हिन्दू समाज व्यवस्था – व्यक्ति स्वातंत्र्य और समूहीकरण का सामंजस्य

अच्छी समाज रचना कौन सी हो सकती है? अर्थात् ऐसी व्यवस्था प्रतिक्रिया रूप नहीं, अपितु भावात्मक कल्पना एवं वास्तविकता पर आधारित होनी चाहिए। व्यक्ति स्वातंत्र्य और समूहीकरण का सामंजस्य समाज एक जीवमान इकाई है। मानव, जीवसृष्टि का सबसे अधिक विकसित रूप है। हमारे धर्म में ही नहीं, तो अन्य धर्मों में भी मनुष्य को भगवान […] The post हिन्दू समाज व्यवस्था – व्यक्ति स्वातंत्र्य और समूहीकरण का सामंजस्य appeared first on VSK Bharat.

Dec 7, 2025 - 21:05
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हिन्दू समाज व्यवस्था – व्यक्ति स्वातंत्र्य और समूहीकरण का सामंजस्य

अच्छी समाज रचना कौन सी हो सकती है? अर्थात् ऐसी व्यवस्था प्रतिक्रिया रूप नहीं, अपितु भावात्मक कल्पना एवं वास्तविकता पर आधारित होनी चाहिए।

व्यक्ति स्वातंत्र्य और समूहीकरण का सामंजस्य

समाज एक जीवमान इकाई है। मानव, जीवसृष्टि का सबसे अधिक विकसित रूप है। हमारे धर्म में ही नहीं, तो अन्य धर्मों में भी मनुष्य को भगवान का स्वरूप कहा गया है। उसकी शरीर रचना जीव के विकास का सर्वोत्तम रूप है। इसलिये यदि किसी जीवमान समाज स्वरूप की रचना करनी हो तो वह उसके ही अनुरूप होनी चाहिए। नगर रचना के आधुनिक तज्ञ तो नगर निर्माण भी इसी के अनुरूप करना चाहते हैं। समाज जीवन की रचना भी यदि जीवमान मानव के अनुरूप ही की, तो वह भी निसर्ग के अनुकूल होने के कारण अधिक उपयुक्त होगी। मनुष्य के अवयव समान तो नहीं होते, किंतु परस्परानुकूल रहते हैं। वे अपने-अपने स्थान पर अपने-योग्य कर्तव्य का निर्वाह करते रहते हैं। अतः समाज की ऐसी रचना ही अधिक टिकाऊ होगी, जहाँ समान गुण एवं समान अंतःकरण वाले एकत्र आकर विकास करते हुए जीवन-यापन करने के जिस मार्ग से अधिक समाजोपयोगी सिद्ध हो सकें, उसके अनुसार चल सकें। साथ ही एकाध समूह ऐसा भी चाहिये जो संपूर्ण समाज की आवश्यकताओं को पूर्ण करने की पात्रता उत्पन्न कर उनके पारस्परिक संबंधों को ठीक बनाए रखता हो। शरीर के अवयवों की भाँति समाजरूपी जीवमान इकाई के अंगों की आवश्यकता समझता हो, परन्तु स्वयं अपनी कोई आवश्यकता न रखता हो। ऐसा समूह ही सबको एकसूत्र में चलाने की पात्रता रख सकता है।

एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी व्यक्ति में समानता भी रहती है। हमें इन दोनों गुणों का इस प्रकार सामंजस्य करना होगा कि उसके व्यक्तित्व का विकास तो हो, किन्तु वह विकास उसके सामूहिक जीवन का हितविरोधी न बने। वैसे ही समानताजन्य एकीकरण, व्यक्ति की विशेषताओं के विकास का मार्ग प्रशस्त करे, उसके विनाश का कारण न बने। अतः समान गुणधर्म वाले व्यक्तियों के समूह बनाकर समूह के रूप में उन्हें स्वतंत्रता दी जाए, जिससे वे समाज की भलाई के लिये प्रयत्नशील हों। किन्तु प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह भी आवश्यक हो कि वह समूह के नाते ही खड़ा हो। यह व्यवस्था चाहे मानव की अंतिम अवस्था हो या सीढ़ी, किन्तु यही यथार्थ है। अखिल मानव को इस पद्धति का पालन करना होगा। दुनिया के लोगों ने जो प्रयोग किये हैं, वे भी धीरे-धीरे व्यक्ति स्वातंत्र्य और सामूहीकरण के सामंजस्य की आवश्यकता का अनुभव करने लगे हैं। वैज्ञानिक आधार पर इससे उत्कृष्ट सामंजस्य की व्यवस्था और कोई नहीं हो सकती।

इस प्रकार विचार करने पर, मानव समाज को सुखी रखने के लिये अपनी वर्णव्यवस्था सर्वोकृष्ट प्रतीत होती है। किन्तु आज जातिवाद (Casteism) कह कर इस का उपहास किया जाता है। कई लोग इसे व्यवस्था न कह कर भेद समझने लगते हैं। इसमें ऊँच-नीच का जो भाव आ गया है, वह भी ठीक नहीं है। वास्तव में इस प्रकार कर्मों की भिन्नता न तो समाज के भिन्न-भिन्न लोगों में किसी भेद की सृष्टि करती है और न ही किसी को छोटा-बड़ा या ऊँच-नीच बनाती है। गीता में तो कहा गया है कि जो व्यक्ति अपने नियोजित कर्म को करता है, वह उसी के द्वारा परमात्मा की उपासना करता है।

स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धं लभते नरः।

स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः।  (गीता 18-45)

यदि ज्ञानदान से ब्राह्यण श्रेष्ठ बनता है, तो क्षत्रिय शत्रु-संहार कर उतना ही श्रेष्ठ है। वैश्य जो कृषि व्यवसाय करते हुए समाज का पोषण करता है तथा शूद्र जो अपनी शिल्प कुशलता एवं श्रम से समाज की सेवा करता है, श्रेष्ठत्व में किसी से कम नहीं माने गए। सब एक समाजपुरुष के अंग के रूप में परस्परानुकूल चलें, समाज रचना करने वाले हमारे चिंतकों का यही भाव है। फिर भी यह पृथकता की भावना कैसे आ गई, यह आश्चर्य की बात है। हमारे यहाँ तो इस भाव को व्यक्त करने वाला शब्द भी नहीं है। ईसाई या मुस्लिम समुदायों ने यह अवश्य कहा है कि जो हमारे मत पर विश्वास नहीं करेगा, उसे स्वर्ग में स्थान नहीं मिलेगा। परंतु हमने इस प्रकार की पृथकता का कभी विचार भी नहीं किया। अतः आज जो ऊँच-नीच तथा भेद का भाव प्रसृत किया जा रहा है, अपनी वर्णव्यवस्था का परिणाम नहीं है, अपितु उस व्यवस्था के आधारभूत जीवन-सिद्धांतों के विस्मरण के कारण उसमें उत्पन्न घोर विकृति है। हमें इसे दूर करना होगा।

 

(श्री गुरुजी समग्र)

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