भारत के सिर पर पत्थर उछालता चीन : नरेन्द्र भदौरिया
नेपाल की जो दशा वर्तमान समय में बन चुकी है। उसके सन्दर्भ में कूटनीतिक प्रेक्षकों को यह आशंका है कि चीन लम्बे समय तक नेपाल को अपने जबड़े में दबाकर नहीं रख पाएगा। नेपाल की निर्धनता एक समस्या है।
भारत के सिर पर पत्थर उछालता चीन
कई शताब्दियों से भारत और नेपाल एक-दूसरे के पूरक रहे हैं। नेपाल पर कभी भारत ने चढ़ाई करके अथवा किसी प्रकार का छल करके नियन्त्रण पाने की चेष्टा नहीं की। भारत और नेपाल की सीमा 1,770 किमी है। इस सीमा में हिमालयी क्षेत्रों के साथ-साथ सिन्धु- गंगा का मैदान भी शामिल है। नेपाल और ब्रिटिश राज के बीच 1816 की सुगौली सन्धि के बाद वर्तमान सीमा का परिसीमन किया गया था। दोनों देशों की यह सीमा नागरिकों के परस्पर आवागमन की दृष्टि से कभी जटिल नहीं बनायी गयी। यद्यपि समय-समय पर नेपाल की सरकारों के बदलते तेवरों का प्रभाव सीमा पर देखने को मिलता रहा है। फिर भी भारत और नेपाल दोनों के बीच सम्बन्धों में अधिक तनाव नहीं आने देने को लेकर सदा सम्मति रही है। यही कारण है कि नेपाल की सम्प्रभुता की रक्षा और उसके विकास में भारत सहभागी रहा है।
नेपाल को लेकर चीन का रवैया सदा से भारत के विपरीत रहा है। चीन की नीति साम्राज्यवादी है। एक साम्यवादी देश का पड़ोसियों को निगलने का दृष्टिकोण किसी से छिपा नहीं है। जब भी उसने किसी पड़ोसी को अस्थिर अथवा असावधान देखा उस पर बाज की तरह झपट पड़ा। भारत के साथ छल करने में उसने कोई कसर नहीं छोड़ी। चीन के कम्युनिस्ट तानाशाहों ने भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू से मैत्री का ढोंग किया था। उस समय नेहरू का लगा की चीन उनकी प्रतिभा से प्रभावित है। भारत में हिन्दी-चीनी भाई भाई के नारे लग रहे थे, तो दूसरी ओर चीन ने भारत पर आक्रमण करके 80 हजार वर्ग किमी से अधिक जमीन हड़प ली। अक्साई चिन का 44 हजार वर्ग किमी का क्षेत्र चीन ने ऐसे हड़पा मानो उससे भारत का कोई सम्बन्ध ही न हो। भारत के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने तो अक्साई चिन को लेकर चीन से कभी सीधा विरोध तक नहीं किया। ऐसे धोखेबाज चीनी नेतृत्व ने योजनाबद्ध रीति से नेपाल को हड़पने का जो षडयंत्र रचा उसका परिणाम संसार के सामने है।
चीन ने नेपाल को ऋण के संजाल में फंसा लिया है। संसार के कूटनीतिज्ञ इतना तो मानते हैं कि नेपाल अब अपनी सम्प्रभुता को अक्षुण्ण बनाये रखने की स्थिति में नहीं है। बात केवल इतनी नहीं है कि चीन ने नेपाल में बड़े पैमाने पर निवेश करके उसे ऋण देकर भारी आर्थिक बोझ के तले दबा लिया है। वास्तविक स्थिति यह है कि चीन ने नेपाल के राजनीतिक तन्त्र पर अपने नाखून गड़ा लिये हैं। नेपाल की सत्ता पर जो लोग बैठे दिखायी दे रहे हैं, वह वस्तुत: चीनी शासकों की कठपुतली हैं।
तनिक वह दिन स्मरण कीजिए जब 01 जून, 2001 की रात नेपाल के शासक वीरेन्द्र के पूरे परिवार को राजमहल के एक पारिवारिक समारोह में गोलियों से भून दिया गया था। संसार के समक्ष प्रचारित किया गया था कि यह हत्याकाण्ड राजा वीरेन्द्र के बेटे ने किया है। जबकि यह समझने में दुनिया को देर नहीं लगी थी कि सारा षडयंत्र चीन में रचा गया था। नेपाल के कतिपय लोगों की सहभागिता थी, जिसमें वीरेन्द्र के भाई महेन्द्र भी शामिल थे। कुछ दिनों के लिए भाई महेन्द्र को सिंहासन पर बैठाकर चीन ने अपनी ओर से लोगों की दृष्टि को मोड़ने का प्रयास भी किया था। समय बीतते देर नहीं लगी। सारी कठपुतलियां उतारकर फेंक दी गयीं। सत्ता पर उन्हें बिठाया गया जो अपने देश को चीन की झोली में ढकेल रहे हैं। नेपाल के वर्तमान शासक देश के दीर्घ कालीन अतीत से हटकर भारत को शत्रुवत निहार रहे हैं।
