एक नए इतिहास का निर्माण
देश का निर्माण
मोदी सरकार को कई ऐतिहासिक पहल करने के लिए याद किया जाएगा। इसी कड़ी में एक नया अध्याय जुड़ा है महिलाओं को विधायी संस्थाओं में समुचित प्रतिनिधित्व देने की पहल का। नए संसद भवन में पहला भाषण देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने जैसे ही कहा कि हम नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित करने के लिए प्रतिबद्ध तभी साफ हो गया कि महिलाओं को संसद और विधानसभाओं में 33 प्रतिशत प्रतिनिधित्व वाले आरक्षण का सपना साकार होने जा रहा है। यह आरक्षण 5 वर्षों के लिए होगा। संसद चाहे तो इसे आगे बढ़ा सकती है। जैसे ही संकेत मिला कि विशेष सत्र में मोदी सरकार महिला आरक्षण विधेयक पारित करने की कोशिश करेगी, विपक्ष ने श्रेय लेने के लिए रणनीति के तहत मांग शुरू कर दी। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी के पुराने संसद भवन में भाषण के बीच टोकते हुए सोनिया गांधी ने बार- बार “वूमेन रिजर्वेशन' शब्द प्रयोग किया। इसका उद्देश्य इतना ही था कि लोकसभा के रिकार्ड में दर्ज हो जाए कि इसकी मांग कांग्रेस की ओर से हुई और सोनिया गांधी ने अपने नेता को यह विषय रखने के लिए बोला। आज कांग्रेस इसका श्रेय लेने का प्रयास कर रही है, लेकिन सच यही है कि संप्रग सरकार के दौरान कांग्रेस की सर्वेसर्वा रहीं सोनिया गांधी महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं करा पाईं। तब उनके गठबंधन के साथियों ने ही इस विधेयक की राह रोक दी थी। 200 में यह राज्यसभा में पारित हुआ, लेकिन बातआगे नहीं बढ़ पाई।
पहली बार संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान 996 में महिला आरक्षण विधेयक लाया गया और तबसे इसकी नियति अधर में लटकी रही। अब चाहे जो राजनीतिक बयानबाजी हो, इसे झुठलाया नहीं सकता कि महिलाओं को शीर्ष पर उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का दृढ़संकल्प मोदी सरकार ने ही दिखाया। संयोग देखिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुणे में आयोजित समन्वय समिति की बैठक में भी संघ की शताब्दी योजना के अंतर्गत महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने का निर्णय हुआ है। यह उस धारणा को ध्वस्त करता हैं कि भाजपा और संघ महिला विरोधी हैं। आरक्षण की व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकती, किंतु यदि देश को अपनी क्षमताओं के अनुरूप विकसित करने के साथ ही लोकतंत्र को सर्वप्रतिनिधिमूलक बनाना है तो आधी आबादी का समुचित प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए। सामान्य व्यवस्था में यह संभव नहीं हो रहा, तो संतुलन कायम होने तक आरक्षण चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि आजादी के बाद से संसद में करीब 7,500 सदस्यों की सर्वेसर्वा रहीं सोनिया गांधी महिला आरक्षण विधेयक पारित नहीं करा पाईं। तब उनके गठबंधन के साथियों ने ही इस विधेयक की राह रोक दी थी। 200 में यह राज्यसभा में पारित हुआ, लेकिन बात आगे नहीं बढ़ पाई।
