राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरुजी संघ के सम्पर्क में आये।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के द्वारा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय भेजे गए नागपुर के स्वयंसेवक भैयाजी दाणी के द्वारा श्री गुरुजी संघ के सम्पर्क में आये। डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा से 1938 के पश्चात् संघ कार्य को समर्पित हो गये। 1939 में उन्हें संघ का सरकार्यवाह नियुक्त किया गया। 1940 में डॉ. हेडगेवार के देहावसान के बाद उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक का दायित्व संभाला। लगभग 33 वर्ष तक इस दायित्व पर रहते हुए अपने समर्पण एवं कठोर परिश्रम से संघ को विराट वटवृक्ष के रूप में विकसित किया। 05 जून 1973 को 'श्री गुरुजी' का देवलोक गमन हो गया।
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
अस्पृश्यता के विरुद्ध श्री गुरुजी ने सामाजिक समरसता की मुहिम चलाई। साधु संतों को इस हेतु एक मंच पर लाये। 1965 में सांदीपनि आश्रम तथा उसके बाद 1966 के प्रयाग कुम्भ में आयोजित धर्म संसद में सभी शंकराचार्यों एवं साधु संतों की उपस्थिति में घोषणा हुई 'ना हिन्दू पतितो भवेत्' ऊंच-नीच गलत है सभी हिन्दू एक हैं। श्री गुरुजी ने सतत् प्रवास कर 1969 में उडुपी में जैन, बौद्ध, सिक्ख सहित समस्त धर्माचार्यों को एकत्रित किया। मंच से घोषणा हुई... "हिन्दवः सोदरा सर्वे, न हिन्दू पतितो भवेत् मम दीक्षा हिन्दू रक्षा, मम मंत्र समानता" श्री गुरुजी ने इस अवसर को अपने जीवन का श्रेष्ठ क्षण बताया था।
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
समाज की विविधता का उल्लेख करते हुए श्री गुरुजी कहते हैं - "एक वृक्ष को लीजिए, जिसमें शाखाएँ, पत्तियाँ, फूल और फल सभी कुछ एक दूसरे से नितांत भिन्न रहते हैं किंतु हम जानते हैं ये सब दिखने वाली विविधताएँ केवल उस वृक्ष की भाँति-भाँति की अभिव्यक्तियाँ हैं। यही बात हमारे सामाजिक जीवन की विविधताओं के सम्बन्ध में भी है, जो इन सहस्रों वर्षों में विकसित हुई हैं।"- अ.भा. जिला प्रचारक वर्ग, सिंदी, विदर्भ, 1954
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी),
"कोई प्रतिबद्धता न रहने का परिणाम यह हुआ कि जीवन में नैतिक मूल्यों का अभाव हुआ और चारों ओर स्वार्थ का बोलबाला बढ़ता गया। धन और सत्ता का महत्त्व बढ़ता गया। समाज को दिशा देने वाली सारी संस्थाएँ प्रयत्नपूर्वक तोड़ दी गईं। दुःख की बात यह है कि इस बात का अहसास भी नहीं है कि हमारा बहुत अनिष्ट हो गया है। विशेषकर पढ़े-लिखे लोग तो इस विस्मरण को ही अपनी प्रगतिशीलता समझ रहे हैं। 'हिन्दू' कहते ही वह बिचकता है, जैसे हिन्दू होना अपराध हो। अपने स्वयं के बारे में इतना विभ्रम, अपने समाज के प्रति इतनी हीन भावना विश्व में अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलेगी।"
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
समाज एक जीवंत संकल्पना होने के कारण हम सब समाज के अंग हैं, एक ही समाज चैतन्य हममें विद्यमान है। उस चैतन्य भाव से हम सब समान परस्पर पूरक हैं, एक दूसरे के साथ समरस हैं ऐसी श्री गुरुजी की धारणा थी। "इस धारणा के अनुसार एकात्मता का साक्षात्कार करें, आसेतुहिमालय सारे राष्ट्र को महान, श्रेष्ठ, दैवी चैतन्यमय व्यक्तित्व के रूप में देखें और उसके अंग होने के नाते अपने को एक समझें, सब अंगों की पवित्रता पर विश्वास करें।" - श्री गुरुजी समग्र : खण्ड 2, पृष्ठ 102
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
"अस्पृश्यता रोग की जड़ जनसामान्य के इस विश्वास में निहित है कि यह धर्म का अंग है और इसका उल्लंघन महापाप होगा। यह विकृत धारणा ही वह मूल कारण है, जिससे शताब्दियों से अनेक समाज-सुधारकों एवं धर्म-धुरंधरों के समर्पित प्रयासों के बाद भी यह घातक परम्परा जनसामान्य के मन में आज भी घर किए बैठी है।"
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
श्री गुरुजी युवकों का उत्साह बढ़ाते हुये उनका आवाहन करते हुए कहते हैं कि "हम अपनी सम्पूर्ण शक्ति से देशभक्ति की यह ज्योति जगाएँ। उसे देशव्यापी व प्रखर बनायें। उस प्रकाश में सम्पूर्ण अज्ञानान्धकार लुप्त हो जाएगा। वह प्रकाश दुनिया की समस्त आसुरी शक्तियों को चुनौती देगा, दृढ़ नींव पर अजेय खड़ा रहेगा और सम्पूर्ण दुनिया को सिद्ध कर देगा कि हम इस श्रेष्ठ राष्ट्र के सुपुत्र हैं। केवल इसी मार्ग से हम सफल हो सकते हैं।"
माधव राव सदाशिवराव (श्री गुरुजी)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक और महान विचारक श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर का जन्म 19 फरवरी 1906 को महाराष्ट्र के नागपुर जिले में हुआ था। बालक मधु में कुशाग्र बुद्धि, ज्ञान की लालसा, असामान्य स्मरण शक्ति जैसे गुणों का समुच्चय बचपन से ही था। उन्होंने 1922, में मैट्रिक, 1924 में इण्टरमीडिएट, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1926 में बी.एस.सी, 1928 में प्राणीशास्त्र में एम.एस.सी की परीक्षायें प्रथम श्रेणी के साथ उत्तीर्ण की और वहीं अध्यापक हो गये। अपनी विलक्षण प्रतिभा और योग्यता से छात्रों में अत्यन्त लोकप्रिय होने से उनके छात्र उनको 'गुरुजी' के नाम से सम्बोधित करने लगे, इसी नाम से वे जीवन भर जाने गये।