राष्ट्रीय चेतना के जागरण की शक्ति – २

प्रशांत पोळ ऐसे अनेक प्रसंगों पर संघ के स्वयंसेवकों का योगदान अतुल्य और अद्भुत था। संघ के पूरे 100 वर्षों के कार्यकाल में, देश में जहां भी आपत्ति आई, आपदाएं आईं, तो उस परिस्थिति में, सहायता करने संघ स्वयंसेवक ही सर्वप्रथम पहुंचते हैं। यह सारे क्राइसिस मैनेजमेंट या डिजास्टर मैनेजमेंट के उदाहरण हैं, जिसमें संघ […] The post राष्ट्रीय चेतना के जागरण की शक्ति – २ appeared first on VSK Bharat.

Nov 4, 2025 - 07:47
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प्रशांत पोळ

ऐसे अनेक प्रसंगों पर संघ के स्वयंसेवकों का योगदान अतुल्य और अद्भुत था। संघ के पूरे 100 वर्षों के कार्यकाल में, देश में जहां भी आपत्ति आई, आपदाएं आईं, तो उस परिस्थिति में, सहायता करने संघ स्वयंसेवक ही सर्वप्रथम पहुंचते हैं।

यह सारे क्राइसिस मैनेजमेंट या डिजास्टर मैनेजमेंट के उदाहरण हैं, जिसमें संघ की सक्रिय भूमिका रहती है। किंतु कुछ ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें संघ की उपस्थिति के कारण देश विघातक तत्वों पर अंकुश लगा।

उत्तर-पूर्व के राज्यों की स्थिति से संबंधित बातों का उल्लेख पहले भी आया है। रविवार 27 अक्तूबर 1946 को, संघ के 3 वरिष्ठ प्रचारकों ने, (दादाराव परमार्थ, कृष्णा परांजपे और वसंतराव ओक), गुवाहाटी, डिब्रूगढ़ और शिलांग में एक साथ शाखा लगाई थी। इन राज्यों में संघ कार्य की आधारशिला रखी गई थी। बाद में संघ पर प्रतिबंध लगने से संघ कार्य में थोड़ा ठहराव अवश्य आया, किंतु पचास के दशक में, अत्यंत प्रतिकूल परिस्थिति में संघ कार्य पुनः प्रारंभ हुआ। इन राज्यों में धर्मांतरण की गति तेज थी, यह हमने देखा है। किंतु संघ कार्य की ताकत बढ़ने से क्या होता है, यह इन पूर्वोत्तर राज्यों में स्पष्ट दिखता है।

तीन राज्यों के ही उदाहरण लेते हैं –

इससे पहले हमने देखा है कि अंग्रेजों ने सारे प्रयास करने के बाद भी, स्वतंत्रता मिलने तक, सौ – डेढ़ सौ वर्षों में नागालैंड के 46% लोग ही ईसाई बने थे। किंतु उसके बाद स्वतंत्र भारत में धर्मांतरण को गति मिली, और अगले 60 वर्षों में ही धर्मांतरित ईसाइयों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई। अर्थात 1951 की जनगणना के अनुसार, नागालैंड में ईसाई जनसंख्या का प्रतिशत था 46%, तो 2011 आते-आते वह 88 प्रतिशत हो गया।

किंतु इसमें एक रहस्य छिपा है। पूर्वोत्तर राज्यों में संघ का काम बढ़ने लगा, साठ- सत्तर के दशक से। संघ से प्रेरित ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ और ‘विवेकानंद केंद्र’ का कार्य भी यहां प्रारंभ हो गया। धीरे-धीरे संघ की ताकत यहां बढ़ती गई। इसका स्पष्ट प्रतिबिंब इसी जनसंख्या के घटते धर्मांतरण में दिखता है।

1951 में जहां 46% ईसाई नागालैंड में थे, वहां मात्र 20 वर्षों में, अर्थात 1971 की जनगणना के अनुसार, ईसाई जनसंख्या का प्रतिशत हो गया 83%। संघ कार्य के बढ़ने से 1981 के जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 10 वर्षों में मात्र 2% बढ़ा, अर्थात, 85% हुआ। और उसके बाद के 30 वर्षों में मात्र 3% बढ़ सका!

ऐसा ही उदाहरण मेघालय का भी है –

यहां 1951 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि ईसाई जनसंख्या का प्रतिशत 25% था। अगले 20 वर्षों में, अर्थात 1971 में, यह प्रतिशत पहुंचा 47%। अर्थात लगभग दोगुना। किंतु यहां भी संघ का विस्तार होने लगा। शाखाओं की संख्या बढ़ने लगी। विवेकानंद केंद्र और कल्याण आश्रम के सेवा प्रकल्प प्रारंभ होते गए। उनके तथा विद्या भारती की शालाओं की संख्या बढ़ने लगी। इन सब के कारण, ईसाई जनसंख्या 75% तक पहुंचने में अगले 40 वर्ष लगे..!

