कांग्रेस में आलाकमान: हिमाचल की राजनीतिक संगीत यात्रा
पीवी नरसिंह राव के करीबी समझे गए वीरभद्र के गांधी परिवार से रिश्ते सहज नहीं रहे, लेकिन उनके बिना हिमाचल में कांग्रेस सरकार की कल्पना भी तबमुश्किल नजर आती थी।
आंतरिक संकट की अनदेखी के दुष्परिणाम
गुटबाजी कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र का हिस्सा रही है, पर आलाकमान और वरिष्ठ प्रादेशिक नेताओं के बीच आज जैसी संवादहीनता कभी नहीं र रही
हिमाचल विधानसभा के अध्यक्ष कुलदीप सिंह पठानिया द्वारा कांग्रेस के छह बागी विधायकों को अयोग्य घोषित करने से राज्य में सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली सरकार को तात्कालिक तौर पर जीवनदान मिल गया। सरकार को संकट से उबारने के लिए कांग्रेस आलाकमान के रवैये की प्रशंसा की जा सकती है, लेकिन सवाल यह भी है कि ऐसी स्थिति निर्मित कैसे हुई ? यदि वहां के हालात पर पहले मंथन किया गया होता तो आवश्यक वोट होने के बावजूद राज्यसभा सीट हारने की फजीहत नहीं होती।
2022 के विधानसभा चुनाव में 40 सीटें जीतकर कांग्रेस ने सुविधाजनक बहुमत हासिल किया और भाजपा 25 सीटों पर सिमट गई। हालांकि दोनों को मिले वोटों में एक प्रतिशत का ही अंतर रहा। ऐसे बहुमत के बावजूद मुख्यमंत्री चयन के लिए जैसी रस्साकशी हुई, वह कांग्रेस में गुटबाजी का स्पष्ट संकेत थी। यह कोई दबी-छिपी बात नहीं कि हिमाचल में कांग्रेस की राजनीति दशकों तक वीरभद्र सिंह के इर्दगिर्द घूमती रही। पीवी नरसिंह राव के करीबी समझे गए वीरभद्र के गांधी परिवार से रिश्ते सहज नहीं रहे, लेकिन उनके बिना हिमाचल में कांग्रेस सरकार की कल्पना भी तबमुश्किल नजर आती थी। वीरभद्र सिंहके निधन के बाद हुए पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को बहुमत मिलते ही आलाकमान ने पार्टी को उनके परिवार के कब्जे से निकालने की रणनीति बना ली। वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं और मंडी से लोकसभा सदस्य भी।
प्रतिभा मुख्यमंत्री बनना चाहती थीं, क्योंकि बेटा विक्रमादित्य ज्यादा अनुभवी नहीं, मगर आलाकमान उनके विरोधी और अपने विश्वस्त सुखविंदर सिंह की ताजपोशी में सफल रहा। संतुलन की कवायद में मुकेश अग्निहोत्री को उपमुख्यमंत्री और विक्रमादित्य को मंत्री बनाया गया, लेकिन गुटबाजी पनपती रही। प्रतिभा गुट के विधायक विभिन्न मामलों में पत्र लिख कर सुक्खू पर दबाव बनाते नहीं हुई। क्रास रहे, लेकिन ज्यादा सुनवाई सुनवाई नहीं हुई। वोटिंग करने वाले विधायकों को अयोग्य घोषित किए जाने पर प्रतिभा सिंह ने कहा भी कि अगर उनकी शिकायतों का समय रहते समाधान किया गया होता तो नौबत यहां तक नहीं पहुंचती। सुक्खु की छवि साफ-सुथरी है, पर अपने ही विधायकों की बात न सुनना-समझना राजनीतिक कौशल का परिचायक तो नहीं। बेशक यह सब आलाकमान की भी जानकारी में था। इसलिए बात के बगावत तक पहुंच जाने के लिए वह भी जिम्मेदार हैं। संकटमोचक बनाकर भेजे गए
