कूटनीति की अजब राह, Taiwan मुद्दे पर China के पाले में खड़ा भारत का यह ‘मित्र’ देश

गत सितंबर माह में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाइ़डेन ने ताइवान को 56.7 करोड़ डॉलर का सैन्य साजोसामान देने का प्रस्ताव मंजूर किया है। चीन इसका पुरजोर विरोध दर्ज करा चुका है। अमेरिका के चीन से भी संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं। लेकिन भारत और रूस के बीच ऐतिहासिक संबंधों में और मजबूती आई है। […]

Nov 26, 2024 - 06:08
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कूटनीति की अजब राह, Taiwan मुद्दे पर China के पाले में खड़ा भारत का यह ‘मित्र’ देश

गत सितंबर माह में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाइ़डेन ने ताइवान को 56.7 करोड़ डॉलर का सैन्य साजोसामान देने का प्रस्ताव मंजूर किया है। चीन इसका पुरजोर विरोध दर्ज करा चुका है। अमेरिका के चीन से भी संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं। लेकिन भारत और रूस के बीच ऐतिहासिक संबंधों में और मजबूती आई है।


भूराजनीति और कूटनीति किसी भी देश को पहले अपना हित देखने को बाध्य करती है। भारत ने भी विदेशों से अपने संबंध अपने हित को प्राथमिकता देते हुए ही बनाए हैं। इस बात के लिए अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यहां तक कि पाकिस्तान भी भारत की तारीफ करता रहा है। कूटनीति में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर का नाम आज दुनिया में चमक रहा है। विदेश मामलों में उनकी मेधा और मजबूती की लोग मिसाल देते हैं। ऐसे में अगर भारत से दुश्मनी माने बैठे चीन जैसे देश से नजदीकी रखने वाला कोई देश किसी मुद्दे पर उसका साथ दे तो आश्चर्य की बात नहीं है। ताइवान को लेकर भारत का मित्रवत व्यवहार चीन को रास नहीं आता, लेकिन व्यापक संदर्भों में भारत ताइवान के मुद्दे पर चीन से दूरी बनाकर चलता आया है।

रूस के उप विदेश मंत्री आंद्रेई रुदेंको

लेकिन रूस—यूक्रेन युद्ध ने भूराजनीति में बड़ा बदलाव ला दिया है। जहां भारत अमेरिका का निकटतम सहयोगी देश बन गया है तो रूस से भी भारत की निकटता ऐतिहासिक रूप से दृढ़ रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सत्ता संभालने के बाद से रूस से संबंध इतने मधुर हुए हैं कि एक ओर हम वहां से कच्चा तेल बेहद कम दामों में खरीद रहे हैं तो दूसरी ओर रूस को दुश्मन मानने वाले पश्चिमी देशों से भी हमारे द्विपक्षीय राजनयिक संबंधों में मिठास बढ़ती गई है।

अमेरिका भी ताइवान को राजनीतिक, सामरिक और रणनीतिक सहयोग देता आ रहा है। उसके नेता, सांसद और प्रमुख मंत्री चीन की तमाम घुड़कियों के बावजूद ताइवान के दौरे करते रहे हैं। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया, जापान और ब्रिटेन के भी ताइवान से संबंध बने हुए हैं। रूस को आज की परिस्थिति में यह खलना स्वाभाविक है, क्योंकि चीन को इन पश्चिमी देशों से ऐसा करने को लेकर दिक्कत है।

रूस के उप विदेश मंत्री आंद्रेई रुदेंको ने हाल में यह कहा है कि अमेरिका ताइवान के बहाने एशिया में दखल दे रहा है। आंद्रेई के इस बयान से स्पष्ट है कि ताइवान के मुद्दे पर मास्को बीजिंग के पाले में है और न सिर्फ पाले में है, बल्कि अपना समर्थन भी दे रहा है। यह वही रूस है जो भारत को यूक्रेन के साथ अपने युद्ध में एक बड़ा बदलाव लायने लायक दमदार समझता है। भारत और रूस के नेतृत्व के बीच समय समय पर आत्मीय वार्ता होती रही है। रूस का कहना है कि ताइवान में हस्तक्षेप करके अमेरिका एक बड़े संकट को न्योता दे रहा है।

