी का एक बड़ा अनसुलझा प्रश्न है। हर साल आप "परीक्षा पर चर्चा" कार्यक्रम आयोजित करते हैं,

Education

जहाँ आप सीधे युवा छात्रों के साथ बातचीत करते हैं और उन्हें परीक्षा की तैयारी कैसे करें इस पर सलाह देते हैं।

मैंने उनमें से कई कार्यक्रम देखे, आप सलाह देते हैं कि परीक्षाओं में कैसे सफल हों, तनाव को कैसे संभालें, और बाकी चीज़ें भी।

क्या आप संक्षेप में बता सकते हैं कि भारत में छात्रों को अपनी शिक्षा यात्रा में कौन-कौन सी परीक्षाएँ देनी होती हैं,

और ये इतनी तनावपूर्ण क्यों हैं? - ज़्यादातर, आज समाज में एक विचित्र प्रकार की मानसिकता बन गई है।

स्कूलों में भी अपनी सफलता के लिए उनको लगता है कि हमारे कितने बच्चे किस रैंक में आए।

परिवार में भी ऐसा माहौल बन गया है कि मेरा बच्चा इस रैंक में आया तो मेरा परिवार शिक्षा-दीक्षा में समाज में अच्छी जगह पर है।

तो एक ऐसी सोच का परिणाम यह हो गया कि बच्चों पर दबाव बढ़ गया।

बच्चों को भी लगने लग गया कि जीवन में यह 10वीं और 12वीं की परीक्षा ही सब कुछ है।

तो हमने उसमें बदलाव लाने के लिए अपनी जो नई शिक्षा नीति है, उसमें हमने काफी कुछ बदलाव लाए हैं।

लेकिन वो चीज़ें जब तक ज़मीन पर उतरें, मेरा दूसरा काम यह भी रहता है कि

अगर उनके जीवन में कठिनाई है, तो मेरा भी कोई कर्तव्य बनता है, मैं उनसे बातें करूँ, उनको समझने का प्रयास करूँ।

तो एक प्रकार से मैं जब "परीक्षा पर चर्चा" करता हूँ, तो मुझे उन बच्चों से सीखने को मिलता है।

उनके माता-पिता की क्या मानसिकता है, वह समझने को मिलती है। शिक्षा क्षेत्र के जो लोग हैं, उनकी क्या मानसिकता है, वह समझने को मिलती है।

तो यह परीक्षा पे चर्चा उनका तो लाभ करती ही करती है, मेरा भी लाभ करती है।

और किसी खास क्षेत्र में खुद को टेस्ट करने के लिए परीक्षा ठीक है।

लेकिन यह पूरी क्षमता को आँकने का पैमाना नहीं बन सकता।

बहुत से लोग हैं शायद पढ़ाई में अच्छे अंक नहीं लाए लेकिन क्रिकेट में शतक लगाते हैं,

क्योंकि उनकी उसमें वह ताकत होती है। और जब सीखने पर ध्यान केंद्रित होता है, तो नंबर अक्सर खुद ही ठीक होने लग जाते हैं।

अब मुझे याद है जब मैं पढ़ता था, तो मेरे एक शिक्षक थे।

सीखने की उनकी तकनीक मुझे आज भी बहुत पसंद है। वह हम बच्चों से कहते थे,

एक को कहेंगे कि भाई तुम घर जाकर, घर से 10 चने के दाने ले आना।

दूसरों को कहेंगे तुम चावल के 15 दाने ले आना।

तीसरे को कहते थे कि मूंग के 21 दाने ले आना।

ऐसे अलग-अलग आँकड़े भी, अलग और किस्म भी अलग, तो वह बच्चा सोचता था, मुझे 10 लाने हैं,

फिर घर जाकर गिनता था, तो उसको 10 का अंक याद आ जाता था। फिर उसको पता चलता था कि इसको चना कहते हैं,

फिर स्कूल में जाते थे सब इकट्ठा कर देते थे, फिर बच्चों को कहते थे कि चलो भाई इसमें से

10 चने निकालो, 3 चना निकालो, 2 मूंग निकालो, 5 यह निकालो। तो गणित भी सीख लेते थे,

चने की पहचान हो जाती थी, मूंग किसको कहते हैं पहचान हो जाती, मैं बहुत बचपन की बात करता हूँ।

तो यह सीखने की तकनीक जो होती है, बिना बोझ के बच्चों को पढ़ाने का तरीका,

तो हमारी नई शिक्षा नीति में इसका एक प्रयास है। जब मैं स्कूल में था, तो मैंने देखा था कि मेरे एक शिक्षक की बड़ी ही रचनात्मक सोच थी।

वो उन्होंने आते ही पहले दिन कहा कि देखो भाई, यह डायरी मैं यहाँ रखता हूँ,

और सुबह जो जल्दी आएगा, वह डायरी में एक वाक्य लिखेगा, साथ में अपना नाम लिखेगा।

फिर जो भी दूसरा आएगा उसको उसके अनुरूप ही दूसरा वाक्य लिखना पड़ेगा।

तो मैं बहुत जल्दी स्कूल भाग कर जाता था, क्यों? ताकि पहला वाक्य मैं लिखूँ।

और मैंने लिखा कि आज सूर्योदय बहुत ही शानदार था, सूर्योदय ने मुझे बहुत ऊर्जा दी।

ऐसा कुछ मैंने वाक्य लिख दिया, अपना नाम लिख दिया, फिर मेरे पीछे जो भी आएँगे, उन्हें सूर्योदय पर ही कुछ न कुछ लिखना होता था।

