कांग्रेस के लिए कठिन होती लडाई

हिमाचल में सत्तारूढ़ कांग्रेस के पास 40 विधायक थे, पर उनमें से छह ने भाजपा के राज्यसभा प्रत्याशी हर्ष महाजन के पक्ष में वोट दिया।

Mar 3, 2024 - 23:19
Mar 4, 2024 - 12:08
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कांग्रेस के लिए कठिन होती लडाई

कांग्रेस के लिए कठिन होती लडाई

हिमाचल का घटनाक्रम यही बता रहा है कि कांग्रेस की अपने नेताओं पर पकड़ नहीं और वह उनके असंतोष की परवाह भी नहीं करती

हि माचल प्रदेश में राज्यसभा के चुनाव में अभिषेक मनु सिंघवी को जिस तरह हार हुई, उससे कांग्रेस की अच्छी-खासी किरकिरी हुई। हिमाचल में सत्तारूढ़ कांग्रेस के पास 40 विधायक थे, पर उनमें से छह ने भाजपा के राज्यसभा प्रत्याशी हर्ष महाजन के पक्ष में वोट दिया। भाजपा ने संख्याबल न होते हुए भी कांग्रेस से अपने पाले में आए हर्ष महाजन को जिस तरह राज्यसभा प्रत्याशी बनाया, उससे यही लगा कि कुछ खेल हो सकता है, लेकिन शायद कांग्रेस ने इसकी परवाह नहीं की। उसे तो इसकी भनक तक नहीं लगी कि तीन निर्दलीय विधायकों के साथ उसके अपने छह विधायक भाजपा संग जा सकते हैं। इन विधायकों के पालाबदल के चलते अभिषेक मनु सिंघवी और हर्ष महाजन को 34-34 वोट मिले। इसके चलते लाटरी से फैसला हुआ, जिसमें सिंघवी पराजित हुए।

करीब डेढ़ साल पहले हिमाचल में सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में सरकार बनने के बाद से ही ऐसी खबरें आ रही थीं कि सरकार और पार्टी में सब कुछ ठीक नहीं। राज्यसभा चुनाव ने इस पर न केवल मुहर लगा दी, बल्कि सुक्खू सरकार की चूलें भी हिला दीं। छह विधायकों के पाला बदलने से सुक्खू सरकार अल्पमत में आ गई। विधानसभा में भाजपा के 15 विधायकों को निलंबित कर बजट पारित

कराने के स साथ बहुमत साबित कर सरकार

को बचा लिया गया। बाद में विधानसभा अध्यक्ष ने छह विधायकों को अयोग्य करार दिया, लेकिन इससे हिमाचल सरकार पर मंडरा रहा खतरा टला नहीं है। यदि कांग्रेस यह मान रही है कि सब कुछ सही हो गया तो यह उसकी भूल है। मंत्री पद से त्यागपत्र देने वाले विक्रमादित्य सिंह फिलहाल उसे स्वीकारने पर तो जोर नहीं दे रहे, लेकिन उसे वापस लेने को तैयार नहीं। वह पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के बेटे हैं। उनकी मां प्रतिभा सिंह कांग्रेस सांसद और हिमाचल कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। उन्होंने चुनाव बाद मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश की थी, लेकिन उसे ठुकराकर सुखविंदर सिंह सुक्खू को कमान सौंपी गई। उनके साथ मुकेश अग्निहोत्री को उप मुख्यमंत्री बनाया गया, लेकिन मंत्रियों का चयन करने में करीब एक माह लग गया।

इसके बाद माना गया कि सब कुछ ठीक है, लेकिन कांग्रेस में असंतोष की खबरें आती रहीं। किन्हीं कारणों से कांग्रेस नेतृत्व ने उनकी अनदेखी करना ही ठीक समझा। पता नहीं हिमाचल में आगे क्या होगा, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि छह विधायकों ने मौकापरस्ती का परिचय देकर कांग्रेस को धोखा दिया। अपने देश में जनप्रतिनिधियों का इस तरह पाला बदलना अब अचंभित नहीं विधायक या सांसद पार्टी से बगावत अनदेखी नहीं की जा चुनाव में हिमाचल में भी सपा के बदलने का काम कभी-कभी लिए भी जिम्मेदार महत्वाकांक्षा के रहने को तैयार है कि ऐसे विचारधारा को कोई यह अजीब नहीं जीते हिमाचल के को अचानक लगी? ऐसे नेता नहीं, मतदाताओं यदि किसी विधायक की विचारधारा उसे चाहिए कि वह लोकसभा की सदस्यता त्यागे, फिर अपनी पसंद के दल में शामिल हो।

