'आप यह क्यों सोचते हैं कि पूरी दुनिया को हिंदी ही बोलनी चाहिए?', कनिमोझी ने 5 सवालों के जवाब में समझा दिया पूरा विवाद

डीएमके सांसद कनिमोझी करुणानिधि ने एनईपी के तहत हिंदी थोपने के आरोपों का जवाब देते हुए कहा कि यह संघर्ष 1930 से चला आ रहा है। तमिलनाडु सरकार दो-भाषा नीति को स्वीकार कर चुकी है और तीन-भाषा नीति को लागू करने का विरोध कर रही है। उन्होंने एनईपी को जबरदस्ती थोपने को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक करार दिया।

Mar 14, 2025 - 04:28
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'आप यह क्यों सोचते हैं कि पूरी दुनिया को हिंदी ही बोलनी चाहिए?', कनिमोझी ने 5 सवालों के जवाब में समझा दिया पूरा विवाद
नई दिल्ली : राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) को लेकर केंद्र सरकार और तमिलनाडु की सरकार में ठनी हुई है। इस हफ्ते संसद में भी इस मुद्दे पर काफी बहस और तकरार दिखी। डीएमके क्यों एनईपी का विरोध कर रही है और क्यों डीएमके नेताओं का हिंदी को लेकर इतना विरोध है? इस मुद्दे पर एनबीटी की पूनम पाण्डे ने बात की डीएमके नेता और सांसद कनिमोझी करुणानिधि से। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश-सवाल 1 : केंद्र सरकार और बीजेपी का कहना है कि तमिलनाडु सरकार और डीएमके एनईपी का विरोध सिर्फ राजनीति के लिए कर रही है, क्या कहेंगी इस आरोप पर?जवाब : केंद्र सरकार को समझना होगा कि यह संघर्ष आज से शुरू नहीं हुआ है। यह 1930 के दशक में हिंदी थोपने के खिलाफ शुरू हुआ था। तो इसे राजनीति कैसे कहा जा सकता है? और यह आंदोलन एम. के. स्टालिन ने नहीं शुरू किया था। यह आंदोलन विभिन्न क्षेत्रों, विचारधाराओं और राजनीतिक पृष्ठभूमि के नेताओं ने शुरू किया जो बाद में जनआंदोलन बन गया। तमिलनाडु ने इस संघर्ष में अपने लोगों की जान गंवाई है। इसलिए किसी भी चीज को राजनीति या चुनावी राजनीति कहने से पहले उन्हें इसकी गंभीरता को समझना चाहिए। हम एनईपी का विरोध इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि यह बीजेपी की नीति है, बल्कि इसलिए कर रहे हैं क्योंकि तमिलनाडु ने दो-भाषा नीति को स्वीकार किया है। और अब अगर आप हमें तीन भाषाएं पढ़ने के लिए मजबूर कर रहे हैं तो हम इसे स्वीकार नहीं करेंगे। एनईपी कहता है कि तीन-भाषा नीति को स्वीकार करना होगा, लेकिन संसद में हमें इससे छूट दी गई थी। संसद के सदन में इस पर प्रस्ताव पारित किया गया, संशोधन किए गए और तमिलनाडु को इस नीति से छूट दी गई। अब आप इस फैसले से छेड़छाड़ करना चाहते हैं। तो असल में राजनीति कौन कर रहा है? जब पहले से छूट दी गई थी तो अब इसे बदलने की कोशिश क्यों हो रही है? हम यह नहीं कह रहे कि हम पूरी एनईपी को नहीं मानते लेकिन कुछ बिंदुओं पर हमारी आपत्ति है। हम यह नहीं चाहते कि पाँचवीं