भूरा मेरा है-  सरला भाटिया book

सरला भाटिया की मार्मिक हिंदी कहानी 'भूरा मेरा है'। यह कथा एक बच्ची सीता और उसके पाले हुए सूअर भूरा के प्रति उसके प्रेम, मेला, और समाज की अमानवीय परंपरा 'डाढ़' का संवेदनशील चित्रण है।" भूरा मेरा है-  सरला भाटिया, Bhura is mine Sarla Bhatia book

Aug 20, 2025 - 17:12
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भूरा मेरा है-  सरला भाटिया book
भूरा मेरा है-  सरला भाटिया book

भूरा मेरा है - सरला भाटिया | हिंदी कहानी

भूरा मेरा है-  सरला भाटिया

एक छोटा-सा गांव, धनबाद से लगभग सौ मील दूर उत्तर में। पौ फट चुकी है। धुंध और कोहरे से उभरती सूरज की रोशनी में सीता ने वर्तन में चावल का मांड़ डाला और घर से बाहर निकलकर लगी भूरा को बुलाने, ", , आ!" वह उसे मांड़ से भरा खुला बर्तन दिखलाती और फिर खिलखिलाकर पीछे हट जाती।

"शैतान कहीं का!" सीता ने फिर डांटा। रेंह... रेंह... रेंह... करता भूरा खेत में से भागता हुआ ईंटों से बनी खुड़ी के पास आ गया। सीता के हाथ में मांड़ से भरा बर्तन था, वह हंसने लगी, "बोल, तुझे मांड़ चाहिए या नहीं? रेंह... रेंह... करने के सिवाए और तुझे कुछ आता भी है?" भूरा उसके पांव से लिपटकर अपने प्यार का इजहार करने लगा, मानो कह रहा हो, 'अब दो भी... रेंह... रेंह...!' सीता ने बर्तन को उसके आगे रख दिया और लगी भूरा को निहारने, "अब इसे चट कर जा भूरा, फिर दोपहर को स्कूल से आकर जी का दाना खिलाऊंगी। तू भी क्या याद करेगा!"

सीता को सूअरी के इस बच्चे से बेहद लगाव था। 'भूरा' ही क्यों, जब भी वह कोई नन्हा सूअर देखती तो उसे बहुत अच्छा लगता। उसके पीछे भागना, फल-सब्जी, मक्का और दूब आदि दिखाकर उसे रिझाने में सीता को बड़ा मजा आता था। स्कूल जाने का समय हो गया था। उसने किताबों से भरा बस्ता उठाया और बाहर आकर आवाज लगाई, "दीपू, अब चलो भी!"

सीता की आवाज सुनते ही दीपू बगल के घर से निकल आया और बोला, "मैं तो तैयार हूं, जरा इस पेंसिल की नोक सुधार लूं। इतने में तुम हमीदा को बुलाओ।"

इस मुहल्ले में बहुत सारे बच्चे रहते हैं। किसी भी मुहल्ले से आधा कोस की दूरी पर था।

अचानक दूर से आता शोर सुनाई दिया तो दीपू बोला-

"लगता है अपने गांव में फिर से मेला लगने वाला है।"

"याद है, पिछले साल के मेले की... अरे! कितना बड़ा शामियाना लगा था," रवि ने कहा। "वहां के पकवानों की याद आते ही मुंह में पानी आ जाता है, अरे! वो पूड़े, गुलगुले, खीर, मीठे चावल और गरमा-गरम जलेबी... मजा ही आ गया था," सीता बोली।

"हमीदा, तुम्हें याद है वह डुगडुगी बजाने वाला बंदर, जो हमने मेले से खरीदा था," फूलवती बोली। अब ढोल पीटने वालों की आवाजें साफ-साफ सुनाई देने लगी थीं।

"अरे! चुप करो... जरा सुनने दो...." पप्पू ने अपना हाथ नचाते हुए कहा।

एक आदमी माइक पर जोरदार आवाज में एलान कर रहा था, "सुनो, सुनो, सुनो, ध्यान से सुनो ! रविवार को पिपरा चौक पर बहुत बड़ा मेला लगेगा। टिकट केवल पचास नए पैसे। पांच साल तक के बच्चों का कोई टिकट नहीं लगेगा। मेले में भोजपरी डाढ़ का मजा लीजिए। इसके अलावा अन्य खेल-तमाशे भी होंगे। आइए और आनंद लीजिए और खुश होकर घर जाइए!"

माइक पर आदमी बार-बार अपने शब्दों को दोहरा रहा था। सुनकर रवि बोला, "दीपू, यह 'डाढ़' क्या होता है?"

"मुझे भी समझ नहीं आया," दीपू ने '' में सिर हिलाते हुए कहा।

"सीता, तुमने कभी इस खेल को देखा है?" हमीदा ने प्रश्न किया।

"ना-ना, मैं इसके बारे में कुछ भी नहीं जानती।"

हमीदा ने फिर पूछा, "तुम इतवार को देखने चलोगी?"

