राष्ट्र सेविका समिति का इतिहास और कार्य

महात्मा गांधी जी ने कहा है,‘हम नये विचारों का आलंबन अवश्य करेंगे। नये अक्षर लिखेंगे लेकिन जिसपर लिखना है वह आधार हमारा ही होगा।भारत का मूलाधार है हिंदुत्व। वही भारत का राष्ट्रीयत्व है। हिंदुत्व यहीं राष्ट्रीयत्व है यह तत्व राष्ट्र सेविका समिति द्वारा विकसित हो रहा है।

Jul 24, 2024 - 18:51
Jul 25, 2024 - 17:31
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राष्ट्र सेविका समिति का इतिहास और कार्य

राष्ट्र सेविका समिति का इतिहास और कार्य 

हम भारतवासी भाग्यवान है। हमारा उज्जवल इतिहास और परंपरा है। राष्ट्र तथा विश्वकल्याण हेतु ऋषि-मुनियों का चिंतन है। उस चिंतन को प्रत्यक्ष व्यवहार में लाने के लिए नीति नियम,व्रत, त्यौहारों का आयोजन किया जाता है। निसर्ग भारतीय मानव जीवन एक दूसरे के सहयोग से चलता आया है। ज्योतिष,खगोल,ज्ञान विज्ञान, गणित, नौकायन, शिल्पशास्त्र, आदि शास्त्रों के मूल तत्वों का किया गया अभ्यास है। संगीत, नृत्य,बुनकाम,चित्ररेखन जैसी कलाओं में हमनें निपुणता पाई है। सृष्टि निर्माण कैसे हुआ? प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का प्रयोजन क्या है? इसका विचार हुआ है। आत्मा की चिरंतनता का बोध, व्यष्टि, समष्टि, सृष्टि, परमेष्टि इस आवश्यक विकास क्रम का ज्ञान, समाज सुचारू रूप से चले इसके लिए शिक्षक, रक्षक, वणिक तथा सेवक इन चार वर्गोंका विचार, व्यक्ति और समाज में योग्य क्रियान्वयन रहे इस कारण चार आश्रमों की व्यवस्था आदि कई बातें हमनें धरोहर रूप में पाई हैं। राम, कृष्ण, बुद्ध जैसे कई राष्ट्र पुरूषों का जीवन, उनके द्वारा स्थापित किए विविध विचार और आदर्श हमारे सामने हैं।

राष्ट्र सेविका समिति का गठन जिन उद्देश्यों के साथ हुआ था, उस पर कितना खरा  उतरा संगठन ? - objectives of rss outfit rashtriya sevika samiti
 
परिस्थितिवश निर्माण हुई कई विचारधाराएँ विविध दर्शनोंके रूप में हम पाते है। राष्ट्र कल्याण तथा गौरव हेतु जीवन अर्पण करने वाले वीर, समाज कर्तव्य बोध प्रेरित करनेवाली महिलाएँ, ऐसे चरित्रों से हमारे इतिहास के पन्ने गौरवान्वित हुए हैं ।
 
इस विस्मृत धरोहर का ज्ञान कराना, बदलते काल और परिस्थिती में जो अयोग्य या कालबाह्य सिद्ध हुआ है उसका त्याग, अन्य राष्ट्रों का जो अच्छा है उसका स्वीकार, भौतिक विकास के साथ-साथ अध्यात्मिक चिंतन, हमारे प्राचीन साहित्यों का अभ्यास और उसमें प्रेरणा निर्माण करने वाले रूपकों और कथाओं का विश्लेषण, भारत एक जगतगुरु राष्ट्र बने इसलिये प्रयास, यह सब मेरा कर्तव्य है इस भाव से प्रेरित व्यक्तियों का निर्माण आदि सभी कार्यो में नारी शक्ति का योगदान महत्वपूर्ण रहता आया है। आज भी है और कल भी रहेगा यह विश्वास राष्ट्र सेविका समिति महिलाओं में निर्माण कर रही है।
 
वास्तव में यह कोई नया कार्य नही है। सदियोंसे चलता आया दायित्व है। संक्रमण काल में व्यस्त चित्तता के कारण यह कर्तव्य दृष्टि से ओझल हो गया था। अत: आवश्यकता अनुसार यह शक्ति जागरण शुरू हुआ है। यह भारतीय मूलाधार पर ही हो रहा है। महात्मा गांधी जी ने कहा है,‘हम नये विचारों का आलंबन अवश्य करेंगे। नये अक्षर लिखेंगे लेकिन जिसपर लिखना है वह आधार हमारा ही होगा।भारत का मूलाधार है हिंदुत्व। वही भारत का राष्ट्रीयत्व है। हिंदुत्व यहीं राष्ट्रीयत्व है यह तत्व राष्ट्र सेविका समिति द्वारा विकसित हो रहा है।
 
