भगत¯सिंह की जेल के पत्र जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी

भगतसिंह की जेल नोटबुक से जुड़े विचार और माक्र्सवादी साहित्य के गहन अध्ययन पर आधारित, जिसमें उनकी क्रांतिकारी विचारधारा और समाजवादी सिद्धांतों की यात्रा का वर्णन है। जानिए, कैसे उनके चिंतन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और क्रांतिकारी आंदोलन को प्रभावित किया। भगतसिंह, भगतसिंह के विचार, भगतसिंह की जीवनी, भगतसिंह का जीवन, भगतसिंह की शहादत, भगतसिंह के पत्र, भगतसिंह के क्रांतिकारी विचार, भगतसिंह की जेल नोटबुक, शहीद भगतसिंह, भगतसिंह और माक्र्सवाद, हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एच.एस.आर.ए.), भगतसिंह का समाजवाद, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और भगतसिंह, भगतसिंह के भाषण, भगतसिंह के लेख, भगतसिंह की विचारधारा, क्रांतिकारी भगतसिंह, फांसी की सजा और भगतसिंह, भगतसिंह के प्रेरणादायक विचार, भगतसिंह के क्रांतिकारी साथी,

Sep 28, 2024 - 18:50
Sep 28, 2024 - 19:45
 0
भगत¯सिंह  की जेल के पत्र जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी

भगत सिंह  की जेल के पत्र जो शहादत के तिरसठ वर्षों बाद छप सकी


की दुर्लभ जेल नोटबुक से विस्तृत हवाले देते हुए उनके द्वारा अन्तिम दिनों में किये  गये क्रान्तिकारी और माक्र्सवादी साहित्य के गहन अध्ययन पर प्रकाश डाला था  और उन योजक-सूत्रों को संयोजित करने की कोशिश की थी, जो भगत सिंह के  चिन्तन के संघटक अवयव थे।  भगत सिंह और उनके साथियों ने 1928 में ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट   रिपब्लिकन एसोसिएशन’ की स्थापना के समय ही समाजवाद को लक्ष्य और सिन्त के रूप में स्वीकार कर लिया था, पर कमोबेश 1929 के मध्य तक समाजवाद और माक्र्सवाद के प्रति उनका लगाव भावात्मक ही था, नहीं। 

भगत सिंह के सहयोगी क्रान्तिकारी शिववर्मा सहित अनेक इतिहासकारों ने इस बात  का उल्लेख किया है कि 1929 में गिरफ्ऱतारी के बाद एच.एस.आर.ए. के युवा  क्रान्तिकारियों के एक धड़े ने, और विशेषकर भगत सिंह ने जेल में बड़ी मुश्किलों  से जुटाकर, क्रान्तिकारी साहित्य और माक्र्सवाद का गहन अध्ययन और उस पर  विचार-विमर्श किया। इसके परिणामस्वरूप वे अराजकतावादी और मध्यवर्गीय  दुस्साहसवाद को छोड़कर तेज़ी से सर्वहारा क्रान्ति के माक्र्सवादी सिन्तों को
अपनाने की दिशा में आगे बढ़े। वैयक्तिक शौर्य एवं बलिदान से जनता को जगाने
और आतंकवादी रणनीति द्वारा उपनिवेशवाद के विरु( संघर्ष का रास्ता छोड़कर
उन्होंने अपने अतीत की आलोचना व समाहार किया तथा इस बात पर बल दिया
कि क्रान्ति की मुख्य शक्ति मज़दूर और किसान हैं, साम्राज्यवाद को केवल सर्वहारा
क्रान्ति द्वारा ही शिकस्त दी जा सकती है, मुख्यतः पेशेवर क्रान्तिकारियों पर  आधारित सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के मार्गदर्शन में व्यापक मेहनतकश
जनता व मध्यवर्ग के जनसंगठन खड़ा करके जनान्दोलन का मार्ग अपनाया जाना
चाहिए और यह कि, इसके बाद ही सशस्त्रा क्रान्ति द्वारा सत्ता पलटकर सर्वहारा
