लोकमंथन केवल आयोजन नहीं, एक आंदोलन है - जे नंदकुमार

भाग्यनगर (हैदराबाद) में लोकमंथन-2024 के सफल आयोजन के बाद प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक और लोकमंथन आयोजन समिति के महासचिव जे नंदकुमार से पाञ्चजन्य ने विस्तृत बात की। इस वार्ता में उन्होंने आयोजन की विशिष्टता, इसकी वैश्विक भागीदारी और भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के निष्कर्षों को लेकर अपनी अंतर्दृष्टि साझा की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत

Dec 11, 2024 - 15:04
Dec 11, 2024 - 17:36
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लोकमंथन केवल आयोजन नहीं, एक आंदोलन है - जे नंदकुमार

भाग्यनगर (हैदराबाद) में लोकमंथन-2024 के सफल आयोजन के बाद प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक और लोकमंथन आयोजन समिति के महासचिव जे नंदकुमार से पाञ्चजन्य ने विस्तृत बात की। इस वार्ता में उन्होंने आयोजन की विशिष्टता, इसकी वैश्विक भागीदारी और भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान के निष्कर्षों को लेकर अपनी अंतर्दृष्टि साझा की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के संपादित अंश

लोकमंथन चौथा पड़ाव पार कर गया। इस बार भाग्यनगर में आयोजित लोकमंथन की क्या विशेषता रही?
2016 में भोपाल से शुरू हुआ यह बौद्धिक सम्मेलन प्रतिभागियों की बढ़ती संख्या, विविध कला रूपों की प्रस्तुति व चर्चा के नए विषयों के कारण भारत का सबसे बड़ा सांस्कृतिक उत्सव बन गया है। लोकमंथन ने भारत की शाश्वत सांस्कृतिक विरासत को बौद्धिक और सांस्कृतिक विमर्श के केंद्र में रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। पहला संस्करण ‘डिकोलोनाइजिंग इंडियन माइंड्स’ पर केंद्रित था, जिस पर बाद में व्यापक चर्चा हुई। रांची में दूसरे लोकमंथन में इसे आगे बढ़ाते हुए भारतीय मन की उपनिवेशवादी जकड़न से मुक्ति पर विमर्श शुरू हुआ। उसी सम्मेलन में प्रमुख बुद्धिजीवी श्री रंगाहरि ने कहा था,

‘डिकोलोनाइजेशन अंत नहीं, बल्कि यह वाक्य में सिर्फ एक अर्धविराम की तरह है। वाक्य को समाप्त करने के लिए उसमें कुछ जोड़ने पर ही पूर्ण विराम लगाया जा सकता है। भारतीय मन को औपनिवेशिक प्रभावों से सिर्फ मुक्त करने का मतलब है, उसे खाली छोड़ देना। प्रकृति शून्यता से घृणा करती है। जब तक शून्यता सद्गुणों से नहीं भरी जाती, उस पर नकारात्मकता का आधिपत्य हो सकता है। पश्चिमी विकृतियों से खाली हुए स्थान को भारत के विपुल ज्ञान भंडार से भरा जाना चाहिए।’

इस महत्वपूर्ण विचार ने रांची में लोक परंपरा के संदर्भ में चर्चा को आकार दिया। इसने स्वदेशी दर्शन, विज्ञान व कहानी कहने की परंपराओं को एकीकृत करते हुए भारतीय ज्ञान परंपरा के इर्द-गिर्द बहस को मुख्यधारा में लाने की शुरुआत की। गुवाहाटी में तीसरे संस्करण तक यह राष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़े बौद्धिक-सांस्कृतिक सम्मेलन के रूप में स्थापित हो चुका था।