कुछ दिनों के बाद मैंने देखा कि मेरी रचनात्मकता को इससे ज्यादा फायदा नहीं होगा।

क्यों? क्योंकि मैं एक सोच लेकर निकलता हूँ, और वह जाकर के मैं लिख देता हूँ।

तो फिर मैंने तय किया कि नहीं, मैं आखिरी में जाऊँगा। तो उससे क्या हुआ

कि औरों ने क्या लिखा है, वह मैं पढ़ता था, और फिर अपना बेस्ट देने की कोशिश करता था।

तो मेरी रचनात्मकता और बढ़ने लगी। तो कभी कुछ शिक्षक ऐसी छोटी-छोटी चीज़ें करते हैं,

जो आपके जीवन के लिए बहुत उपयोगी होती हैं। तो ये मेरे जो अनुभव हैं, और मैं खुद एक प्रकार से संगठन का काम करता रहा हूँ।

उसके कारण मानव संसाधन विकास मेरे काम का एक विशेष क्षेत्र रहा है।

तो मैं इन बच्चों के साथ मिलकर साल में एक-आध बार कार्यक्रम निकालता हूँ, अब वह करते-करते एक किताब भी बन गई है, जो

लाखों की तादाद में बच्चों के लिए मदद के तौर पर काम आती है। - क्या आप छात्रों को उनके करियर में

सफल होने से जुड़ी थोड़ी बहुत और सलाह दे सकते हैं, अपना करियर कैसे खोजें, सफलता कैसे प्राप्त करें,

ये भारत के, और साथ ही, दुनिया भर के उन सभी लोगों के लिए सलाह, जिन्हें आपके शब्दों से प्रेरणा मिलती हैं, उनके लिए कुछ कहेंगे?

- मुझे लगता है कि जो भी काम मिले, पूरी तरह समर्पण से अगर कोई करता है,

तो अवश्य ही आज नहीं तो कल वह उसमें माहिर भी हो जाएगा,

और उसकी क्षमता जो है, उसके लिए सफलता के द्वार खोल देती है।

और मनुष्य को काम करते-करते अपनी क्षमता बढ़ाने की तरफ ध्यान देना चाहिए।

अपनी सीखने की क्षमता को कभी भी कम नहीं आंकना चाहिए।

जब वह सीखने की क्षमता को लगातार महत्व देता है,

हर चीज़ में सीखने की ललक, कुछ लोग होंगे जो अपने अलावा अपने बगल वाले का काम भी देखेंगे,

तो उसकी क्षमता दोगुनी हो जाती है, तिगुनी हो जाती है। अगर मैं नौजवानों से कहूँगा कि भाई,

निराश होने की कोई ज़रूरत नहीं होती है, दुनिया में कोई न कोई काम,

आपके लिए परमात्मा ने लिखा हुआ ही है, आप चिंता मत करो।

आप अपनी क्षमता बढ़ाओ, ताकि आप योग्य बन पाओ।

मैंने तो सोचा था डॉक्टर बनूँ, अब डॉक्टर नहीं बना, मैं टीचर बन गया, मेरी ज़िन्दगी बेकार हो गई। ऐसे करके बैठोगे तो नहीं चलेगा, ठीक है डॉक्टर नहीं बने,

लेकिन अब तुम टीचर बनकर सौ डॉक्टर बना सकते हो। तुम तो एक डॉक्टर बनके तब के कुछ मरीज का भला करते, अब तुम टीचर होने के नाते

ऐसे छात्र तैयार करो उनके डॉक्टर बनने के सपने पूरे हों। और वह लाखों रोगियों की सेवा कर सकें।

तो उसको जीने का एक और नया दृष्टिकोण मिल जाता है, सोचता है, यार मैं डॉक्टर नहीं बन पाया और मैं रोकर बैठ जाऊँ,

मैं टीचर बन गया, उसका ही मुझे दुःख था, लेकिन मैं टीचर बनकर डॉक्टर भी बना सकता हूँ।

तो हम जीवन की बड़ी चीज़ों की ओर उसको अगर जोड़ देते हैं, तो उसको एक प्रेरणा मिलती है।

और मैं हमेशा मानता हूँ कि परमात्मा ने हर एक को सामर्थ्य दिया हुआ होता है।

अपने सामर्थ्य पर भरोसा कभी छोड़ना नहीं चाहिए। अपने सामर्थ्य पर भरोसा बनाए रखना चाहिए।

और विश्वास होना चाहिए, जब भी मौका मिलेगा मैं करके दिखाऊंगा, मैं करूँगा, मैं सफल होकर दिखाऊँगा।

वह आदमी कर के दिखाता है। - छात्र उस... ...तनाव से, संघर्ष से, उस रास्ते पर आने वाली कठिनाइयों से कैसे निपटें?