अधिनायकत्व की स्थापना की जा सकती है। एच.एस.आर.ए. के सिन्तों कारों में
भगत सिंह सर्वोपरि थे और उनकी पूरी विचार-यात्रा को 1929 से मार्च 1931 तक
;यानी पफाँसी चढ़ने तकद्ध के उनके दस्तावेज़ों, लेखों, पत्रों और वक्तव्यों में देखा
जा सकता है। भगत सिंह के सर्वोन्नत विचार प़फरवरी 1931 के दो भाग के उस
मसविदा दस्तावेज़ में देखने को मिलते हैं जो ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’
नाम से ‘ भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ ;सं. - जगमोहन ¯सह,
चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्लीद्ध में संकलित है।
भगत सिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगत सिंह के चिन्तक व्यक्तित्व
की व्यापकता और गहराई पर और अधिक स्पष्ट रोशनी पड़ी है, उनकी विकास
की प्रक्रिया समझने में मदद मिली है और यह सच्चाई और अधिक पुष्ट हुई है
कि भगत सिंह ने अपने अन्तिम दिनों में, सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद
ढंग से माक्र्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिन्तों बनाया था। एकबारगी
तो यह बात अविश्वसनीय-सी लगती है कि क्रान्तिकारी जीवन और जेल की
बीहड़ कठिनाइयों में भगत सिंह ने ब्रिटिश सेंसरशिप की तमाम दिक़्व़फतों के बावजूद
पुस्तकें जुटाकर इतना गहन और व्यापक अध्ययन कर डाला। महज 23 वर्ष की
छोटी-सी उम्र में चिन्तन का जो धरातल उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके
युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। ऐसे महान चिन्तक ही इतिहास की दिशा
बदलने और गति तेज़ करने का माद्दा रखते हैं। भगत सिंह की शहादत भारतीय जनता
को आज भी क्षितिज पर अनवरत जलती मशाल की तरह प्रेरणा देती है, पर यह
भी सच है कि उनकी पफाँसी ने इतिहास की दिशा बदल दी। यह सोचना ग़लत
नहीं है कि भगत सिंह को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि पफाँसी नहीं हुई होती तो
राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद
कुछ और ही ढंग से लिखा जाता।
बहरहाल, इतिहास की उतनी ही दुखद विडम्बना यह भी है कि आज भी इस
देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत सिंह को एक महान वीर तो मानता
है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।
राजनीतिक आज़ादी मिलने के पचास वर्षों बाद भी सम्पूर्ण गाँधी वाघमय, नेहरू
वाघमय से लेकर सभी राष्ट्रपतियों के अनुष्ठानिक भाषणों के विशद्ग्रन्थ तक
प्रकाशित होते रहे पर किसी भी सरकार ने भगत सिंह और उनके साथियों के सभी
दस्तावेज़ों को अभिलेखागार, पत्रा-पत्रिकाओं और व्यक्तिगत संग्रहों से निकालकर
छापने की सुध नहीं ली। आधारित सर्वहारा वर्ग की क्रान्तिकारी पार्टी के मार्गदर्शन में व्यापक मेहनतकश
जनता व मध्यवर्ग के जनसंगठन खड़ा करके जनान्दोलन का मार्ग अपनाया जाना
चाहिए और यह कि, इसके बाद ही सशस्त्रा क्रान्ति द्वारा सत्ता पलटकर सर्वहारा
अधिनायकत्व की स्थापना की जा सकती है। एच.एस.आर.ए. के सिन्तों कारों में
भगत सिंह सर्वोपरि थे और उनकी पूरी विचार-यात्रा को 1929 से मार्च 1931 तक
