जलियाँवाला बाग नरसंहार: इतिहास की एक रक्तरंजित

उधम सिंह का बदला, बलिदान की विरासत, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और नैतिक प्रतिरोध, जलियाँवाला बाग नरसंहार इतिहास की एक रक्तरंजित

Apr 14, 2025 - 06:13
Apr 14, 2025 - 06:23
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जलियाँवाला बाग नरसंहार: इतिहास की एक रक्तरंजित

जलियाँवाला बाग़ नरसंहार: इतिहास की एक रक्तरंजित 

13 अप्रैल 1919—यह तारीख भारतीय इतिहास में एक ऐसे काले अध्याय के रूप में दर्ज है, जिसने न केवल ब्रिटिश हुकूमत के असली चेहरे को बेनकाब किया, बल्कि भारत की आज़ादी की लड़ाई को और भी दृढ़ और व्यापक बना दिया। बैसाखी के शुभ अवसर पर, जब लोग आनंद और उल्लास से भरकर अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में एकत्र हुए थे, तब उन्हें इस बात का अंदाज़ा नहीं था कि कुछ ही क्षणों में वह ज़मीन, बलिदानियों के लहू से लाल हो जाएगी।

रौलेट एक्ट का विरोध और जनसभा

प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात भारत में राजनीतिक उथल-पुथल का दौर चल रहा था। अंग्रेज़ी सरकार ने रौलेट एक्ट के माध्यम से भारतीयों की नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचलने का प्रयास किया। इस काले कानून के अंतर्गत किसी भी भारतीय को बिना कारण बताए गिरफ्तार किया जा सकता था और बिना मुकदमे के जेल में रखा जा सकता था।

इस कानून के विरोध में पंजाब में आंदोलन तेज़ हुआ। अमृतसर में स्वतंत्रता सेनानी डॉ. सत्यपाल और डॉ. सैफुद्दीन किचलू को बिना किसी वारंट के गिरफ्तार कर लिया गया, जिसके विरोध में 13 अप्रैल 1919 को हजारों लोग जलियाँवाला बाग़ में एक शांतिपूर्ण जनसभा के लिए एकत्र हुए।

जनरल डायर का अत्याचार

ब्रिगेडियर जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर को इस सभा की सूचना मिली। वह अपनी टुकड़ी के साथ जलियाँवाला बाग़ पहुँचा। बाग़ चारों ओर से दीवारों से घिरा हुआ था और उसमें केवल एक संकरा द्वार था। डायर ने बिना किसी चेतावनी के सभा पर गोलियाँ चलवाने का आदेश दिया। उसके 50 सैनिकों ने 10 मिनट तक बिना रुके लगभग 1650 गोलियाँ चलाईं।

इस गोलीबारी में लगभग 500 निर्दोष भारतीय शहीद हुए और 2000 से अधिक घायल हो गए। कई लोग जान बचाने के लिए बाग़ के कुएँ में कूद गए। आज भी वह कुआँ वहाँ मौजूद है, जो उस क्रूरता का मूक साक्षी है।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर और नैतिक प्रतिरोध

इस अमानवीय नरसंहार से व्यथित होकर गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि को लौटा दिया। यह उनका नैतिक विरोध था, जो पूरे भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जनाक्रोश की चिंगारी बन गया।

उधम सिंह का बदला

इस हत्याकांड की आग वर्षों तक एक क्रांतिकारी के दिल में जलती रही। वह थे शहीद उधम सिंह। उन्होंने जलियाँवाला बाग़ में मारे गए निर्दोष लोगों का बदला लेने का संकल्प लिया। 21 वर्षों बाद, 13 मार्च 1940 को लंदन में उन्होंने माइकल ओ’डायर को उस वक्त गोली मार दी, जब वह एक सभा को संबोधित कर रहा था। ओ'डायर वही व्यक्ति था जिसने डायर के कृत्य का समर्थन किया था।

उधम सिंह ने अपने नाम को छुपाकर 'राम मोहम्मद सिंह आज़ाद' रखा—यह नाम उनके धर्मनिरपेक्ष और भारत की विविधता में एकता की भावना को दर्शाता है। उन्हें 31 जुलाई 1940 को फाँसी दे दी गई। पर उन्होंने मृत्यु से पहले कहा—
"मैंने अपने देश के लिए यह किया है। मैं इस पर गर्व करता हूँ।"

बलिदान की विरासत

जलियाँवाला बाग़ नरसंहार न केवल एक घटना है, बल्कि यह भारत की स्वतंत्रता संग्राम की चेतना का वह बिंदु है जहाँ से जनता के धैर्य का बाँध टूट गया। गांधी जी ने इसी घटना के बाद असहयोग आंदोलन की नींव रखी।

आज, जब हम 13 अप्रैल 2025 को इस हृदयविदारक घटना के 106 वर्ष पूरे होते देख रहे हैं, मातृभूमि सेवा संस्था जैसे संगठन इन शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए हमें यह स्मरण कराते हैं कि स्वतंत्रता हमें सहज नहीं मिली, यह लाखों बलिदानों का परिणाम है।

जलियाँवाला बाग़ आज भी देशभक्ति, बलिदान और ब्रिटिश क्रूरता की याद दिलाता है। यह स्थान सिर्फ एक स्मारक नहीं, बल्कि चेतना का वह दीप है जो हर पीढ़ी को यह सिखाता है कि जब अन्याय अपनी सीमा लांघता है, तब बलिदान की आहुतियाँ क्रांति को जन्म देती हैं।

जय हिंद! वंदे मातरम्!

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