- उनको एक बार तो समझ होनी चाहिए कि परीक्षा ही जिंदगी नहीं है।

परिवार को पता चलना चाहिए कि अपने बच्चों को समाज के अंदर

एक प्रकार से दिखाने के लिए नहीं है मेरा बच्चा मॉडल कि देखिए इतने नंबर लाता है देखो मेरा बच्चा।

यह माँ-बाप को मॉडल के रूप में बच्चों का उपयोग करना बंद कर देना चाहिए। और दूसरा मुझे लगता है कि अपने आप को तैयार रखना चाहिए,

तब जाकर के परीक्षा के लिए बिना तनाव के वह परीक्षा दे सकता है,

उसको विश्वास होना चाहिए और उसको पूरी जानकारी होनी चाहिए। और कभी-कभी तो मैं कहता हूँ भाई तुम कभी-कभी क्या होता है,

पेपर ले लिया, यह लिया, और कभी पेन थोड़ी चलती नहीं, तो एकदम निराश हो जाता है।

फिर कभी उसको लगता है कि यार यह बगल में यह बैठा है तो मुझे मज़ा नहीं आएगा। बेंच हिलती है, उसी में उसका दिमाग लगा रहता है, अपने पर विश्वास ही नहीं है।

जो अपने पर विश्वास नहीं रखता, वह नई-नई चीजें ढूँढता रहता है। लेकिन अगर अपने पर विश्वास है, और पूरी मेहनत की है, तो एक-दो मिनट लगता है,

आप आराम से ज़रा गहरी सांस लीजिए, आराम से ज़रा ध्यान केंद्रित कीजिए।

धीरे से पढ़िए और फिर समय को सही से बांट दीजिए, कि मेरे पास इतना समय है, मैं एक सवाल इतने मिनट में लिखूँगा।

मैं मानता हूँ, जिसने पेपर लिखने की प्रेक्टिस की हो, वह बच्चा बिना किसी परेशानी के इन चीज़ों को अच्छी तरह पार कर लेता है।

Learning and focus

- और आपने कहा कि हमेशा सीखने की कोशिश करनी चाहिए। आप कोई चीज़ कैसे सीखते हैं? कोई भी सबसे अच्छी तरीके से कैसे सीख सकता है, इसपर आप क्या सलाह देंगे,

सिर्फ़ जवानी में ही नहीं, बल्कि पूरी ज़िंदगी में? - मैं आपके साथ एक निजी उदाहरण साझा करता हूँ।

पहले मुझे पढ़ने का अवसर मिलता था। बाद में मैं इसे जारी नहीं रख सका।

लेकिन मुझे चीज़ों का पता है, और मैं पूरी तरह से वर्तमान में जीना पसंद करता हूँ।

जब भी मैं किसी से मिलता हूँ, मैं उस पल में पूरी तरह से मौजूद रहता हूँ। मैं पूरी बात ध्यान से सुनता हूँ।

मैं चीज़ों को जल्दी से सीखता हूँ। जब मैं आपके साथ हूँ, तो मैं पूरी तरह से उपस्थित हूँ, फिर मैं और कहीं नहीं हूँ।

कोई कॉल या मैसेज मुझे आपके साथ इस पल से अलग नहीं ले जा सकता। मैं पूरी तरह से उपस्थित हूँ, यहीं और अभी पर ध्यान केंद्रित कर रहा हूँ।

इसलिए मैं हमेशा मानता हूँ कि यह एक ऐसी आदत है जिसे हर किसी को अपनाना चाहिए। यह आपके दिमाग को तेज़ करेगा और आपकी सीखने की क्षमता में सुधार करेगा।

इसके अलावा, केवल ज्ञान ही रास्ता नहीं दिखा सकता। आपको खुदसे ही अभ्यास करते रहना चाहिए।

महान ड्राइवरों की जीवन कहानियाँ केवल पढ़कर आप ड्राइविंग में महारत हासिल नहीं कर सकते। आपको गाड़ी में बैठना पड़ता है और सड़क पर खुद उतरना होगा।

आपको जोखिम लेने की हिम्मत करनी होगी। अगर दुर्घटना या मौत का डर आपको पीछे रखता है

तो आप सड़क पर कभी महारत हासिल नहीं कर सकते। मेरा मानना है, जो वर्तमान में जीता है। उसके जीवन में एक मंत्र काम आता है।

जो समय हमने जी लिया, वह भूतकाल का हिस्सा बन चुका है।

इसलिए आपको इस पल को भूतकाल बनने से पहले, इसको जीना चाहिए। वरना तुम भविष्य के चक्कर में इस पल को भी भूतकाल बना दोगे।

इसमें आपका ही नुकसान है। ज्यादातर लोग भविष्य के बारे में इतना तनाव लेते हैं कि उनका वर्तमान चुपचाप फिसल जाता है।

इससे पहले कि उन्हें पता चले, वह पल पहले ही अतीत बन जाता है।

- हाँ, मैंने लोगों के साथ आपकी मुलाकातों के बारे में बहुत सी कहानियाँ सुनी हैं, और यह

आमतौर पर ध्यान भटकता है... अभी कोई ध्यान नहीं भटक रहा, इस पल में हम दोनों बात कर रहे हैं।

बस इस पल और बातचीत पर ध्यान केंद्रित है, और यह वास्तव में एक खूबसूरत चीज है।

और आपने आज पूरा ध्यान मुझ पर लगाया, मेरे लिए यह किसी उपहार से कम नहीं। आपका धन्यवाद!

अब आपसे थोड़ा मुश्किल और सबसे जुड़ा हुआ सवाल पूछता हूँ। क्या आप अपनी मृत्यु पर विचार करते हैं? क्या आपको मौत से डर लगता है?

- क्या मैं बदले में आपसे एक सवाल पूछ सकता हूँ? - पूछिए। - जन्म के बाद, आप मुझे एक चीज़ बताइए...

...जीवन और मृत्यु एक सिक्के के दो पहलू हैं, लेकिन दोनों में से कौन ज़्यादा निश्चित है?