पहली बार संयुक्त मोर्चा सरकार के दौरान 996 में महिला आरक्षण विधेयक लाया गया और तबसे इसकी नियति अधर में लटकी रही। अब चाहे जो राजनीतिक बयानबाजी हो, इसे झुठलाया नहीं सकता कि महिलाओं को शीर्ष पर उचित प्रतिनिधित्व दिलाने का दृढ़संकल्प मोदी सरकार ने ही दिखाया। संयोग देखिए कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पुणे में आयोजित समन्वय समिति की बैठक में भी संघ की शताब्दी योजना के अंतर्गत महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने का निर्णय हुआ है। यह उस धारणा को ध्वस्त करता हैं कि भाजपा और संघ महिला विरोधी हैं। आरक्षण की व्यवस्था स्थायी नहीं हो सकती, किंतु यदि देश को अपनी क्षमताओं के अनुरूप विकसित करने के साथ ही लोकतंत्र को सर्वप्रतिनिधिमूलक बनाना है तो आधी आबादी का समुचित प्रतिनिधित्व होना ही चाहिए। सामान्य व्यवस्था में यह संभव नहीं हो रहा, तो संतुलन कायम होने तक आरक्षण चाहिए।
प्रधानमंत्री मोदी ने बताया कि आजादी के बाद से संसद में करीब 7,500 सदस्यों संस्कारिक प्रतिबद्धता के बिना संकल्प पैदा होना संभव नहीं था। प्रधानमंत्री ने कहा कि माता-बहनों ने सदन की गरिमा बढ़ाई है। उन्होंने महिलाओं के हर क्षेत्र में योगदान को भी रेखांकित किया। भाजपा ने पार्टी में 33 प्रतिशत महिलाओं के प्रतिनिधित्व को घोषणा सबसे पहले को थी। यह मांग थी कि पार्टियां अपने संगठन में महिलाओं को एक तिहाई जगह अवश्य दें, लेकिन पार्टियों ने आज तक इस न्यूनतम अर्हता को पूरा नहीं किया। यह स्वीकारने में कोई संकोच नहीं कि अधिकांश दलों में महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देने का ईमानदार संकल्प है ही नहीं। इसका मूल कारण संस्कारगत है। सनातन संस्कृति में महिलाओं और पुरुषों के बीच कभी भेदभाव नहीं रहा। ऋग्वेदकालीन सभा और समितियों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की बात है। पश्चिम ने अपनी व्यवस्था के अनुरूप भारतीय इतिहास और संस्कृति को भी पितृसत्तात्मक बता दिया, जबकि भारतीय समाज में स्त्री शक्ति को हर क्षेत्र में सम्मान और कई में पुरुषों से ऊंचा स्थान दिया गया। ऋग्वेद में शिक्षा ग्रहण करने के पूर्व बालक-बालिकाओं के समान रूप से यज्ञोपवीत संस्कार का उल्लेख है। बाहरी आक्रमण के बाद हमारी सामाजिक व्यवस्था और परंपराओं में बाध्यकारी बदलाव हुए, जिनमें महिलाएं मुख्य भूमिकाओं से पीछे हटतीं गईं।
भारत में आठवीं सदी के पूर्व पर्दा प्रथा का प्रमाण नहीं मिलता। संपत्ति में महिलाओं की हिस्सेदारी के स्पष्ट नियम थे। गणना करें तो देवों से ज्यादा देवियों की संख्या मिल जाएगी। विद्या, धन, शक्ति और शांति की अधिष्ठात्री हैं। भारतीय सनातन संस्कृति से ओतप्रोत संगठन या सरकार महिलाओं को हा की तुलना मेंन हीनतर मान सकती है, न हेय स्थान दे सकती है। इसलिए इसकी प्रेरणा विकसित प्रतिबद्धता से ही तीन तलाक के विरुद्ध कानून बन सका। यह केवल वर्तमान संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत की गई व्यवस्था नहीं, बल्कि सनातन संस्कृति में महिलाओं की नेतृत्वकारी, व्यवस्था निर्माण एवं संचालन की भूमिका को पुनर्स्थापित करना है, किंतु इसमें अगर दलितों, जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं दिया जाता तो वास्तविक लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसलिए उनके लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण की व्यवस्था उचित होगी। कुल मिलाकर, नारी शक्ति वंदन अधिनियम की पहल से भारत में एक नए इतिहास का निर्माण होने जा रहा है। इसका उद्देश्य तभी सार्थक होगा जब सक्षम एवं योग्य महिलाओं को राजनीति में आगे आने का स्वाभाविक अवसर मिले।
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