महाराणा प्रताप की युद्धनीति हल्दीघाटी से दिवेर तक की अविजित यात्रा

महाराणा प्रताप की युद्धनीति हल्दीघाटी से दिवेर तक की अविजित यात्रा, Maharana Pratap unconquered journey from Haldighati to Diwar war strategy,

Jan 19, 2025 - 05:17
Jan 19, 2025 - 05:31
 0  35
महाराणा प्रताप की युद्धनीति हल्दीघाटी से दिवेर तक की अविजित यात्रा

हल्दीघाटी की लड़ाई में महाराणा प्रताप ने अपनी युद्ध नीति में एक अनूठा दृष्टिकोण अपनाया, जिसमें आक्रामक और रक्षात्मक दोनों प्रकार की रणनीतियों का सम्मिलन था। प्रारंभ में, जब मुगलों से संघर्ष हुआ, तो उन्होंने पर्वतीय क्षेत्रों का फायदा उठाते हुए मुगलों पर आक्रमण किया और फिर त्वरित गति से अपनी सेना को सुरक्षित स्थानों पर वापस लौटा लिया। इसके बाद, मुगलों के दबाव को महसूस करते हुए प्रताप ने आक्रामक युद्ध नीति अपनाई।

महाराणा प्रताप ने दिवेर युद्ध में अपनी रणनीति का प्रदर्शन किया, जब उन्होंने अकबर के सेनापति सुल्तान खां को निर्णायक रूप से हराया। उनके पुत्र अमरसिंह ने सुल्तान खां पर ऐसा प्रहार किया कि वह बुरी तरह घायल हो गए। इसके बाद महाराणा ने दिवेर जीतने के बाद मुगलों की चौकियों को फिर से कब्जे में ले लिया और मेवाड़ के लगभग सभी क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित किया।

मुगल सम्राट अकबर ने सात बार महाराणा प्रताप को हराने के लिए बड़ी सेनाएं भेजीं, लेकिन हर बार उनकी योजना असफल रही। इससे अकबर को निराशा हुई और उसने मेवाड़ से अपना ध्यान हटा लिया। महाराणा प्रताप की छापामार युद्धनीति, उनकी वीरता और साहस ने उन्हें न केवल एक अविजित योद्धा के रूप में स्थापित किया, बल्कि उन्होंने मेवाड़ को मुगलों के अधीनता से मुक्त रखा।

कांठो दे गिरवर गहो, मांठो औरूं विचारूं। फेरि घेरि चहुं ओर ते, मीरन देहं मारूं

।। असल में देखा जाए तो हल्दीघाटी की लड़ाई दोनों युद्धनीतियों का मिश्रित रूप थी। वह खुला युद्ध भी था, जिसमें मेवाड़ी वीरों को पर्वतीय भाग से निकलकर तेज आक्रमण करने एवं खुलकर अपना शौर्य एवं पराक्रम प्रदर्शित करने का अवसर मिला। दूसरी ओर कड़े प्रतिकार की स्थिति उत्पन्न होने एवं शत्रु द्वारा पीछा करने की स्थिति में हल्दीघाटी में प्रवेश कर अपनी रक्षा करते हुए तीव्र गति से पर्वतीय भाग में लौट जाने की युद्ध प्रणाली से भी युक्त था।” उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि घाटी से निकलकर एक बड़े छापे के रूप में मुगल सेना को परास्त कर पुन: पहाड़ों से लौटकर मोर्चाबंदी करना, अपने जन-धन की रक्षा करते हुए शत्रु के जन-धन और सैन्य सामग्री को लूटना, यह युद्ध परिषद में निर्णय हुआ। उधर, काफी प्रतीक्षा के बाद मानसिंह मांडलगढ़ से निकला और नाथद्वारा के पास बनास नदी के किनारे मोलेला ग्राम में पड़ाव डाल दिया। प्रताप ने भी अपनी सेना को गोगुन्दा से लोसिंग की पहाडि़यों में लाकर डेरा डाला। प्रताप ने सुरक्षा की दृष्टि से मायरा की गुफा में अपना शस्त्रागार स्थापित किया तथा पीछे रनिवास में महिलाओं की सुरक्षा का दायित्व अपने 17 वर्षीय पुत्र अमरसिंह को सौंपा। जान बचाकर भागे मुगल सैनिक अब प्रताप ने अपनी युद्ध नीति में थोड़ा सा बदलाव किया। उन्होंने रक्षात्मक युद्ध की बजाय आक्रामक युद्ध नीति अपनाई। अब्दुल रहीम खानखाना के असफल होकर लौट जाने के पश्चात प्रताप ने भामाशाह, उसके भाई ताराचन्द और अपने पुत्र अमरसिंह को साथ लेकर कुम्भलगढ़ से 30 मील उत्तर-पूर्व में 1552 को विजयादशमी के दिन दिवेर ग्राम में आक्रमण किया, जहां अकबर का चाचा सुल्तान खां मुख्तार था।