- मृत्यु। - बिल्कुल सही। अब, जब यह बात हो गई,

हम निश्चित रूप से जानते हैं कि जो जन्म के साथ पक्की है, वह मृत्यु है।

जीवन तो पनपता है। जीवन और मृत्यु के नृत्य में केवल मृत्यु निश्चित है,

एक ऐसा सच जिससे आप बच नहीं सकते। तो, उस चीज़ से क्यों डरना जो निश्चित है?

इसलिए सारा समय जीवन पर लगाओ, दिमाग सारा मृत्यु पर मत लगाओ।

इसी तरह जीवन विकसित और समृद्ध होगा, क्योंकि यह अनिश्चित है।

फिर उसमें मेहनत करनी चाहिए, चीज़ों में सुधार करना चाहिए।

ताकि आप मृत्यु के दस्तक देने से पहले पूरी तरह और उद्देश्य के साथ जी सकें।

इसलिए आपको मृत्यु के डर को छोड़ देना चाहिए। आखिरकार मृत्यु तो आनी है, और यह कब आएगी इसकी चिंता करने से कोई फायदा नहीं है।

यह तभी आएगी जब इसे आना होगा। - भविष्य के बारे में आपको क्या उम्मीद है, सिर्फ भारत का ही नहीं,

बल्कि पूरी मानव सभ्यता का, हम सभी मनुष्यों का यहाँ पृथ्वी पर भविष्य?

- खैर, मैं स्वभाव से ही आशावादी हूँ। निराशावाद और नकारात्मकता बस मेरी मानसिक संरचना में रचे-बसे नहीं हैं।

इसलिए मेरा उस दिशा में दिमाग जाता नहीं है।

अगर हम मानव जाति के इतिहास पर एक पल के लिए विचार करें,

तो हम देखते हैं कि इंसानों ने अविश्वसनीय संकटों को पार किया है।

हम उन बड़े बदलावों को भी देखते हैं जिन्हें मानवता ने समय के साथ विकसित होने के लिए अपनाया है।

और यह स्थायी परिवर्तन जारी है। हर युग में मानव नई चीज़ों को स्वीकारता है, यह उसका स्वभाव है।

इसके अलावा, जबकि हमारी प्रगति में उतार-चढ़ाव का उचित हिस्सा रहा होगा,

एक व्यक्ति जो समय के कालचक्र से निकल जाता है,

वह सबसे तेज़ी से बिना बोझ के आगे बढ़ सकता है।

समय की दिव्य प्रकृति से मुक्त होने की यह क्षमता आवश्यक है।

स्वाभाविक रूप से, जिस समाज से मैं अधिक जुड़ा हुआ हूँ, उसकी मुझे गहरी समझ है।

मैं मानता हूँ कि कालचक्र वाली चीज़ों के छोड़कर नई चीज़ों को पकड़ने का वह काम करता है।

Mantra

- मैं अभी सोच रहा था कि क्या आप मुझे हिंदू प्रार्थना या ध्यान लगाना सिखा सकते हैं, थोड़े पल के लिए?

मैंने...कोशिश की ...मैं गायत्री मंत्र सीखने की कोशिश कर रहा हूँ।

और अपने उपवास में, मैं मंत्रों का जाप करने की कोशिश कर रहा था। शायद मैं जाप करने की कोशिश कर सकता हूँ, और आप...

आप मुझे इस मंत्र और बाकी मंत्रों के महत्व के बारे में बता सकते हैं और इनका आपके जीवन और आपकी आध्यात्मिकता पर क्या असर पड़ा।

मैं कोशिश करूँ? - हाँ, कीजिए। - ॐ भूर् भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं

भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्

मैंने कैसा बोला? - काफी अच्छा बोला है। ॐ भूर् भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं

भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् यह मंत्र वास्तव में सूर्य की पूजा से जुड़ा है।

यह मंत्र उस समय सूर्य की तेजस्वी शक्ति के गहरे महत्व को प्रकट करता है।

हिंदू दर्शन में हर मंत्र किसी न किसी रूप से विज्ञान से जुड़ा है।

और किसी न किसी तरह से, यह विज्ञान और प्रकृति के साथ जुड़ा हुआ है।

यह जीवन के विभिन्न पहलुओं में जुड़ा हुआ है। प्रतिदिन मंत्रों का जाप करने से गहरे और स्थायी लाभ मिलते हैं।

Meditation

- अपनी आध्यात्मिकता में, अपने शांत पलों में जब आप ईश्वर के साथ होते हैं,

तो आपका मन कहाँ जाता है, मंत्र इसमें कैसे मदद करता है, जब आप उपवास कर रहे होते हैं, जब आप बस अपने आप में अकेले होते हैं?

- ध्यान शब्द का इतना अधिक उपयोग किया गया है कि यह एक भारी शब्द बन गया है।

भारतीय भाषाओं में, हम आमतौर पर इसे "ध्यान" कहते हैं।

अगर मैं मेडिटेशन को ध्यान से जोड़ता हूँ, तो यह बोझिल लग सकता है।

"यह हमारी क्षमताओं से परे है। आखिर, हम कोई ज्ञानी तो हैं नहीं।"

फिर मैं उन्हें समझाता हूँ, इसका सीधा सा मतलब है खुद को व्याकुलता से मुक्त करना।

उदाहरण के लिए, जब आप कक्षा में भी होते हैं, तो आपका मन खेल के पीरियड पर होता है।

मैदान पर कब जाना होगा, इसका मतलब ध्यान यहाँ नहीं है। ध्यान यहाँ लगाओ, इसी को ध्यान लगाना कहते हैं।

