भगत सिंह का पत्र अपने पिता को लिखा सरदार किशन सिंह

भगत¯सह की जेल नोटबुक जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी भगतसिंह की जेल नोटबुक से जुड़े विचार और माक्र्सवादी साहित्य के गहन अध्ययन पर आधारित, जिसमें उनकी क्रांतिकारी विचारधारा और समाजवादी सिद्धांतों की यात्रा का वर्णन है। जानिए, कैसे उनके चिंतन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारी आंदोलन को प्रभावित किया। भगतसिंह, भगतसिंह के विचार, भगतसिंह की जीवनी, भगतसिंह का जीवन, भगतसिंह की शहादत, भगतसिंह के पत्र, भगतसिंह के क्रांतिकारी विचार, भगतसिंह की जेल नोटबुक, शहीद भगतसिंह, भगतसिंह और माक्र्सवाद, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.), भगतसिंह का समाजवाद, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भगतसिंह, भगतसिंह के भाषण, भगतसिंह के लेख, भगतसिंह की विचारधारा, क्रांतिकारी भगतसिंह, फांसी की सजा और भगतसिंह, भगतसिंह के प्रेरणादायक विचार, भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी,

भगत सिंह का  पत्र अपने पिता को लिखा सरदार किशन सिंह

1923 के उत्तरार्ध में घर से पहली बार फरार होते समय भगत सिंह यह पत्र अपने पिता सरदार किशनसिंह के लिए छोड़ गये थे: पूज्य पिता जी, नमस्ते! मेरी ज़िन्दगी मकसदे आला (उच्च उद्देश्य) यानी आज़ादी-ए-हिन्द (भारत की स्वतंत्रता) के असूल (सिद्धांत) के लिए वक्फ (दान) हो चुकी है।

इसलिए मेरी ज़िन्दगी में आराम और दुनियाबी खाहशात (सांसारिक इच्छा) बायसे कशिश (आकर्षक) नहीं हैं। आपको याद होगा कि जब में छोटा था, तो बापू जी ने मेरे यज्ञोपवीत के वक्त ऐलान किया था कि मुझे खिदमते वतन (देश सेवा) के लिए वक्फ कर दिया गया है लिहाज़ा में उस वक्त की प्रतीक्षा पूरी कर रहा हूं। उम्मीद है आप मुझे माफ फरमाएंगे।

आपका ताबेदार भगतसिंह घर से फरार होकर भगतसिंह कानपुर जा पहुंचे और स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित-प्रकाशित साप्ताहिक 'प्रताप' के सम्पाद‌क मंडल में काम करते हुए क्रान्तिकारी दल के कार्य करने लगे।

उन्हीं दिनों उन्होंने 15 मार्च, 1926 के 'प्रताप' में 'एक पंजाबी युवक' के नाम से बब्बर अकाली आन्दोलन के शहीदों पर यह लेख लिखा।

