सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पर रोक लगाने से मना कर
नागरिकता संशोधन कानून के दायरे में तीन पड़ोसी देशों के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में भेद न करने की मांग करने वाले भारत के विभाजन की परिस्थितियों की भी अनदेखी कर रहे हैं।
![सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पर रोक लगाने से मना कर](https://img.theweek.in/content/dam/week/news/india/images/2019/12/12/Citizenship-Amendment-Bill-Parliament-Representational.jpg)
नागरिकता कानून पर बेतुकी आपत्ति
तीन पड़ोसी देशों के सभी लोगों को सीएए के दायरे में लाने की मांग कुतर्क के अलावा और कुछ नहीं
सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएए पर रोक लगाने से मना कर वकीलों के उस समूह को कुछ समय के लिए ही सही, अवश्य निराश किया होगा, जिन्होंने शीर्ष अदालत को एक तरह से तीसरे और सर्वोच्च सदन में बदल दिया है। इस कानून के खिलाफ करीब दो सौ से अधिक याचिकाएं दायर की गई हैं। इनमें एक याचिका उस इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग की भी है, जो मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग का छद्म रूप है। स्पष्ट है कि इतनी अधिक याचिकाओं के कारण नागरिकता कानून की संवैधानिकता पर लंबी सुनवाई चलेगी।
सीएए पर आपत्तियों की कमी नहीं। एक आपत्ति यह है कि इस कानून के तहत अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को भारतीय नागरिक बन सकने की वैसी सुविधा नहीं दी गई, जैसी इन देशों के हिंदुओं, सिखों, जैनों, बौद्धों, पारसियों और ईसाइयों को दी गई है। प्रश्न यह है कि क्या भारत का संविधान देश के बाहर के लोगों पर भी लागू होता है? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि नागरिकता कानून का तो भारत के किसी नागरिक से लेना-देना ही नहीं।
संबंध तो केवल तीन पड़ोसी देशों के लोगों से है। सीएए पर बहस के बीच यह सवाल उठना ही चाहिए कि क्या एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत को यह तय करने का अधिकार नहीं कि वह किन देशों के लोगों को सरलता से नागरिकता दे और किन देशों के लोगों को अलग प्रक्रिया का पालन करके ? कहना कठिन है कि नागरिकता कानून के तहत तीन पड़ोसी देशों के मुसलमानों को नागरिकता देने के लिए अलग और वहां के हिंदुओं, सिखों, जैनों, बौद्धों, पारसियों और ईसाइयों के स्तर पर अलग नियमों को लेकर उठाए जा रहे प्रश्नों पर सुप्रीम कोर्ट किस नतीजे पर पहुंचेगा,
लेकिन क्या यह विचित्र नहीं कि सीएए को लेकर तो यह जिद की जा रही है कि भारत के तीन पड़ोसी देशों के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को एकसमान अधिकार दिए जाएं, लेकिन बड़ी चतुराई से इसकी अनदेखी की जा रही है कि देश के नागरिकों पर लागू होने वाले कई कानून ऐसे हैं, जो उनमें खुला भेद करते हैं और तार्किक वर्गीकरण के संवैधानिक सिद्धांत का भी उल्लंघन करते हैं। ऐसा ही एक कानून है, शिक्षा अधिकार कानून।
इस कानून के तहत बहुसंख्यकों के शिक्षा संस्थान अलग नियमों से संचालित हो रहे हैं और अल्पसंख्यकों के अलग नियमों से। आखिर सबको शिक्षित करने के अभियान में सभी समुदायों के शिक्षा संस्थानों को एकसमान तरीके से सहयोग क्यों नहीं देना चाहिए? क्या कारण है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय उस तरह संचालित नहीं होता, जैसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय संचालित किया जा रहा है? क्या सीएए को विभेदकारी बताने वाले यह कहने का साहस करेंगे कि अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के शिक्षा संस्थानों के संचालन के तौर-तरीके अलग-अलग नहीं होने चाहिए? आम तौर पर जिन्हें नागरिकता कानून में खोट नजर आती है, उन्हें ही समान नागरिक संहिता का विचार डराता है
या फिर यह कहें कि इस संहिता पर कोई पहल होते ही वे अपने समुदाय के लोगों को डराने में लग जाते हैं। आखिर देश के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों को विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि के अधिकार एकसमान क्यों नहीं होने चाहिए? आखिर देश के सभी नागरिकों में भेद न करने वाली समान नागरिक संहिता के मामले में देश के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में भेद करने की जिद क्यों की जा रही है? कायदे से समान नागरिक संहिता का निर्माण आजादी के बाद तभी हो जाना चाहिए था, जब हिंदू कोड बिल लाया गया था। यह बिल हिंदू समुदाय की कुरीतियों को दूर करने के लिए लाया गया था, लेकिन क्या कुरीतियां केवल हिंदू समाज में ही थीं? क्या जैसे सामाजिक सुधार की आवश्यकता हिंदू समुदाय को थी, वैसी ही अन्य समुदायों को नहीं थी? प्रश्न यह है कि क्या यह अब भी नहीं है? भारत के अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में भेद करने वाला एक कानून वह भी जो सरकारों को हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण करने और उन पर टैक्स लगाने का अधिकार देता है। ऐसा कोई कानून अन्य धार्मिक स्थलों को लेकर नहीं है।
क्यों नहीं है, इसका जवाब किसी के पास नहीं। या तो ऐसा कोई कानून सभी समुदायों के धार्मिक स्थलों को लेकर होना चाहिए या फिर मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त किया जाना चाहिए। क्या ऐसा कुछ है कि अन्य समुदाय यानी अल्पसंख्यक तो अपने धार्मिक स्थलों का नियमन और संचालन करने में सक्षम हैं, लेकिन हिंदू समुदाय अर्थात बहुसंख्यक समाज ऐसा करने में नाकारा है? आखिर तथाकथित सेक्युलर भारत के अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों में ऐसा खुला भेद करने वाला कोई कानून अस्तित्व में क्यों है? क्या इस कानून को तार्किक वर्गीकरण या उचित विभेद वाले कानून की वैसी ही संज्ञा दी जा सकती है, जैसी आरक्षण संबंधी कानूनों के मामले में दी जाती है?
नागरिकता संशोधन कानून के दायरे में तीन पड़ोसी देशों के बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में भेद न करने की मांग करने वाले भारत के विभाजन की परिस्थितियों की भी अनदेखी कर रहे हैं। आखिर जिन लोगों ने वोट के जरिये और साथ ही जोर- जबरदस्ती का सहारा लेकर भारत का विभाजन कराया, उनमें और उन लोगों में तार्किक-उचित विभेद क्यों नहीं किया जाना चाहिए, जिन पर पाकिस्तान जबरन थोपा गया? ये वे अभागे लोग हैं, जिनके बारे में यह कहना कठिन है कि वे पाकिस्तान और बांग्लादेश में कब तक बचे रहेंगे। सवाल यह भी है कि क्या भारत कोई धर्मशाला है, जो हर किसी को अपने यहां आने और बस जाने की सहूलियत दे दे। वैसे धर्मशाला के भी अपने नियम होते हैं।
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