मुझे हिमालय में रहने के समय की एक घटना याद आती है।

तो मुझे एक संत मिले। उन्होंने मुझे एक सरल, व्यावहारिक तकनीक सिखाई। यह कुछ भी आध्यात्मिक नहीं था।

हिमालय में झरने बहते हैं। उन्होंने सावधानीपूर्वक एक पत्ते की प्लेट का टुकड़ा,

मुँह ऊपर करके, उन धाराओं में से एक के प्रवाह में रख दिया। और उसके नीचे के बर्तन को पलट दिया, उसे उल्टा कर दिया।

तो उसमें से पानी टपककर गिरता था। उन्होंने कहा कि तुम कुछ मत करो, बस

इसी की आवाज़ सुनों, तुम्हें कोई और आवाज़ नहीं सुनाई देगी। पक्षियों और हवा की हल्की सरसराहट को अनदेखा करें।

वे पत्ते की प्लेट रखते थे, और मैं वहाँ घंटों ध्यान करता था।

मैंने महसूस किया कि मेरा मन धीरे-धीरे बर्तन पर गिरने वाली पानी की बूंदों की टपटप की आवाज़ में खो रहा है,

जैसे कोई धुन मुझे गहरे ध्यान में मार्गदर्शन कर रही हो। और ऐसा नहीं है कि मैं मंत्रों का जाप कर रहा था या भगवान का नाम ले रहा था।

मैं उसको नाद-ब्रह्म कह सकता हूँ। उस नाद-ब्रह्म से नाता जोड़ना, अब यह मुझे ध्यान लगाना सिखा गया।

यह अभ्यास धीरे-धीरे ध्यान में विकसित हुआ। कभी-कभी, आप पांच सितारा होटल में ठहरते हैं।

आपको एक शानदार, आलीशान कमरा मिलता है। सजावट भी बहुत अच्छी है। और आप भी मन से खुश हैं।

लेकिन बाथरूम में पानी टपक रहा है। वह हल्की आवाज एक महंगे कमरे को भी बेकार महसूस कराने के लिए काफी है।

कई बार, हमें जीवन की आंतरिक यात्रा में एकाग्रता के महत्व का एहसास होता है।

हम एकाग्रता से कितना बड़ा बदलाव हो सकता है, अलग हम... हमारे शास्त्रों से एक बहुत ही दिलचस्प अवधारणा है।

क्योंकि हमने जीवन और मृत्यु के बारे में बात की, इसलिए मैं एक मंत्र बोलूँगा।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।

यानी सारा जीवन एक पूर्ण चक्र का हिस्सा है।

और यह मंत्र उस पूर्णता को प्राप्त करने के मार्ग पर जोर देता है। और हिंदू कभी भी केवल व्यक्तिगत कल्याण पर जोर नहीं देते।

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। यानी हम सभी के कल्याण और समृद्धि की कामना करते हैं।

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःख भाग भवेत्।

अब इन मंत्रों में भी लोगों के सुख की बात है, लोगों के निरोगी होने की कामना है।

क्या आप जानते हैं कि यह मंत्र कैसे समाप्त होता है? ॐ शांतिः, शांतिः, शांतिः। हर हिंदू मंत्र ऐसे ही समाप्त होता है। "शांति, शांति, शांति।"

मेरा कहने का मतलब यह है कि भारत में जन्म लेने वाली रस्में

हज़ारों सालों की ऋषियों की साधना से निकली हुई है। लेकिन वे जीवन तत्व से जुड़े हुए हैं।

उनमें से प्रत्येक अपने आप में वैज्ञानिक है। - शांतिः, शांतिः, शांतिः।

इस सम्मान के लिए धन्यवाद, इस अविश्वसनीय बातचीत के लिए धन्यवाद। भारत में मेरा स्वागत करने के लिए धन्यवाद,

और अब मुझे कल भारतीय खाने के साथ अपना उपवास तोड़ने का इंतज़ार है।

बहुत-बहुत धन्यवाद, प्रधानमंत्री। मेरे लिए यह एक बड़ा सम्मान था। - आपसे बात करके मुझे बहुत अच्छा लगा।

दो दिन उपवास करने के बाद एकदम से खाने की बजाय, धीरे-धीरे खाना शुरू करें। पहले आप थोड़ा पतला या पानी वाला खाना खाइए, तो आपको फायदा मिलेगा।

मेरा मानना है कि मैंने भी पहली कई विषयों के बारे में बात की।

क्योंकि मैंने उन विचारों को लंबे समय से अपने भीतर छिपा रखा था।

लेकिन आज, आप उनमें से कुछ विचारों को निकालने में सफल हुए। मुझे उम्मीद है...

- धन्यवाद। - मुझे उम्मीद है कि आपके दर्शकों को यह पसंद आएगा। मुझे बहुत अच्छा लगा। मेरी तरफ से आपको बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

- धन्यवाद! - धन्यवाद! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ इस बातचीत को सुनने के लिए आपका धन्यवाद।

Lex visiting India

अब मैं कुछ सवालों के जवाब देना चाहता हूँ। और कुछ बातें ज़ाहिर करना चाहता हूँ, जो मेरे दिमाग में चल रही हैं।

अगर आप कुछ पूछना चाहें, या किसी भी वजह से मुझसे बात करना चाहें, तो lexfridman.com/contact पर जाएँ।

सबसे पहले, मैं प्रधानमंत्री के साथ जुड़ी टीम को बधाई देना चाहता हूँ। ज़बरदस्त टीम थी!

