देश और संपूर्ण सरकारी तंत्र 18वीं लोकसभा के गठन
राजनीतिक पटल पर उपस्थित अनेक लोग गांधी से बड़े गांधीवादी थे। पहले आम चुनाव का आयोजन उस भारत ने किया था, जो न केवल विभाजन की भीषण त्रासदी से जूझा था,
![देश और संपूर्ण सरकारी तंत्र 18वीं लोकसभा के गठन](https://bharatiya.news/uploads/images/202405/image_870x_66561ace91be7.jpg)
दलगत राजनीति से बचे नई लोकसभा
इस समय देश और संपूर्ण सरकारी तंत्र 18वीं लोकसभा के गठन के लिए हो रहे आम चुनाव में व्यस्त है। देश में पहला आम चुनाव वर्ष 1952 में हुआ था। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल जैसे लोग तो आजादी के पहले से भारतीयों के लिए बहुत 'चिंतित' थे कि ये लोग इस लायक नहीं हैं कि अपने देश की सरकार चला सकें। इसके बावजूद विकट परिस्थितियों में स्वतंत्रता प्राप्त कर भारत ने अपने लोकतंत्र को ठोस आधार प्रदान किया। सारे विश्व ने भारत के पहले आम चुनाव की प्रक्रिया की सराहना की। इसके कारण भारत के पहले मुख्य चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन को अन्य देशों में भी आमंत्रित किया गया। पहले आम चुनाव ने देश को वैश्विक प्रतिष्ठा दिलाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालांकि तब देश में ऐसे समाजसेवी और राजनेता उपस्थित थे, जो गांधी जी के सिद्धांतों और मूल्यों का व्यावहारिक जीवन में पूरी तरह अनुपालन करते थे।
राजनीतिक पटल पर उपस्थित अनेक लोग गांधी से बड़े गांधीवादी थे। पहले आम चुनाव का आयोजन उस भारत ने किया था, जो न केवल विभाजन की भीषण त्रासदी से जूझा था, बल्कि गरीबी, भुखमरी और निरक्षरता की समस्याएं भी अपने चरम पर थीं। उस समय देश में दलबदल नहीं होते थे। लोगों की कारों और घरों में चौंकाने वाली संख्या में नकदी नहीं पाई जाती थी। ऐसा कोई राजनेता तब तक प्रसिद्धि नहीं पा सका था जिसने सत्ता में आकर अपनी संपत्ति को अरबों- खरबों तक बढ़ाकर व्यक्तिगत विकास का उदाहरण प्रस्तुत किया हो। आज देश में किसी से भी ऐसे नाम पूछिए तो बिना हिचक आपको आठ-दस नाम गिना देगा। कुछ अपवाद छोड़कर अब यह अप्रत्याशित स्वीकार्यता लगभग सामान्य हो चुकी है कि जो जीतेगा, समृद्ध होगा, कमाएगा। देश में अब गिने-चुने लोग ही बचे होंगे जिन्होंने सभी आम चुनावों में भाग लिया हो, लेकिन ऐसे अनेक लोग आज भी मिल जाएंगे, जिन्होंने 14-15 चुनावों में भाग लिया हो। ऐसे लोग भारत में लोकतंत्र की गहरी जड़ों की उपस्थिति को आज भी आशा की किरण मानते हैं, लेकिन इसमें अनेक नकारात्मक प्रवृत्तियों के पनपने से निराश भी हैं। जैसे-चुनाव खर्च में भारी बढ़ोतरी, दलगत राजनीति में लगातार बढ़ती तल्खी, भाषा में घटती शालीनता उम्मीदवारों के चयन में राजनीतिक दलों के नेताओं
की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का हावी होते जाना, जीतने-हारने वाले उम्मीदवारों की पांच साल तक लगातार मतदाता के लिए अनुपलब्धता, चयनित प्रतिनिधियों की साख में गिरावट, अधिकांश की संपत्ति में चौंकाने वाली वृद्धि आदि पक्ष सजग, सतर्क और सक्रिय नागरिक को चिंतित करते हैं। हालांकि इस प्रकार की तमाम समस्याओं के पनपने बावजूद यह भी सही है कि 20वीं सदी में उपनिवेशवाद के चंगुल से मुक्त हुए देशों में सबसे अधिक सराहना आज केवल भारत के लोकतंत्र की ही होती है। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक बार यह कहा था कि 'चुनावों में अपना पक्ष रखते हुए
