महर्षि वाल्मीकि आदि कवि का प्रेरणादायक जीवन रामायण की जानकारी

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Oct 17, 2024 - 07:50
Oct 17, 2024 - 08:31
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महर्षि वाल्मीकि आदि कवि का प्रेरणादायक जीवन रामायण की जानकारी

महर्षि वाल्मीकि का प्रकृति चित्रण (रामायण के सन्दर्भ में)  महर्षि वाल्मीकि व उनका काव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ न केवल धार्मिक व सामाजिक तथा राजनैतिक  परिप्रेक्ष्यों का ही समावेश करता है। अपितु सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो जिस प्रकृति चित्रण का विश्लेषण महर्षि ने रामायण में किया है। वह अन्य किसी काव्य में दृष्टिगत नहीं होता है। यही कारण है कि रामायण को आधार मानकर या लौकिक साहित्य को आधार मानकर जितनी भी साहित्यिक रचनाएँ हुई ह ैं। वे सब अधिकतर रामायण व महाभारत को ही आधार मानकर की गयी हैं। क्योंकि  महर्षि ने सम्पूर्ण रामायण में प्रकृति का जो सजीव चित्रण किया है। वह ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे हमारे सामने बिल्कुल मानवीय रूप में उपस्ति हो।

महर्षि वाल्मीकि और रामायण भारतीय संस्कृति और साहित्य में अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। वाल्मीकि को आदि कवि कहा जाता है, क्योंकि उन्होंने पहली बार संस्कृत भाषा में महाकाव्य की रचना की, जिसे "रामायण" कहा जाता है। यह महाकाव्य न केवल भगवान राम के जीवन और उनके धर्म, न्याय, और कर्तव्य पालन की कथा है, बल्कि यह भारतीय सभ्यता के नैतिक और धार्मिक आदर्शों को भी प्रस्तुत करता है।

महर्षि वाल्मीकि भारतीय संस्कृति और धर्म में एक प्रमुख ऋषि माने जाते हैं, जिन्होंने संस्कृत महाकाव्य रामायण की रचना की। उनका जीवन प्रेरणादायक और महानतम संतों में से एक है। माना जाता है कि उनका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था, लेकिन प्रारंभिक जीवन में वे एक साधारण डाकू थे।

वाल्मीकि का असली नाम रत्नाकर था, और उनका मुख्य कार्य जंगलों में लोगों को लूटना था। एक दिन उनकी मुलाकात महर्षि नारद से हुई, जिनकी प्रेरणा से उनका हृदय परिवर्तन हुआ। नारद ने उन्हें 'राम' नाम का जाप करने की सलाह दी, जिससे रत्नाकर तपस्या में लीन हो गए। इस कठोर तपस्या के परिणामस्वरूप वे महान ऋषि वाल्मीकि बने।

वाल्मीकि को 'आदि कवि' कहा जाता है क्योंकि उन्होंने सबसे पहले महाकाव्य शैली में काव्य की रचना की। रामायण, जिसमें भगवान राम के जीवन का विस्तार से वर्णन है, उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति है। इस महाकाव्य ने भारतीय समाज और धर्म को गहराई से प्रभावित किया है। वाल्मीकि ने रामायण में न केवल राम के आदर्श चरित्र को उजागर किया, बल्कि मनुष्य के कर्तव्यों, धर्म और नैतिकता का भी वर्णन किया।

वाल्मीकि आश्रम, जहाँ सीता ने अपने वनवास के समय निवास किया था और लव-कुश का जन्म हुआ था, भारतीय संस्कृति में एक महत्वपूर्ण स्थल है। महर्षि वाल्मीकि का जीवन और उनकी शिक्षा सदाचार, सत्य और धर्म की महत्ता को प्रदर्शित करती है

वाल्मीकि का जीवन:

