हमारी पहचान: स्वतंत्रता, स्वाभिमान, और हिन्दू विश्वास : डॉ. मोहन भागवत जी
पुस्तक विमोचन समारोह में हिन्दुस्तान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष पद्मश्री रमेश पतंगे, जाधवर ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूट पुणे के संस्थापक अध्यक्ष सुधाकर जाधवर तथा महानगर संघचालक राजेश लोया उपस्थित थे
हमारी पहचान: स्वतंत्रता, स्वाभिमान, और हिन्दू विश्वास :डॉ. मोहन भागवत जी
हमारी पहचान स्पष्ट रूप से जागृत होनी चाहिए – डॉ. मोहन भागवत जी नागपुर, 18 अप्रैल. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि हमारे देश में आत्म-विस्मृति के कारण हम कौन हैं, अपने कौन हैं, इसके बारे में कोई स्पष्टता नहीं है. बार-बार के आक्रमणों से उपजी गुलामी की मानसिकता हम पर दबाव डाल रही है. इसलिए हममें स्पष्ट सोचने और बोलने का आत्मविश्वास और साहस नहीं है. अत: स्वार्थ और भेदभाव व्याप्त हो गया है. इस पृष्ठभूमि पर हमारी पहचान स्पष्ट रूप से जागृत होनी चाहिए और हमें गर्व से कहना चाहिए कि हम हिन्दू हैं.
सरसंघचालक जी साप्ताहिक विवेक (मराठी) द्वारा प्रकाशित “हिन्दू राष्ट्र के जीवनोद्देश्य की क्रमबद्ध अभिव्यक्ति – राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” नामक पुस्तक के विमोचन समारोह में संबोधित कर रहे थे. नागपुर में हेडगेवार स्मारक समिति के महर्षि व्यास सभागार में आयोजित पुस्तक विमोचन समारोह में हिन्दुस्तान प्रकाशन संस्था के अध्यक्ष पद्मश्री रमेश पतंगे, जाधवर ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूट पुणे के संस्थापक अध्यक्ष सुधाकर जाधवर तथा महानगर संघचालक राजेश लोया उपस्थित थे. डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि साप्ताहिक विवेक की इस पुस्तक का आकार भले ही बड़ा हो गया है, किन्तु, संघ के विचार और विस्तार को चित्रित करने की दृष्टि से यह पुस्तक बहुत छोटी लगती है और पुस्तक की संकल्पना का आकलन करें तो ‘आरएसएस इज़ इवोल्यूशन ऑफ़ लाइफ़ मिशन ऑफ हिन्दू नेशन’… यह और भी छोटी लगती है. तथापि यह पुस्तक हम सभी के अध्ययन और मनन के लिए पर्याप्त है. इसमें न केवल संघ का विचार और विस्तार है. बल्कि उन लोगों के जीवन का भी वर्णन है,
पुस्तक विमोचन समारोह में हिन्दुस्तान प्रकाशन संस्था
जिन्हें देख कर संघ कैसा है, यह जाना जा सकता है. उन्होंने कहा कि देश-विदेश के विख्यात लोगों का मानना है कि आज देश में जो कुछ चल रहा है, उसमें संघ एक महत्त्वपूर्ण कारक है. हमें यह समझने की आवश्यकता है कि वे ऐसा क्यों अनुभव करते हैं. समाज में संघ के प्रति रुचि बढ़ी है, कई पत्र आते हैं, वे स्वयंसेवक बनना चाहते हैं. वे संघ की वेबसाइट पर भी जाते हैं. न केवल ऐसे लोगों के लिए, वरन संघ स्वयंसेवकों के लिए भी पुस्तक के विचार महत्त्वपूर्ण सिद्ध होंगे. संघ की स्थापना वर्ष 1925 में हुई थी और आज 2024 है. इन दोनों ही स्थितियों के बीच बहुत बड़ा अन्तर है. बिना किसी उपकरण के, विचारों को कोई स्वीकृति नहीं मिली थी, विरोधियों के विरोध को ताक पर रखते हुए, बिना साधन के संघ प्रारम्भ हुआ. वे कठिन दिन थे. खर्च निकालना मुश्किल हो गया था. सरसंघचालकों सहित सभी को अभाव में दिन गुजारने पड़े थे.
यद्यपि वर्तमान में सुविधा एवं साधन सम्पन्नता का समय है, परन्तु उस समय संघ की साधारण प्रशंसा सुनने को नहीं मिलती थी. सरसंघचालक जी ने कहा कि संघ ऐसी परिस्थितियों में विकसित हुआ. समझदार लोग परिस्थिति के उतार-चढ़ाव का खेल नहीं भूलते. उसी में से वे अपना रास्ता बनाते हैं. ऐसा करते समय वे सचेत रहते हैं. इन सभी परिस्थितियों के खेल में भी मानव जीवन अक्षुण्ण बना रहता है, उसकी धारणा का जतन करके, उसे आगे ले जाने वाला धर्म है, इसे नहीं भूलना चाहिए. पिछले हजार, डेढ़ हजार वर्षों में भारत में अनेक महापुरुष हुए हैं,
उन्होंने अनेक कार्य किए हैं. समर्पित, विरागी कार्यकर्ता हुए हैं. किन्तु अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली. एक आक्रमण को हमने नाकाम कर दिया, किन्तु हम दूसरे को नाकाम नहीं कर सके. कभी-कभार कोई न कोई आकर हमें गुलाम बना लेता था. हम अपने पराक्रमी स्वभाव के कारण स्वतंत्र हो जाते हैं. किन्तु हर बार हम वही गलतियाँ करते रहे. हर बार विश्वासघात होता, हर बार हमारे परस्पर मतभेद के परिणामस्वरूप विदेशियों को जीत मिलती. मूलतः यह एक तरह का रोग है. जब तक इसका निदान नहीं हो जाता, इस देश की अवनति नहीं रुकेगी.
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