लिव-इन की मीमांसा पर भारतीय न्यायविद गौर करें : कृष्ण कुमार महेश्वरी

लिव-इन की मीमांसा पर भारतीय न्यायविद गौर करें : कृष्ण कुमार महेश्वरी, Indian jurists should pay attention to the philosophy of live Krishna Kumar Maheshwari, लिव-इन की मीमांसा पर भारतीय न्यायविद गौर करें : कृष्ण कुमार महेश्वरी

Jan 23, 2025 - 13:19
Jan 23, 2025 - 13:26
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लिव-इन की मीमांसा पर भारतीय न्यायविद गौर करें : कृष्ण कुमार महेश्वरी

लिव-इन की मीमांसा पर भारतीय न्यायविद गौर करें

-शिक्षा के प्रसार के साथ और फिर साथ-साथ कार्य के दौरान युवा वर्ग को लगने लगा कि जीवन के अहम फैसलों में वे स्वयं बेहतर योगदान कर सकते हैं। 
-ऐसे निर्णयों में विवाह के लिए साथी की खोज एक बड़ा फैसला होता है। इस फैसले के लिए उन्हें समय और एक दूसरे को पहचानने और कंपैटिबिलिटी की तसल्ली के लिए मौका मिलना चाहिए। 


-यह कैसे संभव हो? 
-तथाकथित खुली आधुनिकता के हिमायती लोगों ने लिव-इन को पसंद किया। 
शादी से पहले युवा स्त्री पुरुष एक दूसरे का जीवनसाथी बनने की योग्यता जांचने के लिए साथ रहकर आगे के रिश्ते में जुड़ने के लिए अपनी स्वीकृति देना मुनासिब समझा और इस दौरान के रिश्ते को लिव-इन रिलेशनशिप का नाम दिया
-वर्तमान जीवन शैली का प्रसारण युवा वर्ग को अपनी आजाद पहचान बनाने के लिए लालाइत करता है। यह एक लालच को इतना बढ़ाता है कि उनकी जवान ऊर्जा शक्ति ही सब कुछ कर लेगी जो उनके बड़े नहीं कर पाए हैं। 


-इस ऊर्जा को सहारा मिला विदेशी खुलेपन का जिसमें जानवरीयत को ही सब कुछ हासिल है। हर प्रकार की तरक्की, अगुवाई और प्रमाणित करता वर्चस्व। उदाहरण दिया जाता है अमेरिकी प्रगति का जिसके सामने दुनिया के तमाम देश हाथ बांधे खड़े रहकर समर्थ महसूस करते हैं। 


-शरीर की रूपरेखा और उसकी भौतिकवादी चमक ऐसे पेश की जाती है जैसे"आसमान में पैड़ी" लग गयी और नीचे सब हरा ही हरा दिखने लगा और उससे अलग सब सुखा और बंजर। इस तरह की मार्केटिंग मानव जीवन की बौद्धिक और भावना प्रधान अनुभूति को नीची और असभ्य श्रेणी की बताने की कवायद की जाती है।
-विवाह से पूर्व अच्छी पहचान और दूसरे पक्ष की जानकारी प्राप्त करने के लिए आपसी संपर्क अच्छी बात है। इसका कारण यह है कि भारतीय संस्कृति में विवाह पूरे जीवन के लिए होता है अतः आवश्यक जानकारियां जो जीवन को प्रभावित करती हैं की मालूमात होनी चाहिए। 


-कहा जाता है कि लिव-इन से काफी जानकारी मालूम हो जाती है और उससे शादी का फैसला परिपक्वता के साथ लिया जा सकता है। 
ऐसी परिपक्वता एक शगुफा हो सकता है करण कि मानव स्वभाव की विलक्ष्णताओं की जानकारी के लिए कितना भी समय कम ही होगा।
-ऐसी मालूमातों के लिए जिनसे कमिटमेंट करने में युवा वर्ग सहज हो सके एवं स्त्री पुरुष के रूप में रहना जिसे लिव-इन का नाम दिया जाता है कोई आवश्यक नहीं है। 
पूरे जीवन का हर क्षण हमें कुछ ना कुछ सीखता ही रहता है। इन सबके लिए जीवन जीने की जरूरत है
-यही नहीं हमारा आज का आचरण आगे आने वाली संतति के रूप में पीढ़ियों तक प्रभाव डालता है और फिर हम मनुष्य हैं यदि आवश्यक मर्यादा का पालन नहीं किया तो हम देहधारियों में श्रेष्ठता के अपने वजूद को खो देंगे। 


जीवन की कर देखा और जांचा जाता है, उन तमाम परिस्थितियों में जिसका अनुमान लगाना मुश्किल होता है लेकिन बदलते समय की रौनक उन तमाम बाबतों को शादी का वादा करने के पहले ही समझने के प्रयास पर बोल देता है। इसमें सफलता कितनी होगी और कैसी होगी एक बड़ा प्रश्न है
-सुनने में आता है कि लिव-इन के दौरान स्थापित हुए यौन संबंध और परिणाम स्वरूप यदि संतान का जन्म होता है तो उसके अधिकारों की भी न्यायिक व्यवस्था पर न्यायविदों ने अपनी राय रखी। इसका मतलब विवाह पूर्व यौन संबंधों और संतान के जन्म को मान्यता देना हुआ। यद्यपि ऐसी संतानों को नाजायज नहीं माना जाएगा पर यदि लिव-इन विवाह के रिश्ते में किसी वजह से ना तब्दील हुआ तो फिर लिव-इन के कारण वजूद में आई संतान का भविष्य कैसा रहेगा, बड़े असमंजस की बात है! इसका मानसिक और सामाजिक प्रभाव कैसा होगा, भारतीय परिवेश में समझना टेढ़ी खीर होगी।

लिव-इन की हिमायत की जा सकती है यदि इस दौरान रिश्ते को गरिमा युक्त मर्यादा का दायरा मिल जाए तो
-स्त्री पुरुष के बीच एकांत सेवन लिव-इन का अंग ना हो और परिजनों के बीच रहकर परिवार और वैवाहिक जीवन बाबत एक दूसरे की पहचान वाली मशक्कत सहजता पूर्वक उभारे जाने की व्यवस्था काबिले तारीफ होगी। 


यदि ऐसा आदर्श का अनुपालन संभव न हो तो न्यायविदों को लिव-इन के पक्ष में नहीं खड़ा होना चाहिए और इस रिश्ते को कानूनी मान्यता भी नहीं मिलनी चाहिए
-प्रशासन और न्याय व्यवस्था द्वारा लिव-इन को अस्वीकार करना चाहिए। इसमें शिक्षा व्यवस्था के मार्फत शिक्षाविदों का भी योगदान किया जाना चाहिए ताकि अनैतिकता के दुष्परिणामों को रोका जा सके। हां! बदलते समय को देखते हुए परिजनों एवं सामाजिक संस्थाओं को भी गौर करना चाहिए ताकि युवा वर्ग उन्हें अपना हिमायती समझने लगे और आपस में तालमेल का सहयोग हो।

आलेख: कृष्ण कुमार महेश्वरी

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