;यानी पफाँसी चढ़ने तकद्ध के उनके दस्तावेज़ों, लेखों, पत्रों और वक्तव्यों में देखा
जा सकता है। भगत सिंह के सर्वोन्नत विचार प़फरवरी 1931 के दो भाग के उस
मसविदा दस्तावेज़ में देखने को मिलते हैं जो ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसविदा’
नाम से ‘ भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ ;सं. - जगमोहन ¯सह,
चमनलाल, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्लीद्ध में संकलित है।
भगत सिंह की जेल नोटबुक मिलने के बाद भगत सिंह के चिन्तक व्यक्तित्व
की व्यापकता और गहराई पर और अधिक स्पष्ट रोशनी पड़ी है, उनकी विकास
की प्रक्रिया समझने में मदद मिली है और यह सच्चाई और अधिक पुष्ट हुई है
कि भगत सिंह ने अपने अन्तिम दिनों में, सुव्यवस्थित एवं गहन अध्ययन के बाद
ढंग से माक्र्सवाद को अपना मार्गदर्शक सिन्तों बनाया था। एकबारगी
तो यह बात अविश्वसनीय-सी लगती है कि क्रान्तिकारी जीवन और जेल की
बीहड़ कठिनाइयों में भगत सिंह ने ब्रिटिश सेंसरशिप की तमाम दिक़्व़फतों के बावजूद
पुस्तकें जुटाकर इतना गहन और व्यापक अध्ययन कर डाला। महज 23 वर्ष की
छोटी-सी उम्र में चिन्तन का जो धरातल उन्होंने हासिल कर लिया था, वह उनके
युगद्रष्टा युगपुरुष होने का ही प्रमाण था। ऐसे महान चिन्तक ही इतिहास की दिशा
बदलने और गति तेज़ करने का माद्दा रखते हैं। भगत सिंह की शहादत भारतीय जनता
को आज भी क्षितिज पर अनवरत जलती मशाल की तरह प्रेरणा देती है, पर यह
भी सच है कि उनकी पफाँसी ने इतिहास की दिशा बदल दी। यह सोचना ग़लत
नहीं है कि भगत सिंह को 23 वर्ष की अल्पायु में यदि पफाँसी नहीं हुई होती तो
राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का इतिहास और भारतीय सर्वहारा क्रान्ति का इतिहास शायद
कुछ और ही ढंग से लिखा जाता।
बहरहाल, इतिहास की उतनी ही दुखद विडम्बना यह भी है कि आज भी इस
देश के शिक्षित लोगों का एक बड़ा हिस्सा भगत सिंह को एक महान वीर तो मानता
है, पर यह नहीं जानता कि 23 वर्ष का वह युवा एक महान चिन्तक भी था।
राजनीतिक आज़ादी मिलने के पचास वर्षों बाद भी सम्पूर्ण गाँधी वाघमय, नेहरू
वाघमय से लेकर सभी राष्ट्रपतियों के अनुष्ठानिक भाषणों के विशद्ग्रन्थ तक
प्रकाशित होते रहे पर किसी भी सरकार ने भगत सिंह और उनके साथियों के सभी
दस्तावेज़ों को अभिलेखागार, पत्रा-पत्रिकाओं और व्यक्तिगत संग्रहों से निकालकर
छापने की सुध नहीं ली। पुस्तक श्स्मदपद ंदक प्दकपंश् में एक अध्याय के रूप में शामिल किया गया। पुनः
1990 में इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद भी प्रगति प्रकाशन, मास्को से ‘लेनिन
और भारत’ नाम से प्रकाशित हुआ।
अब तक इस डायरी के सम्बन्ध में प्राप्त जानकारी को हम यहाँ सिलसिलेवार
प्रस्तुत कर रहे हैं।
1968 में भारतीय इतिहासकार जी. देवल ने ‘पीपुल्स पाथ’ पत्रिका में
भगत सिंह पर एक लेख लिखा था जिसमें 200 पन्नों की एक कापी का ज़िक्र
किया गया है। उक्त कापी में पूँजीवाद, समाजवाद, राज्य की उत्पत्ति, माक्र्सवाद,
कम्युनिज़्म, धर्म, दर्शन, क्रान्तियों के इतिहास आदि पर विभिन्न पुस्तकों के