वो लोग बहुत अच्छे, अपने काम में माहिर, फटाफट काम करने वाले, बात करने में बेहतरीन थे।

कुल मिलाकर वो एक कमाल की टीम थी। और क्योंकि मैंने इंग्लिश में बात की

और प्रधानमंत्री मोदी जी ने हिंदी में, तो मुझे उस इंटरप्रेटर के बारे में कुछ ज़रूर कहना है,

जो हम दोनों की बातों की इंटरप्रेटिंग कर रही थीं। वो एकदम एक्सीलेंट थीं।

जितनी तारीफ़ करूँ कम है। इक्विपमेंट से लेकर ट्रांसलेशन की क्वालिटी तक,

उनका पूरा काम ही एकदम बेहतरीन था। और वैसे भी... दिल्ली और भारत में घूमने पर, मुझे कुछ बाकी दुनिया से काफी अलग चीज़ें देखने को मिलीं,

वहाँ ऐसा लग रहा था मानो, जैसे कोई दूसरी ही दुनिया में आ गया। कल्चर के नज़रिए से मैंने ऐसा पहले कभी महसूस नहीं किया था।

इंसानों के मिलने-जुलने का एक अलग ही नज़ारा, वहाँ, बड़े ज़बरदस्त और दिलचस्प लोग देखने को मिले।

ज़ाहिर है, भारत अलग-अलग तरह के कल्चर से मिलकर बना है, और दिल्ली तो बस उसकी एक झलक दिखाता है।

जैसे कि न्यूयॉर्क, टैक्सस, या आयोवा अकेले पूरे अमेरिका को नहीं दिखाते।

ये सब अमेरिका के अलग-अलग तरह के रंग हैं। अपनी इस ट्रिप में, मैं रिक्शा में ही हर जगह घूमा-फिरा और गया।

बस यूँ ही गलियों में घूमता फिरता रहा। लोगों से उनकी ज़िंदगी के बारे में बात करता था।

हाँ, दुनिया में बाकी जगहों की तरह, यहाँ भी आपको कुछ ऐसे लोग मिलेंगे , जो आपको कुछ न कुछ बेचना चाहते हैं।

जिन्होंने पहली बार में मुझे एक टूरिस्ट समझा, एक विदेशी मुसाफिर, जिसके पास खर्च करने के लिए थोड़े पैसे होंगे।

लेकिन हमेशा की तरह, मैंने ऐसी हल्की बातों से परहेज़ किया। मैं इन बातों को छोड़कर, सीधे दिल से दिल की बातें करने लगा

जैसे कि उन्हें क्या पसंद है। किससे डर लगता है। और ज़िंदगी में उन्होंने क्या-क्या मुश्किलें और खुशियाँ देखी हैं।

लोगों के बारे में सबसे अच्छी बात यही है, आप कहीं भी हों, पर वो, बहुत जल्दी आपको पहचान जाते हैं,

उस दिखावे से परे जो अजनबी एक-दूसरे के साथ करते हैं, अगर आप इतने खुले और सच्चे हों कि उन्हें अपनी असलियत दिखा सकें।

और मैं यही करने की कोशिश करता हूँ। और मैं ये कहना चाहूँगा कि ज़्यादातर,

हर कोई बहुत दयालु था, सबमें बहुत इंसानियत थी। भले ही वो इंग्लिश न बोल पाते हों,

फिर भी समझना हमेशा आसान रहा। शायद मैं आजतक जिन लोगों से मिला हूँ, उनसे कई ज़्यादा आसान।

भारत में, लोगों की आँखें, चेहरे, बॉडी लैंग्वेज, सब बहुत कुछ बता देती थी।

सब साफ दिखता है, भावनाएं भी खुलकर दिखती हैं। जैसे कि जब मैं ईस्टर्न यूरोप में घूमता हूँ,

उसके मुकाबले किसी को समझना यहाँ कहीं ज़्यादा आसान है।। वो जो मीम आप देखते हैं, उसमें थोड़ी सच्चाई तो है।

आमतौर पर इंसान अपने दिल की बात को दुनिया तक खुलकर नहीं आने देता है।

लेकिन, भारत में हर कोई खुलकर सामने आता है। तो कई हफ़्ते दिल्ली में घूमते हुए, लोगों से मिलते हुए,

बहुत सारी कमाल की बातें हुईं, और मिलना-जुलना भी हुआ। आम तौर पर, जब बात लोगों को पढ़ने की आती है,

तो मुझे लगता है कि आँखें अक्सर शब्दों से ज़्यादा बोल सकती हैं। हम इंसान बड़े ही दिलचस्प होते हैं।

सच में, ऊपर से शांत दिखने वाली लहरों के नीचे एक गहरा, तूफानी समंदर छुपा होता है।

एक तरह से, मैं बातचीत में जो करने की कोशिश करता हूँ, चाहे ऑनकैमरा या ऑफकैमरा हो, उस गहराई तक पहुँचना।

खैर, भारत में जो कुछ हफ्ते मैंने बिताए, वो एक जादुई अनुभव था। यहाँ का ट्रैफिक ही अपने आप में कमाल था।

जैसे किसी सेल्फ़-ड्राइविंग कार्स के लिए दुनिया का सबसे मुश्किल टेस्ट हो। उससे मुझे नेचर डॉक्यूमेंट्री वीडियो देखने की याद आ गई,

