बाव-उल-मक्का पर छत्रपति शिवाजी का विजय अभियान और औरंगजेब पस्त

भारतीय इतिहास में 1 जनवरी 1664 से 10 जनवरी 1664 के मध्य छत्रपति शिवाजी का बाव – उल – मक्का(सूरत) का प्रथम विजय अभियान विश्व के सबसे द्रुत गति के अभियानों में से एक है। इसके अंतर्गत उन्होंने मुगलों के पश्चिमी तट पर सर्वाधिक समृद्ध व्यापारिक नगर बाव-उल-मक्का (सूरत) पर विजय पताका लहराई थी। सूरत […]

Jan 1, 2025 - 09:07
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बाव-उल-मक्का पर छत्रपति शिवाजी का विजय अभियान और औरंगजेब पस्त

भारतीय इतिहास में 1 जनवरी 1664 से 10 जनवरी 1664 के मध्य छत्रपति शिवाजी का बाव – उल – मक्का(सूरत) का प्रथम विजय अभियान विश्व के सबसे द्रुत गति के अभियानों में से एक है। इसके अंतर्गत उन्होंने मुगलों के पश्चिमी तट पर सर्वाधिक समृद्ध व्यापारिक नगर बाव-उल-मक्का (सूरत) पर विजय पताका लहराई थी। सूरत के प्रथम विजय अभियान ने औरंगजेब की संप्रभुता को छिन्न-भिन्न कर दिया था।

भारत के पश्चिमी समुद्र तट पर सूरत बहुत प्राचीन और प्रसिद्ध नगर रहा है यह ताप्ती नदी के मुहाने पर बसा हुआ है। यह उस समय धर्मांध मुगल शासक औरंगजेब के साम्राज्य का एक भाग था। यहां की बागडोर एक मुगल सूबेदार इनायतुल्ला खां के पास थी। सूरत पाश्चात्य देशों से व्यापार करने का एक प्रमुख और प्रसिद्ध बंदरगाह था। यहीं से सहस्रों मुसलमान मक्का की यात्रा के लिए आते-जाते थे। हज की यात्रा के लिए यह मुख्य द्वार था और इसे मुसलमान बाव-उल-मक्का कहते थे। मुगल साम्राज्य का पश्चिमी देशों से अधिकांश समुद्री व्यापार भी इसी सूरत बंदरगाह से होता था।

गुजरात व मालवा जैसे संपन्न प्रदेश व्यापार के लिए सूरत से जुड़े हुए थे और यहां कम से कम 20 ऐसे संपन्न व्यापारी रहते थे, जो करोड़पति माने जाते थे। इन व्यापारियों में बहिरजी बोहरा की हैसियत 80 लाख रुपए की थी। इसके अतिरिक्त मुल्ला अब्दुल जफर नामक, ऐसा धन – संपन्न व्यापारी भी था जो विदेशों से व्यापार करने के लिए प्रसिद्ध था और वह बहुमूल्य व्यापारिक माल से लदे हुए 29 जहाजों का मालिक था। सूरत में समृद्ध हिंदू मुसलमान व्यापारियों के अतिरिक्त अंग्रेज और डच व्यापारी भी थे इनके पास भी लाखों रुपयों का बहुमूल्य व्यापारिक सामान था पर सोना चांदी और जवाहरात कम थे। वह विदेशी व्यापारी भी ताप्ती नदी के घाट पर रहते थे। सूरत नगर जितना धन संपन्न था शायद ही उस समय भारत का कोई अन्य प्रदेश था।

सूरत नगर चार वर्ग मील के घेरे पर बसा हुआ था। सिंहगढ़ और पूना क्षेत्र से सूरत लगभग 325 किलोमीटर दूर था और वहां जाने के लिए कोई सीधा मार्ग नहीं था। यहां के लिए सरल संदेशवाहन के साधन भी उपलब्ध नहीं थे। सूरत जाने का एकमात्र अच्छा मार्ग बुरहानपुर होकर जाता था, पर वह शिवाजी के क्षेत्र से बहुत दूर था। छत्रपति शिवाजी महाराज की शाइस्ता खान से मुठभेड़ हो चुकी थी और औरंगज़ेब छत्रपति शिवाजी के पीछे पड़ गया था, इसलिए खुला युद्ध हो रहा था। छत्रपति शिवाजी महाराज को धन की आवश्यकता थी और सूरत से अच्छा कोई लक्ष्य नहीं हो सकता था। छत्रपति शिवाजी सूरत से धन हस्तगत कर मुगल आधिपत्य को खुली चुनौती देना चाहते थे और वह मुगल शक्ति को यह बताना चाहते थे कि वह उनके सामने तुच्छ है। मुगल सम्राट को चुनौती देने के लिए ही छत्रपति शिवाजी ने सूरत के प्रथम अभियान की तैयारी की थी। सूरत पर आक्रमण कठिन था परंतु अत्यंत कष्टप्रद यात्रा के बाद शिवाजी महाराज के गुप्तचरों के नेता सूरत की धन संपत्ति का विवरण लेकर लौटे।