स्वदेशी कलाओं की गरिमा पुनर्स्थापित करने की दिशा में लोकमंथन की क्या भूमिका है?
लोकमंथन के कारण ‘लोक’ के दायरे से परे स्वदेशी लोक कला व कलाकारों की पहचान में महत्वपूर्ण बदलाव आया। इससे इन परंपराओं को मुख्यधारा में प्रमुख स्थान मिलने लगा। स्वदेशी परंपराओं को सिर्फ ‘लोक’ के रूप में देखने की चर्चा भी उनकी अंतर्निहित गरिमा, गहराई को पहचानने पर केंद्रित हो गई। ‘लोक’ शब्द प्राय: एक अपमानजनक निहितार्थ रखता है, जो पारंपरिक कलाओं को शास्त्रीय या आधुनिक कलाओं से अलग करता है। इस अहसास ने लोक से अलग लोक की अवधारणा को जन्म दिया, जिसमें कृत्रिम वर्गीकरण या क्रमिक पूर्वाग्रहों से मुक्त स्वदेशी परंपराओं की समृद्धि पर जोर दिया गया। वास्तव में लोकमंथन किसी विशेष समुदाय, क्षेत्र या कला से बंधा नहीं है। इसका दायरा स्वदेशी परंपराओं के समग्र सार को समाहित करता है, उनकी वैज्ञानिक दृढ़ता, मौलिकता और प्राकृतिक प्रामाणिकता पर जोर देता है। लोक शब्द कृत्रिम निर्माणों या थोपे गए वर्गीकरणों से मुक्त संपूर्णता, सार्वभौमिकता व पवित्रता का प्रतीक है।

इस बार के लोकमंथन के केंद्रीय विषय लोकावलोकनम् को जरा स्पष्ट करेंगे?
‘लोकावलोकनम्’ यानी समग्र वैश्विक दृष्टिकोण। इसका उद्देश्य स्वदेशी संस्कृति और परंपराओं में निहित समाजों के जीवन का गहराई से विश्लेषण और मूलयांकन करना है। इसलिए चर्चाओं को तीन उपविषयों में विभाजित किया गया था। इस बार विश्वमेकम् भवत्येक नीडम् (द वर्ल्ड बिकम्स वन नेस्ट) की अवधारणा पर जोर दिया गया।

यह आयोजन पिछले संस्करणों से किस प्रकार भिन्न था?
हर लोकमंथन अपने आप में अद्वितीय है, जो किसी कठोर, पूर्व-संरचित प्रारूप का पालन करने के बजाय व्यवस्थित रूप से विकसित होता है। यह भारतीय सांस्कृतिक कर्मियों के बीच संवाद और जुड़ाव की गतिशील प्रकृति को दर्शाता है। इस वर्ष का आयोजन विशेष था। इसमें 32 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 1,520 से अधिक प्रतिनिधियों और 1,568 कलाकारों ने हिस्सा लिया। पहली बार हमने 13 देशों की भागीदारी देखी, जिसमें आर्मेनिया, रोमानिया और यजीदी समुदाय के प्रतिनिधि शामिल थे, जिन्होंने अपनी अनूठी सांस्कृतिक परंपरा से हमारे संवाद को समृद्ध किया। जन प्रतिक्रिया भी अभूतपूर्व थी। सम्मेलन के समापन सत्र की सुबह तक 2.1 लाख से अधिक लोग प्रदर्शनियों में आए, जो दिन बीतने तक हमारे अनुमान से तीन लाख से अधिक हो गई थी। न केवल हैदराबाद, बल्कि पड़ोसी क्षेत्रों तेलंगाना व आंध्र प्रदेश से मिला जनसमर्थन भी उत्सा़हवर्धक था।

भारत से बाहर के देशों की भागीदारी के साथ लोकमंथन ने स्पष्ट रूप से अपना दायरा बढ़ाया है। ऐतिहासिक रूप से इस आयोजन को भारतीय परंपराओं में निहित माना जाता है। इसमें यजीदियों और आर्मेनियाई जैसे अंतरराष्ट्रीय समूहों को शामिल करने का औचित्य क्या था?
लोकमंथन आधुनिक भारत की भौगोलिक या राजनीतिक सीमाओं तक ही सीमित नहीं है। इसका सार व्यापक सांस्कृतिक भारत की खोज में निहित है, वह सांस्कृतिक भारत जो सीमाओं से परे है। जब हम दुनिया भर में पूर्व-अब्राह्मिक, प्रथागत प्रथाओं का अध्ययन करते हैं, तो अक्सर भारतीय परंपराओं के साथ गहरे सांस्कृतिक व आध्यात्मिक संबंध पाते हैं। जैसे-यजीदियों के अनुष्ठान भारत में सूर्य पूजा के समान हैं। उनका पवित्र प्रतीक के रूप में मोर पंख का उपयोग कार्तिकेय या सुब्रमण्यम की प्रतिमा-विज्ञान से मिलता-जुलता है। इसी तरह, आर्मेनियाई अग्नि अनुष्ठान यहां किए जाने वाले गणपति हवन से काफी मिलते-जुलते हैं। यह एक संस्कृति को दूसरी संस्कृति से श्रेष्ठ साबित करने की बात नहीं है, बल्कि वैश्विक परंपराओं के अंतर्संबंध को उजागर करने के बारे में है। लोकमंथन ने विविधता के बीच एकता की भावना को बढ़ावा देते हुए इन साझा सांस्कृतिक जड़ों का उत्सव मनाने के लिए एक मंच प्रदान किया। इसका उद्देश्य संस्कृति को एक सुनहरे धागे के रूप में प्रस्तुत करना है, जो मानवता को एक सूत्र में पिरोता है।

