31 मार्च – लोहंडीगुड़ा गोलीकांड और जनजातियों के अधिकारों के लिए बस्तर के महाराजा का बलिदान

31 मार्च, 1961 का दिन, बस्तर के इतिहास में काले अक्षरों में लिखा गया है। तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने लोहंडीगुड़ा में निर्दोष जनजातियों पर गोलियां चलवाईं थीं। यह नृशंस कृत्य सरकार की संवेदनहीनता और क्रूरता का जीता-जागता प्रमाण है। इस बलिदान का नायक था बस्तर का अंतिम महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव, जो जनजातियों के […] The post 31 मार्च – लोहंडीगुड़ा गोलीकांड और जनजातियों के अधिकारों के लिए बस्तर के महाराजा का बलिदान appeared first on VSK Bharat.

Mar 29, 2025 - 20:58
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31 मार्च – लोहंडीगुड़ा गोलीकांड और जनजातियों के अधिकारों के लिए बस्तर के महाराजा का बलिदान

31 मार्च, 1961 का दिन, बस्तर के इतिहास में काले अक्षरों में लिखा गया है। तत्कालीन मध्य प्रदेश सरकार ने लोहंडीगुड़ा में निर्दोष जनजातियों पर गोलियां चलवाईं थीं। यह नृशंस कृत्य सरकार की संवेदनहीनता और क्रूरता का जीता-जागता प्रमाण है।

इस बलिदान का नायक था बस्तर का अंतिम महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव, जो जनजातियों के अधिकारों के लिए लड़ते रहे, जबकि सरकार उनकी आवाज को कुचलने में लगी थी।

यह घटना न केवल एक हत्याकांड थी, बल्कि कांग्रेस सरकार की नीतियों का वह घिनौना चेहरा थी, जो जनजातियों को उनके अधिकारों से वंचित रखना चाहती थी।

प्रवीर चंद्र भंजदेव का जन्म 25 जून 1929 को हुआ था, वे बस्तर के 20वें महाराजा थे।

वर्ष 1936 में गद्दी संभालने के बाद, उन्होंने अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य बनाया – जनजातियों और उनके अधिकारों की रक्षा।

1947 में आजादी के बाद, जब बस्तर रियासत का विलय भारत में हुआ, तो सरकार ने धीरे-धीरे जनजातियों की जमीन और संसाधनों पर कब्जा शुरू कर दिया।

“मालिक मकबूजा” घोटाला इसका सबसे बड़ा उदाहरण था, जिसमें गैर-जनजातियों को जनजाति जमीनें हड़पने की छूट दी गई।

प्रवीर चंद्र ने इसका विरोध किया, क्योंकि वे जानते थे कि यह उनके लोगों की जड़ों को उखाड़ने की साजिश है।

लेकिन सरकार ने उनकी नेक मंशा को “राज्य विरोधी” करार दे दिया और 11 फरवरी, 1961 को उन्हें निवारक हिरासत अधिनियम के तहत जेल में डाल दिया। उनकी जगह उनके छोटे भाई विजय चंद्र को थोप दिया गया, जो सरकार की कठपुतली बनने को तैयार थे।

लोहंडीगुड़ा में उस दिन करीब 20,000 जनजाति अपने प्रिय महाराजा से मिलने और उनके समर्थन में आवाज उठाने के लिए एकत्रित हुए थे। ये निहत्थे लोग, इनके हाथों में हथियार नहीं, बल्कि अपने हक की मांग थी। लेकिन सरकार ने उनकी शांतिपूर्ण मांग को गोलियों से कुचल दिया।

आधिकारिक तौर पर कहा गया कि 12 लोग मारे गए, लेकिन सच यह है कि मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा थी – एक ऐसा सच जो सरकार ने दबाने की कोशिश की। पुलिस की गोलियों ने न केवल शरीरों को छलनी किया, बल्कि बस्तर के जनजातियों के दिलों में गहरी चोट पहुंचाई।

यह गोलीकांड सरकार की कायरता और अत्याचार का प्रतीक है, जो अपने ही नागरिकों को दुश्मन मानती थी।

प्रवीर चंद्र का संघर्ष यहीं खत्म नहीं हुआ। जनता के दबाव में सरकार को उन्हें 24 अप्रैल, 1961 को रिहा करना पड़ा, लेकिन उनकी लड़ाई जारी रही। वे सरकार की उन नीतियों के खिलाफ डटकर खड़े रहे, जो बस्तर के जंगलों और खनिजों को लूटने की फिराक में थीं।

लेकिन सरकार ने उनकी हिम्मत को बर्दाश्त नहीं किया। 25 मार्च, 1966 को जगदलपुर के महल में पुलिस ने उन पर 25 गोलियां दागीं।

यह एक सुनियोजित हत्या थी, जिसने प्रवीर चंद्र को अपने बलिदान के माध्यम से अमर बना दिया।

लोहंडीगुड़ा गोलीकांड और उसके बाद की घटनाएं कांग्रेस सरकार की नाकामी और दमनकारी रवैये को उजागर करती हैं।

प्रवीर चंद्र ने जनजातियों की जमीन, संस्कृति और सम्मान की रक्षा के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया। दूसरी ओर, कांग्रेस सरकार ने अपने फायदे के लिए जनजातियों को कुचलने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

आज भी बस्तर में नक्सलवाद की जड़ें इसी अन्याय और शोषण में देखी जा सकती हैं।

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@Dheeraj kashyap युवा पत्रकार- विचार और कार्य से आने वाले समय में अपनी मेहनत के प्रति लगन से समाज को बेहतर बना सकते हैं। जरूरत है कि वे अपनी ऊर्जा, साहस और ईमानदारी से र्काय के प्रति सही दिशा में उपयोग करें , Bachelor of Journalism And Mass Communication - Tilak School of Journalism and Mass Communication CCSU meerut / Master of Journalism and Mass Communication - Uttar Pradesh Rajarshi Tandon Open University पत्रकारिता- प्रेरणा मीडिया संस्थान नोएडा 2018 से केशव संवाद पत्रिका, प्रेरणा मीडिया, प्रेरणा विचार पत्रिका,