नेपाल के जनमानस पर वामपन्थी सोच का रंग चढ़ चुका है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने पिछले लगभग 30 वर्षों के भीतर नेपाल के पूरे समाज में अपने देश के प्रति आकर्षण और भारत के प्रति घृणा का वातावरण बना लिया है। चीन की सरकार ने नेपाल की सड़कों, बिजली तथा आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति को लेकर भारी निवेश किया है। इनमें से कोई निवेश उत्पादक अथवा ऐसा नहीं है जिसके बल पर नेपाल अपने भविष्य के आर्थिक ढांचे की आधारशिला रख सके। चीन की विस्तारवादी नीति प्राय: आर्थिक निवेश से आरम्भ होती है। पर चीन ने नेपाल में नया प्रयोग किया है। चीन ने नेपाल में आर्थिक निवेश के साथ राजनीतिक, कूटनीतिक ढाँचा सशक्त बनाया है। चीन की रणनीति यह रही कि काठमाण्डू में सत्ता की कुर्सी पर वही कठपुतलियां बैठायी जायें जो बीजिंग में तैयार किए गए प्रस्तावों को जस का तस स्वीकार करके बीजिंग को लौटाते रहे। चीन की यह रणनीति सफल सिद्ध हुई है। कूटनीतिक विश्लेषकों को यह बात अब अच्छी तरह समझ में आ गयी है कि नेपाल के राजनीतिक तन्त्र में अब ऐसे लोग नहीं हैं जो अपने देश के स्वाभिमान के लिए अड़ सकें।
चीन प्रारम्भ से ही दो बातें भलीभांति जानता है। पहली यह कि नेपाल का जनमानस सदियों से हिन्दुत्व के प्रति रुझान वाला रहा है। दूसरी बात यह कि नेपाल के बहुसंख्य हिन्दू परिवारों के लिए भारत दूसरे घर की तरह है। इन दोनों मनोदशाओं का आदर भारत में किया जाता रहा है। भारत की जनता नेपाल के प्रति सदा मैत्री भाव रखती आयी है। इन आधारों को तोड़ने के लिए नेपाल में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने आस्था तोड़ने का अभियान चलाया। कम्युनिज्म का झण्डा उठाने वाले नेपालियों को यह प्रशिक्षण दिया गया कि वह हिन्दू प्रतीकों को अपमानित करके भंग करें। ऐसा करने वालों के प्रति नेपाल सरकार और प्रशासन नरमी बरतता रहा। चीन ने एक ओर रणनीति को सफलता पूर्वक परिणिति तक पहुँचाया। यह वह था कि भारतीय उत्पादों का तिरस्कार शुरू हुआ। इससे भारत में प्रतिक्रिया हुई और माल की आपूर्ति काफी दिनों तक बाधित रही। तब चीन ने नेपाल की सरकार से हिमालय होकर नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों के लिए आवागमन हेतु सड़कों का जाल बिछाने के प्रस्ताव पारित कराये। इन सौदों के माध्यम से चीन ने जो निवेश किया वह अब नेपाल के लिए चीन की दास्ता के द्वार खोल रहा है।
नेपाल के बुद्धिजीवी अब तक बड़े गर्व से कहते आ रहे थे कि नेपाल एक ऐसा देश है जो कभी किसी और देश के अधीन नहीं रहा। सन 1814-16 का उदाहरण देकर कहा जाता है कि नेपाल ने भारत में शासन कर रहे अंग्रेजों को युद्ध में कड़ी टक्कर दी थी। तब नेपाल ने नाला पानी और अल्मोढ़ा के क्षेत्र में ब्रिटिश सैनिकों को पीछे ढकेल दिया था। नेपाल के सेनापति ने उस समय अपने राजा से कहा था कि अंग्रेजों से सन्धि न करें। हम उन्हें आगे नहीं बढ़ने देंगे। पर राजा ने सन्धि करके ब्रिटेन से यह आश्वासन पा लिया था कि भारत में उनके शासक नेपाल को सदा संरक्षित देश बनाए रखेंगे। नेपाल को स्वतन्त्र आस्तित्व बनाये रखने की सम्मति 1947 के बाद स्वतन्त्र भारत की सरकारों ने भी दी। इसी आधार पर नेपाल के लोग यह दावा भरते हैं कि वह कभी दास नहीं बने। यह भूल जाते हैं कि भारत की नीति कभी सीमा विस्तार यानी साम्राज्य विस्तार की नहीं रही। जबकि चीन भारतीय नीति के सर्वथा विपरीत है।