सुल्तान खां ने आसापास के मुगल थानों से सेना एकत्रित की। दोनों सेनाओं के बीच भीषण युद्ध प्रारम्भ हुआ। सुल्तान खां हाथी पर बैठकर आया तो महाराणा प्रताप के सैनिकों ने हाथी के पांव काट दिए। इसके बाद वह घोड़े पर बैठकर आया, तब अमरसिंह ने भाले का ऐसा जोरदार प्रहार किया कि एक ही वार में सुल्तान खां, उसके घोड़े तथा टोप-बख्तर के टुकड़े-टुकड़े कर उसे जमीन में गाड़ दिया। ‘अमर काव्य’ के अनुसार भाला सुल्तान खां की छाती में ऐसा लगा कि वह खींचने पर भी नहीं निकला। अमरसिंह ने ठोकर से उसे खींच निकाला। मरते-मरते सुल्तान खां ने पानी मांगा तो महाराणा प्रताप ने उसे गंगाजल से भरा स्वर्ण कलश ले जाकर दिया। दूसरी ओर अकबर ‘मीर’ की उपाधि हासिल करने के लिए चित्तौड़ विजय के दौरान 30,000 निरीह, निर्दोष, निहत्थे लोगों का कत्लेआम करवाता है। महाराणा प्रताप की दिवेर की जीत को कर्नल टॉड ने ‘मैराथन’ की संज्ञा दी है। दिवेर विजय की ख्याति चारों ओर फैल गई और मुगल सैनिक अपनी चौकियां खाली करके भागने लगे।

जो बच गए थे, उनका वहीं पर सफाया कर दिया गया। महाराणा प्रताप के लिए दिवेर विजय नव विजय अभियान का शुभ एवं कीर्तिदायी शुभारम्भ था। इसके बाद तो उन्होंने सारी शाही चौकियों को पुन: अपने कब्जे में ले लिया तथा छप्पन के इलाके एवं डुंगरपूर-बांसवाड़ा को भी जीत लिया। उस समय पूरे मेवाड़ पर प्रताप का अधिकार हो गया था। प्रताप ने 1585 में चावण्ड को अपनी राजधानी बनाया तथा यहीं से सभी गतिविधियां संचालित करने लगे। उधर, दिवेर युद्ध में मुगलों की पराजय के बाद अकबर ने 1584 में जगन्नाथ कच्छवाहा को बड़ी सेना देकर भेजा, किन्तु वह भी असफल होकर लौट गया। इससे अकबर निराश हो गया और मेवाड़ से अपना ध्यान हटा लिया। 1576 से 1585 तक अकबर ने सात बार अपने सेनापतियों को समस्त संसाधनों से युक्त बड़ी सेना के साथ महाराणा को पराजित करने के लिए भेजा। एक बार तो वह खुद भी आया। यही नहीं, अकबर ने अपने सेनापतियों को धमकी भी दी कि असफल होने पर उनके सिर कलम करवा देगा। इसके बावजूद अकबर के सेनापतियों का हर आक्रमण असफल रहा। संक्षेप में कहा जा सकता है कि संघर्ष के इस दशक में (1576-1585) अकबर हर मामले में महाराणा प्रताप से पराजित हुआ। प्रताप अन्ततोगत्वा अपनी छापामार युद्धनीति के कारण शत्रु को परास्त करने में सफल होकर स्वयं अविजित रहे और स्वतंत्रता की अलख जलाकर विदेशी दासता के बंधनों से मातृभमि को मुक्त रख सके। 

