राष्ट्र निर्माण की कसौटी पर संघ

आर एल फ्रांसिस अध्यक्ष, पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (PCLM) भारत के सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सबसे बड़े कर्म आंदोलन के रूप में देखा जाता है। देश के सुदूर क्षेत्रों तक स्वयंसेवकों ने अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया है। यह भारत का पहला आंदोलन है, जिसे समाज ने समय-समय पर राष्ट्र निर्माण की […] The post राष्ट्र निर्माण की कसौटी पर संघ appeared first on VSK Bharat.

Oct 7, 2025 - 17:43
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आर एल फ्रांसिस

अध्यक्ष, पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट (PCLM)

भारत के सार्वजनिक जीवन में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को सबसे बड़े कर्म आंदोलन के रूप में देखा जाता है। देश के सुदूर क्षेत्रों तक स्वयंसेवकों ने अपनी उपस्थिति का अहसास करवाया है। यह भारत का पहला आंदोलन है, जिसे समाज ने समय-समय पर राष्ट्र निर्माण की कसौटी पर कसते हुए इसका बार-बार मूल्यांकन किया है।

संघ ‘शताब्दी वर्ष’ मनाने जा रहा है। इस महत्वपूर्ण एवं प्रासंगिक पड़ाव के पहले, संघ ने व्यक्ति, समाज एवं संगठन में व्यापक परिवर्तन लाने के उद्देश्य से “पंच परिवर्तन” की महत्वपूर्ण योजना प्रस्तुत की है। इन पंच प्रत्ययों का उद्देश्य संघ के आंतरिक सांगठनिक चरित्र और कार्यशैली को मजबूत करना है, साथ ही भारतीय ज्ञान परंपरा, सनातन धर्म और राष्ट्रीय सुरक्षा को अधिक मजबूत बनाना है। इसका उद्देश्य समाज में सामाजिक समरसता और अधिक सहभागितापूर्ण और राष्ट्र केंद्रित वातावरण बनाना है। यह पहल समसामयिक परिप्रेक्ष्य में अत्यधिक उपयोगी, प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण है।

कुछ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी ने मुसलमानों को लेकर खुलकर कुछ बातें कहीं थीं कि – दुनिया में सबसे ज्यादा संतुष्ट भारत के मुसलमान हैं, वास्तव में यह भारत की उस सच्चाई का ही दर्पण है जो इसकी हजारों साल पुरानी संस्कृति का मूलाधार है। यह मूलाधार वसुधैव कुटुम्बकम से अभिप्रेरित है। यह निरर्थक नहीं है कि भारत के संविधान में इसी प्राचीन सभ्यता के प्रतीकों को अंकित किया गया है और दुनिया के सामने स्पष्ट किया गया कि भारत की मिट्टी में सह अस्तित्व का भाव बौद्ध धर्म के उदय से पहले से ही रमा हुआ है।

हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर दिल्ली में तीन दिवसीय व्याख्यानमाला में, संघ प्रमुख मोहन भागवत जी ने अपने सहज और सरल अंदाज में संगठन के 21वीं सदी के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का ईमानदार प्रयास किया। संघ को घेरने वाले सवाल – धर्म, संस्कृति और पूजा पद्धति को लेकर सरसंघचालक ने कहा कि हिन्दू कहो या हिंदवी एक ही बात है। हिन्दू-मुस्लिम सब एक ही हैं। सिर्फ पूजा पद्धति बदली है और कुछ नहीं। हमारी आइडेंटिटी एक ही है। हमारी संस्कृति, पूर्वज एक ही हैं। सिर्फ अविश्वास के चलते मन में शंका होती है। दोनों धर्मों में कॉन्फिडेंस जगाना होगा।

संघ के अनुसार, हिन्दुत्व एक मत/पंथ नहीं, बल्कि एक सभ्यता, संस्कृति और मातृभूमि के प्रति समर्पण की भावना है। डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू को उस व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया था, जो भारत को अपनी मातृभूमि और संस्कृति के रूप में स्वीकार करता है। संघ विविधताओं का सम्मान करते हुए उनमें एकता के सूत्र ढूंढने के लिए समर्पित और संकल्पित है। इस सबसे बड़े सामाजिक संगठन ने हिन्दुत्व को एक समावेशी सांस्कृतिक राष्ट्रीय विचार के रूप में देखा है, जिसमें सारे भेदभाव से ऊपर उठकर भारत की सांस्कृतिक एकता और अखंडता को महत्व दिया गया है। संघ प्रमुख मोहन भागवत का भारत के प्रति दृष्टिकोण 21वीं सदी में आरएसएस के विस्तार को दर्शाता है। सभी धर्मों, संप्रदायों और समुदायों को अपना परिवार मानने वाला संघ का यह दृष्टिकोण उसे अद्वितीय और अखंड भारत का समर्थक बनाता है।