मछलियों वाली वीडियो। जहाँ हज़ारों मछलियाँ एक साथ बेहद तेज़ रफ़्तार में तैर रही होती हैं,

ऐसा लगता है जैसे सब तितर-बितर हो गई हों। और फिर भी, जब आप इसे एक बड़े नज़रिए से देखते हैं,

तो लगता है जैसे ये सब एक ही लय और ताल में हों। मैं पक्का अपने दोस्त पॉल रोज़लि के साथ और शायद कुछ और दोस्तों के साथ भी,

पूरे भारत में... उत्तर से दक्षिण तक घूमने जाऊँगा... पूरे भारत में, उत्तर से दक्षिण तक घूमने जाऊंगा।

Siddhartha

अब मैं एक और बात कहना चाहता हूँ, उस किताब के बारे में जिसने पहली बार मुझे भारत की तरफ खींचा।

और इसके गहरे दार्शनिक और आध्यात्मिक विचारों की ओर भी। वो किताब है हरमन हैसे की "सिद्धार्थ"।

मैंने हैसे की ज़्यादातर मशहूर किताबें टीनएज में ही पढ़ ली थीं, लेकिन फिर सालों बाद उन्हें दोबारा पढ़ा।

सिद्धार्थ नाम की किताब मुझे... उस समय मिली जब मैं बिलकुल अलग तरह के साहित्य में डूबा हुआ था,

जैसे दॉस्तेयेस्की, कमू, काफ़्का, ऑरवैल, हैमिंग्वे, कैरोएक, स्टैनबैक, वगैरह।

कई ऐसी किताबें इंसान की वही उलझन दिखाती हैं, जो मुझे जवानी में अक्सर समझ नहीं आती थी।

और आज भी ये मुझे पहले से ज़्यादा हैरान करती है। पर "सिद्धार्थ" से ही मुझे समझ में आया,

पूर्व के नज़रिए से इन उलझनों को कैसे देखते हैं। इसे हरमन हैसे ने लिखा, और हाँ,

प्लीज़, मुझे उनका नाम ऐसे ही बोलने दीजियेगा। सुना है कुछ लोग हैस कहते हैं, पर मैंने तो हमेशा हैसे ही कहा है, हमेशा से।

तो हाँ, हरमन हैसे ने लिखा था, जर्मनी और स्विट्ज़रलैंड के नोबेल विजेता लेखक।

वो भी अपनी ज़िंदगी के सबसे मुश्किल दौर में। उनकी शादी टूट रही थी, पहले विश्व युद्ध ने उनके शांति के सपनों को तोड़ दिया।

और उन्हें बहुत तेज़ सिरदर्द, नींद न आने और डिप्रेशन की शिकायत थी। तभी उन्होंने कार्ल युंग से साइकोएनालिसिस शुरू किया,

जिससे वो पूर्व की फिलोसफ़ी को समझने की ओर मुड़े, अपने परेशान मन को शांत करने के लिए।

हैसे ने पुराने हिंदू ग्रंथों के अनुवाद खूब पढ़े, बौद्ध किताबें पढ़ी, उपनिषद को पढ़ा,

और भगवद गीता को भी। और "सिद्धार्थ" को लिखना, खुद में,

उनके लिए एक सफर था, जो उस किताब के मेन कैरेक्टर जैसा ही था।

हैसे ने ये किताब 1919 में लिखना शुरू की, और तीन साल में पूरी की, और बीच में,

उन्हें एक बहुत बड़ी मानसिक समस्या का सामना करना पड़ा। ये किताब सिद्धार्थ की कहानी है, प्राचीन भारत के एक नौजवान की कहानी।

जो दौलत और आराम छोड़कर, सत्य की खोज में निकल जाता है। आप हर पन्ने पर उसके पर्सनल स्ट्रगल महसूस कर सकते हैं।

और सिद्धार्थ की बेचैनी, दुनियादारी से उनका उबना, सच को अपने आप जानने की उनकी इच्छा भी इसमें दिखती है।

फिर से बताना चाहूँगा, ये किताब सिर्फ़ हैसे के लिए फिलोसोफी की बात नहीं थी, बल्कि उनकी मानसिक परेशानी से बचने का रास्ता था।

वो दुःख से बाहर निकलने के लिए लिख रहे थे। और अपने अंदर के ज्ञान की ओर बढ़ रहे थे।

मैं यहाँ किताब पर बहुत ज़्यादा बात नहीं करूँगा। पर दो खास बातें ज़रूर बताना चाहूँगा, जो मैंने उससे सीखीं और आज तक याद हैं।

पहली बात किताब के उस सीन से है, जो मेरे लिए इस किताब के सबसे शानदार सीन्स में से है।

सिद्धार्थ नदी के किनारे बैठे ध्यान से सुन रहे हैं, और उस नदी में उन्हें जीवन की सारी आवाजें सुनाई देती हैं, समय की हर तरह की आवाजें।

बीता समय, वर्तमान और भविष्य, सब एक साथ बह रहे हैं।

उस सीन से मुझे ये अहसास हुआ और समझ आया कि आम इंसानों की तरह सोचें,

तो समय सीधी धारा की ही तरह बहता है, लेकिन, दूसरे मायने में देखें तो वक्त एक धोखा है.

सच्चाई तो ये है कि, सब कुछ एक साथ एक समय में ही मौजूद है। तो इसतरह हमारा जीवन पल दो पल का भी है. और साथ ही ये अनंत भी.