चावण्ड का वैभवकाल पूर्ण निश्चिंतता नहीं होने और मेवाड़ में शत्रु को सुविधा नहीं देने की नीति के अनुसरण में अपने हाथों अपनी बस्तियां, बाग, खेत आदि उजाड़ दिए जाने और मुगल सेना द्वारा सालों तक निर्मम लूट तथा तबाही मचाने के कारण मेवाड़ के पुनर्निर्माण का प्रयास कितना कठिन था, इसका अनुमान लगाने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए। यह महाराणा प्रताप का सर्वाधिक प्रशंसनीय पक्ष है। जेम्स टॉड से लेकर दूसरे इतिहासकारों ने प्रताप द्वारा उदयपुर की पुन: प्राप्ति को इतना महत्वहीन माना कि उसका उल्लेख करना भी अनावश्यक समझा। हाल तक के इतिहासकारों, जैसे- डॉ. वी.एस. भार्गव (राजस्थान, पृष्ठ 247), जिन्होंने राणा के विरुद्ध अंतिम अभियान के बाद दस पंक्तियों में ही प्रताप के जीवन को समेट दिया है, जबकि इसमें दस साल लगे थे। इन वर्षों के दौरान महाराणा प्रताप के जीवन पर बहुत कम प्रकाश डाला गया है, लेकिन अब अंधकार से प्रकाश पुंज फूटा है और उनके विषय में विश्वसनीय जानकारी सामने आने लगी है। इस दिशा में डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने प्रारम्भिक प्रयत्न किए हैं। शर्मा (मेवाड़, पृष्ठ 103-105) लिखते हैं- ”ऐसा लगता है कि 1585 का वर्ष प्रताप के जीवन में अत्यंत महत्व का हो गया।  इस समय तक मुगल संकट समाप्त हो गया था। व्यावहारिक दृष्टि से जगन्नाथ कच्छवाहा का आक्रमण अंतिम महत्वपूर्ण आक्रमण था, क्योंकि मेवाड़ में मिली लगातार पराजय का प्रभाव अंतिम साम्राज्य के शेष भागों पर पड़ने लगा था।

इस कारण अकबर पंजाब तथा पश्चिम-उत्तर सीमान्त प्रदेश के अधिक महत्व के प्रश्नों से निपटने में लग गया। महाराणा प्रताप ने इस समय का अच्छा उपयोग किया। उन्होंने मुख्यत: मेवाड़ के उत्तर-पश्चिम, उत्तर-पूर्व तथा मध्य भाग में फैली मुगल चौकियों पर हमले किए। अपने पुत्र कुंवर अमरसिंह तथा भामाशाह, ताराचंद आदि को साथ लेकर उन्होंने 36 स्थानों से मुगल थाने हटा दिए, जिसमें मुख्य थे- उदयपुर, मोही, पानरवा, गोगुन्दा, माण्डल। इस तरह महाराणा प्रताप ने मेवाड़ के उन हिस्सों को दोबारा हासिल कर लिया, जिन पर मुगलों का कब्जा था। उदयपुर स्थित कमिश्नर कार्यालय से प्राप्त एक प्राचीन लेख से स्पष्ट है। इस पर कार्तिक पूर्णिमा विक्रम संवत 1685 (1588) की तिथि अंकित है और उसमें त्रिवेदी सार्दुलनाथ को जहाजपुर के निकट पंडेर की जागीर देने का उल्लेख है। इससे हम इस निर्णय पर पहुंचते हैं कि उस समय तक महाराणा ने मेवाड़ का उत्तरी-पूर्वी प्रदेश भी हस्तगत कर लिया था और अपने विश्वसनीय अनुयायियों को जागीरें देकर पुनर्निर्माण के कार्य में व्यस्त थे।