कक्षा में परीक्षा हो। हम तीन-भाषा नीति को स्वीकार नहीं कर सकते। हम स्कूलों को केवल इसलिए बंद नहीं कर सकते क्योंकि वहां पर्याप्त छात्र नहीं हैं। तमिलनाडु में कई ऐसे स्कूल हैं खासतौर पर आदिवासी और पहाड़ी इलाकों में, जहां बच्चों के लिए स्कूल तक पहुँचना आसान नहीं होता। हम ऐसे स्कूल भी चलाते हैं जहाँ सिर्फ तीन या दो छात्र होते हैं। यहाँ तक कि एक छात्र के लिए भी स्कूल बंद नहीं किया गया। हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण बच्चों का भविष्य है न कि स्कूलों को आपस में मिलाकर और खर्चों में कटौती करना।सवाल 2: आप कह रहे हैं कि तीन भाषा फॉर्मूला हिंदी थोपना है लेकिन एनईपी में कहा गया है कि कोई भी दो भारतीष भाषाएं पढ़ानी चाहिए, यह जरूरी नहीं कि वह हिंदी ही हो ?जवाब : आज हमारे पास एआई ऐप्स हैं जो किसी भी भाषा को तुरंत अनुवाद कर सकते हैं। तो फिर एक बच्चे पर इतना बोझ डालने की क्या जरूरत है, जो पहले से ही साइंस, मैथ्स, फिजिक्स और लगातार नई चीजें सीख रहा है। बच्चे को एक और भाषा सीखने का बोझ क्यों दिया जाए खासकर जब उसका उसमें कोई झुकाव न हो या उसे सीखने की जरूरत महसूस न हो? आप कहते हैं कि हम हिंदी नहीं बल्कि किसी भी भारतीय भाषा को पढ़ाने की बात कर रहे हैं। लेकिन अगर कोई छात्र केरल में यह कहे कि वह अंग्रेजी, मलयालम और भोजपुरी पढ़ना चाहता है तो क्या स्कूल उसके लिए भोजपुरी का शिक्षक उपलब्ध करा पाएगा? या फिर बंगाली का शिक्षक । अगर सिर्फ दो- चार छात्र ही इसे पढ़ना चाहते हों? यह व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है। आखिर में क्या होगा, स्कूल केवल उन्हीं भाषाओं को उपलब्ध कराएंगे, जिनके लिए टीचर पहले से मौजूद हैं और हिंदी टीचर की पहले से ही एक स्थापित व्यवस्था है तो हर राज्य को मजबूरन हिंदी को ही अपनाना पड़ेगा। हम देख रहे हैं कि हिंदी भाषी राज्यों में छात्र एक ही भाषा पर निर्भर हो रहे हैं वे द्विभाषी भी नहीं बन पा रहे हैं। हम नहीं चाहते कि हमारे छात्रों के साथ भी ऐसा हो। रिसर्च में साफ है कि कई भाषाएँ हिंदी थोपे जाने के कारण विलुप्त हो रही हैं। राजस्थान में कितने लोग हिंदी बोलते हैं और कितने अपनी मातृभाषा? मैथिली का क्या हाल हुआ? तो फिर हम अपनी मातृभाषा के साथ ऐसा क्यों होने दें, जो कि एक क्लासिकल भाषा है और जिस पर हमें गर्व है।सवाल 3 : केंद्र सरकार ने कहा है कि फंड तभी दिया जाएगा जब एनईपी लागू की जाएगी। आप इस पर कैसे आगे बढ़ेंगे?जवाब : शिक्षा समवर्ती सूची (Concurrent List) में आती है, यह कोई ऐसा विषय नहीं है जो केंद्र सूची (Union List) में हो। इसलिए केंद्र सरकार को इसे किसी पर थोपने का कोई अधिकार नहीं है। आप यह नहीं कह सकते कि हमें एनईपी को अनिवार्य रूप से लागू करना ही होगा। आप केवल हमारे साथ चर्चा कर सकते हैं। इसे हम पर जबरन थोपा नहीं जा सकता। यह असंवैधानिक है, और बजटीय आवंटन को रोकना पूरी तरह अलोकतांत्रिक और संघीय ढांचे के खिलाफ है। सवाल 4 : अगले साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इस मुद्दे का चुनाव पर कितना असर होगा?