वाल्मीकि के प्रारंभिक जीवन के बारे में कई कथाएँ हैं। कहा जाता है कि उनका नाम पहले रत्नाकर था और वे एक डाकू थे। एक दिन, उन्होंने महर्षि नारद से मुलाकात की, जो उन्हें सही मार्ग दिखाने में सहायक रहे। नारद जी ने उन्हें भगवान राम का नाम जपने की सलाह दी, जिसके परिणामस्वरूप रत्नाकर तपस्वी बने और वाल्मीकि कहलाए। उनकी तपस्या और ध्यान की गहराई ने उन्हें महान ऋषि बना दिया।

रामायण की रचना:

रामायण की रचना के पीछे की प्रेरणा यह थी कि एक दिन वाल्मीकि ने एक क्रौंच पक्षी के जोड़े को देखा, जिसमें से एक को एक शिकारी ने मार डाला। इससे वाल्मीकि अत्यधिक दुखी हुए, और उनके मन में शोक की भावना उत्पन्न हुई। इसी भावना से उन्होंने संस्कृत में छंदों का सृजन किया, जो आगे चलकर रामायण के रूप में विकसित हुआ।

रामायण का महत्व:

  1. रामायण की संरचना: रामायण को सात कांडों में विभाजित किया गया है:

    • बालकांड
    • अयोध्याकांड
    • अरण्यकांड
    • किष्किंधाकांड
    • सुंदरकांड
    • लंकाकांड (युद्धकांड)
    • उत्तरकांड
  2. प्रमुख पात्र:

    • भगवान राम: मर्यादा पुरुषोत्तम राम का जीवन धर्म, सत्य, और न्याय के मार्ग पर चलने का सर्वोत्तम उदाहरण है।
    • सीता: माता सीता, जो त्याग, धैर्य, और नारी के सम्मान का प्रतीक हैं।
    • हनुमान: भगवान राम के प्रति भक्ति का प्रतीक।
    • लक्ष्मण: भाई के प्रति प्रेम और सेवा का आदर्श।
    • रावण: अहंकार और अधर्म के विनाश का प्रतीक।
  3. रामायण के मुख्य संदेश:

    • धर्म और सत्य के मार्ग पर चलना।
    • परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों का निर्वहन।
    • बुराई पर अच्छाई की जीत।
    • नारी के सम्मान और उसके अधिकारों का महत्व।

रामायण का सांस्कृतिक प्रभाव:

रामायण सिर्फ धार्मिक ग्रंथ नहीं है, बल्कि यह नैतिकता, समाज और जीवन जीने के आदर्शों को भी स्थापित करता है। यह महाकाव्य भारत के अलावा अन्य एशियाई देशों जैसे इंडोनेशिया, थाईलैंड, म्यांमार, और नेपाल में भी अत्यधिक आदर के साथ पढ़ा और माना जाता है।  वाल्मीकि और रामायण की शिक्षाएँ आज भी भारतीय समाज में प्रासंगिक हैं और धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।


प्रकृति का जो वर्णन रामायण में मिलता है। वह कहीं शृ ंगारिक भावनाओं को ओत-प्रोत करती है तो  कहीं विभिन्न प्रकार की उपमाओ ं से दृष्टिगत होती है। और यह सब तभी सम्भव हो सकता है जब खुद लेखक या कवि ने, ऐसा अनुभव किया हो। प्राचीन काल से यह प्रकृति रही है कि ऋषि या सन्ता ें का रहन/सहन प्रकृति की गोद में खुले आवरण में, नदी के सामित्य व घने जंगलों में स्थापित आश्रमों में होता था, तो भला कैसे न वह प्रकृति का विश्लेषण करते। महर्षि वाल्मीकि भी जब सरयु नदी के तट पर स्नान करने जाते हैं और (निषाद वध) का दृश्य देखते हैं। और फिर वही सम्पूर्ण घटना रामायण का आधार बनकर लौकिक साहित्य का सर्जन करवाती है और रामायण जैसा महाकाव्य विश्व भर को पढ़ने को मिलता है। वास्तविक रूप से रामायण न भारतीय समाज व जीवन का ही धार्मिक ग्रन्थ नहीं है। बल्कि विश्व भर में इसे स्थान मिलता है। यही कारण है कि अपनी इसी विशिष्टता के कारण ही रामायण का विश्व की अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। महर्षि की दृष्टि का यह प्रमाण है कि निर्जीव पर्वतों का जो सजीव वर्णन विशिष्ट उपमाओं से उन्होंने किया है तथा सजीव वृक्षो ं व लताओं का मानवीय रूप में वर्णन जो किया है ऐसा प्रतीत होता है कि ये वृक्ष पर्वत व लता न होकर मानवीय दर्शन है, यह एक कवि के कवित्व का ही परिचय है।