होली के दिन रक्त के छींटे बबर अकाली फांसी पर होली के दिन-27 फरवरी, 1926 के दिन, जब हम लोग खेल-कूद में व्यस्त हो रहे थे, उसी समय इस विशाल प्रदेश के एक कोने में एक भीषण काण्डे किया जा रहा था। सुनोगे तो सिहर उठोगे! 'कांप उठोगे लाहौर सेंट्रल जेल में ठीक उसी दिन छह बबर अकाली वीर फांसी पर लटका दिये गये। श्री किशनसिंह जी गड्गज्ज, श्री सन्तासिंह जी, श्री दिलीपसिंह जी, श्री नन्दसिंह जी, श्री करमसिंह जी व श्री धरमसिंह जी लगभग दो वर्ष से अपने इसी अभियोग में जो उपेक्षा, जो लापरवाही दिखा रहे थे, उसी से जाना जा सकता था कि वे इस दिन की प्रतीक्षा कितने चाव से करते थे। महीनों बाद जज महोदय ने फैसला सुनाया। पांच को फांसी, बहुतों को काला पानी अथवा देश-निकाला और लम्बी-लम्बी कैदें। अभियुक्त वीर गरज उठे। उन्होंने आकाश को अपने जयघोषों से गुंजायमान कर दिया। अपील हुई। पांच की जगह छह मृत्युदण्ड के भागी बने! उस दिन समाचार पढ़ा कि दया के लिए अपील भेजी गई है, पंजाब सचिव ने घोषणा की कि अभी फांसी नहीं दी जायेगी। प्रतीक्षा थी, परन्तु एकाएक क्या देखते हैं कि होली के दिन शोकग्रस्त लोगों का एक छोटा समूह उन वीरों के मृत शवों को श्मशान में लिए जा रहा है। चुपचाप उनकी अन्त्येष्टि-क्रिया समाप्त हो गई। नगर में वही धूम थी। आने-जाने वालों पर उसी प्रकार रंग डाला जा रहा था। कैसी भीषण उपेक्षा थी! यदि वे पथभ्रष्ट थे तो होने दो, उन्मत्त थे तो होने दो, वे निर्भीक देशभक्त तो थे। उन्होंने जो कुछ किया था, इस अभागे देश के ही लिए तो किया था? वे अन्याय न सहन कर सके, देश की पतित अवस्था को न देख सके, निर्बलों पर ढाये जाने वाले अत्याचार उनके लिए असह्य हो उठे, आम जनता का शोषण यह बर्दाश्त न कर सके, उन्होंने ललकारा और वे कूद पड़े कर्मक्षेत्र में। वे सजीव थे, वे सदृश थे? कर्मक्षेत्र की भीषणते! धन्य है तु!! मृत्यु के पश्चात् मित्र-शत्रु सब समान हो जाते हैं, यह आदर्श है पुरुषों का। 1। अगर उन्होंने को गैई घृणित कार्य किया भी हो, तो स्वदेश के चरणों में जिस साहस और तत्परता से उन्होंने अपने प्राण चढ़ा दिये, उसे देखते हुए तो उनकी पूजा की जानी चाहिए। श्री टेगार्ड महोदय विपक्षी दल के होने पर भी जतीन मुकर्जी, बेंगाल के वीर क्रान्तिकारी, की मृत्यु पर शोक प्रकट करते हुए उनकी वीरता, देशप्रेम और कर्मशीलता की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा कर सकते हैं, परन्तु हम, कायर नरपशु, एक क्षण के लिए भी आनन्द-विलास छोड वीरों की मृत्यु पर आह तक भरने का साहस नहीं करते! कितनी निराशाजनक बात है। उन गरीबों का जो अपराध नौकरशाही की दृष्टि में था, उसका उन्होंने पर्याप्त दण्ड, क्रूर नौकरशाही की दृष्टि में भी पा लिया। इस भीषण दुखान्त नाटक का एक और पर्व समाप्त हो गया। अभी यवनिका-पतन नहीं हुआ है। नाटक अभी कुछ दिन और भीषण दृश्य दिखायेगा। कथा लम्बी है, सुनने के लिए जरा दूर तक पीछे मुड़ना होगा। असहयोग आन्दोलन पूरे यौवन पर था। पंजाब किसी से पीछे नहीं रहा। पंजाब में सिक्ख भी उठे, बड़ी गहरी नींद से उठे और उठे खूब जोरों के साथ। अकाली आन्दोलन शुरू हुआ। बलिदानों की लड़ी लग गई। मास्टर मोतासिंह, खालसा मिडिल स्कूल, माहलपुर, जिला होशियारपुर, के भूतपूर्व मास्टर महोदय ने एक व्याख्यान दिया। उनका वारण्ट निकला। परन्तु सम्राट का आतिथ्य उन्हें स्वीकार न था। यों ही जेलों में चले जाने के वे विरोधी थे। उनके व्याख्यान फिर भी होते रहे। कोट फतही नामक ग्राम में भारी दीवान हुआ, पुलिस ने चारों ओर से घेरा डाला, फिर भी मास्टर मोतासिंह ने व्याख्यान दिया। अन्त में प्रधान की आज्ञा से सभी दर्शक उठ गये। मास्टर जी न जाने किधर पहुंचे। बहुत दिनों तक इसी तरह यह आंखमिचौनी का खेल होता रहा। सरकार बौखला उठी। अन्त में एक हमजोली ने धोखा दिया और डेढ वर्ष बाद एक दिन मास्टर साहब पकड़ लिए गये। यह पहला दृश्य था उस भयानक नाटक का। गुरु का बाग आन्दोलन शुरू हुआ। निहत्थे वीरों पर जिस समय भाडे के टट्टू टूट पड़ते, उन्हें मार-मारकर अधमरा-सा कर देते, देखने-सुनने वालों में से कौन होगा जो द्रवित न हो उठा हो! चारों ओर गिरफ्तारियों की धूम थीं। सरदार किशनसिंह गड़गज्ज के नाम भी वारण्ट निकला। मगर वे भी तो उसी दल के थे। उन्होंने भी गिरफ्तार होना स्वीकार नहीं किया। पुलिस हाथ धोकर पीछे पड़ गई, पर फिर भी वे बचते ही रहे। उन्का संगठित किया हुआ अपना एक क्रान्तिकारी दल था। निहत्थों पर किये जाने वाले अत्याचारों को वे सहन न कर सके। इस शांतिपूर्ण आन्दोलन के साथ-साथ उन्होंने शस्त्रों का प्रयोग भी जरूरी समझा। एक ओर कुत्ते, शिकारी कुत्ते, उनको खोज निकालने के लिए संघते फिरते थे. दूसरी ओर निश्चय हुआ कि खशामदियों (झोलीचुक्कों) का सुधार किया जाए। सरदार किशनसिंह जी कहते थे, अपनी रक्षा के लिए हमें सशस्त्र ज़रूर रहना चाहिए, पर अभी कोई और कदम न उठाना चाहिए। परन्तु बहुमत दूसरी ओर था। अन्त में फैसला हुआ कि तीन व्यक्ति अपने नाम घोषित कर दें और सारी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लें तथा झोलीचुक्कों का सुधार शुरू कर दें। श्री कर्मसिंह, श्री धन्नासिंह तथा श्री उदयसिंह जी आगे बड़े। यह उचित था अथवा अनुचित, इसे एक ओर हटाकर ज़रा उस समय की कल्पना तो कीजिए, जब इन नवीन वीरों ने शपथ ली थी- "हम देश-सेवा में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे, हम प्रतिज्ञा करते हैं कि लड़ते-लड़ते मर जाएंगे, मगर जेल जाना मंजूर न करेंगे।" जिन्होंने अपने परिवार का मोह त्याग दिया था वे लोग जब ऐसी शपथ ले रहे थे, उस समय कैसा सुन्दर, मनोरम, पवित्रता से परिपूरित दृश्य रहा होगा। आत्म-त्याग की पराकाष्ठा कहां है? साहस और निर्भीकता की सीमा किस ओर है? आदर्शपरायणता की चरमता का निवास किधर है.? श्याम चुरासी, होशियारपुर ब्रांच रेलवे लाइन के एक स्टेशन के निकट सबसे पहले एक सूबेदार पर हाथ साफ किया गया। 