मणिपुर की स्थिति भी ऐसी ही है। 1951 में ईसाई जनसंख्या का प्रतिशत 12% है, जो अगले 30 वर्षों में (1981 में) 35% तक पहुंचता है। अर्थात, पहले 30 वर्षों में तीन गुना। किंतु संघ की ताकत बढ़ने के कारण, अगले 30 वर्षों में, (अर्थात 1981 से 2011) मात्र 6% ही बढ़ता है।

ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जहां संघ की शाखाओं का विस्तार होता है, राष्ट्रीय भावना और विचार प्रबल होने लगते हैं, वहां धर्मांतरण, देश विघातक आदि बातें थम सी जाती हैं।

संघ ने आपातकाल के विरोध में जो संघर्ष किया। उन दिनों, जब अन्य राजनीतिक दल निराश हो गए थे, तब संघ के कार्यकर्ताओं ने जनमानस का मनोबल ऊंचा रखा था। इसीलिए संविधान की हत्या करने वाले दंडित हुए, और अत्यंत सरलता से, भारत में रक्तहीन क्रांति से लोकतंत्र की बहाली संभव हो सकी।

अस्सी के दशक में असम में ‘बहिरागत हटाओ’ आंदोलन जोर पकड़ रहा था। ‘ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन’ (AASU आसू) और ‘असम गण संग्राम परिषद’ ने, संयुक्त रूप से यह आंदोलन छेड़ा था। असम में हो रही बांग्लादेश के मुसलमानों की घुसपैठ रोकना, इस आंदोलन का मूल उद्देश्य था। किंतु बाद में यह आंदोलन, असमी विरुद्ध बंगाली होने लगा। असम की क्रुद्ध जनता, सभी बहिरागतों को, अर्थात, प्रमुखता से बंगालियों को भगाने के लिए आंदोलन करने लगी थी। उनकी दृष्टि में बहिरागत यानी, जो आसामी नहीं हैं, वे सभी।

ऐसे प्रसंग में संघ ने विद्यार्थी परिषद के माध्यम से इस आंदोलन में हस्तक्षेप किया। बांग्लादेश से आने वाले शरणार्थी हिन्दू कहां जाएंगे? वह कहां आश्रय लेंगे? बांग्लादेश में, ‘हिन्दू’ इस नाते से ही वह प्रताड़ित हो रहे थे। उनको आश्रय देना हमारा कर्तव्य था। आंसू और असम गण परिषद को यह बात प्रयत्न पूर्वक समझाई गई। बाद में उन्होंने भी यह स्वीकार किया, और बहिरागत हटाओ आंदोलन बांग्लादेश से अवैध रूप से आने वाले मुस्लिम घूसखोरों के विरुद्ध चला। संघ के प्रयासों से, इस आंदोलन के कारण, असमी और बांग्ला भाषिक लोगों के बीच में जो संघर्ष निर्माण हो रहा था, वह थम गया..!

अस्सी के दशक में, उत्तर का राज्य पंजाब भी अशांत हो गया था। आतंकवाद बढ़ रहा था। ऐसे में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’, बाद में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी जी की हत्या और उस कारण सिक्ख समुदाय पर हुए प्राण घातक हमले.. इन सब के कारण पंजाब की स्थिति अत्यंत खराब थी। केशधारी और सहजधारी, अर्थात प्रचलित भाषा में, सिक्ख और हिन्दुओं के बीच, वैमनस्य अपने चरम पर था। इस मानसिकता को दूर करने और पूरे समाज में एकता का भाव जागृत करने के लिए, संघ के कार्यकर्ता अपने प्राणों पर खेल कर सारे प्रयास कर रहे थे। अर्थात, खालिस्तानी आतंकवादियों की समझ में यह बात आ रही थी कि देश को तोड़कर, स्वतंत्र खालिस्तान बनाने में मुख्य रोड़ा, प्रमुख अड़चन, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ है।

अतः 25 जून 1989 को, इन आतंकवादियों ने पंजाब के मोगा में संघ की प्रभात शाखा पर हमला किया। अत्यंत नृशंसतापूर्वक, 23 संघ स्वयंसेवक और 3 नागरिकों को मौत के घाट उतारा।

इन आतंकवादियों की कल्पना थी कि इस हमले के कारण, मात्र पंजाब ही नहीं, तो समूचे देश में सिक्खों के प्रति क्रोध भड़केगा। इस गुस्से और क्रोध के कारण हिन्दू-सिक्ख दंगे प्रारंभ हो जाएंगे, जो खालिस्तान की दिशा में लोगों को ढकेलेंगे।

किंतु दूसरे दिन 26 जून को मोगा में जो हुआ, उसकी कल्पना शायद किसी ने नहीं की थी। जहां स्वयंसेवकों का हत्याकांड हुआ, उसी स्थान पर संघ की शाखा लगी। उसे छोटे से गांव में, सवा सौ स्वयंसेवक गणवेश में उपस्थित थे। इनमें केशधारी (सिक्ख) स्वयंसेवक बड़ी संख्या में थे। स्वयंसेवक गीत गा रहे थे –