इसी विशिष्टता के साथ-साथ महर्षि ने रामायण में मैनाक पर्वत की उपमा देते हुई लिखा है कि- जातरूपमयैः शृ¯भ्र्राजमानैर्महाप्रभैः आदित्यषतसंकाषः सोऽभवद् गिरिसत्तमः।। 1 अर्थात् उन परम कन्तिमान और तेजस्वी सुवर्णमय शिखरों से वह गिरीश्रेष्ठ मैनाक पर्वत सैकड़ों सूर्यों के समान देदीप्यमान हो रहा था। और अपनी इस उपमामयी दृष्टि से उन्होंने अरिष्ठ पर्वत का भी विभिन्न नवीन शृंगारिक पदों से जो वर्णन किया है वह ऐसा प्रतीत होता है कि वास्तविक रूप से ये सब दृष्टिगत दृश्य ही रहा हो जैसे - बोध्यमानमिव प्रीत्या दिवाकरकरैः

षुभैः। उन्मिषन्तमिवोद्धूतैर्लोचनैरिव धातुभिः।।

तोयौधनिः स्वनैर्मन्दूैः प्राधीतमिव पर्वतम् प्रगीतमिव विस्पष्टं नाना प्रस्त्रवणस्वनैः।।

2 अर्थात् उस अरिष्ट पर्वत का वर्णन करते हुए कहते हैं कि सूर्य की कल्याणकारी किरणे प्रेमपूर्वक उसे जगमगाती सी जान पड़ती थी। नाना प्रकार की धातु मानों उसके खुले हुए नेत्र थे। जिसस े वह सब 
कुछ देखता हुआ सा स्थिर था पर्वतीय नदियों की जलराशि के गम्भीर घोष से ऐसा लगता था माना  वह पर्वत सस्वर वेद पाठ कर रहा हो तथा अनेकानेक के कल-कल नाद से वह अरिष्ट पर्वत गीत सा गा रहा था। ऊँचे-ऊचे देवदार वृक्षो ं के कारण मानों हाथ ऊपर उठाये खड़ा था। 

अतः साधारण शब्दों के कहा जाये तो महर्षि की लेखनी का हीचमत्कार है कि प्रकृति जो स्वयं में ही परिपूर्ण है। उसको भी माननीय आकार का श्रेय दिया है। और भी पर्वतों जैसे- कैलास, पर्वत, हिमालय पर्वत, मलय पर्वत, ऋषभ पर्वत, उदय पर्वत आदि का वर्णन भी महर्षि ने विभिन्न प्रकार की उपमाओ ं के आधार पर किया है। ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी स्थल दृश्यजन्य हो। वही महर्षिकृत इस रामायण में नदियों, पठारों और तालाबों का वर्णन भी किया गया है। नदियों की सुन्दरता र्निमलता व शुद्धता का वर्णन करने के साथ ही साथ वे उन्हें मानवीय स्वरूप से परिचय करवाते हैं, जिससे महर्षि की काव्यता व विद्धता का परिचय मिलता है एक जगह पर महर्षि तमसा नदी का वर्णन करते हुए


कहा है कि- अकर्दममिंद तीर्थ भरद्वाज निषामय। रमणीयं प्रसन्नाम्बु सन्मनुष्यमनो यथा।। 3 


