भारत के लोकतंत्र के महोत्सव जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए

भारत का आयुष्मान भारत कार्यक्रम दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में से एक है।

Mar 21, 2024 - 22:02
Mar 21, 2024 - 22:19
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भारत के लोकतंत्र के महोत्सव जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए

जिन मुद्दों पर बहस होनी चाहिए

लोकतंत्र के सबसे बड़े उत्सव का बिगुल बज चुका है। प्रचार-घोषणाओं के दौर में चुनावी अभियान अपने चरम की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन जिन मुद्दों और प्रतिस्पर्धी विचारों पर बहस होनी चाहिए, क्या राजनीतिक दल उन पर ध्यान देंगे? 

भारत के लोकतंत्र के महोत्सव का बिगुल बज चुका है और वाक्पटु प्रचार अभियान गूंजने लगे हैं। चुनाव अभियान तो एक तरह से पक्षपातपूर्ण व्याख्याएं होती हैं। लेकिन घोषणापत्र पवित्र वादों के साथ होते हैं। वहीं, इन सबसे अलग, जो मुद्दे बहस और प्रतिस्पर्धी विचारों की स्पर्धा के लायक होते हैं, वे अक्सर भावनात्मक मुद्दों से पीछे रह जाते हैं। 

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भारत विकासशील से विकसित अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है। यह पांचवीं सबसे बड़ी और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था है, जो इस दशक के अंत तक 100 खरब अमेरिकी डॉलर के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। अर्थव्यवस्था के राजनीतिक भूगोल में आय और समृद्धि का अंतर साफ दिखता है। याद रखना जरूरी है कि हर चीज को वृहद परिप्रेक्ष्य में देखने पर वे छोटे, पर महत्वपूर्ण मुद्दे धूमिल हो जाते हैं, जो विकसित भारत के आदर्श की दिशा में इस यात्रा की प्रगत्ति को बाधित कर सकते हैं

प्राथमिक शिक्षा: नई सहस्राब्दी की शुरुआत में जनसांख्यिकीविदों  और ब्रिक्स जनसांख्यिकीय लाभांश की संभावना की भविष्यवाणी की थी। लाभांश का लाभ मानव पूंजी में  निवेश पर निर्भर करता है। साथ ही यह इस पर भी निर्भर करेगा कि प्रौद्योगिकी से संचालित वैश्विक अर्थव्यवस्था में अवसरों का लाभ के लेने लिए युवा कितने सक्षम हैं? 

प्रथम फाउंडेशन ने हाल ही में 14 से 18 वर्ष के बच्चों के कौशल पर एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें पाया गया कि हर चार में से एक बच्चा दूसरी कक्षा के पाठ अपनी क्षेत्रीय भाषा में धाराप्रवाह नहीं पढ़ सका। वहीं, आधे बच्चों को तीन अंकों की संख्या को एक अंक से भाग देने में कठिनाई हो रही थी। सच तो यह है कि भारत की सरकारें छह दशकों से शिक्षा पर जीडीपी का छह फीसदी व्यय करने का वादा करती रही हैं, लेकिन किया नहीं। इसका समाधान तकनीक से, जैसे विभिन्न प्लेटफॉर्म और एआई (कृत्रिम बुद्धिमत्ता) की मदद से किया जा सकता है। पर क्या राजनीतिक दल इसका समाधान कर पाएंगे?

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जॉब, कौशल और एआई फैक्टर सरकार ने रोजगार सृजन को लेकर कई तरह से और कई स्रोतों से आंकड़े पेश किए हैं। फिर भी जनमत सर्वेक्षणों में बेरोजगारी के आंकड़े बड़ी चिंता का विषय बने हुए हैं। दरअसल जरूरत और उपलब्धता के बीच अंतर है, जिसका प्रमाण पिछले महीने ही मिला, जब 48 लाख से अधिक भारतीय युवा 60 हजार पदों की एक परीक्षा में शामिल हुए। दूसरी ओर, एआई को अपनाने से आईटी सेक्टर की नौकरियों पर भी संकट है।

एनवीडिया के हुआंग जेनसन का कहना है कि एआई पूरी तरह कोडिंग पर कब्जा कर लेगा। नैसकॉम के अध्यक्ष ने कहा कि वीपीओ कर्मियों को एआई से सबसे ज्यादा खतरा है। एक्सेंचर की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में काम के 44 फीसदी घंटे स्वचालित हो सकते हैं। क्या पार्टियों के पास जर्मनी और नीदरलैंड की तरह प्रभावी श्रम नीति है? हां, कांग्रेस ने जरूर स्नातक या डिप्लोमा धारकों की अप्रेंटिसशिप का विचार सामने रखा है। लेकिन क्या यह व्यवहारिक होगा? क्या चुनाव अभियान जॉब, कौशल और जेनरेटिव एआई पर बहस के गवाह बनेंगे?