लोकमंथन-2024 में पूरे भारत में प्री-इवेंट की एक शृंखला भी थी। इस आयोजन की मुख्य बातें क्या रहीं और इसके प्रभाव को बनाए रखने की योजना आप कैसे बनाते हैं?
लोकमंथन 2024 की पहली सीख सांस्कृतिक एकता की पुष्टि है। जैसा कि राष्ट्रपति जी ने अपने संबोधन में जोर दिया कि भारत में विविध समुदाय शामिल हैं, चाहे वे वनवासी हों, ग्रामीण हों या शहरी हों, हम सभी भारतीय के रूप में एकजुट हैं। इस गति को बनाए रखने के लिए कार्यक्रम के आयोजन की योजना बना रहे हैं। इस सांस्कृतिक संदेश को गांवों, वनवासी क्षेत्रों और जमीनी स्तर तक गहराई तक ले जाने पर ध्यान केंद्रित करेंगे। कार्यक्रम के दौरान रा.स्व.संघ के सरसंघचालक मोहनराव भागवत के सुझाव से प्रेरित होकर हमारा लक्ष्य वन क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों में छोटी लोकमंथन-शैली की सभाएं आयोजित करना है, जिससे समुदायों के साथ सीधे जुड़ाव को प्रोत्साहित किया जा सके। एक और महत्वपूर्ण उपाय विभाजित, पश्चिमी शिक्षा प्रणाली का मुकाबला करने की आवश्यकता है, जिसने कई लोगों को उनकी सांस्कृतिक जड़ों से अलग कर दिया है।

इस वर्ष के लोकमंथन का विषय ‘लोक विचार, लोक व्यवस्था और लोक व्यवहार’ के इर्द-गिर्द रहा। इसके महत्व के बारे में विस्तार से बताएं।
यह विषय उस सार को दर्शाता है, जो लोकमंथन हासिल करना चाहता है। लोक का तात्पर्य लोगों की सामूहिक चेतना से है। लोक विचार की खोज करके हम अपनी सभ्यता के दार्शनिक और आध्यात्मिक आयामों में उतरते हैं। लोक प्रणाली हमारे स्वदेशी शासन मॉडल, सामाजिक प्रथाओं और आत्मनिर्भर समुदायों का परीक्षण करती है। इसी तरह, लोक व्यवहार त्योहारों से लेकर लोक परंपराओं तक हमारी दिन-प्रतिदिन की सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को दर्शाता है। इस ढांचे के माध्यम से हमारा लक्ष्य लोगों को भारतीय विश्व दृष्टि से फिर से जोड़ना है- जीवन जीने का एक समग्र तरीका, जो भौतिक-आध्यात्मिक, व्यक्तिगत और सामूहिक में सामंजस्य स्थापित करता है। यह संवाद औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक प्रभावों द्वारा थोपे गए द्वैतवाद के सामने विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, जिसने हमारे समाज को खंडित कर दिया है।

लोकमंथन सांस्कृतिक मार्क्सवाद या बाजार-संचालित वैश्विकता जैसी विचारधाराओं की चुनौतियों का समाधान कैसे करता है, जो भारत की सामाजिक वास्तविकताओं को विकृत करती हैं?
यह महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। सांस्कृतिक मार्क्सवाद और अनियंत्रित वैश्विकता, दोनों ही विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को एकरूप बनाने का प्रयास करते हैं और अक्सर स्वदेशी पहचान को मिटा देते हैं। जैसे-मार्क्सवादी विचारधाराओं ने ‘जन आंदोलनों’ के विचार को अपनाया है। शहरी बनाम ग्रामीण, आदिवासी बनाम गैर-आदिवासी आदि, जो हमारे समाज को खंडित करते हैं, का निर्माण किया है। लोकमंथन भारत का एक समावेशी, जैविक दृष्टिकोण प्रस्तुत करके इन आख्यानों को चुनौती देना चाहता है। यह इस बात पर जोर देता है कि जनजातीय समुदाय, ग्रामीण परंपराएं और शहरी प्रथाएं अलग नहीं हैं, बल्कि एक सभ्यतागत लोकाचार की अभिन्न अंग हैं। अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक समूहों का समावेश इस विचार को भी पुष्ट करता है कि भारत के सांस्कृतिक विश्व दृष्टिकोण की वैश्विक प्रासंगिकता है।