अनेक बार प्रतिपक्ष की आलोचना में बहुत कुछ ऐसा कहा जाता है, जो सामान्य सकारात्मक संवाद का हिस्सा नहीं बनता है, लेकिन अब पक्ष-प्रतिपक्ष से अनुरोध है कि चुनावों के समय की कहा-सुनी को भुला दिया जाए। अब केवल राष्ट्र को सशक्त करने के लिए सक्रिय संवाद प्रक्रिया स्थापित हो। इस दिशा में बढ़ने में एक पल की भी देरी नहीं होनी चाहिए। 1999 में अटल जी की सरकार केवल एक वोट से गिर गई थी। तब ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री गिरिधर गमांग ने अपने सांसद पद से त्यागपत्र नहीं दिया था। यदि वह नैतिकता का पालन करते मुख्यमंत्री रहते हुए सांसद के रूप में अटल जी के खिलाफ वोट नहीं देते, तो उनकी सरकार नहीं गिरती। इसके बावजूद भी अटल जी के व्यवहार में किसी के प्रति कोई तल्खी नहीं दिखी। भारत के लोकतंत्र की वह घटना हर सांसद और संवैधानिक पदों पर नियुक्त चयनित प्रतिनिधियों का आज मार्गदर्शन कर सकती है।
दुर्भाग्य से पक्ष-विपक्ष के मध्य तेजी से बढ़ी संवादहीनता के कारण आज जनहित के किसी विषय पर मतैक्य की संभावना नहीं बन पा रही है। ऐसे कार्यक्रम जो गांधी जी के 'पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति' के हित में हैं, सभी का समर्थन नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं, क्योंकि दलगत राजनीति यहां भी आड़े आ रही है। अनेक राज्य सरकारें जानबूझकर केंद्रीय योजनाओं के क्रियान्वयन में व्यवधान डाल रही हैं। इसका एक अत्यंत चिंताजनक उदाहरण कुछ राज्य सरकारों की यह घोषणा है कि वे 2020 में निर्मित राष्ट्रीय शिक्षा नीति को लागू नहीं करेंगे। यदि ऐसा हुआ तो लाखों विद्यार्थियों को जीवन में जो क्षति होगी, उसकी भरपाई असंभव होगी। नई लोकसभा में अब अपेक्षा है कि पक्ष-विपक्ष के सभी सदस्य एक होकर सतत संवाद की सशक्त परंपरा स्थापित करेंगे और जनहित की नीतियों पर सक्रिय सहयोग का वातावरण निर्मित करेंगे।
नई संसद को यह भी याद करना चाहिए कि आज भारत का हर नागरिक विश्व में अपने देश के सम्मान को लेकर गौरवान्वित है। देश के भविष्य को लेकर वह काफी आशावान है। इनकी आशाओं पर खरा उतरने की चुनौती आम चुनावों में सफल होकर प्रधानमंत्री और सांसद बनने वालों के सामने है। इसमें दो राय नहीं कि सकारात्मक नेतृत्व ही व्यक्ति और राष्ट्र को नई प्रेरणा देता है। ऐसे में नवनिर्वाचित सांसदों को सक्रिय संवाद की परंपरा को पुनर्जीवित करने का प्रयास दलगत राजनीति से ऊपर उठकर अवश्य करना चाहिए। इसी से चयनित देश में प्रतिनिधियों की साख और स्वीकार्यता बढ़ेगी। साथ ही भारत के लोकतंत्र को उसकी अपेक्षित गरिमा मिल सकेगी।
उम्मीद है पक्ष-विपक्ष के सभी सांसद चुनावों में कही गई बातों को भुलाकर संवाद की सशक्त
जगमोहन सिंह राजपूत परंपरा स्थापित करेंगे
What's Your Reaction?
![like](https://bharatiya.news/assets/img/reactions/like.png)
![dislike](https://bharatiya.news/assets/img/reactions/dislike.png)
![wow](https://bharatiya.news/assets/img/reactions/wow.png)
![sad](https://bharatiya.news/assets/img/reactions/sad.png)