सामाजिक समरसता की प्रतिमूर्ति लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर

पुण्यभूमि भारत में समय – समय पर अनेक वीर नारियों ने अपने साहस, शौर्य व पराक्रम से देश का मान बढ़ाया है। इसी कड़ी का एक नाम है – पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर। अहिल्यादेवी होलकर का जीवन भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पर्व है। उन्होंने सनातन संस्कृति का परचम फहराने का कार्य किया। अहिल्यादेवी होलकर का […] The post सामाजिक समरसता की प्रतिमूर्ति लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर appeared first on VSK Bharat.

May 31, 2025 - 16:50
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सामाजिक समरसता की प्रतिमूर्ति लोकमाता अहिल्यादेवी होलकर

पुण्यभूमि भारत में समय – समय पर अनेक वीर नारियों ने अपने साहस, शौर्य व पराक्रम से देश का मान बढ़ाया है। इसी कड़ी का एक नाम है – पुण्यश्लोक अहिल्यादेवी होलकर। अहिल्यादेवी होलकर का जीवन भारतीय इतिहास का एक स्वर्णिम पर्व है। उन्होंने सनातन संस्कृति का परचम फहराने का कार्य किया। अहिल्यादेवी होलकर का जन्म 31 मई, 1725 में महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले के जामखेड़ स्थित चौंड़ी गांव में हुआ था। 12 वर्ष की आयु में अहिल्यादेवी का विवाह मालवा में होलकर राज्य के संस्थापक मल्हारराव होलकर के पुत्र खांडेराव से हुआ था। खंडेराव से ही अहिल्यादेवी को मालेराव पुत्र और मुक्ताबाई पुत्री हुई थी।

अहिल्यादेवी का जीवन संघर्षों से भरा रहा। उनके विवाह के कुछ वर्ष बाद ही 24 मार्च, 1754 को कुम्हेर की लड़ाई में युद्ध के दौरान पति को वीरगति प्राप्त होने के बाद अहिल्यादेवी ने सती होने का निश्चय किया। किंतु उनके ससुर मल्हारराव ने मना कर दिया और साम्राज्य संभालने के लिए अहिल्यादेवी को मनाया।

पति को खोने के बाद पिता का स्नेह देने वाले उनके ससुर भी चल बसे। संतान के रूप में पुत्र मिला, परंतु उसका साथ भी बहुत दिनों तक नहीं रहा। उनके व्यक्तिगत जीवन में अधिकांशतः रिश्ते दुनिया में नहीं रहे। दूसरी ओर लालची लोग राज्य का सर्वनाश करने में लगे हुए थे। ऐसी जटिल परिस्थितियों में अहिल्यादेवी को 11 दिसम्बर, 1767 को राज्य का शासन अपने हाथों में लेना पड़ा।

उनके कुशल नेतृत्व व प्रशासन के कारण प्रजा ने उन्हें देवी की उपाधि दी। वह सनातनी हिन्दुत्वनिष्ठ महारानी के रूप में विख्यात हुईं। कुशल कूटनीति के बल पर उन्होंने न सिर्फ विरोधियों को परास्त किया, बल्कि जीवनपर्यन्त सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में जुटी रहीं।

उन्होंने अपने राज्य की सीमाओं के बाहर भारत के प्रसिद्ध तीर्थों और मंदिरों का जीर्णोद्धार कराया। अहिल्यादेवी ने उत्तर में बद्रीनाथ से लेकर, केदारनाथ, कुरूक्षेत्र से लेकर अयोध्या, मथुरा, वृन्दावन, काशी, दक्षिण में रामेश्वर तक एवं द्वारिका और सोमनाथ से लेकर जगन्नाथपुरी तक मंदिर, घाट व सड़कें और धर्मशाला बनवाई। तीर्थस्थलों पर भूखों के लिए अन्नक्षेत्र खोले। अध्ययन-अध्यापन के लिए पुस्तकालय व गुरूकुल खुलवाए। मंदिरों में शास्त्रों के मनन-चिंतन और प्रवचन की व्यवस्था कराई। भारत का कोई ऐसा तीर्थस्थल नहीं होगा, जहां अहिल्यादेवी ने किसी न किसी मंदिर का जीर्णोद्धार न कराया हो।

वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार और मणिकर्णिका घाट का निर्माण अहिल्यादेवी ने करवाया। वाराणसी में ही अहिल्यादेवी घाट तथा उसके समीप एक बड़ा महल बनवाया। महान संत रामानन्द के घाट के समीप उन्होंने दीपहजारा स्तंभ बनवाया। यही नहीं अपने समकालीन अनेक राजाओं को बर्बर इस्लामी लुटेरों द्वारा तोड़े गए मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराने के लिए प्रेरित किया था।