पर्यवेक्षकों भूपेंद्र सिंह हुड्डा और डीके शिवकुमार ने सब कुछ ठीक होने किया है, लेकिन उस पर भरोसा आसान नहीं। एक तो जिन विधायकों को घोषित किया गया है, वे प्रतिभा गुट के हैं। जाहिर है, उनकी शह पर ही सब कुछ हुआ होगा। ऐसे में क्या वह गुट शांत बैठकर अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता पर ही सवालिया निशान लगाएगा? ध्यान रहे कि भाजपा खुलकर कह चुकी है कि वह अयोग्य घोषित विधायकों के साथ खड़ी रहेगी। विधानसभा की प्रभावी संख्या 62 रह जाने के बाद बहुमत का आंकड़ा 32 बनता है, जबकि कांग्रेस 34 विधायक बचे हैं। यह सुविधाजनक बहुमत तो कतई नहीं। भाजपा और प्रतिभा मिलकर कभी भी सुक्खू के 'सुख' पर ग्रहण लगा सकते हैं। सुक्खू सरकार को मिली राहत के बावजूद कांग्रेस के राजनीतिक प्रबंधन पर उठते सवाल जवाब मांगते रहेंगे। हिमाचल से पहले कमल नाथ और सचिन पायलट ही ऐसे दो प्रकरण रहे,
जब आलाकमान सक्रियता से संकट टाल दिया, ने अपनी का दावा अयोग्य बार वह बहुत देर से जागा। इसका उसे कई राज्यों में नुकसान भी उठाना पड़ा। 2000 में समर्थक विधायकों समेत ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में शामिल होने से मध्य प्रदेश में जिन कमल नाथ की सरकार गिर गई थी, वह पिछले महीने जब भाजपा में शामिल होने की अटकलों के बीच समर्थक विधायकों समेत दिल्ली पहुंच गए, तब कांग्रेस जागी। कमल नाथ को कभी इंदिरा गांधी का तीसरा बेटा कहा जाता था तो सिंधिया की गिनती राहुल-प्रियंका के करीबियों में होती थी। अगर गांधी परिवार के इतने करीबियों से संपर्क-संवाद का यह हाल है तो बाकी कांग्रेस नेताओं के हाल की कल्पना आप कर सकते हैं। हिमंत बिस्वा सरमा से जुड़ा एक किस्सा आज भी सुनाया जाता हैं कि कैसे कई दिन दिल्ली में रहने के बाद भी उन्हें कांग्रेस आलाकमान ने भाव नहीं दिया। राजस्थान, मध्य प्रदेश और हिमाचल में तो संकट विस्फोटक स्थिति में पहुंच गया, मगर अन्य राज्यों में भी कांग्रेस में सब कुछ सामान्य नहीं है। यह सच है कि गुटबाजी कांग्रेस के राजनीतिक चरित्र के पास लेकिन हर संपर्कहीनता और संवादहीनता कभी नहीं रही।
बेशक एक ऐसा राजनीतिक प्रबंधन तंत्र भी हमेशा रहा, जो देश से लेकर प्रदेशों तक कांग्रेस नेताओं पर नजर रखता था, ताकि बीमारी गंभीर होने से पहले ही उसका जरूरी उपचार किया जा सके। लगता है अहमद पटेल के निधन के बाद कांग्रेस में कोई राजनीतिक प्रबंधन व्यवस्था नहीं रह गई है। अगर है भी तो वह प्रभावी तो नहीं दिखती। किसी एक मठाधीश के हवाले पूरे राज्य की राजनीति छोड दी गई है और बाकी नेता उसकी कृपा पर निर्भर हैं। जाहिर है, ये मठाधीश अपने परिजनों एवं करीबियों के अलावा किसी और नेता को पनपने नहीं देते। परिणामस्वरूप आलाकमान की उन पर निर्भरता लगातार बढ़ती जाती है। यह स्थिति कांग्रेस संगठन को तो राज्य-दर- राज्य खोखला कर ही रही है,
आलाकमान की कमान भी कमजोर पड़ रही है और क्षत्रप उसे आंखें दिखाने में संकोच नहीं करते। अब जब लगातार सिकुड़ते हुए कांग्रेस ज्यादातर प्रदेशों में हाशिये पर पहुंच गई है, तब यह सवाल से उठता है कि आखिर कांग्रेस आलाकमान व्यस्त कहां रहता है कि उसके पास अपने बड़े नेताओं से भी संपर्क और संवाद का समय नहीं? दूसरी और भाजपा है जो शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह सरीखे क्षत्रपों को बदलने में संकोच नहीं करती। उसका आलाकमान अपने दल ही नहीं, दूसरे दलों के नेताओं से मुलाकात के लिए सहज उपलब्ध रहता है।
राज कुमार सिंह
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
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