नेपाल दक्षिण एशिया का सबसे गरीब देश है। संसार का वह 17वें नम्बर का गरीब देश है। लगभग तीन करोड़ की जनसंख्या वाला यह देश 1,47,181 वर्ग किमी में फैला है। प्राकृतिक दृष्टि से यहां के संसाधन प्रचुर हैं। किन्तु नेपाल ने अपनी क्षमता को विकसित करने पर कभी ध्यान नहीं दिया। नेपाल के जातीय समूहों के बीच तालमेल नहीं है। सामाजिक संरचना सुदृढ़ करने के प्रयास बहुत न्यून हैं। इतिहास के एक बड़ी बात को नेपाल के लोग भुला देते हैं, यह कि नेपाल 1816 में भारत से अलग होकर नये देश के रूप में उभरा था। 10 अप्रैल 2008 को नेपाल पूर्ण रूप से पृथक देश बना। यह मान्यता भारत ने दी। इस तरह नेपाल भारत से अलग होने वाला चौथा देश था। जिसकी पृथक सम्प्रभुता को भारत ने ही सर्व प्रथम मान्यता दी। भूटान भारत से पृथक होने वाला पाँचवां देश रहा। जिसे 1907 में अंग्रेजों ने भारत से अलग कर दिया था। अफगानिस्तान भारत से अलग होने वाला छठवां देश था। उसे ब्रिटिश शासकों ने 1919 में भारत से काट कर अलग किया था। भारत से पाकिस्तान 14 अगस्त, 1947 को अलग हुआ। बांग्लादेश पाकिस्तान से टूटकर बाद में अलग हुआ। श्रीलंका कभी भारत का ही हिस्सा था। जो ब्रिटिश शासकों द्वारा 04 फरवरी, 1948 को भारत से अलग किया गया था। इसके भी पहले थाईलैण्ड और म्यांमार भारत से अलग किये गये। अखण्ड भारत की जो संकल्पना दी जाती है उसमें यह सभी देश शामिल थे। अंग्रेजों ने 1947 में भारत को विखण्डित स्वतन्त्रता देने से पहले अखण्ड भारत के स्वरूप को काट काटकर न्यून बना दिया था। ताकि एशिया का यह महान देश कभी इतना समर्थ राष्ट्र नहीं बन सके कि सारे संसार में अपनी धाक स्थापित कर ले।
नेपाल की जो दशा वर्तमान समय में बन चुकी है। उसके सन्दर्भ में कूटनीतिक प्रेक्षकों को यह आशंका है कि चीन लम्बे समय तक नेपाल को अपने जबड़े में दबाकर नहीं रख पाएगा। नेपाल की निर्धनता एक समस्या है। विकास न हो पाना नेपाल के शासकों की घटिया सोच का परिणाम है। तद्यपि नेपाल का अतीत भारतीय जनमानस के साथ सम्बद्ध रहने का है। इसे दोनों देशों के लोग मिलकर निभाते आये हैं। चीन के खजाने में जितना भी धन है वह सारा का सारा उसके विस्तारवाद की भेंट नहीं चढ़ाया जा सकता। अन्यथा चीन अपनी सम्प्रभुता की रक्षा में चूक को रोक नहीं पाएगा। भारत की निष्क्रियता इस सन्दर्भ में चिन्ता का एक कारण है। चीन को अपने मस्तक के निकट पड़ाव डालते देख कर अधिक दिनों तक दिल्ली मौन नहीं रह सकती। चीन स्वभाव से भारतद्रोही है। भारत के प्रति शत्रुता का भाव वह कभी नहीं त्याग सकता। नेपाल का यह दुर्भाग्य है कि अब वहां ऐसे शासक नहीं हैं जो चीन की टेढ़ी नजरों से न डरते हों। आने वाला समय नेपाल के भाग्य को तय करेगा जब भारत और चीन के सम्बन्धों की सही व्याख्या की जाएगी। चीन जल्दबाजी में है। वह नेपाल के संसाधनों पर पंजे गड़ा रहा है। भारत को वह किसी तरह उलझाये रखना चाहता है। लोकतन्त्र की जटिलताएं चाहे जितनी कठिन हों, भारत को इस नन्हें पड़ोसी की ओर दृष्टि उठाकर देखना ही पड़ेगा। भारत के लिए नेपाल एक वरदान की तरह है। भारत की ओर बहने वाली नेपाल की नदियां अमृत रूपी जल का स्रोत हैं। नेपाल से भारत आने वाली प्रमुख नदियां, कोसी या सप्तकोसी, गंडक या नारायणी, मेची, घाघरा, काली या महाकाली और बागमती नदी है। यह नदियां नेपाल की हिमाच्छादित पर्वत चोटियों से जल लेकर प्रसूत होती हैं। नेपाल जैसे छोटे से देश में एवरेस्ट सहित 6000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले 1310 नामित पहाड़ हैं। इनमें से 7000 मीटर से ऊंचे पर्वत शिखरों की संख्या 87 है। नेपाल विस्मयकारी पर्वत श्रृंखलाओं को अपने हृदय में धारण करने वाला ऐसा देश है जो भारत के स्कन्ध से जुड़ा हुआ है। नैसर्गिक रूप से भारत कभी नेपाल को पृथक नहीं देख पाएगा।
लेखक- नरेन्द्र भदौरिया
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