इन बातों को शब्दों में बताना मुश्किल है, मुझे लगता है, ये तो बस खुद के अहसास से समझ में आती हैं।

मुझे डेविड फ़ॉस्टर वॉलेस की वह मछली वाली कहानी याद आती है। वो मेरे एक और पसंदीदा राइटर हैं।

जो उन्होंने 20 साल पहले एक कॉन्वोकेशन स्पीच में बताई थी। कहानी ये है कि, दो जवान मछलियाँ पानी में तैर रही थीं।

तभी वो एक बूढ़ी मछली से मिलती हैं, जो दूसरी दिशा में जा रही थी। बूढ़ी मछली सिर हिलाकर कहती है,

"गुड मॉर्निंग बच्चों, पानी कैसा है?" जवान मछलियाँ आगे तैरती हैं,

और फिर एक-दूसरे से मुड़कर पूछती हैं, "ये पानी क्या होता है?"

जैसे समय आगे बढ रहा है, उसका धोखा... वो इस कहानी में पानी है।

हम इंसान इसमें पूरी तरह डूबे हुए हैं। पर ज्ञान मिलने का मतलब है, थोड़ा पीछे हटकर,

असलियत को एक गहरे नज़रिए से देख पाना, जहाँ सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है, पूरी तरह से।

ये सब वक़्त और दुनिया दोनों से परे है। इस नॉवेल से एक और ज़रूरी सबक,

जिसने मुझपर बहुत असर किया, जब मैं जवान था। वो ये है कि किसी को भी आँख बंद करके फॉलो नहीं करना चाहिए।

या सिर्फ़ किताबों से ही दुनिया के बारे में नहीं सीखना चाहिए। बल्कि अपना रास्ता खुद बनाना चाहिए।

और खुद को दुनिया में झोंक देना चाहिए, जहाँ ज़िंदगी के सबक सिर्फ़ तभी सीखे जा सकते हैं, जब उनका सीधा अनुभव लिया हो।

और हर एक्सपीरियंस, चाहे अच्छा हो या बुरा, ग़लतियाँ, दुख, और वो वक्त भी जो आपको लगता है आपने बर्बाद किया,

ये सब आपकी तरक्की का ज़रूरी हिस्सा हैं। इसी बात पर, हैसे ज्ञान और समझदारी में फर्क बताते हैं।

ज्ञान तो कोई भी सिखा सकता है। पर समझदारी तो बस तभी मिलती है, जब आप ज़िंदगी की उथल-पुथल का सामना करते हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो, समझदारी का रास्ता दुनियादारी को ठुकराने से नहीं,

बल्कि उसमें पूरी तरह डूब जाने से मिलता है। तो मैंने इस पूर्वी दर्शन के नज़रिए से, दुनिया को देखने की शुरुआत की।

पर हैसे की कई किताबों ने मुझपर असर डाला। मैं कहूँगा "डेमियन" तब पढ़ें, जब आप जवान हों,

"स्टैपनवॉल्फ" जब थोड़े बड़े हो जाएं, "सिद्धार्थ" किसी भी उम्र में, खासकर मुश्किल वक़्त में। और "द ग्लास बीड गेम"

अगर आप हैसे की सबसे महान रचना पढ़ना चाहें, जो हमें गहराई से यह बताती है कि इंसान का दिमाग,

और मानव सभ्यता, कैसे ज्ञान, समझ और सत्य की तलाश में लग सकते हैं।

पर "सिद्धार्थ" ही एक ऐसी किताब है, जिसे मैंने दो से ज़्यादा बार पढ़ा है। अपनी ज़िंदगी में, जब भी कोई मुश्किल आती है,

तो मुझे उस किताब का वो पल याद आता है, जब सिद्धार्थ से पूछा जाता है कि उनमें क्या खूबियाँ हैं,

उनका जवाब बस ये होता है, "मैं सोच सकता हूँ, मैं इंतज़ार कर सकता हूँ, और मैं उपवास रख सकता हूँ।"

चलिए, इसे थोड़ा समझाता हूँ। सच में, पहले हिस्से में, "मैं सोच सकता हूँ," की बात है। जैसा कि मारकस ऑरेलियस ने कहा, "आपकी ज़िंदगी की क्वालिटी,

आपके विचारों की क्वालिटी से तय होती है।" दूसरा हिस्सा है, "मैं इंतज़ार कर सकता हूँ,"

सब्र और इंतज़ार करना अक्सर, सच में, किसी प्रॉब्लम का सामना करने का सही तरीका होता है।

वक्त के साथ, समझ और गहराई भी आती है। तीसरा हिस्सा है, "मैं उपवास रख सकता हूँ,"

ज़रूरत पड़ने पर, कम में भी जीना और खुश रहना, आज़ाद होने की पहली शर्त है।

जहाँ मन, शरीर और समाज, सभी आपको बंधन में रखना चाहते हैं।

तो ठीक है, दोस्तों! बुरा लग रहा है, पर इस एपिसोड में हमारा साथ यहीं तक था।

हमेशा की तरह, आपका धन्यवाद, और सालों से सपोर्ट करने के लिए भी आपका बहुत धन्यवाद।

भगवद गीता के कुछ शब्दों के साथ, मैं आपसे विदा लेता हूँ।

"जो जीवन की एकता का अनुभव करता है, वो हर प्राणी में अपनी आत्मा को देखता है,

और सभी प्राणियों में अपनी आत्मा को, और वो सभी को बिना किसी भेदभाव से देखता है।"

सुनने के लिए शुक्रिया। अगली बार आपसे फिर मिलूँगा।

Hindi

 

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,