शिवाजी महाराज ने एक कूटनीतिक चाल के अंतर्गत अपने सैनिक अभियान बारे में बताया कि बसई और चोल में पुर्तगाली आक्रमण करेंगे, इसलिए पुर्तगालियों और सिद्दियों का दमन करना है। अतः छत्रपति शिवाजी महाराज ने सूरत अभियान को गुप्त रखने के लिए ध्यान भटकाया तथा बसई पहुंचे। फिर तीव्र गति से नासिक आए, यहां शिवाजी नासिक के समीप के मंदिर में दर्शन करने गए तथा मोरो त्रिमिल द्वारा नव निर्मित दुर्गों का निरीक्षण करने के बहाने वे उत्तर की ओर गए और उसी समय जबकि यह समझा जा रहा था कि शिवाजी मंदिरों के दर्शनों और भक्ति में तथा अपने दुर्गों के निरीक्षण में व्यस्त हैं, शिवाजी ने 1 जनवरी 1664 को नासिक से सूरत के प्रथम विजय अभियान का संकल्प लेकर प्रस्थान किया और एक घुमावदार रास्ते से चुपचाप मार्ग की दूरी तय करते हुए तीव्र गति से कूच करते हुए अल्प अवधि में ही 6 जनवरी 1664 बुधवार को प्रातः 11:00 बजे सूरत के सामने एक पहुंच गए।

बुरहानपुर प्रवेश द्वार के बाहर एक उद्यान में अपना सैनिक खेमा गाड़ दिया। इसी बीच उनकी दो सैनिक छावनियों से 5 जनवरी सन् 1664 को उनकी सेना छोटी-छोटी टुकड़ियों में चलकर सूरत से लगभग 45 किलोमीटर दूर गणदेवी नामक स्थान पर एकत्रित होकर परस्पर मिल गईं। छत्रपति शिवाजी के सूरत आगमन की धुंधली सी खबर सूरतवासियों को मिली थी तो उन्होंने इसकी खिल्ली उड़ाई उन्हें विश्वास नहीं था कि शिवाजी अपनी कुछ सेना सहित धन के लिए दूरस्थ नगर सूरत तक आ जाएंगे। जबकि उनके स्वयं के राज्य में डेढ़ लाख मुगल सेना उनके विरुद्ध अभियान के लिए खेमे गाड़े हुई थी। शिवाजी के सूरत आगमन की खबर ने सूरत नगर में दहशत फैला दी। लोग भय और चिंता से व्याकुल हो गए। नगर में सुरक्षा व व्यवस्था के अभाव में भगदड़ मच गई सूरत का मुगल सूबेदार इनायतुल्ला खाँ भयभीत होकर अपनी सुरक्षा के लिए दुर्ग में भाग गया। जब शिवाजी सूरत से लगभग 45 किलोमीटर दूर गणदेवी पहुंचे थे तभी उन्होंने अपने कुछ विशेष व्यक्ति मुगल सूबेदार और व्यापारियों के पास इस प्रस्ताव सहित भेजे थे कि औरंगजेब से उनका खुला युद्ध चल रहा है इसके लिए उनको अधिक धन की आवश्यकता है। अतः नगर के धनवान व्यापारी लगभग 50 लाख होण चंदा एकत्र करके शिवाजी को दें। उन्होंने यह विश्वास दिलाया कि वे किसी को भी हानि नहीं पहुंचाएंगे, परंतु मुस्लिम और मुगल समर्थक हिन्दू व्यापारियों ने कोई उत्तर नहीं भेजा। मुगल सूबेदार ने अत्यंत उद्दंडतापूर्ण पत्र भेजा। छत्रपति शिवाजी ने प्रतिनिधि को अपने शिविर में नजरबंद कर लिया। सूरत पर आक्रमण के पूर्व रात्रि को शिवाजी ने मुगल सूबेदार व सूरत के तीन बड़े-बड़े प्रसिद्ध धनाढ्य व्यापारियों क्रमशः हाजी सईद बेग, बहिरजी बोहरा और हाजी कासिम बेग को धनराशि प्रदान करने के लिए पुनः बुलाया और यह भी कहा कि धनराशि मिल जाने पर वे सूरत पर आक्रमण नहीं करेंगे। परंतु न तो शिवाजी के पास कोई उत्तर आया और न ही उनसे कोई मिलने आया।

विवश होकर छत्रपति शिवाजी ने 7 जनवरी 1664 को अपने सैनिकों को नगर में प्रवेश करने की आज्ञा दे दी। इसी बीच मुगल सूबेदार इनायतुल्ला ने एक नवयुवक के साथ शिवाजी के पास कृत्रिम शांति प्रस्ताव भेजा यह युवक शांति प्रस्ताव स्वयं प्रेषित करने के बहाने शिवाजी से मिला और चर्चा करते हुए संदेश कहने के बहाने उनके समीप आ गया तथा सहसा एक गुप्त कटार निकालकर शिवाजी की हत्या करने के लिए उन पर झपटा! तत्काल शिवाजी के अंगरक्षक ने उसका सिर काट डाला। यह घटना शिवाजी के सैनिकों को बाव-उल-मक्का में धमाका करने के लिए पर्याप्त थी। जिन व्यापारियों को बंदी बना लिया गया उन्हें मृत्युदंड देने की मांग सैनिक कर रहे थे, लेकिन शिवाजी ने संयम से काम लिया और कठोरता से इसे मना कर दिया। मुगल सूबेदार द्वारा छत्रपति शिवाजी की हत्या के षड्यंत्र के कारण मराठे सैनिक भड़क उठे और उन्होंने संघर्ष करने वालों को सबक सिखाया। शिवाजी के सैनिकों ने मुस्लिम और मुगल समर्थक व्यापारियों से धन हस्तगत किया। शेष हिन्दू व्यापारियों ने स्वेच्छा से धन दिया। सोना, चांदी, मोती, हीरे अन्य जवाहरात की कीमत यदि मापी जाय तो वह तकरीबन 3 करोड़ की थी। यह धन संपत्ति 900 बैलों पर लादकर ले जायी गई। भावी राजधानी रायगढ़ के निर्माण और किलेबंदी के लिए इसका उपयोग किया गया। मलवन का विशाल सिंधु दुर्ग भी इसी से बनाया गया था। सूरत के इस विजय अभियान से औरंगजेब का घोर अपमान हुआ।

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