संस्कार निर्माण में माता का स्थान महत्वपूर्ण है। प्रथम है, ‘मातृदेवो भव। तद्नंतर ‘पितृ देवो भव,‘आचार्य देवो भव। कुछ संस्कार जन्मजात होते है, कुछ प्रयत्न पूर्वक किए जाते हैं। अनुकरण प्रिय मानव, समाजवंद्य लोगों के जीवन से, कृति से, विचारों से संस्कार ग्रहण करता है। समाज में पर्याप्त संख्या में संस्कारित व्यक्ति रहें यह प्रयास प्राचीन काल से भारत करता आया है। संत ज्ञानेश्वर ने कहा है,‘वर्षत सकळ मंगळी। ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी। अनवरत भूमंडळी भेटतु तया भूताङ्क। हमेशा कल्याण का बर्ताव करनेवाला समूह समाज में सदा विचरता रहे। सामान्य लोगों से बिना प्रयास उसकी भेंट हो। आदर्शभूत एक नहीं अनेक व्यक्ति समाज में रहें। व्यक्तिगत मोक्ष या ज्ञानपिपासा में वे बद्ध न हों। समाज में सभी से मलिते-जुलते रहेंगे तब संस्कारों का कार्य बिना प्रयास अपने आप ही होगा। राष्ट्र सेविका समिति की संस्थापिका तथा प्रथम प्रमुख संचालिका वं. लक्ष्मीबाई केलकर का यही सोचना था। स्वयं के जीवन से, विविध कृतियों से सेविकाओं के सामने उदाहरण प्रस्तुत किया। ‘एकोऽहं बहु स्याम्ङ्क की तरह आज प्रचारिकाएं और प्रवासी कार्यकर्ता बहनें अपने कार्य से समाज मन में प्रेरणा निर्माण कर रही हैं।
कुछ संस्कार निर्माण करने पडते है। जैसे कि जीजामाता ने, विदुला ने कथा कहानियों के माध्यम से किए। इसको ध्यान में रखते हुए राष्ट्र सेविका समिति यह कार्य साहित्य निर्माण, विविध कार्यक्रम, बौद्धिक, चर्चा, सेवाकार्यों के द्वारा कर रही है। विविध समाज क्षेत्रों में वह कार्यरत है। भारत के अधिकांश तहसीलों में शाखाएँ है। ३४५ सेवाकार्य चल रहे हैं। १५ शैक्षणिक प्रकल्प है। भारत की सभी भाषाओं में साहित्य प्रकाशित हो रहा है। विविध प्रकार के सांस्कृतिक कार्य चल रहे हैं।भारत के बाहर २२ देशोंमें कार्य है।
 
प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर का अंश है। सभी समान हैं इस विचार का प्रत्यक्ष दर्शन समिति कार्य में होता है। वर्ग जाति, संपत्ति के विचार से भेद नहीं होता। आवश्यकता वश उन्नतीनुसार एकश; संपत्ति है। इसी विचार से समाज में चलने वाले समाजोपयोगी अन्य कार्य, संस्था, संगठन के प्रति योग्य आदर भाव है।सब को मिलकर आगे बढना है, यह विचार है। मूल प्रेरणा कल्याणकारी हो और कार्य विधायक हो यह आग्रह है। सकारात्मक दृष्टि रहे यह प्रयास है। अधिकारों का संयम,व्यक्तियों का सम्मान है। तत्व अडिग है। व्यवहार लचीला है। स्वदेशी भाव का पालन है। सुदृढ, स्वाभिमानयुक्त, सुसंस्कारित, संगठित नारी शक्ति से भावी भारत निश्चित ही तेजस्वी बनेगा।
 
सन १९०५ में बंगाल का विभाजन हुआ। उसका विरोध करने के लिये केवल बंगाल नहीं तो समूचा भारत सज्ज हो उठा। वंदे मातरम् यह मंत्र सभी को प्रेरणा देने लगा। स्वदेशी का आंदोलन प्रखर होता गया। परिणामत: अंग्रेज शासन को विभाजन का वह आदेश वापस लेना पडा। फिर भी दिसंबर १९११ में पंचम जॉर्ज के दरबार में कई राजा महाराजा और रहीस लोग विनम्र भाव से सम्मिलित हुए थे।
 