"चलूंगी, जरूर चलूंगी!" चहकते हुए सीता बोली। मेले के दिन सीता का साज-सिंगार देखते ही बनता था। लाल रंग की सलवार-कमीज पर हरी गोटेदार चुनरी खूब फब रही थी।

सीता और हमीदा मेले में पहुंचीं तो उन्होंने देखा कि दीपू, पप्पू, रुसवा, पंच पेवड़ा और पारवती, सब उनसे पहले ही वहां पहुंच चुके थे।

इधर-उधर नजर दौड़ाने पर दीपू जोर से बोला, "वह देखो सामने वाला बोर्ड! लिखा तो है वहां पर 'भोजपुरी डाढ़' ।"

सब बच्चे खुशी से नाचते हुए दरवाजे को पार करके एक खुले मैदान में पहुंच गए।

"बड़ी अजीब बात है, यहां तो भैंसें बंधी हैं!" दीपू ने कहा। इस पर पप्पू ने सवाल किया, "पर भैंसों को यहां क्यों लाया गया है?"

"शायद बेचने के लिए।" रवि बोला। वहां से हटकर सीता और हमीदा के कदम एक तंबू की ओर बढ़े तो सीता ठिठक गई।

"यह आवाजें कैसी हैं?" हमीदा ने सीता से पूछा।

"रेंह... रेह... रह...!"

"लगता है इस तंबू में सूअरी के बच्चे बंद हैं।" सीता ने चिंतित होते हुए कहा।

तभी एक अन्य तंबू से एक आदमी भागता हुआ आया और सीता की तरफ घूरता हुआ बोला, "यहां आने के लिए किसने कहा? चलो भागो यहां से, वस थोड़ी देर में 'डाढ़' शुरू होने वाला है।" सीता उसकी गुस्से भरी आवाज से डर गई परंतु फिर भी हिम्मत करके पूछ बैठी, "यह 'डाढ़' होता क्या है?"

"दस-पंद्रह मिनट में यहां आ जाना... आकर देख लेना।" उस आदमी ने उत्तर दिया।

सीता और हमीदा बाहर आकर टोली में शामिल हो गईं।

"चलो, तब तक मेला देखते हैं," दीपू बोला। "वह रही जलेबी वाले की दुकान, चलो गरमा-गरम जलेबी खाते हैं," रवि ने कहा।

कहीं बच्चों की किलकारियां तो कहीं तेज आवाज में बजते मस्त गाने मेले के मजे को दोगुना कर रहे थे। परंतु सीता का मन अभी भी 'डाढ़' में कैद था। वह हमीदा के साथ फिर से उस ओर चल पड़ी।

"हे भगवान! 'डाढ़' कहीं खत्म न हो जाए। चलो जल्दी से," रवि सव बच्चों को ढकेलते हुए बोला।

सब बच्चे उस स्थान पर पहुंच गए जहां 'भोजपुरी डाढ़' का खेल दिखाया जाना था। भीड़ में ढोल पीटने की आवाजों में कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। सीता भीड़ को चीरती हुई एक किनारे में जाकर खड़ी हो गई। ढोल पीटने की आवाजें लगातार आ रही थीं।

सीता 'डाढ़' देखकर अवाक रह गई।

एक आदमी जिसने नन्हे सूअर को रस्सी से बांधा भैंसें जोश में आकर नन्हे सूअर को सींग मार रही थीं और रॅह... रेंह... रेंह... करता हुआ वह सूअर भैंसों से पीछा छुड़ाने की कोशिश कर रहा था। देखते ही देखते सूअर का बच्चा लहूलुहान हो गया। तभी एक आदमी नन्हे सूअर को पानी पिलाने आया। सीता ने आव देखा न ताव, भागती हुई उस आदमी के पास आ गई और चीखती हुई बोली, "यह मेरा भूरा है... यह मेरा भूरा है!"

"यह क्या मजाक है मुनिया?" वह आदमी चिल्लाया।

"हां, यह मेरा भूरा है... तुम इसे गांव से चुराकर लाए हो!"

लपककर सीता ने भूरा को अपनी गोद में उठा लिया। वहां खड़े लोग यह देखकर हैरान रह गए।

"हटाओ इस बच्ची को यहां से, वरना भैंसें इसे भी सींगों से मार डालेंगी!" खेल दिखाने वालों में से एक ने कहा।

तभी एक व्यक्ति उस भीड़ में से भागता हुआ आया और सीता को बांह से पकड़कर घसीट लाया। सीता को रोता-बिलखता देखकर अन्य सब बच्चे भी उसके पास आ गए और उसे चुप कराने लगे।

@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,