रूस के उप विदेश मंत्री के अनुसार, ऐसे संकट की स्थिति में रूस चीन के साथ खड़ा होगा। यहां यह ध्यान रखना होगा कि चीन रूस—यूक्रेन युद्ध में रूस का सैनिकों और पैसे से साथ दे रहा है। इसलिए रूस की तरफ से ऐसा बयान आया कोई हैरानी नहीं पैदा करता।

अभी तक ताइवान के मुद्दे पर कुछ ​पश्चिमी देशों और चीन के बीच ही ठनी हुई थी, लेकिन आंद्रेई रुदेंको ने अब इसमें रूस का एक तीसरा पक्ष रखकर रणनीतिक विशेषज्ञों के बीच इस बहस को जन्म दिया है कि ताइवान पर चीन के आक्रामक होने और उस दौरान अमेरिका के ताइवान के पाले में खड़े होने पर क्या रूस और अमेरिका इस मुद्दे पर भी आमने—सामने आ जाएंगे?

रूस का ताइवान पर अमेरिका के सदर्भ में आया यह बयान स्पष्ट दिखाता है कि मास्को चीन के उस तर्क को स्वीकारता है कि ‘ताइवान एक संप्रभु राष्ट्र नहीं, बल्कि चीन की मुख्य भूमि का एक हिस्सा है और उस पर चीन की प्रभुसत्ता है’। आंद्रेई ने सीधा आरोप लगाया है कि अमेरिका टापू पर बसे छोटे से देश को इस हद तक उकसा दिया है कि इससे एशिया में एक अलग संघर्ष के बादल मंडरा रहे हैं।

न्यूज एजेंसी ‘तास’ से बात करते हुए आंद्रेई ने कहा कि वाशिंगटन ‘वन चाइना’ सिद्धांत को नहीं मानता, लेकिन रूस इस सिद्धांत को स्वीकारता है। अमेरिका ‘स्टेटस को’ की बात करता है लेकिन ताइवान को हथियार भी देने की बात करता है। ताइवान के साथ अमेरिका अपने सैन्य और राजनीतिक जुड़ाव को और पुख्ता करता दिखता है।

ताइवान में अमेरिकी सांसदों का दल तत्कालीन राष्ट्रपति त्साई के साथ

आंद्रेई कहते हैं कि यह मामला क्षेत्र का मामला है, इसमें अमेरिकी दखल को चीन को भड़काने की कोशिश के तौर पर देखा जाना चाहिए। अमेरिका अपना स्वार्थ देख रहा है और इसलिए एशिया में मुश्किलें खड़ी कर रहा है।

उधर चीन की स्थिति यह है कि वह पुराने जमाने से ही उस ताइवान को ‘अपना इलाका’ बताता है जिसे एक दिन उसे ‘मुख्य भूमि में शामिल’ करना है। लोकतांत्रिक मार्ग से चुनी सरकार के शासन वाला ताइवान इस तर्क को बेबुनियाद बताता आया है और खुद को संप्रभु राष्ट्र घोषित करता है। हालांकि बहुत ज्यादा देशों ने ताइवान की सरकार को मान्य नहीं किया हुआ है। लेकिन अमेरिका खुद को हर लिहाज से ताइवान की मदद के लिए खड़ा बताता है।

गत सितंबर माह में ही अमेरिकी राष्ट्रपति बाइ़डेन ने ताइवान को 56.7 करोड़ डॉलर का सैन्य साजोसामान देने का प्रस्ताव मंजूर किया है। चीन इसका पुरजोर विरोध दर्ज करा चुका है। अमेरिका के चीन से भी संबंध ठीक नहीं चल रहे हैं। लेकिन भारत और रूस के बीच ऐतिहासिक संबंधों में और मजबूती आई है। राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री मोदी के मिलने पर दोनों नेताओं की ‘बॉडी लेंग्वेज’ इसकी पुष्टि करती है। लेकिन ताइवान पर रूस का नजरिया चीन से ​मेल खाने वाला, इसके बावजूद भारत को उसने वरियता पर रखा हुआ है और भारत की विदेश नीति कहती भी है कि राष्ट्र सर्वोपरि। इसलिए ताइवान, यूक्रेन और चीन पर मॉस्को का क्या नजरिया है, इस पर प्रतिक्रिया न देकर भारत ने उक्त सभी देशों से संबंध बनाए हुए हैं।

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