अध्ययन के दौरान भगत सिंह द्वारा जेल में लिये गये नोट्स हैं। यह नोटबुक भगत सिंह
की पफाँसी के बाद उनके परिवार वालों को सौंप दी गयी थी। देवल ने इसे
प़फरीदाबाद में रह रहे भगत सिंह के छोटे भाई कुलबीर ¯सह के पास देखा था और
अध्ययन करके नोट्स लिये थे। अपने लेख में देवल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि
यह डायरी प्रकाशित की जानी चाहिए, पर ऐसा हुआ नहीं।
उक्त डायरी की जानकारी होने पर 1977 में रूसी विद्वान मित्रोखिन भारत
आये और कुलबीर ¯सह के हवाले से उक्त डायरी के विस्तृत अध्ययन के बाद
एक लेख लिखा जो उनकी पुस्तक श्स्मदपद ंदक प्दकपंश् का एक अध्याय बना।
हमें उपलब्ध जानकारी के अनुसार, 1979 के बाद इतिहास के कई शोधा£थयों
ने 404 पृष्ठों की उक्त जेल नोटबुक की एक प़फोटो प्रतिलिपि तीन मूर्ति भवन
स्थित जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल म्यूज़ियम व लायब्रेरी में भी देखी-पढ़ी। पर
इस पर अलग से कोई शोध निबन्ध कहीं भी प्रकाशित नहीं हुआ।
गुरुकुल कांगड़ी के तत्कालीन कुलपति जी.बी. कुमार हूजा 1981 में गुरुकुल
इन्द्रप्रस्थ ;दिल्ली से 20 किलोमीटर दक्षिण तुगलकाबाद रेलवे स्टेशन के निकटद्ध
के दौरे पर गये थे। वहाँ संस्था के तत्कालीन मुख्य अधिष्ठाता स्वामी शक्तिवेश
ने गुरुकुल के ‘हाॅल आॅप़फ प़फेम’ के तहख़ाने में सुरक्षित इस ऐतिहासिक धरोहर की
एक हस्तलिखित/डुप्लीकेटेड प्रतिलिपि दिखलायी, जिसे जी.बी. कुमार हूजा ने
कुछ दिनों के लिए माँग लिया। बाद में स्वामी शक्तिवेश की हत्या हो गयी और
उक्त डायरी ;प्रतिलिपिद्ध हूजा जी के पास ही रह गयी।
1989 में भगत सिंह की शहादत के दिन 23 मार्च को जयपुर में कुछ
बु(िजीवियों ने ‘हिन्दोस्तानी मंच’ का गठन किया। उसी की प्रारम्भिक बैठकों
में जी.बी. कुमार हूजा ने भगत सिंह की जेल डायरी की जानकारी दी और
‘हिन्दोस्तानी मंच’ ने इसे प्रकाशित करने का निश्चय किया।
‘इण्डियन बुक क्राॅनिकल’ पत्रिका ;जयपुरद्ध के सम्पादक भूपेन्द्र हूजा को इस 
परियोजना के सम्पादन की ज़िम्मेदारी दी गयी और ‘हिन्दोस्तानी मंच’ के महासचिव सरदार ओबेराय, प्रो. आर.पी. भटनागर और डाॅ. आर.सी. भारतीय ने उनके
सहयोगी की भूमिका निभायी। दुर्भाग्यवश, अर्थाभाव के कारण यह योजना खटाई
में पड़ गयी।
इसी दौरान डाॅ. आर.सी. भारतीय को उक्त जेल नोटबुक की एक और टाइप
की हुई प्रतिलिपि प्राप्त हुई जो एक स्थानीय विद्वान डाॅ. प्रकाश चतुर्वेदी मास्को
अभिलेखागार से प़फोटो-प्रतिलिपि कराकर लाये थे। ‘मास्को प्रति’ और ‘गुरुकुल
प्रति’ शब्दशः एक-दूसरे से मिल रहे थे।
1991 में भूपेन्द्र हूजा ने नोटबुक को किश्तों में अपनी पत्रिका ‘इण्डियन बुक
क्राॅनिकल’ में प्रकाशित करना शुरू किया। भगत सिंह की जेल नोटबुक इस रूप
में पहली बार व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँची। डाॅ. चमनलाल ने भी भूपेन्द्र हूजा
को सूचित किया कि उक्त नोटबुक की एक प्रतिलिपि उन्होंने भी नेहरू म्यूजियम
लायब्रेरी, नई दिल्ली में देखी थी।
इस तरह भूपेन्द्र हूजा व उनके सहयोगियों की नज़र में उक्त जेल नोटबुक की