जवाब : मैं इसे चुनावी मुद्दे के रूप में नहीं देखती, यह एक भावनात्मक मुद्दा है। यह 1930 के दशक से तमिलनाडु में जीवित रहा है और आज भी लोग इस पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं। इसलिए यह किसी भी चुनावी गणित से परे है। तमिलनाडु में सिर्फ बीजेपी ही तीन-भाषा नीति के पक्ष में है लेकिन उसका यहां राजनीतिक प्रभाव बहुत कम है। हर राजनीतिक दल, यहां तक कि विपक्षी एआईएडीएमके भी दो-भाषा नीति का समर्थन करता है और तीन-भाषा नीति का विरोध करता है। अगर यह हमारे लिए कोई राजनीतिक लाभ का मुद्दा होता तो हमारा प्रमुख विपक्षी दल इससे अलग रुख अपनाता। लेकिन हम दोनों एक ही स्थिति में हैं। तो इसे हम राजनीतिक मुद्दा कैसे कह सकते हैं? बीजेपी का तमिलनाडु में कोई खास प्रभाव नहीं है। अगर हम बीजेपी से इस मुद्दे पर लड़ भी रहे हैं तो यह हमारे लिए कोई चुनावी जीत कैसे हो सकती है। सवाल 5 : क्या तमिलनाडु के लोग वास्तव में हिंदी नहीं सीखना चाहते? हिंदी का इतना विरोध क्यों ?जवाब : आप बताइए कोई हिंदी क्यों सीखे? मुझे एक ठोस कारण दीजिए कि हर किसी को हिंदी क्यों सीखनी चाहिए? आप मुझसे यह क्यों नहीं पूछते कि मैं बंगाली क्यों नहीं सीखती? भोजपुरी क्यों नहीं सीखती? उत्तर प्रदेश में लोग मलयालम या तमिल क्यों नहीं सीखते? कर्नाटक में लोग कन्नड़ के अलावा दूसरी भाषाएं क्यों नहीं सीखते? आप यह क्यों सोचते हैं कि पूरी दुनिया को हिंदी ही बोलनी चाहिए? अगर मुझे किसी राज्य में रहने की जरूरत होगी, जहां तमिल या अंग्रेजी नहीं बोली जाती, तो मैं वहां की भाषा सीख लूंगी। जो आईएएस अधिकारी तमिलनाडु कैडर में आते हैं या जो तमिलनाडु से किसी और राज्य में जाते हैं, वे उस राज्य की भाषा सीखते हैं—बोलना, पढ़ना, लिखना, सब कुछ। और यह उन्होंने स्कूल में नहीं सीखा होता। कितने ही लोग जर्मनी पढ़ने जाते हैं और जर्मन भाषा सीखते हैं, क्योंकि वहाँ की ज़रूरत है। जब ज़रूरत होगी तो लोग खुद सीखेंगे। फिर किसी पर जबरदस्ती क्यों की जाए? यह हर किसी के लिए आसान नहीं होता। अगर कोई प्रिविलेज बैकग्राउंड से आता है तो वह ट्यूशन ले सकता है, उसके पास दस लोग मदद के लिए हो सकते हैं। लेकिन जिन लोगों ने अपने जीवन में कभी हिंदी सुनी ही नहीं, उनके लिए यह सीखना कठिन होगा। तो फिर बच्चों पर यह अतिरिक्त बोझ क्यों डाला जाए? उन्हें दो भाषाएं ठीक से सीखने दीजिए। अगर किसी छात्र की रुचि होगी तो वह दस भाषाएं भी सीख सकता है। लेकिन निर्णय छात्र का होना चाहिए, किसी और का नहीं।

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,