लोकमंथन की शुरुआत उपनिवेशवाद से मुक्ति के विषय से हुई। आप इस विषय को भविष्य के संस्करणों में कैसे विकसित होते हुए देखते हैं?
डिकोलोनाइजेशन लोकमंथन के केंद्रीय दृष्टिकोण में बना हुआ है। हालांकि, यह समझना महत्वपूर्ण है कि उपनिवेशवाद से मुक्ति सिर्फ बाहरी प्रभावों को अस्वीकार करने के बारे में नहीं है, बल्कि यह हमारी अंतर्निहित शक्तियों को पुन: खोजने व हमारे सांस्कृतिक आत्मविश्वास को फिर से स्थापित करने के बारे में है। भविष्य के संस्करण पारंपरिक प्रथाओं को समसामयिक चुनौतियों के साथ एकीकृत करने पर गहराई से प्रकाश डालेंगे। जैसे- हमारी स्वदेशी कृषि तकनीकें, पर्यावरण संरक्षण प्रथाएं व समग्र स्वास्थ्य प्रणालियां वैश्विक संकटों का समाधान प्रस्तुत कर सकती हैं। विचार यह है कि भारत को केवल एक सांस्कृतिक भंडार के रूप में नहीं, बल्कि दुनिया के लिए एक विचारशील नेता के रूप में प्रस्तुत किया जाए।

लोकमंथन द्वारा शुरू सांस्कृतिक पुनरुत्थान को बनाए रखने में प्रज्ञा प्रवाह जैसे संगठन क्या भूमिका निभाते हैं?
लोकमंथन की संकल्पना, आयोजन में प्रज्ञा प्रवाह की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आयोजन के अलावा यह सांस्कृतिक अनुसंधान, कार्यशालाओं और जमीनी स्तर की पहल को सुविधाजनक बनाने के लिए साल भर काम करता है। हमारा मुख्य जोर शिक्षा क्षेत्र में सुधार है। जैसा कि लोकमंथन के दौरान प्रकाश डाला गया कि हमें पाठ्यपुस्तकों में केवल सामग्री परिवर्तन ही नहीं, इससे आगे बढ़ने और धारणाओं को बदलने की दिशा में काम करने की जरूरत है।

आप भारत के भविष्य को आकार देने वाले कैसे लोकमंथन की कल्पना करते हैं?
लोकमंथन केवल एक आयोजन नहीं है। यह एक आंदोलन है। इसका अंतिम उद्देश्य भारत में सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्रज्ज्वलित करना है, एक ऐसा पुनरुद्धार जो आधुनिक चुनौतियों का समाधान करते हुए हमारे सभ्यतागत लोकाचार को अपनाता है। संवाद को बढ़ावा देकर, विभाजन को पाटकर व हमारी साझा विरासत का उत्सव मनाकर लोकमंथन एक अधिक एकजुट और आत्मविश्वासी भारत की नींव रखता है। बदले में यह सांस्कृतिक आत्मविश्वास हमें वैश्विक समुदाय में सार्थक योगदान देने और हमारे पूर्वजों के कालातीत ज्ञान में निहित समाधान पेश करने के लिए सशक्त बनाएगा। इसलिए लोकमंथन 2024 एक उत्सव से कहीं अधिक था। यह भारत की स्थायी भावना और समकालीन दुनिया में इसकी प्रासंगिकता की पुष्टि थी। जैसे-जैसे इसका विकास हो रहा है, यह पहल पीढ़ियों को अपनी जड़ों से फिर से जुड़ने और एक उज्ज्वल, एकजुट भविष्य की कल्पना करने के लिए प्रेरित करने का वादा करता है।

 

 

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