आधिकारिकता और अधिक पुष्ट हुई। पहली बार 1994 में उक्त जेल नोटबुक
‘इण्डियन बुक क्राॅनिकल’ की ओर से ही भूपेन्द्र हूजा और जी.बी. कुमार हूजा
;बलभद्र भारतीद्ध की भूमिकाओं के साथ पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। उक्त दोनों
भूमिकाओं से भी स्पष्ट है कि जी.बी.कुमार हूजा और भूपेन्द्र हूजा को इस तथ्य
की जानकारी नहीं थी कि उक्त डायरी की मूल प्रति भगत सिंह के भाई कुलबीर
¯सह के पास प़फरीदाबाद में भी मौजूद है। उन्हें जी. देवल के उस लेख की भी
सम्भवतः जानकारी नहीं थी जिन्होंने सबसे पहले 1968 में यह तथ्य उद्घाटित
किया था, न ही उन्हें मित्रोखिन का वह लेख ;1981द्ध ही मिला था जो उक्त
डायरी के विशद अध्ययन के बाद लिखा गया था।
बहरहाल, मित्रोखिन ने कुलबीर ¯सह के पास उपलब्ध नोटबुक/डायरी से लिये
गये हवालों पर जो पृष्ठ अंकित किये हैं, उन्हें देखने से स्पष्ट हो जाता है कि जीबी. कुमार हूजा को प्राप्त ‘गुरुकुल टेक्स्ट’ उक्त मूल डायरी की ही
डुप्लीकेट/हस्तलिखित प्रतिलिपि है।
ऐसा सम्भव है कि डाॅ. प्रकाश चतुर्वेदी ने डायरी/नोटबुक की जो प्रतिलिपि
मास्को अभिलेखागार में देखी थी, वह मित्रोखिन ही भारत से ले गये हों। या यह
भी हो सकता है कि किसी और रूसी विद्वान ने भी डायरी का अध्ययन किया
हो।
बहरहाल, इन तथ्यों से डायरी की आधिकारिकता ही और अधिक पुष्ट होती
है।
‘ भगत सिंह और उनके साथियों के दस्तावेज़’ पुस्तक के सम्पादक-द्वय
जगमोहन ¯सह और चमनलाल ने भी पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका ;23 मार्च ’89द्ध में लिखा है: फ् भगत सिंह की जेल में लिखित 404 पृष्ठों की डायरी,
जिसमें महत्त्वपूर्ण राजनीतिक व दार्शनिक नोट्स हैं, अब भी सामान्य पाठकों की
पहुँच से बाहर है, हालाँकि इसकी प़फोटो प्रति तीन मूर्ति स्थित जवाहरलाल नेहरू
मेमोरियल म्यूज़ियम व लायब्रेरी में सुरक्षित है। इस पर क्या कहा जा सकता है,
पाठक स्वयं ही सोचें।य्
इस टिप्पणी से ऐसा लगता है कि जगमोहन ¯सह और चमनलाल को भी यह
तथ्य ज्ञात नहीं था कि भगत सिंह की मूल जेल नोटबुक उनके भाई कुलबीर ¯सह
के पास मौजूद है, जिसका अध्ययन 1968 में जी. देवल ने और 1977 में मित्रोखिन
ने किया था। यह विशेष आश्चर्य की बात इसलिए भी है क्योंकि जगमोहन ¯सह
भी स्वयं भगत सिंह के परिवार के सदस्य हैं। वे भगत सिंह की बहन बीबी अमर
कौर के पुत्रा हैं। भगत सिंह के दूसरे भाई कुलतार ¯सह की पुत्राी वीरेन्द्र सिन्धू ने भी
भगत सिंह पर दो पुस्तकंे लिखी हैं। उन्होंने भी इसका उल्लेख नहीं किया है कि
भगत सिंह की जेल नोटबुक उनके परिवार के ही एक सदस्य के पास मौजूद है।
यदि इन परिवार-जनों को भी यह तथ्य नहीं पता था तो इस बारे में हमें कुछ नहीं
कहना। न ही इसकी अन्तर्कथा को जानने में हमारी कोई रुचि है।
यह सवाल हम यहाँ इसलिए उठा रहे हैं कि यह भारत में इतिहास की एक
गम्भीर समस्या है। आज़ाद भारत की कांग्रेसी सरकार ही नहीं, किसी भी पूँजीवादी
संसदमार्गी दल से हम यह अपेक्षा नहीं रखते कि उनकी सरकारें भगत सिंह के
विचारों को जनता तक पहुँचाने का काम करेंगी। उनका बस चलता तो वे भगत सिंह