अर्थात् महर्षि अपने शिष्य भारद्वाज से इस प्रकार कहते हैं कि भारद्वाज! देखो यहाँ का घाट बड़ा सुन्दर है। इसमें कीचड़ का नाम नहीं है। यहाँ का जल वैसा ही स्वच्छ है जैसा सत्पुरुषों का मन होता है।
साथ ही उन्होंने सम्पूर्ण महाकाव्य में गंगा, यमुना, सरयु, गोमती, तुंगभद्रा आदि नदियों का भी विशिष्ट वर्णन किया है। तथा उनकी सुन्दरता के साथ-साथ इनकी विशिष्टता व सौम्यता का भी वर्णन किया है। सरयू नदी का वर्णन करते हुए कहते हैं कि ये जो नदी है यथा- कैलासपर्वते राम मनसा निर्मित परम्। ब्रह्मणा नरषार्दूल तेनेदं मानसं सरः। तस्मात् सुस्त्राप सरसः सायोध्याभुपगूहते। सरः प्रवृत्ता सरयूः पुण्या ब्रह्मसरष्च्युताः।। 4 अर्थात् विश्वामित्र राम लक्ष्मण को सरयू की उत्पत्ति के विषय में बताते हैं कि नरश्रेष्ठ राम! कैलास पर्वत पर एक सुन्दर सरोवर है उसे ब्रह्माजी ने अपने मानसिक संकल्प से प्रकट किया है। मन के द्वारा प्रकट होने से वह ही उत्तम सरोवर ‘मानस’ कहलाया तथा उस सरोवर से एक नदी निकलती है जो अयोध्यापुरी से सटकर बहती है। ब्रह्मसर से निकलने के कारण वह पवित्र नदी सरयू क े नाम स े विख्यात है। अतः अपनी काव्यमय कुशलता के कारण ही महर्षि ने पर्वतों पठारा ें नदियों के अतिरिक्त विभिन्न प्रकार के वृक्षो ं व लताओं का भी वर्ण न किया है। जिनमें चन्दन, तिलक, साल, तमाल अति मुक्तक, पद्यक, सरस और शोक आदि वृक्षो ं का वर्णन किया है तथा उन्होंने इस े मानवीय जीवन के लिए उपयोगी बताया है।


अतः यह सर्वविदित सत्य ही है कि रामायण में इन वृक्षो ं व जड़ी  बुटियों को प्राण रक्षक की संज्ञा दी गयी है। राम लक्ष्मण का वह वृत्तान्त जिसमें मेघनाद से युद्ध के समय लक्ष्मण का मूर्छित होकर गिरना और अचेत अवस्था में रहना। हनुमान के द्वारा हिमालय पर्वत को उठाकर लाना और वैद्य की जड़ी बुटियों से लक्ष्मण को लाभ होना से यब वृत्तान्त वृक्षां े व लताओं की महिमा को ही दर्शात हैं। साधारण शब्दों में कहा जाय तो प्रकृति अपने आप में पूर्ण है। अपने
को सुरक्षित रखना तथा जनसामान्य के लिए प्रकृति का त्याग ये सब पूर्व में ही निहित है। भला महर्षि वाल्मीकि जैसे विद्वान व्यक्ति कैसे इन पराकाष्ठाओं से अनभिज्ञ रह सकते थे, इसलिए ही महर्षि ने प्रकृति का सजीव, निर्जीव व मानवीय तथा उपमापूर्वक ज्ञान दिया है।  


ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि ने प्रत्येक काण्ड की रचना करते समय सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक सभी क्षेत्रों पर लेखनी तो चलाई परन्तु प्राकृतिक सुन्दरता का वर्णन व उसे सरस रूप से काव्य में जोड़ना ये उनका नया प्रयोग था। क्योंकि रामायण लौकिक काव्य है और प्रथम रचना भी रामायण के बाद जितने भी काव्य लिखे गये हैं। जैसे, कालीदास, भवभूति, भारवि आदि ने भी  उन्हीं से सीख लेकर काव्य रचना में प्रकृति को मुख्य आधार माना है इसलिए साधारण शब्दों में कहा जाय तो महर्षि, व उनका काव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ पूर्ववर्ती व परवर्ती काव्यों व कवियों के लिए प्रेरणा स्त्रोत है। और एक संदेश प्रदान करने वाला काव्य है।

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