एक और पत्र  लिखा भगत सिंह ने 

अपने मित्र अमरचन्द (जो उस समय अमरीका में पड रहे थे) को लिखा भगतसिंह का सन् 1927 का पत्र। प्यारे भाई अमरचन्द जी, नमस्ते अर्ज़ है कि इस दफा अचानक मां के बीमार होने पर इधर आया और आपकी मोहतीरमा वाल्दा (आदरणीया मां) के दर्शन हुए। आपका खत पढ़ा। इनके लिए यह (साथ वाला) खत लिखा। साथ ही दो-चार अल्फाज़ (शब्द) लिखने का मौका मिल गया। क्या लिख, करमसिंह विलायत गया है, उसका पता भेजा जा रहा है। अभी तो उसने लिखा है कि लॉ पढ़ेगा, मगर कैसे चल रहा है, सो खुदा जाने, खर्च बहुत ज्यादा हो रहा है। भाई, हमारी मुमालिक गैर (विदेश) में जाकर तालीम (शिक्षा) हासिल करने की ख्वाहिश खूब पायमाल (बर्बाद) हुई। अच्छा, तुम्हीं लोगों को सब मुबारक, कभी मौका मिले तो कोई अच्छी-अच्छी कतब (पुस्तकें) भेजने की तकलीफ उठाना। आखिर अमेरिका में लिट्रेचर तो बहुत है। खैर, अभी तो अपनी तालीम में बुरी तरह फंसे हुए हो। सान्फ्रांसिस्को वगैरह की तरफ से सरदार जी (अजीतसिंह जी) का शायद कुछ पता मिल सके। कोशिश करना। कम- अज़-कम जिन्दगी का यकीन तो हो जाये। मैं अभी लाहौर जा रहा हूं। कभी मौका मिले तो खत तहरीर फरमाइयेगा। पता सूत्र मंडी, लाहौर होगा। और क्या लिखें? कुछ लिखने को नहीं है। मेरा हाल भी खूब है। बारहा (कई बार) मुसायब (मुसीबतों) का शिकार होना पड़ा। आखिर केस वापस ले लिया गया। बादजों (बाद में) फिर गिरफ्तार हुआ। साठ हज़ार की जमानत पर रिहा हूं। अभी तक कोई मुकदमा मेरे खिलाफ तैयार नहीं हो सका और ईश्वर ने चाहा तो हो भी नहीं सकेगा। आज एक बरस होने को आया, मगर जमानत वापस नहीं ली गई। जिस तरह ईश्वर को मंजूर होगा। (लिखकर काट रखा है) ख्वाहमख्वाह तंग करते हैं। भाई, खूब दिल लगाकर तालीम हासिल करते चले जाओ। आपका ताबेदार भगतसिंह अपने मुताल्लिक और क्या लिखें, ख्वाहमख्वाह शक का शिकार बना हुआ हूं। मेरी डाक रुकती है। खतूत (पत्र) खोल लिए जाते हैं। न जाने में कैसे इस कदर शक की निगाह से. देखा जाने लगा। खैर भाई, आखिर सच्चाई सतह पर आयेगी और इसी की फतह होगी।