की स्मृति तक को दफ्ऱन कर देतीं। पर यह उनके बस के बाहर की बात है।
लेकिन शहीदे-आजम भगत सिंह के परिवार-जनों का उनकी वैचारिक विरासत
के बारे में जो रुख रहा, उसके बारे में क्या कहा जाये? सीधा सवाल यह है कि
कुलबीर ¯सह के पास यदि भगत सिंह की जेल नोटबुक मौजूद थी, तो उन्होंने उसे
भारतीय जनता तक पहुँचाने के लिए क्या कोशिश की? उन्होंने अख़बारों में,
इतिहासकारों को पत्रा लिखकर इसे छपाने और जनता तक पहुँचाने की कोई कोशिश
क्यों नहीं की? क्या इसे प्रकाशित करने के लिए प्रकाशक नहीं मिलते? या जनता
से ड्डोत-संसाधन नहीं जुटते? हमारी जानकारी के अनुसार, शहीदेआजम के परिवार
के लोग स्वयं भी इतने विपन्न नहीं हैं। उन्हें यदि भगत सिंह के आदर्शों से प्यार होता
और उनके विचारों को जन-जन तक पहुँचाने की चिन्ता होती तो वे उक्त डायरी
स्वयं छपवा सकते थे। आश्चर्य तो तब होता है जब लगता है कि जेल नोटबुक के
कुलबीर ¯सह के पास उपलब्ध होने का तथ्य स्वयं जगमोहन ¯सह या वीरेन्द्र सिन्धू
को ही नहीं पता था। क्या यह एक शर्मनाक विडम्बना नहीं है कि भगत सिंह की
जेल नोटबुक पर आधारित पहला विस्तृत शोध-निबन्ध 1981 में एक रूसी विद्वान
मित्रोखिन की पुस्तक में संकलित होकर सामने आया? वैसे इस काहिली और ग़ैरज़िम्मेदारी के लिए उन इतिहासकारों को भी माप़फ नहीं किया जा सकता जो
इतिहास को केवल प्रोप़फेसरी का जरिया बनाये हुए हैं और इतिहास की बहुमूल्य
विरासत को भी जनता तक पहुँचाने की जिन्हें रत्तीभर चिन्ता नहीं है। और भला
क्यों हो? वे इतिहास पढ़ाने वाले मुदर्रिस हैं, इतिहास बनाने से उनका भला क्या
सरोकार?
जहाँ तक भगत सिंह के परिवार के उन सदस्यों का सवाल है, जिन्होंने आज़ादी
के इतने वर्षों बाद तक इतिहास की एक बहुमूल्य धरोहर को पारिवारिक सम्पत्ति
की तरह दाबे रखा और उसे जनता तक पहुँचाने की कोई कोशिश नहीं कीऋ वे
भी अपनी इस करनी के चलते इतिहास में अपना नाम दर्ज करा चुके हैं। वैसे हमारे
देश में यह कोई नई बात नहीं है। क्रान्तिकारी राजनीति और साहित्य में ऐसे कई
उदाहरण हैं कि महान विभूतियों के रक्त-सम्बन्धी उत्तराधिकारी उनसे जुड़े होने के
नाते इज़्ज़त तो ख़ूब पा रहे हैं पर उनके आदर्शों और सपनों से उन्हें कुछ भी नहीं
लेना-देना। उनकी रुचि या तो सम्मान-प्रतिष्ठा-सुविधा में है या पिफर रायल्टी की
मोटी रव़फम में। भगत सिंह हों या राहुल सांकृत्यायन, उनका कृतित्व आज पूरे राष्ट्र
की, पूरी जनता की या उनके वैचारिक उत्तराधिकारियों की धरोहर न बनकर
परिवार-जनों की निजी सम्पत्ति बन गयी है। क्रान्तिकारियों के तमाम
बेटे-भतीजे-भांजे आज क्रान्तिकारियों के रक्त-सम्बन्धी होने के नाते स्वाभाविक
तौर पर जनता से इज़्ज़त पाते हैं और सीना पफुलाते हैं। पर उन्हें इस बात में कोई
दिलचस्पी नहीं कि क्या उन क्रान्तिकारियों के सपने पूरे हुए? इसके विपरीत वे
उसी सत्ता से सुविधाएँ लेने और उन्हीं राजनीतिक दलों की राजनीति करने तक
का काम करते हैं, जिन्होंने क्रान्तिकारियों के सपनों के साथ विश्वासघात किया।
क्रान्तिकारियों के ऐसे वारिस भी क्या अपने महान पूर्वजों के आदर्शों का व्यापार
नहीं कर रहे हैं?