जुलाई १९१४ में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हुआ। १८८५ में राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई थी। कार्य बढ रहा था। फिर भी स्वतंत्रता संघर्ष समाज के सभी स्तरों तक पहुँचा नहीं था। इस युद्ध में भी तथा कथित उच्च वर्ग ने अंग्रेजों की सहायता की। १९१७ में होमरूल लीग की कल्पना लोगों के सामने रखी गयी। लो. तिलक की चतु: सूत्री स्वराज्य,स्वदेशी और राष्ट्रीय शिक्षा ने सभी को आकर्षित किया था।अंग्रेजों ने लो. तिलक को उपाधि प्रदान की तेली तांबोली लोगों का नेता। अर्थ स्पष्ट था स्वतंत्रता संग्राम समाज के सभी स्तरो तक पहुँच रहा था। लो. तिलक के स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। इस सिंहनाद से सारी तरूणाई और सर्व समाज जागृत हो उठा। १९१८ में विश्व युद्ध समाप्ति के पश्चात अंग्रजों द्वारा मनाए जाने वाले विजयोत्सव को अंग्रजों का अपेक्षित प्रतिसाद प्राप्त नही हुआ। १९१९ में माँटेग्यू चेम्सफर्ड सुधार के साथ-साथ भारतीयोंके संचार और भाषण स्वातंत्र्य दबाने *रौलट एक्ट* भी संमत हुआ। उसका विरोध होने लगा। अत्याचारी शासन ने जलियांवाला बाग हत्याकांड रच डाला। उसका गहन असर सभी पर हुआ था।
 
१९२० अगस्त में लो. तिलक की मृत्यु हुई। गांधीजी स्वतंत्रता संघर्ष के नेता बने। धीरे धीरे इस संघर्ष में महिलाओं का सहभाग बढने लगा। किन्तु १९२४ में हिंदू और मुस्लिमों के दंगे शुरू हुए। १९२६ में हिंदू संगठन का मंत्र देनेवाले स्वामी श्रद्धानंद की रशीद नामक एक मुस्लिम ने हत्या कर दी। १९२५ की एक महत्वपूर्ण घटना थी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रारंभ। १९२८ सायमन कमिशन का विरोध करने वाले लाला लाजपतराय की मृत्यु अंग्रजों के अत्याचार के कारण हुई। १९३० संपूर्ण स्वातंत्र्य की घोषणा - दांडी यात्रा, कानूनभंग आंदोलन से गूंज उठा। सभी कार्यक्रमों में महिलाओं का सहभाग बढता रहा। नागपूर काँग्रेस की अध्यक्षा १९३० में थी अनसूयाबाई काळे । प्रभातफेरियाँ आदि कार्यक्रमों में महिलाएँ सहयोग देने लगीं।
 
क्रांतिकारक १९०८ से ही सक्रिय हो चुके थे। इस आंदोलन मे सुशीलादीदी, दुर्गाभाभी आदि महिलाएँ कार्यरत थी। परिणामत: जगह जगह महिलाओं ने राष्ट्रकार्य में अपनी भूमिका निभाने का कार्य शुरू किया था।
 
जुलाई १९०५ में जन्मी वं लक्ष्मीबाई केलकर ने वातावरण से स्वतंत्रता संस्कार ग्रहण किये थे। बढती आयु में सभी घटनाओं का विचार शुरू हुआ। काँग्रेस के आंदोलन में सहभाग भी रहा। चिंतन चल ही रहा था। धरने के समय अनुभव हुआ कि महिलाओं के योग्य सम्मान नहीं मिल रहा है। साथ ही साथ नेता तथा कार्यकर्ता गण भी स्त्रियां कंधें से कंधा मिलाकर चलें यह नहीं चाहते थे। नागपुर के संतरा मार्केट में महिलाओं को मजबूरी से अनिच्छा से दलालों को देह समर्पित करना पडता था। स्त्री का देह मानो एक चलन बन गया था। सर्वसामान्य स्त्री घर की चारदीवारी में बंद थी। स्त्री शिक्षा प्राप्त कर रहीं थी किन्तु नासमझी में उलझी थी। तात्कालिक परिस्थिती में दायित्व क्या है? उसे कैसे निभाना है? विचार तो शुरू हुआ था। मार्ग नहीं पा रहा था। समाचार पत्रों का वाचन और चर्चा शुरू हुई थी। इन सभी प्रयत्नों को एक सूत्र में गूंथना और योग्य दिशा देना जरूरी था।
 