कौन कहंदा हिन्दू – सिक्ख वक्ख ने।

ए भारत मां दी सज्जी –  खब्बी अक्ख ने ।।

(कौन कहता है कि हिन्दू – सिक्ख अलग हैं? वे तो भारत मां की, दाई और बाई आंख हैं।)

इस एक घटना ने पंजाब का सारा चित्र बदल दिया। खालिस्तानी आतंकवादियों को कड़ा संदेश गया, कि संघ के स्वयंसेवक डरने या घबराने वाले नहीं हैं। वह निर्भयता से अपना काम करते रहेंगे। हिन्दू – सिक्खों के बीच जो दरार डालने की कोशिश की गई, वह बाजी उलट गई। इस घटना से हिन्दू – सिक्खों के बीच की बॉन्डिंग और मजबूत हुई।

आंकड़े बताते हैं कि इस घटना के बाद, आतंकवादियों ने बौखला कर हमलों की प्रखरता बढ़ाई। किंतु अगले एक-दो वर्षों में, पंजाब में हिंसा की घटनाओं में तेजी से कमी आई, और 1992 के बाद पंजाब से खालिस्तानी आतंकवाद लगभग समाप्त हुआ।

1989 यही वर्ष था, जब देश में आरक्षण विरोधी आंदोलन अपने चरम पर था। राजीव गोस्वामी के साथ कुछ और युवकों ने भी आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया था। कुल 200 युवकों ने आत्मदाह का प्रयास किया, जिनमें से 62 छात्रों की मृत्यु हो गई थी। उन दिनों ऐसा लग रहा था कि समूचा उत्तर भारत दो धड़ों में विभाजित हो रहा है। सामाजिक वातावरण अत्यंत दूषित हो गया था।

वर्ष 1989 यह संघ के संस्थापक, डॉक्टर हेडगेवार जी का भी जन्मशताब्दी वर्ष था। इस निमित्त, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने व्यापक पैमाने पर जनसंपर्क का अभियान चलाया था। इसी समय, अयोध्या के राम जन्मभूमि आंदोलन को संघ प्रेरित विश्व हिन्दू परिषद ने गति दी। सर्वत्र श्रीराम का जयघोष होने लगा। समरसता का उद्घोष होने लगा। और इन सब में, जाति-जातियों के बीच का वह भयंकर तनाव, क्षीण होता गया।

राजीव गांधी की सरकार और उसके बाद आई वीपी सिंह की सरकार में आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी। बाद की सरकारों को सोना भी गिरवी रखना पड़ा। वैश्विक पृष्ठभूमि पर भारत के आर्थिक हालात अत्यंत खराब थे। विश्व में GDP की क्रम में हम 17वें स्थान पर थे। उस समय संघ की प्रेरणा से स्वदेशी जागरण मंच का कार्य प्रारंभ हुआ, स्वदेशी के माध्यम से लोगों में ‘स्व’ के भाव का जागरण प्रारंभ हुआ…

अर्थात, संघ की ताकत कम रहे, या वह प्रभावशाली भूमिका में रहे, संघ ने हमेशा ही ‘राष्ट्र सर्वप्रथम’ की भावना से, देश के सामने उत्पन्न विभिन्न संकटों से देश को बाहर निकालने का पूरा प्रयास किया है।

मार्च 2020 में आया कोरोना (कोविड) सबसे भयानक संकट था। पूरा देश थम गया था, सहम गया था। किंतु संकट की इस घड़ी में भी संघ स्वयंसेवकों ने समाज को सक्रिय करके, कोरोना का मुकाबला किया। इस प्रक्रिया में संघ के कुछ प्रचारक और कुछ कार्यकर्ता भी हुतात्मा हुए। किंतु संघ ने समाज को आगे करके पूरे देश में आत्मविश्वास और आशावाद का संचार किया।

यद्यपि संघ की दृष्टि से यह सब लिखा जाना उचित नहीं है, कारण संघ श्रेय नहीं चाहता। किंतु फिर भी, इतिहास में यह रेखांकित (underline) करना आवश्यक है कि आपदा के समय, देश को संकट से उबारा और बिखरने से रोका संघ ने। संघ इस देश की रीढ़ की हड्डी है।

विशेषत: जब हम हमारे पड़ोसी देश, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश को देखते हैं, वहां की अराजकता देखते हैं, वहां का बिखराव देखते हैं, तब हमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का महत्व विशेष रूप से प्रतीत होता है..! ‘इंडिया’ से, आज के इस बदले हुए ‘भारत’ को खड़ा करने में, संघ का विशेष योगदान है।

(आगामी प्रकाशित ‘इंडिया’ से ‘भारत’ : एक प्रवास पुस्तक से)

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