जैसा कि सुरखंड आलेख में बताया गया है, प्रताप ने इस समय का उपयोग 1885 में चावण्ड में अपनी राजधानी बनाने में किया। यह सुरक्षित स्थान था, जहां उनके लिए रहना और शासन व्यवस्था का संचालन करना सरल था। इसी अवधि में चावण्ड में महल और चामुण्डा माता मन्दिर बनवाए गए।  डॉ. देवीलाल पालीवाल (महाराणा प्रताप महान, पृष्ठ 68) लिखते हैं, ”इस भांति प्रताप के शेष शांतिपूर्ण जीवनकाल में मेवाड़ ने सभी क्षेत्रों मं5 उन्नति की और जब 1600 में अकबर ने पुन: मेवाड़ के विरुद्ध युद्ध शुरू किया, उस समय मेवाड़ पूरी तरह धन-धान्य से परिपूर्ण एवं खुशहाल था। उन्होंने जो संपत्ति और साधन अर्जित किए, उनके सहारे राणा अमरसिंह अगले 15 वर्षों तक मुगल सेना से लड़ता रहा।”  चावण्ड को नई राजधानी बनाने के बाद प्रताप ने शासन व्यवस्था में बदलाव किए और नई नियुक्तियां भी कीं। हालांकि राजधानी बाने के बाद भी चावण्ड सुरक्षित नहीं था। यह क्षेत्र व्यापारिक और राजनीतिक दृष्टि से गुजरात और मालवा के नजदीक पड़ता था। इस कारण इन क्षेत्रों के साथ संबंध स्थापित करने में महाराणा को सुविधा हुई।

महाराणा ने मेवाड़ तथा उसके आसपास के क्षेत्रों में एकता स्थापित किया। जागीरें बांटीं और नई भूमि व्यवस्था को लागू किया। बच्चे और स्त्रियां सभी जगह बेहिचक भ्रमण कर सकती थीं। बिना कारण स्वयं महाराणा प्रताप भी कभी किसी को दंडित नहीं करते थे। दंड की व्यवस्था समुचित होने के कारण चोरी-डकैतियां भी कम हो गई थीं। कुल मिलाकर संपूर्ण प्रदेश के आचरण में नैतिकता आ गई थी। उनके कार्यकाल में कृषि उत्पादन और व्यापार में वृद्धि हुई। महाराणा केवल योद्धा और कुशल शासक ही नहीं थे, अपितु कला, शिल्प, साहित्य में भी उनकी रुचि थी। उनके समय ही नई राज्याभिषेक पद्धति विकसित हुई थी।  महाराणा के समय चित्रकला का इतना विकास हुआ था कि उस विशेष चित्र शैली को ‘चावण्ड चित्रशैली’ के नाम से जाना जाता था। उनके चित्र आज भी संग्रहालय में मौजूद हैं। चावण्ड चित्र शैली को चावण्ड कलम और रागमाला के नाम से जाना जाता है। इसका प्रणयन निसारदी नामक मुस्लिम द्वारा किया गया जो मालवा से महाराणा प्रताप के पास आया था। उनके शासनकाल में चित्रकला के साथ-साथ साहित्य कला का भी सृजन हुआ। महाराणा स्वयं कवि थे।

‘पद्मिनी चरित्र’ और ‘दुरसा आहडा’ प्रताप के युग को आज भी अमर बनाए हुए है। चक्रपाणि, रामा सांदु, हेमरतन सूरी जैसे साहित्यकार उनके साथ थे। इससे पूर्व ऐसा प्रयोगधर्मी शासक मेवाड़ को नहीं मिला, जिसने शोध और अनुसंधान के विशेष प्रयास किए हों। दूसरा महत्वपूर्ण ग्रंथ मुहर्तमाला तथा तीसरा राज्याभिषेक पद्धति है। यहां ध्यान देने की बात है कि जहां तत्कालीन राजाओं और बादशाहों ने अपनी प्रशंसा में ग्रंथ, साहित्य की रचना करवाई, वहीं प्रताप ने अपनी प्रशंसा में दो शब्द भी नहीं लिखवाए, बल्कि लोक कल्याणार्थ साहित्य की रचना करवाई। स्थापत्य की दृष्टि से किलों और महलों का निर्माण तथा कमोल, कमलनाथ, उबेश्वर, चावण्ड, जावर, बदराणा के मंदिरों का निर्माण आज भी इसके साक्षी हैं। चावण्ड में राजमहल, सामन्तों के रहने के लिए भवन तथा चामुण्डा माता का मन्दिर आज भी देखा जा सकता है। सड़क व्यवस्था, सैन्य व्यवस्था, छापामार युद्ध पद्धति का विकास अन्य उल्लेखनीय पहलू हैं।  इस प्रकार युद्ध के पश्चात शान्ति काल में महाराणा ने सभी दृष्टि से मेवाड़ का विकास किया। महाराणा प्रत

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,