ऐसी विचार तरंगों पर वं. मौसीजी हिलोरे ले रहीं थीं। और एक तिनका हाथ आया। महिलाओं ने सीता बनना चाहा। कैसी सीता? वनवास के कष्टोंको सहने की मानसिकता रखनेवाली निडर सीता, रावण के पकड में जकडी होते हुए भी प्रसंगावधशन रख अपने गहने फेंकने वाली सीता। अशोक वाटिका की क्रूर राक्षसियों को भी अपनी सहकारी बनाने वाली। रावण के अत्याचारों से जरा भी विचलित न होने वाली, श्रीराम के पराक्रमों को प्रेरणा देनेवाली। बस निश्चय हुआ। स्वसंरक्षणक्षम, शारीरिक, मानसिक बौद्धिक दृष्टि से सक्षम स्त्री निर्माण करना। उसके विस्तृत सामर्थ्य को जगाना।
 
किन्तु कैसे? विचार कृति में परिवर्तित करने पडेंगे। और रा. स्व. संघ का प्रतिदिन का कार्य सामने आया। पू. डॉ. हेडगेवारजी, मा. अप्पा जी इनसे चर्चा हुई। सीता चरित्र अभ्यास के लिए रामायण का अभ्यास शुरू था। हिंदुत्व संबंधी विचार स्वातंत्र्य वीर सावरकर जी के साहित्य के चिंतन से परिपक्व हुए। संगठन संबंधी मार्गदर्शन समर्थ गुरु रामदासजी के विचारों से मिला। और प्रत्यक्ष सहयोग मिला डॉ. हेडगेवार जी का। विजयादशमी १९३६ के शुभ मुहूर्त पर राष्ट्र सेविका समिति की प्रथम शाखा वर्धा में प्रारंभ हुई।
 
वर्धा से प्रवाहित गंगा
ब्रिटिशों के माध्यम से भारत का फिर एक बार विश्व से संपर्क बढा। वैज्ञानिक विकास के कारण ब्रिटिशों ने जो भौतिक सुविधाएं प्राप्त की थीं लोककल्याण हेतु नहीं, शासन सुव्यस्थित चले इस दृष्टि से भी क्यों न हो- रेल,पोस्ट जैसी सुविधाएं भारतीयों को प्राप्त हुई। इन सारी बातों से चकाचौंध भारतीयों को धीरे धीरे अंग्रजों द्वारा होनेवाला अन्याय, अत्याचार, धनशोषण का पता चलने लगा और निद्रित सिंह जाग उठा। स्वतंत्रता, संघर्ष, क्रांतिकारकों का त्याग आदि से महिलाएं भी सजग हुईं। वर्धा, भंडारा, सातारा और पुणे में कार्य शुरू हुआ। १९३६ में राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना होने के बाद सारे झरने समिति में जा मिले और प्रवाह बहने लगा। स्वाभाविक ही प्रथम विदर्भ को सुफलित करते हुए आगे बढा।
 
महाराष्ट्र
पुणे में वं सरस्वती आपटे ने काम शुरू किया ही था। १९३८ में मौसी जी से भेंट होने पर उन्होंने अपना काम समिति कार्य में विलीन किया। मुंबई मे सुप्रसिद्ध लेखिका और कवयित्री योगिनीताई जोगळेकर ने नायगांव में शाखा शुरू की। १९४८ में सिंध से आई हुई बहनें ठाणे शिक्षा वर्ग में उपस्थित थीं। नाशिक में राणी लक्ष्मीबाई स्मारक समिति के द्वारा राणी लक्ष्मीबाई भवन यह समिति का प्रथम भवन निर्माण हुआ १९५८ में । प्रथम घोष प्रशिक्षण वर्ग भी १९६६ में यहीं हुआ।
अकोला में १९३८ में काम प्रारंभ हुआ। यहीं की एक सेविका मा. सिंधुताई ने आगे चलकर प्रथम प्रचारिका के नाते कार्य समूचे उत्तरी क्षेत्र में फैलाया। अमरावती की लीला ताटके विवाह के बाद उज्जैन गई और वहाँ कार्य शुरू हुआ।
१९३९ के अंत में महाराष्ट्र की चारो दिशाओं में शाखाएँ स्थापित हुई थी। १९४० में पुणे में प्रमुख कार्यकर्ती बहनों की बैठक हुई। काकू परांजपे,नागपुर विभाग प्रमुख नियुक्त हुई। हर साल ऐसी बैठक लेने का निर्णय भी हुआ। १९४१ में वं. मौसी जी पंढरपुर गयी थी देवदर्शन के लिये। फिर भी वहाँ भी एक बैठक हुई।
 