बहरहाल, 1994 में भूपेन्द्र हूजा और उनके साथियों ने भगत सिंह की जेल
नोटबुक का मूल अंग्रेज़ी संस्करण छापकर भारत की जनता और क्रान्तिकारी
आन्दोलन के लिए जो उपयोगी कार्य किया उसे कभी भी भुलाया नहीं सकता।
आम जनता को इतिहास की बहुमूल्य धरोहर से परिचित कराने के महत्त्वपूर्ण
कार्यभारों में से यह भी एक है कि भगत सिंह की जेल नोटबुक और उनके तथा
उनके साथियों के सभी दस्तावेज़ों को सभी भारतीय भाषाओं में अनूदित करके
जन-जन तक पहुँचाया जाये।
भगत सिंह की जेल नोटबुक स्कूली कापी की सामान्य साइज ;17.50 से.मीग 21 से.मीद्ध की पुस्तिका है। नोटबुक खोलते ही पहले पेज ;टाइटिल पेजद्ध पर
अंग्रेज़ी में लिखा है: ‘‘ भगत सिंह के लिए/चार सौ चार ;404द्ध पृष्ठ...’’ नीचे एक
हस्ताक्षर है और 12.9.29 की तिथि दी गयी है। स्पष्ट है कि यह प्रविष्टि जेल अधिकारियों द्वारा भगत सिंह को कापी देते समय की गयी है। जेल मैनुअल/
नियमावली के जानकार जानते होंगे कि जब भी कोई व़फैदी लिखने के लिए कापी
माँगता है तो जेल अधिकारी को कापी के शुरू और अन्त में ऐसा लिखना होता
है और व़फैदी को भी प्राप्त करते समय वहाँ हस्ताक्षर करना होता है। भगत सिंह के
हस्ताक्षर ;अंग्रेज़ी मेंद्ध टाइटिल पेज पर भी मौजूद हैं और 12.9.29 की तिथि के
साथ कापी के अन्त में भी। नोटबुक की जो डुप्लीकेटेड/हस्तलिखित प्रतिलिपि
जी.बी. कुमार हूजा को गुरुकुल इन्द्रप्रस्थ में मिली, उसमें नीचे बायें कोने पर अंग्रेज़ी
में यह भी लिखा हुआ था: फ्प्रतिलिपि शहीद भगत सिंह के भतीजे अभय कुमार
¯सह द्वारा तैयार।य्
मूल नोटबुक के पृष्ठ भगत सिंह की छोटे अक्षरों वाली लिखाई से भरे हुए हैं।
ज्यादा नोट्स अंग्रेज़ी में लिये गये हैं, लेकिन कहीं-कहीं उर्दू का भी इस्तेमाल किया
गया है।

What's Your Reaction?

like

dislike

wow

sad

सम्पादक देश विदेश भर में लाखों भारतीयों और भारतीय प्रवासियों लोगो तक पहुंचने के लिए भारत का प्रमुख हिंदी अंग्रेजी ऑनलाइन समाचार पोर्टल है जो अपने देश के संपर्क में रहने के लिए उत्सुक हैं। https://bharatiya.news/ आपको अपनी आवाज उठाने की आजादी देता है आप यहां सीधे ईमेल के जरिए लॉग इन करके अपने लेख लिख समाचार दे सकते हैं. अगर आप अपनी किसी विषय पर खबर देना चाहते हें तो E-mail कर सकते हें newsbhartiy@gmail.com