संघ प्रमुख मोहन भागवत के इन विचारों को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष समूह इसे संघ का हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा बताते हैं। दरअसल संघ जब यह कहता है कि – हिन्दुस्तान में जो भी पैदा हुआ, वह हिन्दू है। भारत के मुसलमान-ईसाई भी हिन्दुत्व के दायरे से बाहर नहीं हैं। तब यह तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ग्रुप इसे हिन्दू राष्ट्र का एजेंडा बता अल्पसंख्यकों को भ्रमित करते है। संघ प्रमुख का यह कहना कि धर्म जोड़ने वाला, उत्थान करने वाला और सभी को एक सूत्र में पिरोने वाला होना चाहिए, जब भी भारत और इसकी संस्कृति के लिए समर्पण जाग्रत होता है और पूर्वजों के प्रति गौरव की भावना पैदा होती है तो सभी धर्मों के बीच भेद समाप्त हो जाता है और सभी धर्मों के लोग एक साथ खड़े होते हैं।

वर्ष 2000 में के.एस. सुदर्शन ने जब सरसंघचालक का कार्यभार संभाला, उस समय भारत के अल्पसंख्यक समुदायों में संघ के प्रति कई बुरी धारणाएं व्याप्त थीं, विशेषकर इसाइयों एवं मुसलमानों में संघ को लेकर तनाव का माहौल पसरा हुआ था। देश के कई हिस्सों में ईसाई मिशनरियों और हिन्दू संगठनों के बीच तनाव व्याप्त था। ऐसे समय में उन्होंने इन वर्गों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द का वातावरण बनाने के लिए अपने प्रयास शुरु किये, जिसके कारण अल्पसंख्यकों के बीच में संघ के प्रति फैला अंधेरा अपने आप दूर होने लगा।

उसी वर्ष जब मुझे उनसे मिलने का अवसर मिला तो मैंने पाया कि वह कितने सरल और सहज हैं, किन्तु स्पष्ट शब्दों में अपनी बात रखते हैं। सामाजिक न्याय, राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत और सांप्रदायिक सौहार्द के पक्षधर सरसंघचालक ने अपने विचारों को नहीं छिपाया। अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण के हमेशा विरुद्ध रहे, लेकिन भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों के भारतीयकरण के पक्षधर। वर्ष 2000 में उन्होंने भारतीय इसाइयों से विदेशी चर्च पर आत्म-निर्भरता छोड़कर स्वदेशी चर्च की तरफ बढ़ने का आग्रह किया था। उनका मानना था कि भारतीय राष्ट्रीय चर्च अथवा स्वदेशी चर्च पूरी तरह से भारत और भारतीय हितों के प्रति समर्पित होगा और वह देश भक्त ईसाइयों का संगठन होगा। उनके प्रयासों के चलते पहली बार कैथोलिक एवं प्रोटेस्टेंट चर्चो के प्रतिनिधियों ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सीधी वार्ता की शुरुआत की।

सामाजिक सद्भाव का आधार संघ की समावेशी राष्ट्र और समाज की अवधारणा में निहित है। इस अवधारणा के अनुसार, समानता पर आधारित एक ऐसा समाज बनाना चाहिए जो किसी भी प्रकार के नस्लीय और जातीय भेदभाव से मुक्त हो। जब तक संघ की चिंताओं को देश की चिंता के रूप में नहीं देखा जाता, तब तक धर्म परिवर्तन, अवैध घुसपैठ, जाति-व्यवस्था और ‘लव जिहाद’ जैसी गंभीर चुनौतियों का समाधान नहीं हो सकता। अगर समाज और सरकार इन मुद्दों के प्रति उदासीन रहे, तो ये भविष्य में देश के लिए बड़ी चुनौती बन जाएँगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) का उद्देश्य सिर्फ़ संगठन तक सीमित नहीं है। यह समाज में नैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों को मजबूत करने, हर व्यक्ति में अनुशासन और समर्पण की भावना पैदा करने और राष्ट्र निर्माण में योगदान देने के लिए काम कर रहा है।

संघ के सामने विचारधारा और लक्ष्य की दृष्टि से मूल चुनौतियां भी बढ़ी हैं। जब 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इसकी स्थापना की, तब हिन्दू समाज में मुस्लिम संगठनों की भूमिका को लेकर व्यापक चिंताएं थीं। आज भी, एक बड़ा वर्ग आरएसएस की विचारधारा का विरोध करते हुए देश और विदेश में राजनीतिक गतिविधियों में लगा हुआ है। संघ जब आज अपना शताब्दी वर्ष मना रहा है तो उसके सामने अपनी विरासत को संजोने के साथ – साथ बदलते वैश्विक माहौल के अनुकूल ढलने की चुनौती भी है। इसके अलावा, उसे देश और समाज के सामने मौजूदा चुनौतियों से निपटने में सक्रिय भूमिका भी निभानी होगी।

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