मध्य प्रदेश
१९३८ में उज्जैन में शाखा शुरू हुई। १९४१ में इंदौर में मैनाताई ने कार्य प्रारंभ किया। महाराष्ट्र की और कन्याएँ विवाह होकर मध्य प्रदेश आईं और जबलपुर सागर, रायपुर, बिलासपुर, दुर्ग यहां कार्य प्रारंभ हुआ। मा. ताई अंबर्डेकर ने १९४३ से प्रवास करना प्रारंभ किया और कार्य बढा। १९४५ में ताई जी ने मध्यप्रदेश की कार्यवाहिका का दायित्व संभाला। इंदौर, ग्वालियर, भोपाल,देवास आदि संस्थानों में कार्य बढता रहा।
 
गुजरात
१९४२ में पुणे की एक सेविका अतिथि रूपी कर्णावती आईं। पुणें में हर रोज सायंकाल शाखा में जाने की आदत ने उसे मजबूर किया और शाखा प्रारंभ हुई। बहुतांश लोग व्यापारी होने के कारण सुखासीन और रूढिप्रिय थे। बालिकाओं की प्रवृत्ति घर से बाहर निकलने की नहीं थी। फिर भी यह पौंधा धीरे-धीरे अपनी जडें दृढ करता रहा। शिक्षा वर्ग के लिए यहां की सेविकाएँ महाराष्ट्र में जाती थीं। अब महाराष्ट्र के वर्गो में यह आवश्यक होने लगा कि बौद्धिक, चर्चा के विषय रात के समय गुजरात, मध्य भारत,पंजाब, सिंध की बहनों को हिंदी में समझाना। सौराष्ट्र और कच्छ में भी कार्य का प्रसार हुआ।
 
आंध्र प्रदेश
१९४७ में सोलापुर से माई अफजलपुरकर भाग्यनगर आईं। काम प्रारंभ हुआ। मुस्लिम प्रभावित प्रांत होते हुए भी नई बहनें कार्य बढानें के लिए मिलतीं और काम अग्रेसर होता रहा।
 
सिंध
१९४३ में यहां कुछ बहनें नागपुर के शिक्षा वर्ग में संमिलित हुई। वापस आने के बाद काम शुरू हुआ। दस शाखाएँ चलने लगी। कार्य जोर शोर से शुरू हुआ। १९४७ में जब वं. मौसी जी कराची में गयी तब १२०० सेविकाएँ रात के समय भयावह परिस्थिती में भी उपस्थित रहीं। इस से पता चलता है कि,काम कितना बढा था। दुर्भाग्यवश सिंध पाकिस्तान में चला गया। विस्थापित होने के बाद भी कुछ सेविकाएँ कार्य से जुडी रही। सिंध की सौ बहनों की, मुंबई की सेविकाओं ने, उनकी व्यवस्थश होने तक लगभग एक साल अपने घरों में व्यवस्था की थी। ठाणे वर्ग पर बीस सिंधी सेविकाएँ संमिलित थी।
 
१९३६ से १९४ तक केवल ग्यारह वर्ष के कालखंड में पूरा महाराष्ट्र, सिंध, मध्य प्रदेश,आंध्र, गुजरात,समिति कार्य से व्याप्त हुए। कर्नाटक के सीमावर्ती भागों में भी कार्य शुरू हुआ था। कुल मिलाकर २४० स्थानों पर दैनंदिन शाखाएँ थी। उनमें लगभग १३,००० बहनें उपस्थित थीं। सभी वयो गट होने के कारण शाखा पर शिशु, तरूण, प्रौढ ऐसे चार गण रहते थे।
कर्नाटक
१९४७ में बेलगांव में काम शुरू हुआ। कर्नाटक-महाराष्ट्र सीमा पर बसा हुआ यह शहर। स्वाभाविक ही कार्यकर्ताओं को कन्नड भाषा सीखनीं पडी। महाराष्ट्रीय और कन्नड महिला एक ही शाखा में यह चित्र दिखाई देने लगा। १९४८ में बैंगलोर,धीरे-धीरे धारवाड, कुंदगोल आदि स्थानों पर काम बढा। कन्नड मराठी संघर्ष जोर शोर से शुरु हुआ था। लेकिन शाखा पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पडा। १९६७ में वं. मौसी जी का वहां प्रवास हुआ।
 