प्राथमिक स्वास्थ्य : भारत का आयुष्मान भारत कार्यक्रम दुनिया के सबसे बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों में से एक है। इसके अंतर्गत 30 करोड़ से अधिक लोग नामांकित हैं। वहीं, 6.20 करोड़ लोग अस्पतालों में भर्ती होकर इस योजना के तहत इलाज करा चुके हैं। फिर भी भारत की प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली को लंबा रास्ता तय करना है। निश्चित रूप से इसने विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा निर्धारित 834 लोगों पर एक डॉक्टर की उपलब्धि को हासिल कर लिया है, पर अब भी 140 करोड़ लोगों पर 13.08 लाख एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध हैं। और, इनका झुकाव भी शहरी भारत की ओर है। कर्मियों और बुनियादी ढांचे की कमी लंबे समय से बनी हुई है। भारत के 5.90 लाख गांवों में 1.90 लाख उपकेंद्र, 31,000 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 6,064 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में 79.50 फीसदी तक विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी है। क्या राजनीतिक दलों के पास इसका समाधान है? कृषि : किसान अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र है।

कृषि निजी क्षेत्र का सबसे बड़ा नियोक्ता भी है। फिलहाल, एमएसपी और ऋण माफी राजनीतिक चर्चा के प्रमुख बिंदु बने हुए हैं। देखने में आता है कि कृषि अब भी लाइसेंस राज के अधीन है, पर्याप्त मूल्य नहीं मिलता। तथ्य यह है कि कृषि में लगा 45 फीसदी कार्यबल राष्ट्रीय आय के छठे हिस्से पर जीवन-यापन करने को मजबूर है। ग्रामीण भारत की प्रति व्यक्ति आय शहर की अपेक्षा आधे से भी कम है। क्या राजनीतिक दलों के पास किसानों की स्थिति सुधारने का कोई खाका है? शहरीकरण : निश्चित रूप से शहरीकरण आर्थिक वृद्धि का इंजन है। फिर भी यह भारतीय राजनीति में सौतेले बच्चे की तरह है।

वास्तव में भारत 3,700 कस्बों का घर है, जो न तो शहरी हैं और न ही ग्रामीण। यह हिस्सा ग्रामीण और शहरी अर्थव्यवस्था के चौराहे पर स्थित है, जो खेती से कार्यबल के स्थानांतरण की सुविधा प्रदान करता है। दूसरी ओर, चीन ने पिछले दो दशकों में शहरीकरण को 40 से बढ़ाकर 64 फीसदी कर दिया है। बढ़ती युवा आबादी और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों को देखते हुए भारत को अनियोजित से स्थायी शहरीकरण की ओर बढ़ना होगा। क्या शहरी मतदाताओं पर ध्यान दिया जाएगा? चीन 2005 में ही ब्रिटेन को पछाड़कर विश्व की चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया था। चीन की जीडीपी 22.4 खरब अमेरिकी डॉलर, प्रति व्यक्ति आय 1,750 डॉलर, साक्षरता दर 91 प्रतिशत और इसका 45 फीसदी कार्यबल कृषि में लगा हुआ था।

2024 में इसकी जीडीपी लगभग 180 खरब डॉलर और प्रति व्यक्ति आय 12,500 डॉलर होने का अनुमान है। चीन ने विनिर्माण का विस्तार करने के लिए वैश्विक अवसरों का लाभ उठाया। श्रम को खेतों से उत्पादक क्षेत्रों में स्थानांतरित किया और आक्रामक रूप से शहरीकरण किया। भारत को चीन से भी ज्यादा करने की जरूरत है, क्योंकि भारत व्यवधानों, जनसांख्यिकी, प्रौद्योगिकी, जलवायु परिवर्तन और अनिश्चितता की बढ़ती आशंकाओं का सामना कर रहा है। क्या राजनीतिक दलों के पास भारत को आर्थिक रूप से सक्षम बनाने की कोई योजना है?

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