वह देर रात तक जगकर राज्य का काम निपटाती थी। वह रात हो जाने पर भी पत्रों को पढ़ती और अपना आदेश लिखवाती थीं। अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड देने से वह नहीं हिचकती थी। कोई भी सीधे उनसे मिल सकता था और अपनी बात रानी के समक्ष कह सकता था। रात के दूसरे पहर के उपरांत अहिल्यादेवी किसी सेवक या सेविका की सहायता की अपेक्षा नहीं करती थी। अपने को भले ही कष्ट हो, परन्तु दिनभर के थके मांदे नौकर चाकर को वह परेशान नहीं करती थी। रात में कितनी भी देर हो जाए, लेकिन वह नित्य भोर में उठ जाती थी। स्नानादि के उपरांत पूजन करतीं, फिर स्वाध्याय। फिर विद्धान ब्राह्मणों से रामायण, महाभारत इत्यादि की कथा सुनने का क्रम चलता। इसके बाद दीन दरिद्रों को भोजन व भिक्षा देतीं। दरबार का काम तीसरे पहर से शुरू होकर देर शाम तक चलता था।

अहिल्यादेवी का बड़ा पुस्तकालय था। उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों का संग्रह करवाया। अहिल्यादेवी ने अनेक विद्वान अभ्यासकों को राजाश्रय दिया। उनके पास देश से किसी भी मंदिर का पत्र पहुंच जाए तो वह उस मंदिर की दीया बाती, भोग व्यारी, गंगाजल पहुंचाने की विधि इत्यादि का प्रबंध करती थीं।

राष्ट्रीय एकात्मता के प्रयास

मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमणों के कारण ध्वस्त हो चुके, भारत के तीर्थ स्थलों के मंदिरों का जीर्णोद्धार कराकर भारत की अस्मिता को पुनर्स्थापित किया। इतनी बड़ी संख्या में, इतने अधिक स्थानों पर और इतने बड़े क्षेत्र में करवाए निर्माण कार्य का यह विश्व में एकमात्र उदाहरण है। वह अपने ऊपर बहुत थोड़ा व्यय करती थीं। इसमें विशेष बात यह है कि अहिल्यादेवी ने इन सारे कार्यों के लिए शासकीय धन का उपयोग नहीं किया। यह सारे कार्य उन्होंने अपने निजी धन से ही करवाए। 1,13,800 रूपये प्रतिवर्ष उन्हें निजी व्यय के लिए मिलते थे। होलकर वंश की यह कुल परंपरा है कि परिवार की महिला को उसके पति की आय का एक चतुर्थांश मिलता है। जिसे स्त्रीधन या खासगी धन कहा जाता है। अहिल्यादेवी को खासगी के रूप में 16 करोड़ रूपये मिले थे, उन्होंने इस धन से ही देशभर में सारे निर्माण कार्य संपन्न करवाए।

महिला सशक्तिकरण

महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में बालिकाओं की शिक्षा तथा महिलाओं के स्वावलंबन के लिए अनके प्रयास किये। हिन्दू समाज में आए दोष जैसे सतीप्रथा, दहेज, स्त्री को बाहर न निकलने देना आदि से भी मुक्ति दिलाने के लिए प्रयास शुरू किये थे। स्वदेशी को बढ़ावा दिया। महेश्वर का साड़ी उद्योग उनकी दूर दृष्टि व कुशल प्रबंधन का अनुपम उदाहरण है। उन्होंने युद्धों में हताहत सैनिकों की स्त्रियों के स्वावलंबन के लिए कौशल विकास, उत्पादन एवं उनके विपणन तथा ब्रांडिंग का उत्तम प्रबंध किया।

विधवा महिलाओं को गोद लेने का अधिकार भारत में सबसे पहले अहिल्यादेवी ने प्रदान किया। एक बार पूना का द्रोही राघोबा महेश्वर पर आक्रमण करने आया, तब अहिल्यादेवी ने स्त्रियों की एक सेना बनाई और कहला भेजा कि यदि उन्होंने छिप्रा पार की तो तलवार से तलवार टकराएगी और स्त्रियां आपका सामना रणक्षेत्र में करेंगी। इसके बाद बिना युद्ध किये राघोबा वापस लौट गया।

सामंतों की साजिश में आकर उपद्रव करने वाले डाकुओं के बारे में महारानी अहिल्यादेवी ने सुना तो उन्होंने उन उपद्रवी डाकुओं को राज्य की सेना में नौकरी देने का प्रस्ताव रखा। अहिल्यादेवी ने उनके परिवारों के लिए जमीन तथा काम-धंधे की सुविधाएं उपलब्ध करा दीं।

पशु-पक्षियों के प्रति करुणा

अहिल्यादेवी होलकर की करुणा व स्नेह की शीतल छाया मनुष्यों पर ही नहीं, बल्कि पशु-पक्षियों पर भी थी। पशु-पक्षियों के लिए अनाज के भंडार व फसलों से भरे कई खेत खरीदकर छोड़ दिए जाते थे। चींटियों के लिए वन में आटा व मछलियों के लिए आटे की गोलियां बहुत बड़ी मात्रा में प्रतिदिन जलाशयों में छोड़ी जाती थीं। राज्य की ओर से अनेक स्थानों पर गायों व बछड़ों को घास-दाना आदि नियमित रीति से दिया जाता था। वनों सहित गांवों के बाहर गाय-बैलों के चरने के लिए भूमि छोड़ी गई थी व कई जलाशय भी बनाए गए थे।

अहिल्यादेवी ने 13 अगस्त, 1795  को अंतिम साँस ली। भले ही वह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उन्होंने अपने कर्मों से खुद को अमर बना लिया। वह आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित करती रहेंगी।

प्रस्तुति – बृजनन्दन राजू

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