तामिलनाडू
१९६८ में मा. सिंधुताई फाटक किसी कारणवश वहां गईं थी। तब उन्होंने महिलाओं की बैठक ली। पाच दिन का शिविर लगा। कार्य की जानकारी प्राप्त हुई और मद्रास में काम प्रारंभ हुआ। प्रथम वर्ग में मा. प्रमिलाताई मुंजे उपस्थित थी।
 
केरळ
शायद भाषागत समस्या के कारण यहाँ काम प्रारंभ होने में देर हुई। १९७५ में मा. कुसुमताई साठे जी का प्रवास तय हुआ। अंग्रेजी में बातचीत करनी पडी। बौद्धिक वर्ग तथा परस्पर वार्तालाप के लिये कई बार दुभाषियों का माध्यम स्वीकारना पडा। धारवाड से शिक्षिकाएँ बुलाकर पालघाट में पंद्रह दिन का वर्ग होने के बाद कार्य प्रारंभ होने ही लगा कि आपात्काल ने प्रभावित कर दिया। फिर भी पत्र द्वारा संपर्क होता रहा। १९७८ के नागपुर के वर्ग में १३ सेविकाएँ संमिलित हुईं। उनके वापस जाने के बाद कार्य बढता रहा।
 
बिहार
भारत की पूर्व दिशा में पहुँचने के लिये समिति को जरा ज्यादा समय लगा। बिहार में स्त्रियां कुछ सामाजिक कार्य करें यह मानसिकता आज भी कम है। उस समय की बात ही क्या? १९६५ में पटना गई हुई वनिता आठवले इस विवाहित सेविका ने १५ दिन का शिक्षा वर्ग लगाया। उनके निरंतर प्रवास से काम बढता गया।
 
उडीसा
पति की नौकरी के कारण गई हुई एक सेविका ने यहां १९६६-६७ में कार्य प्रारंभ किया। काम धीमी गति से बढा। अधिकारियों का प्रवास होता रहा। फिर भी विस्तारिका की आवश्यकता थी। महिलाओं के लिए घर से बाहर कुछ दिन समिति कार्य के लिये रहना उस समय कठिन था। फिर भी मध्य प्रदेश की एक गृहिणी ने यह जिम्मेदारी संभाली और कार्य गतिशील बना।
 
बंगाल
१९६८ में सांगली की एक सेविका कलकत्ता पहुंची। मैदान का अभाव और नक्सलवादियों का प्रभाव। तनावपूर्ण वातावरण। बालिकाओं और महिलाओं को बाहर कैसे भेजें? काम प्रारंभ करना कठिन था। किंतु जिद और नियोजन से सफलता मिलने लगी।
 
असम
बंगाल से सभी अधिक तनाव वाला वातावरण। किंतु एक आशा की किरण थी। यहां की महिलाएँ स्वतंत्र है। फिर भी ऐसे सुदूर क्षेत्र में पहुँचना कार्यकर्ताओं के अभाव के कारण कठिन था। वहाँ की कुछ बहनों को नियोजन से कानपुर वर्ग में १९६८ में बुलाया गया और कार्य का सूत्रपात हुआ। १९७०, १९७९ में अधिकारी प्रवास, नागपुर से भेजी गयी दो तीन विस्तारिकाएँ इनके सहयोग से काम बढा।
 
दिल्ली
१९४७ में दिल्ली पहुंची मा. काकू परांजपे ने प्रयास किया। योजना से महाराष्ट्र की दो तीन सेविकाओं की शादी भी दिल्ली स्थित युवकों से की गई। फिर भी वहाँ कार्य ने मूल नहीं पकडा और १९५१ में काकू की मृत्यु हुई। लेकिन प्रयास चलते ही रहे और १९५७-५८ में मा. सिंधुताई की यहां योजना हुई और १९६० से कार्य दृढता से चल रहा है।
 