करता। कई बार किसी स्वार्थवश अपनी कर बैठते हैं। इसकी सकती कि राज्यसभा की तरह उत्तर प्रदेश सात विधायकों ने पाला किया। ऐसे जनप्रतिनिधि राजनीतिक अस्थिरता के होते हैं। वे अपनी आगे पार्टी अनुशासन में नहीं होते। यह भी साफ जनप्रतिनिधि अपने दल की महत्व नहीं देते। क्या कि कांग्रेस से चुनाव छह कांग्रेस विधायकों भाजपा की विचारधारा भाने केवल अपने दल को ही को भी धोखा देते हैं। , सांसद को दूसरे दल अच्छी लगने लगी है तो पहले विधानसभा या

वैसे तो देश में दलबदल विरोधी कानून है, लेकिन वह विधान परिषद या राज्यसभा चुनाव में दूसरे दल को मत देने वालों पर लागू नहीं होता। इसी कारण हिमाचल के छह कांग्रेस विधायक स्पीकर के फैसले को हाई कोर्ट में चुनौती देने जा रहे हैं। पता नहीं उनकी सदस्यता बची रहेगी या नहीं, लेकिन ऐसे जनप्रतिनिधियों को नियंत्रित करना आवश्यक है। ऐसा कोई नियम- कानून बनना चाहिए, जो विधान परिषद या राज्यसभा चुनाव में दूसरे दल को मत देने वाले जनप्रतिनिधियों की सदस्यता स्वतः खारिज कर सके। कहना कठिन है कि राजनीतिक दल ऐसा कोई कानून बनाने के लिए तैयार होते हैं या नहीं, लेकिन हिमाचल के घटनाक्रम से कांग्रेस को चेत जाना चाहिए।

हिमाचल का घटनाक्रम यही बता रहा कि कांग्रेस की अपने नेताओं पर पकड़ नहीं और वह उनके असंतोष की परवाह भी नहीं करती। इन दिनों एक के बाद एक कांग्रेस नेता पार्टी छोड़ रहे हैं। कांग्रेस काडर पार्टी की विचारधारा या राजनीतिक विमर्श पर भरोसा नहीं कर पा रहा

तब मोदी के सामने राहुल गांधी का नेतृत्व कमजोर दिख रहा है। इससे भी कांग्रेस नेताओं को अपना राजनीतिक भविष्य उज्ज्वल नहीं दिख रहा। कई कांग्रेस नेता बेहतर भविष्य की आस में भाजपा में जा रहे हैं। जब कांग्रेस या अन्य दल के नेता भाजपा में जाते हैं तो यह जुमला उछाला जाता है कि ईडी और सीबीआइ के दबाव के चलते ऐसा हो रहा है। इस जुमले से बात बनने वाली नहीं, क्योंकि कई ऐसे नेता भी भाजपा में गए हैं, जिनके खिलाफ इंडी या सीबीआइ की कोई जांच नहीं। है। जब आम चुनावों की घोषणा होने ही वाली कांग्रेस को अपने अंदर झांकना चाहिए कि वह कोई ऐसा विमर्श क्यों नहीं खड़ा कर पा रही, जिससे उसका काडर उत्साहित बना रहे।

आज भाजपा यह नारा दे रही है कि अबकी बार राजग 400 पार। कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी दलों के पास इस नारे का कोई ठोस जवाब नहीं। आम चुनाव का परिदृश्य का इतना एकतरफा दिखना लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं, लेकिन इस स्थिति के लिए भाजपा को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए कांग्रेस भी जिम्मेदार है, जो अपने गठबंधन आइएनडीआइए को सशक्त नहीं कर सकी। उसने अभी तक घटक दलों के साथ सीटों का जो बंटवारा किया है, वह बहुत उत्साहित नहीं करता। वह कुछ ही राज्यों में भाजपा का मुकाबला करती दिख रही है। इसके चलते जनता को यही संदेश जा रहा है कि कांग्रेस भाजपा का मजबूत विकल्प नहीं। यह संदेश उन मतदाताओं को भाजपा संग जाने को प्रेरित कर सकता है, जो अपना वोट जाया न होने देने की मानसिकता रखते हैं। यदि ऐसा हुआ तो कांग्रेस के लिए भाजपा का मुकाबला करना और कठिन हो जाएगा।

संजय गुप्त 

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