राजस्थान
मा. सिंधुताई को राजस्थान का भी दायित्व दिया था। उनका कार्य राजस्थान में १९६१ में शुरू हुआ। दिल्ली वर्गो में कुछ सेविकाएँ संमिलित होने लगी। तब से आज तक कार्य लगातार चल रहा है। यहां भी महिलाएँ शिक्षा प्राप्त कर कुछ करें ऐसी समाज की मानसिकता नहीं थी।
पंजाब
पंचनदों के कारण उपजाऊ बनी यह भूमी। विदेशी आक्रमणों से सदैव जूझना पडा। अशांतता में सांस्कृतिक कार्य पनपना कठिन रहता है। १९५८ में प्रारंभ हुआ यहां का कार्य गतिशील नही हो रहा था। १९८० में यहांं पति के रोजगार के कारण पुणे से एक सेविका आई। उसने उस मुरझाए पौधे को पुनर्जीवित किया। १९८४ में यह प्रांत फिर समस्या युक्त बना। अत: पौधा बहुत तरो ताजा तो नही हुआ। लेकिन मुरझाया भी नहीं। अधिकारियों का प्रवास, विस्तारिकाओं का कार्य उसे ताजा रखनें में सफल रहा है।
 
हिमाचल
१९४७ में नागपुर के शिक्षावर्ग के लिये यहाँ से १५ बहनें आईं थीं। उन्होंने उसके पूर्व शुरू हुआ कार्य बढाया। मा. सिंधुताई जी ने भी बार-बार प्रवास किया। जनसंख्या मे केवल पांच प्रतिशत हिंदु होते हुए भी उधमपुर, किश्तवाड आदि स्थानों पर काम चल रहा है।
 
जम्मू- यहां एक कार्यालय और एक छात्रावास भी है।
 
हरियाणा
१९६२ में यह प्रांत बना तब से कार्य शुरू है। अंबाला, करनाल,पानीपत आदि स्थानों पर कार्य चल रहा है।
 
उत्तर प्रदेश
सामाजिक कार्य करने की प्रवृत्ति कम होने के कारण दिल्ली के साथ शुरू हुआ कार्य धीमी गति से बढा। १९७७ में वं. उषा ताई जी के प्रांत प्रवास से उसकी गति बढी। आज सारे जिलों तक तथा कुछ तहसीलों तक कार्य पहुंचा है|
 
इस तरह १९७८ तक अर्थात वं मौसी जी के जीवनकाल में ही समिति कार्य का विस्तार संपूर्ण भारत में हो चुका था। कभी कभी विपरीत परिस्थिती का सामना भी करना पडा। स्वतंत्रता प्राप्ती के पश्चात हुई शिथिलता, महात्मा जी के वध के बाद हुआ कार्य, अन्यान्य प्रांतों को झेलनी पडी प्राकृतिक आपदाएं,१९६२ , ६५ और ७१ के युद्धोंके कारण संबंधित प्रांतों में आई हुई अनिश्चितता, १९७५ से ७७ तक के आपात्काल में प्रगट कार्य करने की कठिनाई जैसी विपदाओं का सामना करते हुए भी काम आगे बढता रहा। आज भी जम्मू काश्मीर, असम जैसे आतंकवाद से ग्रस्त क्षेत्रों में भी काम बढ रहा है यह निश्चित ही गौरवास्पद है।
 
एक और बात उल्लेखनीय है की शादी होकर या पति के स्थानांतर के कारण अन्य स्थानों में गई हुई सेविकाओं ने कार्य अन्यान्य स्थानों पर प्रारंभ किया है। महिला द्वारा सामाजिक कार्य करना, स्वतंत्र रूप से प्रवास करना, घर घर जाकर संपर्क करना,भाषण देना, खुली जगह में व्यायाम करना, या खेलना, जात-पात का विचार नहीं करना आदि से समाज को अभ्यस्त करवाना पड़ा। समाज की मानसिकता बदलनी पडी। प्रथम तो महिलाएँ संगठन कर सकती हैं यह भी विश्वास नहीं था।
 
समाज की मानसिकता बदली औैर कार्य प्रसार के लिये विस्तारिकाएँ निकलने लगीं। समिति के बाद अन्य संस्था संगठनों में प्रचारिकाएँ निकलती गयी। देश के राज्यों में प्रांत प्रचारिकाएँ कार्यरत है। कुल शाखाएँ ४९०० है।

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